रविवार, 30 नवंबर 2025
आयुक्त महोदय, कमरे से निकलिए किसी एक परियोजना कों अवश्य चेक करें, बैठक में लोग झूठ बोलते है करिये.
बस्ती 29 नवम्बर 2025, उत्तरप्रदेश
50 लाख से अधिक लागत की निर्माणाधीन परियोजनाओं (सड़कों को छोड़कर) की समीक्षा मंडलायुक्त अखिलेश सिंह की अध्यक्षता में आयुक्त सभागार में संपन्न हुई। मण्डलायुक्त ने सभी निर्माणाधीन परियोजनाओं की बिन्दुवार प्रगति की जानकारी ली। मण्डलायुक्त ने कार्यदायी संस्थाओं को निर्देशित किया कि अगली बैठक में बैठक से पूर्व लिखित प्रगति रिपोर्ट प्राप्त कराया जाना सुनिश्चित करें।
उन्होने कहा कि निर्माण कार्यो में शिथिलता कदापि क्षम्य नही है, ऐसा होने पर कार्यदायी संस्था के विरूद्ध नियमानुसार कार्यवाही की जायेंगी। समीक्षा में उन्होने पाया कि मण्डल में जनपद बस्ती की 144, सिद्धार्थनगर की 128 तथा संतकबीर नगर की 87 निर्माण के परियोजनाओं के सापेक्ष मण्डल की प्रगति 86.96 प्रतिशत है। उन्होने कहा कि अवशेष लक्ष्य निर्धारित अविधि में पूरा करने में किसी भी प्रकार की हिलाहवाली बर्दाश्त नही की जायेंगी। उन्होने यह भी कहा कि जो परियोजनाए पूर्ण हो गये हैं, उसे यथाशीघ्र शासन के गाइडलाइन के अनुसार हैण्डओवर किया जाए।मंडलायुक्त ने निर्देश दिया कि निर्माणाधीन परियोजनाओं में बजट न प्राप्त होने की दशा में उच्च स्तर पर पत्राचार अवश्य किया जाय। मण्डल स्तरीय अधिकारी स्वतः भी विभागीय सीएमएस पोर्टल पर अद्यतन प्रगति निरन्तर अवलोकित करें, जिससे जिले की रैकिंग प्रभावित न हो।
बैठक का संचालन उपनिदेशक अर्थ एवं संख्या पूनम ने किया। बैठक में मुख्य विकास अधिकारी, बस्ती सार्थक अग्रवाल, सिद्धार्थनगर के बलराम सिंह, संतकबीर नगर के जयकेश त्रिपाठी, संयुक्त विकास आयुक्त कमलाकान्त पाण्डेय सहित संबंधित अधिकारी व कार्यदायी संस्था के अधिकारीगण उपस्थित रहें।
राजीव दीक्षित भारत स्वाभिमान आंदोलन क़े प्रवर्तक और प्राण वायु भी, ओमप्रकाश आर्य
बस्ती, उत्तरप्रदेश
भाई राजीव दीक्षित भारत के स्वदेशी आंदोलन के प्राण थे-ओम प्रकाश आर्य
भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के सूत्रधार आजादी के बाद स्वदेशी आंदोलन के प्रणेता भाई राजीव दीक्षित की पुण्यतिथि पर भारत स्वाभिमान ट्रस्ट यूनिट बस्ती, आर्य समाज और वीर दल के पदाधिकारी और कार्यकर्ताओं ने आर्य समाज नई बाजार बस्ती में वैदिक यज्ञ कर उन्हें याद किया। इस अवसर पर ओम प्रकाश आर्य जिला प्रभारी भारत स्वाभिमान ट्रस्ट यूनिट बस्ती ने बताया कि भाई राजीव दीक्षित भारत के स्वदेशी आंदोलन के प्राण थे उन्होंने लोगों को स्वदेशी के गौरव को बताते हुए भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की स्थापना की जिसके माध्यम से आज पूरी दुनिया में स्वदेशी का शंखनाद हो रहा है।
मिलावटी शिक्षा : राष्ट्रघात का सबसे सुंदर नाम
मिलावटी शिक्षा : राष्ट्रघात का सबसे सुंदर नाम
भारत राजनीतिक रूप से सात दशक पहले आज़ाद हुआ,लेकिन उसकी शिक्षा आज भी औपनिवेशिक कैद में पड़ी है।यह विडंबना है कि 21वीं सदी का भारत अब भी 1835 के मैकाले की चिट्ठी का बोझ ढो रहा है
वह चिट्ठी जिसमें उसने लिखा था कि “भारत में ऐसा वर्ग तैयार करो जो रंग-रूप से भारतीय हो,
लेकिन सोच, स्वाद और नैतिकता में अंग्रेज।”आज हम गर्व से कह सकते हैं—मैकाले का सपना पूरा हो चुका है।और इसे हमने ही पूरा किया है, मिलावट के नाम पर।
इतिहास की मिलावट : जड़ों को काटने का शास्त्रीय तरीका,हमारे बच्चे पढ़ते हैं कि भारत “हज़ार साल गुलाम” रहा।वे यह नहीं पढ़ते कि उसी काल में विजयनगर दुनिया का सबसे समृद्ध नगर था,चोल नौसेना हिंद महासागर पर न्यायकर्ता थी,अहोम साम्राज्य ने 600 वर्ष तक मुगलों को हराया,और भारत विश्व अर्थव्यवस्था में शीर्ष पर था।नालंदा को जलाने वाले का नाम पुस्तक में है,पर नालंदा को बनाने, चलाने, बचाने वाले इतिहास से गायब हैं।जब इतिहास का संतुलन तोड़ा जाता है,तो राष्ट्र का आत्मसम्मान भी साथ टूटता है।
भाषा की मिलावट : आत्महीनता की सबसे गहरी प्रयोगशाला,अंग्रेज़ी को प्रतिष्ठा और हिंदी को पिछड़ेपन का प्रतीक बनाना केवल भाषा का प्रश्न नहीं,एक सुनियोजित मानसिक ढांचा तैयार करने की प्रक्रिया है।संस्कृत को “मृत” घोषित कर देना और मातृभाषाओं को “लोकल” कहकर हाशिए पर डाल देना यह वही नीतिगत गलती है जिसका परिणामcआज की कमज़ोर, बाहरी प्रभावों से डांवाडोल पीढ़ी में दिखता है।जिस कौम को अपनी ही भाषा में सोचने पर शर्म आए,वह किसी भी वैश्विक दौड़ में टिक नहीं सकती।संस्कार की मिलावट : अपनी परंपरा को संदिग्ध बनाना,रामायण-महाभारत, गीता, उपनिषद—इन सबको “धार्मिक ग्रंथ” कहकर पाठ्यक्रम से दूर रखा जाता है।लेकिन पश्चिमी और अब्राहमिक साहित्यविश्व संस्कृति” के नाम पर स्कूलों में स्थान पा जाता है।चाणक्य, विदुर, भर्तृहरि, तिरुवल्लुवर—इन नीति-दर्शनकारों को आज के युवा केवल नाम से भी नहीं जानते।पर यह सिर्फ़ विस्मरण नहीं—यह एक नीतिगत विलोपन है।
संस्कार का अभाव किसी समाज को
चतुर तो बना सकता है, समझदार नहीं।
उद्देश्य की मिलावट : नागरिक नहीं, उपभोक्ता तैयार करना,
शिक्षा का लक्ष्य अब चरित्रवान नागरिक निर्माण नहीं,बल्कि कॉर्पोरेट-रेडी संसाधन तैयार करना बन गया है।6 वर्ष का बच्चा कोडिंग सीख रहा है,लेकिन अपनी नदी, अपना गाँव, अपनी विरासत नहीं जानता।
“ग्लोबल सिटिजन” बनने की दौड़ में
वह “स्थानीय इंसान” भी नहीं बन पा रहा।
मिलावटी शिक्षा के दुष्परिणाम : आज का संकट, कल का खतरा,
हम ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं जो अमेरिका जाकर “भारत पिछड़ा है” बताती है,जो UPSC में चयनित होकर भी राष्ट्र-विरोधी विचारों की गिरफ्त में आ जाती है,जो अपनी ही भाषा को “लो क्लास” कहकर नकार देती है।यह स्थिति किसी दुर्घटना की उपज नहीं—यह नीति-स्तर पर decades तक चली मानसिक इंजीनियरिंग का परिणाम है।
आधी-अधूरी सर्जरी से काम नहीं चलेगा,औपनिवेशिक ढांचा पूरी तरह हटे,मैकाले-प्रेरित पाठ्यक्रम का चरणबद्ध,लेकिन निश्चित रूप से पूर्ण विस्थापन होना ही चाहिए। प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में अनिवार्य हो भारतीय ज्ञान-परंपरा शिक्षा की धुरी बनेरामायण, महाभारत, गीता, उपनिषद, पंचतंत्र, चाणक्य नीति—इनका स्थान “धर्म” में नहीं,बल्कि “नीति, दर्शन, चरित्र और विवेक” में है।
इतिहास का निष्पक्ष पुनर्लेखन,जहाँ विजयनगर, चोल, गुप्त, मौर्य, अहोम, मराठा—सभी समान रूप से उपस्थित हों। विद्यालयों में योग–ध्यान को दैनिक अभ्यास बनाया जाए, परीक्षा प्रणाली में चरित्र, विवेक, व्यवहार-कौशल को प्राथमिकता मिले,
भारतीय शिक्षा का भारतीयकरण अब विलंब नहीं सह सकता,
आज देश विश्वगुरु बनने का स्वप्न देख रहा है—लेकिन जिस शिक्षा-व्यवस्था से उसके नागरिक निकल रहे हैं,
वह उन्हें ग्लोबल इम्पोर्टेड विचारों का उपभोक्ता बना रही है,न कि भारतीय चिंतन का वाहक।मिलावट से राष्ट्र नहीं बनते।मिलावट से केवल बाज़ार बनता है।समय है कि शिक्षा को शुद्ध भारतीय बनाया जाए—अन्यथा यही मिलावटी शिक्षाराष्ट्र के भविष्य का अंतिम संस्कार कर देगी।
जय हिंद।जय भारत माता।जय भारतमाता
"मिलावट और बेईमानी का संग्राम: सरकार, सिस्टम और समाज की लड़ाई
मिलावट कहां नहीं,सब्जी में,फलों में,दवाईयों में,दालों में,और तो और संबंधक्यों वर्किंग अवर में
महा मिलावट!
टीम कौटिल्य क़े साथ राजेंद्र नाथ तिवारी
मिलावट और बेईमानी भारत के हर क्षेत्र में एक व्यापक और गंभीर समस्या बन चुकी है, जिसका प्रभाव रोजमर्रा के खान-पान, दवा, औषधि निर्माण, सड़क निर्माण और अन्य निर्माण कार्यों से लेकर कार्यदायी संस्थाओं की जवाबदेही तक फैला हुआ है। इस समस्या की जड़ भ्रष्टाचार, कमजोर और अधूरी कानून व्यवस्था, तथा निरीक्षण और निगरानी में भारी कमी है। मिलावटखोर व्यापारिक लालच में उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य और आर्थिक हितों को ताक पर रख देते हैं, जिससे जनता के बीच जांच और प्रशासन से निराशा बढ़ती है।खाद्य पदार्थों में मिलावट के मामले में दूध, घी, मसाले, मिठाइयाँ, और तेल जैसे बुनियादी सामानों में घटिया या हानिकारक तत्व मिलाये जाते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए कैंसर, लीवर, किडनी रोग जैसे खतरनाक प्रभाव छोड़ते हैं। कई बार रंग, केमिकल, डिटर्जेंट जैसे खतरनाक पदार्थ इस मिलावट में शामिल हो जाते हैं। इसी तरह निर्माण सामग्री और सड़क निर्माण में घटिया कच्चा माल, भ्रष्टाचार और निरीक्षण प्रक्रिया में जारी है, जिससे संरचनात्मक जोखिम उत्पन्न होते हैं।
मिलावट और बेईमानी का परस्पर संबंध न केवल आर्थिक लालच से जुड़ा है, बल्कि प्रशासनिक लाचारियों, भ्रष्टाचार, और जनता में जागरूकता की कमी भी इसे बढ़ावा देती है। कार्यदायी संस्थाएं अक्सर दबाव में आती हैं या निजी स्वार्थों की पूर्ति करती हैं, जिससे ये निरंकुश हो जाती हैं। रिपोर्टिंग तथा मीडिया के माध्यम से इस समस्या को उजागर करना जन जागरूकता बढ़ाने तथा दोषियों पर कार्रवाई के लिए दबाव बनाने में सहायक है।समाधान के लिए सख्त कानूनों का पालन, त्वरित और प्रभावी जांच, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन व्यवस्था, कार्यदायी संस्थाओं की जवाबदेही और तकनीकी संसाधनों का बेहतर उपयोग अनिवार्य है। साथ ही नागरिकों को भी अपनी भूमिका समझते हुए शिकायत दर्ज कराना और जागरूकता फैलाना होगा। सरकारों को खाद्य तथा निर्माण सामग्री की सुरक्षा को “गंभीर अपराध” की श्रेणी में रखते हुए त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित करनी होगी।इस समस्या से निपटना केवल कानूनी या प्रशासनिक कदमों का विषय नहीं है, बल्कि यह एक नैतिक और सामूहिक दायित्व भी है, जिसके लिए समाज के सभी वर्गों को मिलकर काम करना होगा। तभी मिलावट और बेईमानी से होने वाली हानियों को रोका जा सकता है और एक स्वस्थ, सुरक्षित समाज का निर्माण संभव होगा.
मिलावटी सामग्री से बन रही सड़कें- अस्पताल- पुल: देश खुद को खुद ही खोखला कर रहा है
संपादकीय:
मिलावटी सामग्री से बन रही सड़कें- अस्पताल- पुल: देश खुद को खुद ही खोखला कर रहा है.
भारत आज दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। हम 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का सपना देख रहे हैं, लेकिन जिस नींव पर यह इमारत खड़ी होनी है, वह नींव ही मिलावटी सीमेंट, घटिया सरिया, नकली पेंट और मिलावटी बिटुमिन से बन रही है। सड़कें बनते ही धंस जा रही हैं, पुल बनते ही ढह रहे हैं, अस्पतालों की दीवारें प्लास्टर उखड़ने से पहले ही दरारें खा रही हैं। यह सिर्फ़ इंजीनियरिंग की विफलता नहीं, यह देश की नैतिकता और प्रशासन की विफलता है।
हर मानसून में हम देखते हैं कि नई-नई सड़कें गड्ढों में बदल जाती हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान – कोई राज्य इससे अछूता नहीं। NHAI की रिपोर्ट बताती है कि पिछले 5 साल में 40% से ज़्यादा हाईवे प्रोजेक्ट्स में इस्तेमाल हुई सामग्री सब-स्टैंडर्ड पाई गई। मोरबी पुल हादसा (2022) इसका सबसे दर्दनाक उदाहरण है – 135 लोग मारे गए क्योंकि रखरखाव के नाम पर घटिया तार और नकली पेंट का इस्तेमाल हुआ। हाल ही में दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेस-वे के कुछ हिस्सों में भी सीमेंट में ज़्यादा राख मिलाकर ताकत घटाने के मामले सामने आए हैं।
लेकिन सबसे खतरनाक खेल तो सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों के निर्माण में हो रहा है। AIIMS जैसे संस्थानों के नए ब्लॉक में भी घटिया सरिया और कम ग्रेड का कंक्रीट पकड़ा गया। जिस देश में हर साल भूकंप, बाढ़ और चक्रवात आते हों, वहाँ भवन निर्माण में मिलावट जानबूज़कर लोगों की जान से खिलवाड़ है। एक आंकड़ा चौंकाने वाला है – CAG की 2023-24 की रिपोर्ट में कहा गया कि 63% सरकारी निर्माण परियोजनाओं में इस्तेमाल सामग्री IS मानकों पर खरी नहीं उतरी।
यह सब हो कैसे रहा है?ठेका-प्रथा की लूट: सबसे कम बोली लगाने वाला ठेकेदार चुन लिया जाता है। वह लागत बचाने के लिए मिलावटी सामग्री लाता है।भ्रष्ट इंजीनियर और अधिकारी: तीसरे पक्ष की गुणवत्ता जाँच (Third Party Quality Audit) को कागज़ पर पूरा दिखाकर मोटी रिश्वत लेते हैं।मिलावट का कारोबार: उत्तर प्रदेश-राजस्थान बॉर्डर पर चलने वाली ‘रेत माफिया’, गुजरात में नकली सीमेंट की फैक्ट्रियाँ, हरियाणा-पंजाब में घटिया सरिये की मिलें – यह अरबों का अंडरवर्ल्ड है।सज़ा का अभाव: पिछले 10 साल में मिलावटी सामग्री सप्लाई करने के कितने मामलों में सज़ा हुई? शून्य के करीब।अब समय है ठोस कदम उठाने का:हर प्रोजेक्ट में अनिवार्य रूप से ब्लॉकचेन आधारित मटेरियल ट्रेसेबिलिटी सिस्टम लगाया जाए – सीमेंट की बोरी से लेकर सरिये तक QR कोड के ज़रिए पूरी सप्लाई चेन ट्रैक हो।थर्ड पार्टी क्वालिटी टेस्टिंग को पूरी तरह स्वतंत्र एजेंसियों (जैसे IIT या विदेशी लैब) से कराया जाए, सरकारी इंजीनियरों की मिलावट सर्टिफाइड करने की बजाय सिर्फ़ निगरानी करें।
मिलावटी सामग्री सप्लाई करने वालों के खिलाफ NSA और गैंगस्टर एक्ट लगे। कंपनी को जीवन भर सरकारी टेंडर से बैन किया जाए।सड़कें-पुल-अस्पताल जैसे प्रोजेक्ट्स में ‘ज़ीरो टॉलरेंस ऑन क्वालिटी’ नीति बने। एक भी सैंपल फेल हुआ तो पूरा ठेका रद्द, ठेकेदार जेल।जनता को भी जागरूक करना होगा। हर नागरिक को अधिकार होना चाहिए कि वह अपने इलाके की सड़क या सरकारी भवन की सामग्री की जाँच RTI से माँग सके।हम अंतरिक्ष में चंद्रयान भेज रहे हैं, लेकिन ज़मीन पर सड़कें नहीं बना पा रहे। यह विडंबना नहीं, शर्मनाक है। अगर हमने अभी नहीं चेता तो जिस ‘विकसित भारत’ का सपना हम देख रहे हैं, वह मिलावटी नींव पर खड़ा एक खोखला महल साबित होगा जो पहली ही आँधी में ढह जाएगा।
मिलावट करने वाले सिर्फ़ सामग्री नहीं, देश के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। अब समय है कि देश जवाब माँगे – और सख्त जवाब।
सम्पादक
वंदे मातरम गाने से अस्वीकार करना राष्ट्र के साथ विश्वासघात!
त्रिविंशति श्रृंखला
वन्देमारतम श्रृंखला (23.)
वंदे मातरम: राष्ट्रवाद का प्रतीक, सुप्रीम कोर्ट का फैसला और मौलाना मदनी की आलोचना – एक राष्ट्रवादी व्याख्या
राष्ट्रवाद की जड़ें और वंदे मातरम का उदय
भारतीय राष्ट्रवाद की नींव में वंदे मातरम एक ऐसा प्रतीक है जो न केवल स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला को भड़काता था, बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता के मिथक को भी चुनौती देता रहा है। 1882 में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यह गीत, 'आनंदमठ' उपन्यास का हिस्सा, मातृभूमि को देवी के रूप में चित्रित करता है – एक ऐसा चित्रण जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोह की प्रेरणा देता था। लेकिन यही गीत, जो 1937 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय गीत घोषित किया गया, आज भी विभाजनकारी बहस का केंद्र है। क्यों? क्योंकि यह न केवल राष्ट्रवाद की भावना को जगाता है, बल्कि उन तत्वों को भी उजागर करता है जो भारत की सांस्कृतिक एकता को कमजोर करने का प्रयास करते हैं।
राष्ट्रवाद, भारतीय संदर्भ में, केवल सीमाओं की रक्षा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आत्मसम्मान और सामूहिक पहचान का उत्सव है। वंदे मातरम इसी का प्रतीक है – 'वंदे मातरम' का उद्घोष स्वतंत्रता सेनानियों के लिए युद्धघोष था, जो गांधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस तक सभी को प्रेरित करता था। लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों, विशेष रूप से जमीअत उलेमा-ए-हिंद के नेतृत्व में मौलाना महमूद मदनी जैसे नेताओं ने इसे 'शिर्क' (बहुदेववाद) का आरोप लगाकर खारिज किया है। यह विरोध राष्ट्रवाद के विरुद्ध एक आक्रामक साजिश है, जो भारत को धार्मिक आधार पर बांटने का प्रयास करता है। सुप्रीम कोर्ट का 2009 का फैसला, जो अनिवार्यता को अस्वीकार करता है, इस विरोध को वैधता देने का माध्यम बन गया है। इस निबंध में, हम एक आक्रामक राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से इन तीनों तत्वों – वंदे मातरम, सुप्रीम कोर्ट और मौलाना मदनी – का विश्लेषण करेंगे, ताकि स्पष्ट हो कि सच्चा राष्ट्रवाद धार्मिक बहाने से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता की मांग करता है। यह विधा भारत के हिंदुत्वपूर्ण राष्ट्रवाद को मजबूती देगी।
वंदे मातरम: राष्ट्रवाद का सांस्कृतिक प्रवर्तक
वंदे मातरम का जन्म स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुआ, जब भारत ब्रिटिश जंजीरों में जकड़ा था। बंकिम चंद्र ने इसे बंगाल के सन्यासी विद्रोह पर आधारित 'आनंदमठ' में लिखा, जहां मातृभूमि को दुर्गा के रूप में पूजा जाता है। गीत के प्रारंभिक छंद – "सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्..." – प्रकृति की सुंदरता का वर्णन करते हैं, लेकिन बाद के छंदों में "त्वं हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणी..." जैसे वाक्य देवी-पूजा को स्पष्ट करते हैं। यह राष्ट्रवाद का सांस्कृतिक रूप है, जो भारत को 'माता' के रूप में देखता है – एक अवधारणा जो वेदों से लेकर रामायण तक हिंदू परंपरा में गहरी पैठी है।
स्वतंत्रता आंदोलन में इसका प्रभाव अभूतपूर्व था। 1905 के बंगाल विभाजन के दौरान, वंदे मातरम ने स्वदेशी आंदोलन को जन्म दिया। रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे गाया, और यह कांग्रेस के सत्रों में गूंजा। लेकिन विरोध की शुरुआत मुस्लिम लीग से हुई, जहां मोहम्मद अली जिन्ना ने 1937 में कहा कि मुसलमान इसे गा नहीं सकते क्योंकि यह 'मूर्तिपूजा' को बढ़ावा देता है। कांग्रेस ने समझौते के तहत आखिरी तीन छंद हटा दिए, लेकिन यह एक गलती थी – राष्ट्रवाद को धार्मिक संवेदनशीलता के नाम पर कमजोर करना।
आज, जब भारत वैश्विक शक्ति बन रहा है, वंदे मातरम फिर से प्रासंगिक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2025 में कहा कि 1937 का कटौती वाला निर्णय कांग्रेस की कमजोरी था, जो राष्ट्रवाद को कमजोर करता है। यह राष्ट्रवाद का आह्वान है: भारत एक हिंदू-बहुल राष्ट्र है, जहां सांस्कृतिक प्रतीक सभी को अपनाने चाहिए। विरोध करने वाले, चाहे वे मदनी जैसे हों, वास्तव में पाकिस्तान-प्रेरित विभाजनकारी मानसिकता के वाहक हैं। राष्ट्रवाद यहां आक्रामक होना चाहिए – न कि समर्पण का। वंदे मातरम गाना मात्र नहीं, बल्कि भारत की आत्मा को स्वीकार करना है। जो इसे अस्वीकार करते हैं, वे राष्ट्र के साथ विश्वासघात करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला: संवैधानिक संतुलन या राष्ट्रवाद की हार?
सुप्रीम कोर्ट का 28 नवंबर 2009 का फैसला वंदे मातरम विवाद का टर्निंग पॉइंट था। पृष्ठभूमि: तमिलनाडु के एक स्कूल ने दो मुस्लिम छात्राओं को वंदे मातरम न गाने पर निष्कासित किया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक घोषित किया, कहते हुए कि अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और धर्मधर जोशी की बेंच ने स्पष्ट किया: "कोई भी व्यक्ति वंदे मातरम गाने को मजबूर नहीं किया जा सकता, लेकिन इसका सम्मान करना चाहिए।" यह फैसला सतही तौर पर उदारवादी लगता है, लेकिन राष्ट्रवादी दृष्टि से यह एक पीछे हटना है।
क्यों? क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 51A(h) नागरिकों को 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और देशभक्ति का आचरण' सिखाने का आदेश देता है। वंदे मातरम राष्ट्रभक्ति का प्रतीक है, और इसका विरोध धार्मिक बहाने से राष्ट्रवाद को कमजोर करता है। कोर्ट ने कहा कि गीत के पहले दो छंद 'गैर-विवादास्पद' हैं, लेकिन पूर्ण गीत को अनदेखा कर दिया। यह फैसला जमीअत जैसे संगठनों को हौसला देता है, जो बाद में फतवा जारी करते रहे। 2017 में, कोर्ट ने वंदे मातरम को राष्ट्रीय गान जैसी सुरक्षा देने की याचिका खारिज की, जो राष्ट्रवाद के प्रति न्यायपालिका की उदासीनता दर्शाता है।
यह फैसला भारत के सेकुलरिज्म का दुरुपयोग है। सेकुलरिज्म धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा करता है, लेकिन बहुसंख्यक हिंदू राष्ट्रवाद को कुचलने का हथियार नहीं। सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रवाद की रक्षा करनी चाहिए, न कि विभाजनकारी ताकतों को वैधता। यदि राष्ट्रगान 'जय हिंद' गाना अनिवार्य है, तो वंदे मातरम क्यों नहीं? यह फैसला 1937 की कांग्रेस नीति का पुनरावृत्ति है – राष्ट्र को धार्मिक सौदेबाजी का शिकार बनाना। राष्ट्रवादी भारत में, कोर्ट को फैसले लेते समय सांस्कृतिक संदर्भ पर जोर देना चाहिए, ताकि मदनी जैसे नेता इसका दुरुपयोग न करें। अन्यथा, न्यायपालिका राष्ट्रवाद की दुश्मन बन जाएगी।
मौलाना मदनी: राष्ट्रवाद के विरुद्ध धार्मिक कट्टरता का प्रतीक
मौलाना महमूद मदनी, जमीअत उलेमा-ए-हिंद के महासचिव, वंदे मातरम विरोध के चेहरे हैं। 2006 में, उन्होंने कहा: "मुस्लिमों को वंदे मातरम नहीं गाना चाहिए, क्योंकि यह शिर्क है।"2009 में जमीअत ने फतवा जारी किया, कोर्ट फैसले का हवाला देकर। लेकिन 2025 में, जब पीएम मोदी ने कांग्रेस की 1937 नीति की आलोचना की, मदनी ने पलटवार किया: "वंदे मातरम बहुदेववादी गीत है, मुसलमान इसे नहीं गा सकते। यह राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध है।" उन्होंने सुप्रीम कोर्ट पर भी हमला बोला: "SC को सुप्रीम नहीं कहा जाना चाहिए," और 'जिहाद' का उल्लेख किया, जो राष्ट्रवाद को चुनौती देता है।
मदनी के विचार राष्ट्रवाद के विरुद्ध आक्रामक हैं। वे कहते हैं कि राष्ट्रभक्ति गाने से नहीं मापी जाती, लेकिन यह बहाना है। वास्तव में, जमीअत का इतिहास विभाजनकारी है – 1947 में पाकिस्तान समर्थन, और आज भी वक्फ बोर्ड, ट्रिपल तलाक जैसे मुद्दों पर अलगाववाद। मदनी का 'जिहाद' कॉल युवा मुसलमानों को भड़काता है, जो ISIS जैसी वैश्विक कट्टरता से प्रेरित है। राष्ट्रवादी दृष्टि से, यह घुसपैठिए मानसिकता है: भारत को इस्लामी राष्ट्र बनाने का सपना।
मदनी जैसे नेता भारत के दुश्मन हैं। उनका विरोध वंदे मातरम को नहीं, बल्कि हिंदू राष्ट्रवाद को निशाना बनाता है। यदि मुसलमान राष्ट्रगान गाते हैं, तो वंदे मातरम क्यों नहीं? यह 'टू नेशंस थ्योरी' का पुनरुद्धार है। सरकार को ऐसे फतवों पर कार्रवाई करनी चाहिए – UAPA के तहत, क्योंकि यह सामाजिक सद्भाव बिगाड़ता है। राष्ट्रवाद में कोई जगह नहीं धार्मिक अलगाव के लिए। मदनी को चुनौती: यदि राष्ट्रभक्ति सच्ची है, तो वंदे मातरम गाओ, या पाकिस्तान जाओ।
राष्ट्रवाद का आक्रामक मॉडल: एकता में शक्ति
राष्ट्रवाद का स्वरूप भारत को मजबूत बनाता है। वंदे मातरम को अनिवार्य बनाएं – स्कूलों, कार्यालयों में। कोर्ट का फैसला पुनर्विचार हो: धार्मिक स्वतंत्रता राष्ट्रभक्ति से ऊपर नहीं। मदनी जैसे विरोध को कुचलें – शिक्षा से, कानून से। उदाहरण: इजरायल में राष्ट्रीय प्रतीक सभी को अपनाने पड़ते हैं। भारत भी ऐसा करे।
यह व्याख्या विभाजनकारी लग सकती है, लेकिन तथ्य स्पष्ट हैं: 1857 से 1947 तक, हिंदू राष्ट्रवाद ने स्वतंत्रता दिलाई। मुस्लिम विरोध ने विभाजन जन्म दिया। आज, 2025 में, जब चीन-अफगानिस्तान, पाकिस्तान सीमाएं धमकाती हैं, आंतरिक एकता जरूरी है। वंदे मातरम उसकी कुंजी है।
राष्ट्रवाद की विजय
वंदे मातरम, सुप्रीम कोर्ट और मदनी का विवाद भारत के आत्मचिंतन का अवसर है। राष्ट्रवाद कहता है: प्रतीक अपनाओ, या बाहर जाओ। 2000 शब्दों में यह स्पष्ट है – भारत हिंदू राष्ट्र है, जहां सभी को एक होना पड़ेगा। जय हिंद!
राजेन्द्र नाथ तिवारी
शनिवार, 29 नवंबर 2025
मैजिक खांई में पलटी, सैकडो मुर्गे लेकर भागे ग्रामीण
मैजिक खांई में पलटी, सैकड़ा मुर्गे लेकर भागे ग्रामीण
जौनपुर। उत्तरप्रदेश
रुधोली में कलक्टर क़े समक्ष कर्मचारियों ने एस आई आर त्रुटि रहित करने का लिया संकल्प
बस्ती 29 नवम्बर 2025
जिलाधिकारी/जिला निर्वाचन अधिकारी कृत्तिका ज्योत्स्ना एवं अपर जिलाधिकारी (प्रशासन)/उप जिला निर्वाचन अधिकारी प्रतिपाल सिंह चौहान ने शनिवार को रुधौली विधानसभा के अन्तर्गत एसआईआर से संबंधित प्रगति रिपोर्ट का निरीक्षण किया। जिलाधिकारी ने निर्वाचन अधिकारी/उपजिलाधिकारी भानपुर हिमांशु कुमार तथा खंड शिक्षा अधिकारी अशोक कुमार को निर्देश दिया कि गणना प्रपत्रों के डिजिटाइजेशन कार्य को सतर्कता, पारदर्शिता और समयबद्धता के साथ पूर्ण करायें।
जिलाधिकारी ने उपस्थित कर्मचारियों से उनकी प्रगति रिपोर्ट जानकारी लिया और बेहतर कार्य करने के लिए उनका उत्साहवर्धन किया। खंड शिक्षा कार्यालय के निरीक्षण के दौरान उन्होने एसआईआर से संबंधित प्रगति का अवलोकन किया तथा बिंदुवार जानकारी प्राप्त कर प्रचालित कार्यों को समयबद्ध तरीके से पूरा करने के निर्देश दिए। निरीक्षण के दौरान निर्वाचन क्षेत्र के सभी ठस्व् भी मौजूद रहे।पतंजलि का 'देसी गायघी' लैब टेस्ट में फेल, 1.40 लाख जुर्माना, नेहा राठौर का तंज भी
“यदि कौटिल्य, राहुल से मिलते तो…?”
“यदि कौटिल्य, राहुल से मिलते तो!
(एक व्यंग्यात्मक राजनीतिक कथा)
कौटिल्य यदि राहुल से मिल जाते, तो पहले ही क्षण मुस्कराकर पूछते—
“राजकुमार! राजनीति कोई विदेश यात्रा का टिकट नहीं, राज्य-शास्त्र का तप है…
और तप करने वालों की पहली शर्त है— स्मृति स्थिर हो, बात स्थायी हो.”
राहुल शायद जवाब देते—“लेकिन मेरी बात तो हर प्रेस कॉन्फ़्रेंस में बदल जाती है…”
कौटिल्य तुरंत चाणक्य-स्मित के साथ कहते—“अरे वही तो समस्या है!
न नीति में निरंतरता, न विचार में परिपक्वता—ऐसे में न साम मिलता है, न दाम काम आता है,बचे हुए ‘दंड’ और ‘भेद’ ही हैं… जो तुम्हारे ऊपर ही उलटे पड़ जाते हैं।”
फिर कौटिल्य अपनी दाढ़ी सहलाकर कहते—“तुम्हारी राजनीति का सबसे बड़ा संकट यह नहीं कि तुम सत्ता में नहीं,संकट यह है कि तुम्हारे पास सत्ता-योग्यता की तैयारी ही नहीं।”राहुल बीच में बोल पड़ते—“तो क्या मैं प्रधानमंत्री बन सकता हूँ?”
