रविवार, 9 नवंबर 2025

वंदे मातरम से सन्यासी आंदोलन तक: आनंदमठ की राष्ट्रीय चेतना श्रृंखला (दो )

 राजेन्द्र नाथ तिवारी

सुहृद जन वन्देमातरम लेख श्रृंखला 150 का द्वितीय प्रसून 🙏

बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास "आनंदमठ" और उसमें शामिल राष्ट्रगान "वन्देमातरम" का तत्कालिक सन्यासी आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा। 1875 में लिखे गए इस गीत ने सन्यासी विद्रोह की भावना को जागृत किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारी आवाज़ बनकर उभरा। "आनंदमठ" में सन्यासी आंदोलन के ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ को प्रस्तुत किया गया है, जिसमें अंग्रेजों की विदेशी सत्ता और मुस्लिम शासकों के दमन के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह की बात है। बंकिम चंद्र ने अपने उपन्यास के माध्यम से तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति का जुड़ाव करके सन्यासी विद्रोह की कहानी को रोमांटिक और राष्ट्रीय चेतना के रूप में स्थापित किया।"वन्देमातरम" गीत केवल मातृभूमि की स्तुति ही नहीं, बल्कि स्वतंत्रता की अलख जगाने वाला एक क्रांतिकारी मंत्र बन गया, जिसे अनेक युवा क्रांतिकारियों ने अदालत या विरोध प्रदर्शन में उद्घोषित किया। इस गीत ने तत्कालिक सन्यासी आंदोलन को एक संगठित राष्ट्रवादी आंदोलन में परिवर्तित करने में मदद की और अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह की भावना को जन-जन तक पहुँचाया।

 बंकिम चंद्र की इस रचना को आधुनिक भारत की राष्ट्रवादी साहित्यिक धरोहर माना जाता है, जिसने तोड़फोड़ के ज़माने में सांस्कृतिक एवं राजनीतिक एकजुटता का संदेश दिया।हालांकि, "आनंदमठ" और "वन्देमातरम" को लेकर मुस्लिम संगठनों में विशेषकर मुस्लिम लीग में विवाद भी उत्पन्न हुआ। उपन्यास में मुस्लिम शासकों के खिलाफ टकराव और विरोधी स्वर के कारण कुछ कट्टर समूहों ने इसे सांप्रदायिक माना; परंतु मूलतः यह रचना अंग्रेजी शासन और अन्य विदेशी दमन के विरुद्ध राष्ट्रीय चेतना को सशक्त बनाने पर केंद्रित थी। अंग्रेजों ने भी इस रचना को खतरे के रूप में देखा और इसे प्रतिबंधित करने की पहल की।संक्षेप में कहा जा सकता है कि "आनंदमठ" और "वन्देमातरम" ने तत्कालिक सन्यासी आंदोलन को साहित्यिक और सांस्कृतिक आधार प्रदान किया, जिससे यह आंदोलन केवल स्थानीय विद्रोह नहीं रह गया बल्कि समूचे भारत में आज़ादी और राष्ट्र निर्माण के लिए प्रेरणास्रोत बन गया। 

बंकिम चंद्र ने उपन्यास और गीत के जरिए सन्यासी विद्रोह को नई दिशा दी, जो बाद में स्वतंत्रता संग्राम की जन नाटकीयता में बदल गई। 

राजेंद्र नाथ तिवारी 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें