रविवार, 9 नवंबर 2025

“अय्याशी के अड्डों में बदलते होटल: व्यवस्था की नपुंसकता पर कठोर प्रश्नचिह्न”

 




 “अय्याशी के अड्डों में बदलते होटल: व्यवस्था की नपुंसकता पर कठोर प्रश्नचिह्न


आज जब भारतीय समाज विकास, संस्कृति और सुरक्षा की दुहाई देता है, उसी समाज की गलियों में होटलें “आयाशबाजों के आश्रयस्थल” बन चुकी हैं। यह स्थिति केवल नैतिक पतन की नहीं, बल्कि व्यवस्था की अपंगता, समाज की चुप्पी और प्रशासन की मिलीभगत का परिणाम है। सहसा लगता है कि हमारे शहरों की चमकती नियॉन लाइटों के पीछे कानून और नैतिकता दोनों की लाशें पड़ी हैं — बस कोई देखने वाला नहीं।






 समाज की चुप्पी — नैतिक पतन की जड़,::कभी जिन होटलों में यात्रियों को ठहराने, थके हुए मजदूरों को राहत देने या पर्यटकों के स्वागत का उद्देश्य था, आज वे रात के सौदागरों के ठिकाने बन गए हैं।रात के अंधेरे में बुकिंग होती है, दिन में पर्दा डाल दिया जाता है। समाज जानता है, देखता है, मगर चुप रहता है। यह चुप्पी ही सबसे बड़ा अपराध है। जब समाज अपने चारों ओर हो रहे पतन को सामान्य मान लेता है, तो अपराधी व्यवस्था नहीं, हमारी संवेदनहीनता होती है। व्यवस्था का चरित्र — दिखावा और ढोंग प्रशासनिक व्यवस्था का यह दोगलापन अचंभित करता है।
हर थाना जानता है कि किन इलाकों में कौन से होटल रात में कौन से सौदे करवाते हैं।पुलिस की गश्त गुजरती है, मगर सिर्फ “नजर डालने” के लिए। जब तक कोई हंगामा या मौत न हो, तब तक सब कुछ चलता है। इस मौन सहमति के पीछे वही कड़वी सच्चाई है — रिश्वत, सिफारिश और सियासत का त्रिकोण।
सच्चाई यह है कि यह “होटल व्यापार” अब सिस्टम की अनौपचारिक इकॉनमी बन चुका है, जहाँ हर अवैध कमाई की जड़ में कोई न कोई अफसर, नेता या रसूखदार शामिल है। अपराध और अर्थशास्त्र का गठबंधन यहाँ अय्याशी केवल एक शौक नहीं, बल्कि व्यवस्थित उद्योग है। कमरे का किराया घंटे के हिसाब से तय होता है, पहचान-पत्र की माँग केवल औपचारिकता है, और हर ग्राहक का डेटा “संरक्षित” रखने का दावा सिर्फ दिखावा.यही से अपराध की जड़ें निकलती हैं — किडनैपिंग, मादक पदार्थ, ब्लैकमेलिंग, और सेक्स-ट्रैफिकिंग का पूरा जाल इन्हीं होटलों से संचालित होता है। प्रशासन जानता है, मगर “कट” लेकर आँख बंद करता है।
यह केवल एक होटल का मामला नहीं, बल्कि राज्य की सामाजिक-सुरक्षा नीति की नाकामी का प्रतीक है। सामाजिक दुर्व्यवस्था — जहाँ नैतिकता दम तोड़ती है

जब शहर के बीचोंबीच “होटल” शब्द सुनते ही लोग शंका करने लगें, तो समझिए समाज की आत्मा घायल है। आज कोई माता-पिता अपने बेटे या बेटी को होटल में जाने से पहले हिचकते हैं — क्योंकि उन्हें अपने बच्चे पर नहीं, व्यवस्था पर भरोसा नहीं रहा। यह विश्वासघात है उस समाज के साथ जो सभ्यता और मर्यादा की दुहाई देता है। हमने व्यापार के नाम पर व्यभिचार को स्वीकृति दे दी है।
 प्रशासन की भूमिका — निरीक्षण नहीं, संरक्षण,अगर होटल मालिक कानून तोड़ रहे हैं तो सवाल उठता है —उनके लाइसेंस हर साल नवीनीकृत कैसे होते हैं?
क्या फायर NOC, पुलिस वेरीफिकेशन, होटल-लॉग रजिस्टर की औपचारिक जाँच वास्तव में होती है? या यह सब केवल कागज़ पर दर्ज भ्रष्टाचार का हिस्सा बन चुका है? पुलिस जब चाहे तो हर होटल का रिकॉर्ड 24 घंटे में खंगाल सकती है —
परंतु जब सिस्टम ही दलाल बन जाए, तो निरीक्षण संरक्षण में बदल जाता है सामाजिक विवेक का पतन यह केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पतन भी है। टीवी धारावाहिकों, फ़िल्मों और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने “लिव-इन”, “वन नाइट स्टैंड” और “होटल रोमांस” को सामान्य बनाकर एक ऐसी मानसिकता पैदा कर दी है जिसमें संवेदना के स्थान पर शरीर की भूख को प्रतिष्ठा मिल गई है। इस नैतिक भ्रम के बीच जब व्यवस्था सोती है, तो समाज अपने नैतिक रीढ़ से वंचित हो जाता है।

क्या किया जाना चाहिए?
1. सभी होटलों की डिजिटल जाँच – CCTV, ID verification, आगंतुक डेटा हर 24 घंटे में पुलिस पोर्टल पर अपलोड हो।2. पुलिस और पर्यटन विभाग की संयुक्त टास्क फोर्स बनाई जाए जो नैतिक अपराधों पर सीधा नियंत्रण रखे।3. शहरी स्थानीय निकायों द्वारा मासिक रिपोर्टिंग हो कि किन इलाकों में संदिग्ध गतिविधियाँ बढ़ी हैं। हाइवे की नियमित निगरानी,4. कानूनी प्रावधानों में संशोधन हो — होटल संचालक की जवाबदेही केवल लाइसेंस तक सीमित न रहे, बल्कि नैतिक उल्लंघनों के लिए भी दंडनीय हो।5. मीडिया और समाज की जागरूकता – क्योंकि व्यवस्था तभी सुधरेगी जब समाज आँखें खोलेगा।


जब सभ्यता के नाम पर व्यभिचार को उद्योग बना दिया जाए, जब सुरक्षा की जगह समझौते हों, जब प्रशासन ‘गश्त’ करे लेकिन ‘गिरफ्त’ न करे —तो समझ लीजिए व्यवस्था नहीं, अराजकता शासन कर रही है। आज जरूरत है ऐसे समाज की जो सवाल पूछे, ऐसे प्रशासन की जो जवाब दे, और ऐसे शासन की जो भ्रष्ट व्यवस्था की जड़ काटने का साहस रखे।क्योंकि अगर होटलें अय्याशी के अड्डे बनेंगी,
तो कल अदालतें भी मूक दर्शक रह जाएँगी —और तब राष्ट्र की रीढ़ केवल आर्थिक नहीं, नैतिक रूप से भी टूट जाएगी।


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