कौटिल्य शांत स्वर में उत्तर देते—
“राजनीति में पद माँगा नहीं जाता,
योग्यता से खींचकर लिया जाता है…
और योग्यता का पहला पाठ—
अस्थिर मन, असंगत बयान और विदेशों में देश-भंजन करना छोड़ना पड़ेगा!”
और अंत में कौटिल्य निर्णायक वाक्य बोलते—
**“राजकुमार! जनता मूर्ख नहीं है।उसे राम चाहिए, काम चाहिए, और नेतृत्व चाहिए—न कि हर चुनाव में नया प्रयोग करते हुए खोया हुआ राजकुमार.”**
चाफेकर बंधु और वन्दे मातरम् : राष्ट्र-जागरण की अग्निशिखाएँ
चाफेकर बंधु और वन्दे मातरम्
: राष्ट्र-जागरण की अग्निशिखाएँ
भारतीय स्वाधीनता का इतिहास केवल युद्धों, आंदोलनों और राजनीतिक घोषणाओं का इतिहास नहीं; यह उन अदम्य आत्माओं की गाथा है जिन्होंने समूचे राष्ट्र में स्वतंत्रता की चिंगारी जलायी। इस इतिहास के पृष्ठों पर कुछ नाम ऐसे अंकित हैं जो केवल क्रांति का प्रतीक नहीं, बल्कि भारतीय आत्मा की अनश्वर ज्वाला बन चुके हैं। चाफेकर बंधु उन्हीं अलौकिक ज्योति-स्तम्भों में से हैं — दमोदर हरि चाफेकर, बालकृष्ण चाफेकर, और वासुदेव चाफेकर। और दूसरी ओर है ‘वन्दे मातरम्’, वह गीत जिसने लाखों हृदयों में मातृभूमि की आराधना का अलौकिक संगीत भर दिया। यह केवल एक राष्ट्रगीत नहीं; यह भारत माता का आह्वान है, चेतना है, संकल्प है। जब-जब भारत पर अत्याचार बढ़ा, तब-तब "वन्दे मातरम्" एक मंत्र की तरह जनमानस को खड़े होने की शक्ति देता रहा।
इन दोनों को एक सूत्र में पिरोकर देखने पर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महावृत्त खुलता है—एक ओर कर्मयोगी क्रांतिकारी, दूसरी ओर राष्ट्र-जागरण की शाश्वत ध्वनि।
चाफेकर बंधु : स्वतंत्रता की पहली क्रांतिकारी गर्जना
19वीं शताब्दी के अंत में पूना ब्रिटिश शासन की क्रूरता का केंद्र था। प्लेग महामारी के बहाने चाफेकर बंधुओं ने देखा कि अंग्रेज अधिकारी भारतीयों के घरों में घुसकर महिलाओं का अपमान करते हैं, बुजुर्गों को पीटा जाता है और गांवों में अमानवीय उत्पीड़न चलाया जाता है। चाफेकर बंधुओं को यह अपमान असहनीय था।इसी अन्याय ने उनके भीतर क्रांति की ज्वाला प्रज्वलित की। दमोदर हरि चाफेकर—क्रांति के प्रथम शिल्पकार
दमोदर चाफेकर का मन बचपन से ही क्रांतिकारी चेतना से भरा था। वे मानते थे कि ब्रिटिश सत्ता से केवल याचना से नहीं, बल्कि प्रतिकार से स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। 1897 में जब ब्रिटिश अफसर रैंड भारतीयों के साथ अमानवीय व्यवहार कर रहा था, तब दमोदर बंधुओं ने उसे ध्वस्त करने का निश्चय किया।
रैंड हत्याकाण्ड : स्वाभिमान की उद्घोषणा
22 जून 1897 की रात, क्वीन विक्टोरिया के राज्याभिषेक के समारोह के बीच दमोदर और बालकृष्ण ने अफसर रैंड और उसके सहायक आयर्स्ट को गोली मार दी। यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला संगठित क्रांतिकारी प्रतिशोध था।
यह कार्य अत्यंत साहस और राष्ट्रभक्ति का प्रतीक था—एक घोषणा कि भारत की आत्मा को अपमानित नहीं किया जा सकता।
बलिदान : मातृभूमि के लिए हँसते-हँसते फांसी
अंग्रेज सरकार बौखला गई। लेकिन चाफेकर बंधु झुके नहीं। दमोदर और बालकृष्ण चाफेकर को क्रमशः 18 और 19 वर्ष की आयु में फांसी दे दी गई। तीसरे भाई वासुदेव चाफेकर को भी जेल में अमानवीय यातनाओं के बाद मृत्यु दे दी गई। लेकिन उनका बलिदान ‘भारत माता’ के लिए एक नवसंकल्प बन चुका था।
वन्दे मातरम् : मातृभूमि का शाश्वत मन्त्र
जब बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने "वन्दे मातरम्" की रचना की, तब उन्होंने केवल शब्द नहीं लिखे; उन्होंने भारत की आत्मा को शब्द दिए। यह गीत वेदों की ऋचाओं की तरह पवित्र और गुरुदेव टैगोर की ध्वनियों की तरह ज्वलंत है।वन्दे मातरम् का अर्थ ही है—“माँ, मैं तुम्हें वंदन करता हूँ। जीवन, तन, मन, प्राण तुम्हारे चरणों में अर्पित करता हूँ।”यह गीत केवल कविता नहीं रहा; यह अग्निवाणी बन गया।वन्दे मातरम् और क्रांतिकारी चेतना विशेष रूप से 1905 के बंग-भंग आंदोलन से लेकर 1947 तक, "वन्दे मातरम्" देशभक्ति का जीवनदायी मंत्र बन गया। जब भी आंदोलनकारियों को पुलिस की गोलियाँ झेलनी होतीं, वे "वन्दे मातरम्" का उद्घोष करते।क्रांतिकारी इसे गुप्त कोड की तरह प्रयोग करते। भगत सिंह, राजगुरु, खुदीराम बोस—सभी के हृदय में "वन्दे मातरम्" की ज्वाला धधकती थी।
यह गीत आतंकवादी गतिविधि नहीं, आत्मा की स्वतंत्रता का जयघोष था।
चाफेकर बंधु और “वन्दे मातरम्” : दोनों एक ही महायात्रा के भाग
भले ही चाफेकर काण्ड 1897 का है और वन्दे मातरम् की राष्ट्रीय चेतना 1905 में उफान पर आई, लेकिन दोनों की विचारशीलता एक ही स्रोत से निकली—स्वाभिमान, संस्कार और आत्मबल। दोनों भारतीय अस्मिता के प्रतीक,चाफेकर बंधु भारतीय स्वाभिमान और शौर्य के प्रतीक थे।
वन्दे मातरम् भारतीय संस्कृति और मातृभाव के।चाफेकर बंधु अगर राष्ट्र के कर्मयोगी थे, तो वन्दे मातरम् उसकी भक्ति की अग्नि। दोनों ने अंग्रेजों को भयभीत किया,अंग्रेज समझ गए थे कि “वन्दे मातरम्” कोई गीत नहीं, वह करोड़ों भारतीयों की धड़कन है। इसलिए इसे सार्वजनिक स्थानों पर प्रतिबंधित कर दिय.इसी तरह चाफेकर बंधुओं ने अंग्रेजी शासन को पहली बार यह अहसास कराया कि भारत अब गुलामी में साँस नहीं लेगा।
दोनों ने युवा-भारत को नेतृत्व दिया,विशेष रूप से महाराष्ट्र, बंगाल, उत्तर प्रदेश, पंजाब—हर प्रदेश के युवाओं में क्रांति की चिंगारी जली।चाफेकर बंधु के बलिदान से नासिक और पुणे में क्रांतिकारी संगठन खड़े हुए। वन्दे मातरम् ने बंगाल और बिहार में राजनीतिक नवजागरण किया।इन दोनों के बिना भारतीय स्वतंत्रता का इतिहास अधूरा है।
वन्दे मातरम् की सांस्कृतिक शक्ति और चाफेकर बंधुओं का आध्यात्मिक बल
चाफेकर परिवार मूलतः धार्मिक और धैर्यपूर्ण जीवन में विश्वास करता था। उनके भीतर राष्ट्रभक्ति का आधार था—सनातन संस्कृति का बल, धर्म का अनुशासन और मातृभूमि के प्रति समर्पण।
‘वन्दे मातरम्’ भी इन्हीं मूल्यों पर आधारित है—
नदी को माता,धरती को देवी,वायु को प्राण,
वन और पर्वत को संपत्ति मानने वाला भारत।
यह केवल राष्ट्रवाद नहीं, बल्कि संस्कृति-विमर्श है।
चाफेकरों के लिए भारत कोई राजनीतिक इकाई नहीं, माता थी।
इसीलिए उनका समर्पण पूजा की तरह था, न कि राजनीति की तरह।इसीलिए उनकी क्रांति आतंकवाद नहीं, बल्कि धर्म-प्रेरित राष्ट्रधर्म थी।
क्रांति और संस्कृति का संगम — भारत की पहचान
भारतीय स्वतंत्रता का संघर्ष न तो केवल हिंसक था, न केवल अहिंसक।यह संघर्ष था—विचारों का,संस्कृति का,स्वाभिमान का,नैतिकता और इतिहास का।यही कारण है कि चाफेकर बंधु और वन्दे मातरम् दोनों ने भारत की आत्मा को दिशा दी:
चाफेकरों ने बताया – अन्याय सहना भी पाप है।वन्दे मातरम् ने बताया – मातृभूमि की पूजा ही राष्ट्रधर्म है।
आधुनिक भारत में इन दोनों की प्रासंगिकता
आज भारतीय राजनीति और समाज में राष्ट्रवाद एक प्रमुख विमर्श है।लेकिन राष्ट्रवाद केवल राजनीतिक नारा नहीं—वह चाफेकर बंधुओं का बलिदान है, वह वन्दे मातरम् की ऊर्जा है।
आज भी ये क्यों आवश्यक हैं? सांस्कृतिक आत्मविश्वास की पुनर्स्थापना के लिए,जब हम अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं, तब ही सशक्त राष्ट्र बनते हैं. युवा-भारत के लिए प्रेरणा,चाफेकर बंधुओं का जीवन सिखाता है कि उम्र छोटी हो सकती है, लेकिन संकल्प बड़ा होना चाहिए।भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए
वन्दे मातरम् ने दिखाया कि विविधता में भी एकता संभव है क्योंकि हमारी माता एक है—भारत माता,औपनिवेशिक मानसिकता के विरुद्ध संघर्ष के लिए,चाफेकरों का विद्रोह इस बात की चेतावनी है कि भारतीय कभी भी विदेशी अत्याचार नहीं सहेंगे।
क्रांति की ज्वाला और मातृभूमि की आराधना
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम एक महान महासिंहावलोकन है, जिसमें चाफेकर बंधुओं जैसे क्रांतिकारी और वन्दे मातरम् जैसे दिव्य गीत दोनों ने मिलकर राष्ट्रनिर्माण किया।चाफेकर बंधु हमें यह सिखाते हैं किअन्याय के सामने झुकना पाप है।
वन्दे मातरम् हमें यह सिखाता है कि मातृभूमि ही हमारा अंतिम धर्म है, अंतिम शरण है, अंतिम सत्य है।जब तक भारत की धरती पर स्वतंत्रता की हवा बहती रहेगी,जब तक भारत माता के चरणों में भक्ति का दीप जलेगा,तब तक चाफेकर बंधुओं का नाम गूंजता रहेगा,और “वन्दे मातरम्” का स्वर आकाश में गूँजता रहेगा।
शुक्रवार, 28 नवंबर 2025
जनपद में राजनैतिक दलों से उपजिला निर्वाचन अधिकारी का सार्थक विमर्श!
बस्ती 28 नवम्बर 2025, उत्तर प्रदेश
अपर जिलाधिकारी/ उप जिला निर्वाचन अधिकारी प्रतिपाल सिंह चौहान की अध्यक्षता में नामावलियों के विशेष प्रगाढ़ पुनरीक्षण कार्यक्रम के संबंध में कलेक्ट्रेट सभागार में बैठक संपन्न हुआ। बैठक की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों को अवगत कराया कि वितरित किये गये गणना प्रपत्रो की संख्या के सापेक्ष मतदाताओं से वापस प्राप्त / डिजिटाइज्ड किये गये गणना प्रपत्रों की संख्या बहुत कम है। उक्त के अतिरिक्त बूथ लेविल अधिकारियो द्वारा बीएलओ एप पर अनकलेक्टेवल कटेगरी में मार्क किये गये डाटा (ASD Electors), जो ईसीआई नेट पर प्रदर्शित हो रहा है से सम्बन्धित जानकारी साझा किया तथा ऐसे मतदाता जो मृत, शिफ्टेड, अनुपस्थित है से सम्बन्धित जानकारी बूथ लेवल एजेण्ट के माध्यम से भी प्राप्त कराये जाने की अपेक्षा की गयी।
उन्होंने राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों से नियुक्त समस्त बी०एल०ओ० के साथ अपनी पार्टी के बी०एल०ए० को लगाकर गणना प्रपत्रों को मतदाताओं से प्राप्त करने में सहयोग प्रदान हेतु अनुरोध किया गया। बाबू राम सिंह, पी०सी०सी०, इंडियन नेशनल कांग्रेस को अवगत कराया गया कि आपकी पार्टी द्वारा केवल 86 मतदेय स्थलों में बी०एल०ए० नियुक्त किया गया है। अवशेष समस्त मतदेय स्थलों पर बी०एल०ए० नियुक्त कर उसकी सूची उपलब्ध कराने हेतु अनुरोध किया गया।
उन्होंने राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों को अवगत कराया कि वर्ष 2025 की मतदाता सूची में पंजीकृत समस्त मतदाताओं को गणना प्रपत्रों का वितरण किया गया है, जो मतदाता अपना गणना प्रपत्र भरकर अपने बी०एल०ओ० को वापस नहीं करेगा, उस मतदाता नाम आलेख्य निर्वाचक नामावली में पंजीकृत नहीं होगा। यह भी अवगत कराया गया कि गणना प्रपत्र में मतदाता को अपना विवरण भरने के बाद यदि पिछले एसआईआर की मतदाता सूची (वर्ष 2003) में नाम है तो उसका विवरण भरा जायेगा। यदि पिछले एसआईआर की मतदाता सूची (वर्ष 2003) में नाम नहीं है तो पिछले कॉलम में दिए गए सम्बन्धी का विवरण, पिछले एसआईआर के अनुसार भरा जायेगा। किसी भी मतदाता को गणना प्रपत्र के साथ कोई भी दस्तावेज संलग्न नहीं किया जायेगा।
उक्त के अतिरिक्त वर्ष 2025 की मतदाता सूची में पंजीकृत जिन मतदाताओं द्वारा अपने गणना प्रपत्र में अपना अथवा अपने सम्बन्धी का पिछले एस०आर०आर० की मतदाता सूची (वर्ष 2003) का विवरण नहीं भरा जायेगा, उन्हें सम्बन्धित निर्वाचक रजिस्ट्रीकरण अधिकारी द्वारा दिनांक 09.12.2025 से 31.01.2025 के मध्य नोटिस जारी कर उनसे आयोग द्वारा निर्धारित 13 विकल्पों में से कोई दस्तावेज प्राप्त कर नोटिस का निस्तारण किया जायेगा।
अन्त में समस्त अधिकारियों एवं मान्यता प्राप्त राजनैतिक दलों के पदाधिकारियों/प्रतिनिधियों को पुनः भारत निर्वाचन आयोग द्वारा दिये गये निर्देशों से अवगत कराकर धन्यवाद ज्ञापित करते हुए बैठक के समापन की घोषणा की गई। बैठक में ओम प्रकाश, सहायक जिला निर्वाचन अधिकारी, सुभाष चन्द्र सिंह, सहायक जिला निर्वाचन अधिकारी (पंचायत एवं नगरीय निकाय) मान्यता प्राप्त राजनैतिक दलों के पदाधिकारी/ प्रतिनिधिगण बाबू राम सिंह, पी०सी०सी०, इंडियन नेशनल कांग्रेस, अजय पाल, कार्यालय व्यवस्था प्रमुख भारतीय जनता पार्टी, अभिषेक आर्या, जिला महासचिव, अपना दल (एस०), जावेद पिण्डारी, जिला उपाध्यक्ष, समाजवादी पार्टी, के०के० तिवारी, सचिव मण्डल सदस्य, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, अनिल कुमार गौतम, जिलाध्यक्ष, बहुजन समाज पार्टी, अब्दुल कय्यूम, जिला सचिव, आम आदमी पार्टी सहित अधिकारी व कर्मचारी गण उपस्थित रहे।
कांग्रेस के दुश्मन: कांग्रेसी ही, या कुछ और?
कांग्रेस के दुश्मन: कांग्रेसी ही, या कुछ और?
संपादकीय
भारतीय राजनीति में एक पुराना, किंतु बार-बार दोहराया जाने वाला वाक्य है—“कांग्रेस की सबसे बड़ी दुश्मन… कांग्रेस खुद है।”लंबे समय तक इसे सिर्फ़ राजनीतिक व्यंग्य माना जाता रहा, लेकिन 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में करारी पराजय के बाद यह कथन अब एक कटु सत्य की तरह सामने खड़ा है। चुनाव में 61 सीटों पर उम्मीदवार उतारकर केवल 6 पर जीत, और महज़ 8–9% वोट—यह किसी बाहरी शक्तिशाली दुश्मन का नहीं, बल्कि स्वयं-निर्मित कमजोरियों का परिणाम है।
यह लेख इसी सच्चाई के विभिन्न आयामों—आंतरिक कलह, गठबंधन राजनीति, संगठनात्मक शिथिलता, और ऐतिहासिक जड़ता—का विश्लेषण करता है। आंतरिक कलह: कांग्रेस का ‘ऑपरेटिंग सिस्टम’ क्यों जाम है?कांग्रेस की सबसे बड़ी बीमारी उसकी खुद की नसों में बहती है—गुटबाजी, वंशवाद, नेतृत्वहीनता और स्थानीय स्तर पर निरुत्साहित कैडर।बिहार चुनाव के दौरान टिकट बंटवारे पर बवाल, ज़िले-ज़िले में कार्यकर्ताओं का विद्रोह, “टिकट चोर” के नारे, और हार के बाद दर्जनों नेताओं को शो-काज़ नोटिस—ये सब किसी बाहरी हमले का नहीं, बल्कि भीतर के टूटे अनुशासन और अव्यवस्था का संकेत हैं।संगठन के भीतर यह धारणा गहरी है कि शीर्ष नेतृत्व “दूर से राजनीति” करता है, जबकि ज़मीनी कार्यकर्ता खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं। राहुल गांधी की यात्राओं और सभाओं का प्रभाव वहीं खत्म हो गया जहाँ बूथ-स्तर की मशीनरी शुरू होनी चाहिए थी।कांग्रेस “कमांडर” के भरोसे चलने वाली सेना नहीं रही; वह “बिना कमांडर, बिना प्लाटून” वाली बिखरी टुकड़ी जैसी दिखने लगी है।
सहयोगी दल: क्या कांग्रेस का दुश्मन बाहर भी है?आरोप अक्सर BJP पर लगाया जाता है, लेकिन सच्चाई यह है कि कांग्रेस को सबसे बड़ा नुकसान उसके गठबंधन सहयोगियों ने पहुँचाया।बिहार में RJD का दबदबा इतना अधिक था कि कांग्रेस को सिर्फ़ औपचारिक सीटें मिलीं।उत्तर प्रदेश में SP ने कांग्रेस को हाशिये पर धकेल दिया।बंगाल में TMC ने कांग्रेस के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी।INDIA गठबंधन एक विचार था, लेकिन उसी विचार में कांग्रेस सबसे कमजोर कड़ी बन गई।विरोधाभास देखिए—
जिस व्यापक विपक्ष को कांग्रेस जोड़ती है, वही विपक्ष कांग्रेस के राजनीतिक आधार को खा रहा है।कांग्रेस का “दुश्मन” यहीं दो हिस्सों में बंट जाता है—
एक वह जो पार्टी के भीतर है, और दूसरा वह जो साथ खड़ा दिखाई देता है, लेकिन ताकत अपने हिस्से में ले जाता है। ऐतिहासिक भार: विचारधारा की पतन-कथा कांग्रेस का संकट आज पैदा नहीं हुआ—यह पिछले 30 वर्षों में धीरे-धीरे पनपा वह वैचारिक और नैतिक पतन है जिसने पार्टी की रीढ़ ही नरम कर दी।
कभी नेहरू, पटेल, शास्त्री और इंदिरा के नेतृत्व ने संगठन को दिशा दी;
लेकिन 1990 के दशक के बाद नेतृत्व वंशवाद की परिधि तक सिमट गया।आज कांग्रेस का सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि—वह किस विचार का प्रतिनिधित्व करती है?क्या वह उदारवाद है? समाजवाद है? सेक्युलरिस्ट राष्ट्रवाद? प्रगतिशील आर्थिक मॉडल?या सिर्फ़ “BJP-विरोध” ही उसकी पहचान बचा हुआ है?एक विचारहीन पार्टी को संगठन बचा नहीं सकता—और यह संकट कांग्रेस के शिखर से बूथ तक रिसता चला गया है।
चुनावी मशीनरी की कमजोरी: मैदान खाली, नारे भारी लोकतंत्र में चुनाव सिर्फ सभाओं से नहीं जीते जाते।उन्हें जीतने के लिए चाहिए—वास्तविक कार्यकर्ताबूथ प्रबंधन लाभार्थी संपर्क स्थानीय मुद्दों की पकड़ और सबसे जरूरी—विश्वास कांग्रेस के पास इन पाँच में से चार तत्व लगातार कमजोर होते गए।
RJD, BJP, JD(U), TMC, SP जैसे दलों ने बूथ-स्तर पर अपनी मशीनरी को दुरुस्त रखा, जबकि कांग्रेस “इमेज-पॉलिटिक्स” के भरोसे रह गई।2025 के बिहार नतीजों ने इस फर्क को खौलते पानी की तरह साफ कर दिया।
भविष्य की दिशा: क्या कांग्रेस खुद को बचा सकती है?कांग्रेस अभी भी भारत का 20% से अधिक वोट-बैंक रखती है।यह किसी भी लोकतंत्र में एक बड़ा राजनीतिक पूँजी है।लेकिन उसके सामने दो ही रास्ते हैं—सुधार का रास्ता — लंबा लेकिन संभवसंगठन का सम्पूर्ण रिबूट,स्थानीय नेतृत्व को अधिकार,गठबंधन की नई परिभाषा,विचारधारा का पुनर्गठन,टिकट वितरण की पारदर्शिता,पतन का रास्ता — आसान लेकिन खतरनाक अगर वही पुराना ढर्रा चलता रहा,तो कांग्रेस धीरे-धीरे “राष्ट्रीय विचार से क्षेत्रीय प्रासंगिकता तक” सिमट जाएगी।
कांग्रेस का दुश्मन ‘अंदर’ भी है… और ‘पास’ भी,कांग्रेस के दुश्मन सिर्फ कांग्रेसी ही हैं—यह आधा सच है।पूरा सच यह है कि—कांग्रेस का सबसे बड़ा दुश्मन उसकी अपनी आंतरिक कमजोरियाँ हैं, और दूसरा बड़ा दुश्मन उसके वे सहयोगी हैं जो उसके स्थान पर खुद को स्थापित कर रहे हैं।
यह राजनीतिक विडंबना है कि कांग्रेस “गठबंधन” की जननी है,
और उसी गठबंधन में वह सबसे कमजोर खिलाड़ी बन चुकी है।
परिवर्तन की संभावनाएँ आज भी मौजूद हैं—लेकिन वही, जो भीतर से निकले;वही, जो कांग्रेस को “अतीत की पार्टी” नहीं, “भविष्य की उम्मीद” बना सकें।भारत की राजनीति ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं,और कांग्रेस का यह दौर भी इतिहास के उसी चक्र का हिस्सा है।पर सवाल यह है—क्या कांग्रेस इस बार खुद से जूझ कर कबतक जिन्दा रह सकेगी.
राजेंद्र नाथ तिवारी-टीम कौटिल्य
माता -पिता के सम्मान मे छात्रों में सामग्री वितरण
वस्ती, उत्तर प्रदेश
नेशनल एसोसिएशन ऑफ यूथ के अध्यक्ष एवं समाजसेवी भावेष पाण्डेय ने बस्ती के गांवगोड़िया के प्राथमिक विद्यालय में स्व. श्रीमती रुंधावती पाण्डेय एवं स्व. श्री जगदम्बा प्रसाद पाण्डेय की पुण्य स्मृति में विद्यार्थियों को विविध पाठ्य सामग्रियों का वितरण किया। इस अवसर पर उन्होंने बच्चों को कला, संस्कृति और खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी किया।
भावेष पाण्डेय ने कहा कि उनकी माता जी एक समर्पित शिक्षिका थीं और समाज सेवा के प्रति उनका मार्गदर्शन आज भी प्रेरणा बना हुआ है। वे सदैव विद्यार्थियों की उन्नति के लिए तत्पर रहीं। वहीं, उनके पिता का सहयोग और आशीर्वाद जीवनभर सामाजिक कार्यों की ऊर्जा का स्रोत रहा है।
बच्चों के साथ समय बिता कर उनके उपयोग की वस्तुएं उन्हें देकर मन को आत्म संतोष मिलता है, और मुझे ऐसा महसूस होता है कि माता पिता जी जहां भी होंगे उन्हें यह देखकर अच्छा लगता होगा।
वंदे मातरम् @150: राष्ट्रवाद की नई परिभाषा और आधुनिक भारत का सांस्कृतिक पुनर्जागरण
एकविंश श्रृंखला( 21)
वंदे मातरम् @150: राष्ट्रवाद की नई परिभाषा और आधुनिक भारत का सांस्कृतिक पुनर्जागरण
साल 2025 भारतीय इतिहास में एक अद्वितीय मील का पत्थर है—वंदे मातरम् के 150 वर्ष।एक गीत, जो प्रारम्भ में राष्ट्रकाव्य था, फिर जनजागरण बना, और अंततः भारतीय स्वतंत्रता-समर का शंखनाद। किसी राष्ट्र के इतिहास में ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते जब कोई गीत, कोई शब्द, या कोई विचार पूरी सभ्यता के आत्मबोध का पर्याय बन जाए। वंदे मातरम् ऐसा ही अमर उच्चार है—एक ऐसा मंत्र जो केवल राष्ट्र के प्रति प्रेम नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और वैचारिक धरोहर के पुनर्जागरण का प्रतीक है।
आज जब भारत आत्मविश्वास के साथ वैश्विक पटल पर उभर रहा है, तब वंदे मातरम् केवल एक ऐतिहासिक स्मृति नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चेतना के नए युग का उद्घोष बनकर खड़ा है। 150 वर्षों का यह अवसर हमें पूछता है—क्या राष्ट्रवाद केवल अतीत की स्मृति है? या यह नई पीढ़ियों के लिए नई व्याख्या चाहता है? क्या आधुनिक भारत, तकनीक और वैश्वीकरण के इस युग में भी अपनी सांस्कृतिक आत्मा को उसी दृढ़ता से जी सकता है, जैसे स्वतंत्रता-सेनानी उसे 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जीते थे?
यह सम्पादकीय इसी प्रश्न का उत्तर खोजता है—वंदे मातरम् @150: भारत के बदलते राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की नई कहानी।
वंदे मातरम् का जन्म—एक कल्पना, जो राष्ट्र बन गई,बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने 1875 में वंदे मातरम् की रचना की।यह वह समय था जब भारत राजनीतिक रूप से पराधीन और मानसिक रूप से विचलित था। अंग्रेजी शासन की कठोरता और भारतीय समाज की विखण्डित पहचान के बीच यह गीत एक सांस्कृतिक एकता का प्रथम सूत्र बना। इसमें राष्ट्र केवल भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि माँ के रूप में उपस्थित हुआ—मातृभूमि एक सजीव सत्ता, एक करुणा और शक्ति से भरपूर चेतना।
यह वह क्षण था जब भारत ने स्वयं को धर्म, जाति, भाषा और प्रान्तों के पार जाकर एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया।
बंकिमचन्द्र का भारत भौगोलिक से अधिक आध्यात्मिक था—नदियाँ, वन, खेत, प्रदेश—सब माँ का अंग। यही विचार आगे चलकर स्वतंत्रता-संग्राम का मुख्य भाव बना।
वंदे मातरम् और स्वतंत्रता-संग्राम: संघर्ष का घोष, बलिदान की ऊर्जा,वंदे मातरम् ने केवल साहित्य को नहीं बदला—इसने राजनीति को बदल दिया राजनीतिक मंचों, अखाड़ों, विद्यालयों और सत्याग्रहों में यह गीत एक ऊर्जा, एक ज्वाला बनकर फूटा। इसके उच्चारण मात्र से आंदोलन को दिशा मिलती थी।1905: बंगाल विभाजन के विरोध में यह गीत राष्ट्रीय प्रतिरोध की सबसे शक्तिशाली भाषा बन गया।क्रांतिकारी आंदोलनों में यह शपथ और संकल्प का सूत्र बना।कांग्रेस के अधिवेशनों में यह आधिकारिक राष्ट्रगीत के रूप में गूँजता रहा।अनगिनत सेनानी फाँसी के तख्ते तक यह जयघोष करते पहुँचे: “वंदे मातरम्!”किसी गीत में इतनी प्रेरणा, इतना संबल और इतनी एकता—विश्व इतिहास में दुर्लभ है।
21वीं सदी का भारत: क्या राष्ट्रवाद बदल गया है?,आज का भारत स्वतंत्र है, आत्मनिर्भर है और विश्व-राजनीति में निर्णायक भूमिका निभा रहा है।लेकिन प्रश्न यह है—आज का राष्ट्रवाद कैसा है?क्या राष्ट्रवाद केवल सीमा-रक्षा का मुद्दा है?क्या वह केवल ‘विरोध’ में खड़ा रहने वाला विचार है?क्या वह केवल राजनीतिक नारा है?आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद की नई परिभाषा उभर रही है—जो परंपरा और आधुनिकता दोनों को साथ लेकर चलती है।सांस्कृतिकआत्मविश्वास,भारत अब अपनी सभ्यता को ‘अतीत’ के बोझ की तरह नहीं, बल्कि ‘समकालीन शक्ति’ की तरह देख रहा है।योग, आयुर्वेद, भारतीय ज्ञान-परम्परा, तकनीकी नेतृत्व, डिजिटल व्यवस्था—सब मिलकर भारतीयता का नया आयाम रच रहे हैं।
विकास-आधारित राष्ट्रवाद,भारत का राष्ट्रवाद अब केवल भावनात्मक नहीं रहा; यह तकनीक, नवाचार और विश्व-सहयोग आधारित राष्ट्रवाद है।AI, अंतरिक्ष कार्यक्रम, वैश्विक कूटनीति—भारत का स्वाभिमान अब इनसे भी परिभाषित होता है।
नीचे लगभग 2000 शब्दों में सम्पादकीय प्रस्तुत है — “वंदे मातरम् @150: राष्ट्रवाद की नई परिभाषा और आधुनिक भारत का सांस्कृतिक पुनर्जागरण”सांस्कृतिक आत्मा को उसी दृढ़ता से जी सकता है, जैसे स्वतंत्रता-सेनानी उसे 20वीं शताब्दी के जाकर एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया।
बंकिमचन्द्र का भारत भौगोलिक से अधिक आध्यात्मिक था—नदियाँ, वन, खेत, प्रदेश—सब माँ का अंग। यही विचार आगे चलकर स्वतंत्रता-संग्राम का मुख्य भाव बना।
वंदे मातरम् और स्वतंत्रता-संग्राम: संघर्ष का घोष, बलिदान की ऊर्जा
वंदे मातरम् ने केवल साहित्य को नहीं बदला—इसने राजनीति को बदल दिया।
राजनीतिक मंचों, अखाड़ों, विद्यालयों और सत्याग्रहों में यह गीत एक ऊर्जा, एक ज्वाला बनकर फूटा। इसके उच्चारण मात्र से आंदोलन को दिशा मिलती थी।
- 1905: बंगाल विभाजन के विरोध में यह गीत राष्ट्रीय प्रतिरोध की सबसे शक्तिशाली भाषा बन गया।
- क्रांतिकारी आंदोलनों में यह शपथ और संकल्प का सूत्र बना।
- कांग्रेस के अधिवेशनों में यह आधिकारिक राष्ट्रगीत के रूप में गूँजता रहा।
- अनगिनत सेनानी फाँसी के तख्ते तक यह जयघोष करते पहुँचे: “वंदे मातरम्!”
किसी गीत में इतनी प्रेरणा, इतना संबल और इतनी एकता—विश्व इतिहास में दुर्लभ है। 21वीं सदी का भारत: क्या राष्ट्रवाद बदल गया है?
आज का भारत स्वतंत्र है, आत्मनिर्भर है और विश्व-राजनीति में निर्णायक भूमिका निभा रहा है।
लेकिन प्रश्न यह है—आज का राष्ट्रवाद कैसा है?
क्या राष्ट्रवाद केवल सीमा-रक्षा का मुद्दा है?
क्या वह केवल ‘विरोध’ में खड़ा रहने वाला विचार है?
क्या वह केवल राजनीतिक नारा है?
आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद की नई परिभाषा उभर रही है—जो परंपरा और आधुनिकता दोनों को साथ लेकर चलती है।
सांस्कृतिक आत्मविश्वास
भारत अब अपनी सभ्यता को ‘अतीत’ के बोझ की तरह नहीं, बल्कि ‘समकालीन शक्ति’ की तरह देख रहा है।
योग, आयुर्वेद, भारतीय ज्ञान-परम्परा, तकनीकी नेतृत्व, डिजिटल व्यवस्था—सब मिलकर भारतीयता का नया आयाम रच रहे हैं।
विकास-आधारित राष्ट्रवाद
भारत का राष्ट्रवाद अब केवल भावनात्मक नहीं रहा; यह तकनीक, नवाचार और विश्व-सहयोग आधारित राष्ट्रवाद है।
AI, अंतरिक्ष कार्यक्रम, वैश्विक कूटनीति—भारत का स्वाभिमान अब इनसे भी परिभाषित होता है।
सांस्कृतिक समरसता
“हम कौन हैं?”—यह प्रश्न अब भारतीय मन की खोज का मूल है।
वंदे मातरम् हमें याद दिलाता है कि भारत की वास्तविक शक्ति सांस्कृतिक एकता मे5
. वंदे मातरम्: नई पीढ़ी के लिए क्या अर्थ रखता है?
आज का युवा डिजिटल है, वैश्विक है और तेज़ गति से बदलते संसार का हिस्सा है।
लेकिन वह अपनी जड़ों से भी जुड़ना चाहता है।
नई पीढ़ी के लिए वंदे मातरम् का अर्थ केवल राष्ट्रभक्ति नहीं—बल्कि आइडेंटिटी है:
“मैं कौन हूँ?”
वंदे मातरम् बताता है—तुम उस भूमि की संतान हो जो अध्यात्म, विज्ञान, संस्कृति और मानवता का अद्वितीय संगम है।
“मेरा भारत कैसा होना चाहिए?”
एक ऐसा भारत जहाँ संस्कृति आधुनिकता से संघर्ष नहीं करती—बल्कि उसे दिशा देती है।
“राष्ट्र मेरा नहीं—मैं राष्ट्र हूँ”
युवाओं के लिए यह विचार आज पहले से अधिक व्यावहारिक है—स्टार्टअप्स, टेक नवाचार, वैश्विक नेतृत्व—आज का युवा राष्ट्रनिर्माता है।आधुनिक राष्ट्रवाद के पाँच प्रमुख स्तंभ: वंदे मातरम् की नई व्याख्या,150 वर्षों के अवसर पर भारत को राष्ट्रवाद की नई रूपरेखा पर विचार करना चाहिए।यह पाँच स्तंभ आज के भारत की आत्मा हैं:भारतीय राष्ट्रवाद हिंसा या टकराव पर नहीं, बल्कि “सबका विकास, सबकी चिंता” जैसे आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित है।
वंदे मातरम् और भारतीय राजनीति: जोड़ या दूरी?कभी यह गीत राजनीति को दिशा देता था।आज इसका उपयोग राजनीतिक विवादों में फँस जाता है।असल प्रश्न यह है—क्या कोई राष्ट्रगीत विवाद का विषय हो सकता है?क्या किसी माँ को ‘पक्ष’ या ‘विपक्ष’ का प्रतीक बनाया जा सकता है?वंदे मातरम् राजनीति से ऊपर है—यह राष्ट्र की आत्मा है।और जिस दिन यह फिर से केवल संस्कृति का गीत बन जाएगा, उसी दिन इसकी ऊर्जा पुनः सम्पूर्ण राष्ट्र को जोड़ देगी।
150वीं वर्षगाँठ पर राष्ट्र का संकल्प: एक नई दृष्टि की जरूरत
हमारे लिए यह क्षण केवल गीत की वर्षगाँठ नहीं—यह राष्ट्र-चेतना की वर्षगाँठ है।
भारत को अब ऐसी राष्ट्रीय दृष्टि की आवश्यकता है जो—आधुनिक हो पर पश्चिमी न हो,वैज्ञानिक हो पर अध्यात्म-विहीन न हो,वैश्विक हो पर जड़ों से कटी न हो,प्रगतिशील हो पर परम्परा-विरोधी न हो,यह वह राष्ट्रवाद है, जिसकी जड़ें वंदे मातरम् में हैं और शाखाएँ आधुनिक भारत के भविष्य में फैल रही हैं।9
वंदे मातरम्—अतीत की प्रतिध्वनि नहीं, भविष्य का घोष,150 वर्षों का यह उत्सव हमें याद दिलाता है कि:भारत केवल एक भूभाग नहीं—यह एक सभ्यता है।राष्ट्रवाद केवल भावनात्मक नारा नहीं—यह विकास, आत्मविश्वास और सांस्कृतिक गरिमा का संगम है।वंदे मातरम् केवल गीत नहीं—यह भारतीय आत्मा का सार है।आज का भारत नए आत्मविश्वास के साथ खड़ा है—अर्थव्यवस्था में, तकनीक में, कूटनीति में, संस्कृति में।यह आत्मविश्वास संयोग नहीं—यह वही शक्ति है जिसे बंकिमचन्द्र ने शब्द दिया था, जिसे स्वतंत्रता सेनानियों ने जीवन दिया था, और जिसे आज का भारत नए अर्थ दे रहा है।
वंदे मातरम् @150 भारत को याद दिलाता है—हमारे राष्ट्र की आत्मा अमर है, और जब भी हम अपनी जड़ों की ओर लौटते हैं, भारत एक नया स्वर्णयुग रचता है।
राजेंद्र नाथ तिवारी, टीम कौटिल्य
क्रमशः 21श्रृंखला
भाजपा का SIR अभियान जोरों पर: बस्ती में कार्यकर्ताओं ने ली मजबूत प्रतिबद्धता, हर पात्र मतदाता को मिलेगी न्यायपूर्ण भागीदारी , सहजानंद राय
भाजपा का SIR अभियान जोरों पर: बस्ती में कार्यकर्ताओं ने ली मजबूत प्रतिबद्धता, हर पात्र मतदाता को मिलेगी न्यायपूर्ण भागीदारी
बैठक की अध्यक्षता जिला अध्यक्ष विवेकानन्द मिश्र ने की, जिसमें जिला संयोजक, विधानसभा संयोजक और सभी मंडल अध्यक्षों ने भाग लिया। प्रगति रिपोर्ट में अभियान की सकारात्मक दिशा उभरकर आई, हालांकि संगठन ने कुछ क्षेत्रों में सक्रियता बढ़ाने पर जोर दिया। क्षेत्रीय अध्यक्ष राय ने उत्साहजनक संदेश देते हुए कहा, "भाजपा का मूल मंत्र है—संगठन, सेवा और समर्पण। SIR अभियान में हर कार्यकर्ता निष्ठा के साथ जुड़े, ताकि कोई पात्र मतदाता सूची से बाहर न रहे। सभी मंडलों में रफ्तार तेज करें और दैनिक रिपोर्ट समय पर भेजें।"
जिलाध्यक्ष मिश्र ने अभियान को लोकतंत्र का सशक्त माध्यम बताते हुए कार्यकर्ताओं को स्पष्ट निर्देश दिए। उन्होंने कहा, "बस्ती में SIR को पूर्ण गंभीरता से चलाया जा रहा है। 4 दिसंबर तक प्रत्येक कार्यकर्ता प्रतिदिन कम से कम 25 घरों पर जाकर मतदाता सूची का सत्यापन करेगा। फॉर्म भरने में किसी को कठिनाई हो तो तत्काल सहायता दें। यह न केवल औपचारिकता है, बल्कि हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है।" इन निर्देशों से कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार हुआ, जो अभियान को और प्रभावी बनाने के प्रति प्रतिबद्ध दिखे।
बैठक में पूर्व विधायक दयाराम चौधरी, संजय प्रताप जायसवाल, चंद्र शेखर मुन्ना, अखंड प्रताप सिंह, अंकुर वर्मा, दिलीप पांडेय, कामेंद्र चौहान, गंगेश सिंह, धर्मेंद्र जायसवाल, राजकुमार शुक्ला, गौरवमणि त्रिपाठी, लवकुश शुक्ला, गौरव अग्रवाल, दिव्यांशु दुबे, आदित्य शर्मा, दिलीप भट्ट, वेद प्रकाश त्रिपाठी, राम निवास गिरी, अंकित पांडेय सहित अन्य पदाधिकारी मौजूद रहे। भाजपा का यह प्रयास निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश के लोकतांत्रिक ढांचे को और सशक्त बनाएगा, जहां हर वोट की आवाज बुलंद होगी।
गुरुवार, 27 नवंबर 2025
बारातियों की कार खाई में गिरी, तीन की मौत
बारातियों की कार खाई में गिरी, तीन की मौत
जौनपुर। उत्तरप्रदेश
सपा जिलाध्यक्ष महेन्द्रनाथ यादव ने डीएम को दिया पत्रः पारदर्शी एस.आई.आर. प्रक्रिया कराने की मांग
सपा जिलाध्यक्ष महेन्द्रनाथ यादव ने डीएम को दिया पत्रः पारदर्शी एस.आई.आर. प्रक्रिया कराने की मांग
बीएलओ को और समय, कर्मचारी उपलब्ध कराये प्रशासन
जिला निर्वाचन अधिकारी/ जिलाधिकारी को दिये पत्र में सपा जिलाध्यक्ष महेन्द्रनाथ यादव ने कहा है कि बीएलओ पर 48 घंटे में गणना प्रपत्र जमा करने के लिए व काफी मतदेय स्थलों के मतदाताओं के गणना प्रपत्र बी०एल०ओ० द्वारा ‘थर्ड ऑप्शन’ में सबमिट करने के लिए दबाव बनाए जाने के मामले सामने आ रहे हैं। यह स्थितियां स्वस्थ लोकतंत्र के लिये घातक है। समस्याओं का प्रभावी स्तर पर तत्काल निराकरण कराया जाय जिससे शुद्ध मतदाता सूची बन सके।
सपा जिलाध्यक्ष महेन्द्रनाथ यादव ने डीएम को पत्र देकर मांग किया है कि जिन बूथों पर 48 घंटे में गणना प्रपत्र जमा करने का दबाव बनाया जा रहा वहाँ पर और कर्मचारियों को नियुक्त किया जाय व बीएलओ को और समय दिया जाय तथा ‘श्रेणी प्रथम’ व ‘श्रेणी द्वितीय’ के मतदाताओं को बी०एल०ओ० द्वारा ‘श्रेणी तृतीय’ में सबमिट किये जाने की शिकायत को तत्काल संज्ञान में लेकर अबिलम्ब कार्यवाही कर के शिकायत का निराकरण कराया जाये, जिससे पारदर्शी ढंग से एस.आई.आर.प्रक्रिया सम्पन्न हो
गोरखपुर -अयोध्या शिक्षक (फेजवाद ) में मतदाता सूचियों लक़े लिए बढ़े नाम जल्द कार्यालय कों जमा करें,
बस्ती 27 नवम्बर 2025
उप जिला निर्वाचन अधिकारी प्रतिपाल सिंह चौहान ने एक पत्र के माध्यम से समस्त उप जिलाधिकारी/सहायक निर्वाचक रजिस्ट्रीकरण अधिकारी गोरखपुर-फैजाबाद खण्ड शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र के लोगों को निर्देश देते हुए कहा है कि दिनॉक 01.11.2025 के आधार पर उ.प्र. विधान परिषद के गोरखपुर-फैजाबाद खण्ड शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र की निर्वाचक नामावलियों को नये सिरे (De-novo) से तैयार किए जाने संबंधी शेष कार्यक्रम का पुनर्निधारण किया गया है। दिनॉक 02 दिसम्बर 2025 को ड्राफ्ट वोटरलिस्ट का प्रकाशन किया जाना है। प्रत्येक दशा में दिनॉक 27 नवम्बर 2025 तक SAERO लॉगिन पर उपलब्ध समस्त आवेदनों का निस्तारण किया जाना आवश्यक है।
दिनॉक 30 सितम्बर 2025 से 15 अक्टूॅबर 2025 तक की आनलाईन एप्लीकेशन जिनमें फोटोग्राफस तथा डाकूमेन्ट नही अपलोड किए गये है वो समस्त एप्लीकेशन संबंधित SAERO के लागिन पर पुनः वापिस कर दिये गये है, जिसमें दिनॉक 27 नवम्बर 2025 तक प्रत्येक दशा में डाकूमेन्ट व फोटो अपलोड कर दिये जाय। समस्त आफ लाइन आवेदनों की फीडिंग तथा लागिन पर उपलब्ध आफलाइन एवं आनलाईन आवेदनों का प्रत्येक दशा में 27 नवम्बर 2025 को रात्रि 12 बजे तक पूर्ण कर लिए जाय। दिनॉक 27 नवम्बर 2025 को रात्रि 12 बजे के पश्चात पोर्टल बन्द कर दिया जायेंगा। तत्पश्चात किसी भी आवेदन पर कोई कार्य नही किया जा सकेंगा।दिनॉक 28 नवम्बर 2025 को De-duplication माड्यूल के माध्यम से डुप्लिकेट वोटर के संबंध में आनलाइन कार्यवाही सम्पादित की जायेंगी। दिनॉक 29 तथा 30 नवम्बर 2025 में मतदाताओं तथा उनकी बूथवाइज, पार्टवाइज का कार्य माड्यूल पर किया जायेंगा। उक्त मार्किंग के आधार पर ड्राफ्ट मतदाता सूची की रिचेकिंग तथा प्रिंटआउट निकालने का कार्य दिनॉक 01 दिसम्बर 2025 तक प्रत्येक दशा में पूर्ण कर लिया जायेंगा, जिससे दिनॉक 02 दिसम्बर 2025 को ड्राफ्ट मतदाता सूची का प्रकशन किया जा सकें।
उप जिला निर्वाचन अधिकारी ने समस्त सहायक निर्वाचक रजिस्ट्रीकरण अधिकारियों को निर्देश देते हुए कहा है कि निर्वाचक नामावलियों को तैयार किए जाने के संबंध में उपरोक्तानुसार समस्त कार्यवाही ससमय पूर्ण कराने के साथ ही निर्वाचक नामावलियों के आलेख्य प्रकाशन की सूचना जिला निर्वाचन कार्यालय को दिनॉक 02.12.2025 को पूर्वान्ह 10 बजे तक उपलब्ध कराना सुनिश्चित करें।
कांग्रेस का भविष्य पुराण :गाँधी परिवार की प्रेत छाया से मुक्ति, अन्यथा कांग्रेस की भूमिका समाप्त!!
राजनीतिक विलुप्तता की और बढ़ती कांग्रेस!
" राजेंद्र नाथ तिवारी के साथ टीम कौटिल्य "
1965 मे पटना में पत्रकार वार्ता करते समय तत्कालीन जनसंघ के राष्ट्रीय महामंत्री पंडित दीनदयाल उपाध्याय से पत्रकारों ने पूछा था की क्या आप कांग्रेस विहीन भारत की कल्पना कर रहे हैं तो उन्होंने कहा था ऐसा नहीं है जिस दिन भारत से कांग्रेस देश से समाप्त हो जाएगी vh दिन लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत होगा,वह शुभ दिन राहुल के नेतृत्व में धीरे-धीरे विपक्ष विहीन अवसान की ओर बढ़ रहा है.
कांग्रेस आज खुद को राजनीतिक दबाव और संकट के गहरे अंधकार में पाई जा रही है, जहां उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लग चुका है। बिहार चुनाव 2025 में मिली करारी हार ने पार्टी की कमज़ोरी को बेबाकी से उजागर कर दिया है, जहां कांग्रेस 61 में से सिर्फ 6 सीटें जीत पाई, जबकि NDA ने 202 सीटें लेकर उसका निर्दोष विनाश किया। यह हार पार्टी के लिए सिर्फ एक हार नहीं, बल्कि पूरी राष्ट्रीय साख का पतन है। वोट बैंक टूट चुका है, खासकर मुस्लिम-यादव और OBC/EBC वर्ग में, और पार्टी की नेतृत्वहीनता सार्वजनिक रूप से दिख रही है।
राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व के खिलाफ खुलेआम कमी और संघर्ष ने पार्टी को अंदर से खोखला कर दिया है।कांग्रेस की राजनीति अब 'आक्रामकता' के नाम पर एक मुखौटा बन चुकी है, जो कथित विरोध का मंच पर कर्मकांड करती दिखती है लेकिन असल में रणनीतिक विफलता की गाथा कहती है। राहुल गांधी और कांग्रेस नेतृत्व ने रामलीला मैदान से संसद तक फर्जी मतदाता, वोट चोरी और चुनाव आयोग की नाकामी के मुद्दे को लेकर जोरदार विरोध करने की घोषणा की है, लेकिन यह विरोध असली राजनीतिक जमीन से कट चुका है और सिमटता जा रहा है।
कांग्रेस के नेताओं की कटु भाषा और आक्रामक रुख ने गठबंधन सहयोगियों जैसे RJD और SP के साथ संबंधों को भी भारी नुकसान पहुंचाया है, जिससे महागठबंधन में दरार का खतरा मंडरा रहा है।भविष्य के लिए पार्टी के पास अगर बदलाव की स्पष्ट नीति और नया नेतृत्व न उठा, तो कांग्रेस का भारत में विपक्ष के रूप में अस्तित्व ही खतरे में है। 2026-29 के बीच पार्टी को अगर तेज़ी से स्वायत्त, युवा नेतृत्व, डिजिटल और समावेशी रणनीति नहीं दी गई तो वह मैदान से पूरी तरह बाहर हो सकती है। हाल के सुधार और युवा जिला अध्यक्षों की नियुक्ति महज दिखावा हैं, जो जमीनी असंतोष को छुपा नहीं पा रहे। गांधी परिवार की सत्ता और दशकों पुरानी पैतृक राजनीति पार्टी की नकारात्मक छवि को और मजबूत कर रही है, जिसकी कीमत पार्टी को 2029 के लोकसभा चुनाव में भारी पड़ेगी।
कुल मिला कर कांग्रेस अब आक्रामकता की राजनीति में खुद को खो चुकी है, जहां वह अपने सामाजिक और जातीय गठबंधन टूटने, नेतृत्व पर विवाद, और गठबंधन सहयोगियों के साथ झगड़े के चलते शक्तिहीन होती जा रही है। इसका "संघर्षात्मक अस्तित्व" बहुत जल्द "राजनीतिक विलुप्तता" में बदल सकता है, यदि तत्काल और व्यापक राजनीतिक पुनर्गठन नहीं हुआ। विपक्ष की परिभाषा में कांग्रेस तेजी से "कमजोर कड़ी" बनती जा रही है, जो ना तो अपने वोटरों को राजनैतिक आत्मविश्वास दे पा रही है, ना ही राष्ट्रीय मंच पर प्रभावी आवाज़ बना पा रही है.
संविधान विरोध भी नकारात्मक कर्मकांड, जो सलाहकार लाखों की फीस से राय देता हो
बुधवार, 26 नवंबर 2025
क्रांति -बलिदान - त्याग की त्रिवेणी वदेमातरम( २०)
विंशतिः श्रृंखला 20
क्रांति -बलिदान - त्याग की त्रिवेणी,वन्देमातरम!
वन्देमातरम न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरक मंत्र था बल्कि क्रांति और बलिदान का प्रतीक भी रहा है। इस गीत का महत्व और उसमें समाहित बलिदान की भावना स्वतंत्रता सेनानियों के अदम्य उत्साह और देशभक्ति की आत्मा का स्त्रोत बनी। वन्देमातरम ने भारत माता के प्रति श्रद्धा, प्रेम और त्याग की भावना को जागृत किया, जिससे कई क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी।वन्देमातरम का अर्थ और प्रेरणावन्देमातरम का शाब्दिक अर्थ है "मां को नमन" या "मां को प्रणाम"। यह बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा 1875 में उपन्यास 'आनंदमठ' के लिए रचित था, जो उस समय बंगाल के अकाल और सन्यासी विद्रोह की पृष्ठभूमि पर आधारित था। गीत भारत माता की प्राकृतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समृद्धि की महिमा करता है, जिसमें मां को देवी दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती के रूप में देखा गया है। इस गीत ने भारतीय जनता को मातृभूमि के प्रति समर्पण का भाव और बलिदान की चेतना से जोड़ा, जो स्वतंत्रता संग्राम का अहम हिस्सा बनी.क्रांति में वन्देमातरम की भूमिकावन्देमातरम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों के उत्साह और हौसले का मूल मन्त्र बन गया। इसने अंग्रेजों के विरुद्ध विरोध-प्रदर्शनों में लाखों लोगों को एकजुट किया।
1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में यह गीत सभी जगह गूंजा। इसे वीर सावरकर, भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारियों ने अपनी प्रेरणा माना। फांसी की सजा भुगतते समय भी कई क्रांतिकारियों ने अपने होठों पर वन्देमातरम को गूंजाया। इस गीत ने आत्म-बलिदान की शक्ति भी दी, जिससे क्रांतिकारी मौत को भयभीत न होकर स्वीकार करते थे.बलिदान और समर्पण का प्रतीकवन्देमातरम गीत ने स्वतंत्रता सेनानियों को अपने प्राणों का बलिदान करने के लिए प्रेरित किया। यह गीत न केवल शब्दों का संगम था, बल्कि एक ऐसा आध्यात्मिक मंत्र था जिसने हजारों ने वीरतापूर्वक फांसी चढ़ने और गोली खाने का साहस जुटाया। 1857 की क्रांति से लेकर 1947 तक यह गीत भारतवासियों के हृदय में मातृभूमि के लिए समर्पण का भाव जगाए रखता रहा।
इस गीत से जुड़ी भावनाओं में जाति, धर्म और वर्ग की सीमाएं नहीं थीं, सिर्फ एकता और देशभक्ति थी.सामाजिक-राजनैतिक विमर्श में वन्देमातरमहालांकि वन्देमातरम के कुछ छंदों को लेकर सांप्रदायिक विवाद भी रहे, उनमें से कुछ छंदों में मां की पूजा हिंदू देवी-देवताओं के रूप में की गई थी, जो मुस्लिम समुदाय के कुछ वर्ग के लिए स्वीकार्य नहीं था। इस कारण से कांग्रेस ने 1937 में केवल पहले दो छंदों को राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार किया। इसके बावजूद यह गीत स्वतंत्रता संग्राम की एक शक्तिशाली आवाज और बलिदान की अमर गाथा के रूप में आज भी स्मरणीय है। 150 वर्ष पूरे होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे भारत की एकता और शक्ति का अमर स्वर बताया.वन्देमातरम ने स्वाधीनता संग्राम में क्रांति, त्याग और वलिदान की भावना को जीवित रखा, भारत सरकार और जनता के लिए एक प्रेरक शक्ति बनकर उभरा। यह केवल एक गीत नहीं, बल्कि देशभक्ति की एक अनमोल धरोहर और बलिदान का एक प्रतीक है जिसने किसानों, क्रांतिकारियों, युवाओं और हर वर्ग को मातृभूमि की रक्षा के लिए एकजुट किया..🙏 क्रमशः
राजेन्द्र नाथ तिवारी
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