बलात् ‘फूफा’ क्यों बना है प्रेस? : एक राजनीतिक विवेचन, राजेन्द्र नाथ तिवारी
भारतीय लोकतंत्र का ढांचा चार स्तंभों पर टिका हुआ माना जाता है — विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस। परंतु आज का कटु यथार्थ यह है कि जहाँ तीनों स्तंभ — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका संविधानिक सुरक्षा और संस्थागत मर्यादाओं में बँधे हुए हैं, वहीं प्रेस को “बलात् फूफा” बना दिया गया है, अर्थात वह न तो पूर्णतः स्वतंत्र है, न ही सत्ता के भीतर प्रतिष्ठित। वह परिवार का सदस्य तो है, पर निर्णयों में भाग नहीं ले सकता। उसकी भूमिका “समारोहों में आमंत्रित, पर सलाह में उपेक्षित” की हो गई है।
प्रेस: लोकतंत्र का असुरक्षित प्रहरी प्रेस लोकतंत्र का प्रहरी कहा गया है, परंतु आज उसका पहरा सत्ता और पूँजी दोनों की बंदूकों के नीचे है।कभी उसे “चौथा स्तंभ” कहा गया था क्योंकि वह नागरिकों की चेतना का विस्तार करता था, सत्ता को जवाबदेह बनाता था और नीति को नैतिकता से जोड़ता था।पर अब स्थिति उलट है — पत्रकार को रिपोर्ट नहीं, रेट तय करना पड़ता है; खबर नहीं, प्रायोजक चुनना पड़ता है।विधायिका को संविधान ने विधायी प्रतिरक्षा, कार्यपालिका को प्रशासनिक सुरक्षा, और न्यायपालिका को न्यायिक स्वतंत्रता प्रदान की।
भारतीय लोकतंत्र का ढांचा चार स्तंभों पर टिका हुआ माना जाता है — विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस। परंतु आज का कटु यथार्थ यह है कि जहाँ तीनों स्तंभ — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका संविधानिक सुरक्षा और संस्थागत मर्यादाओं में बँधे हुए हैं, वहीं प्रेस को “बलात् फूफा” बना दिया गया है, अर्थात वह न तो पूर्णतः स्वतंत्र है, न ही सत्ता के भीतर प्रतिष्ठित। वह परिवार का सदस्य तो है, पर निर्णयों में भाग नहीं ले सकता। उसकी भूमिका “समारोहों में आमंत्रित, पर सलाह में उपेक्षित” की हो गई है।
प्रेस: लोकतंत्र का असुरक्षित प्रहरी प्रेस लोकतंत्र का प्रहरी कहा गया है, परंतु आज उसका पहरा सत्ता और पूँजी दोनों की बंदूकों के नीचे है।कभी उसे “चौथा स्तंभ” कहा गया था क्योंकि वह नागरिकों की चेतना का विस्तार करता था, सत्ता को जवाबदेह बनाता था और नीति को नैतिकता से जोड़ता था।पर अब स्थिति उलट है — पत्रकार को रिपोर्ट नहीं, रेट तय करना पड़ता है; खबर नहीं, प्रायोजक चुनना पड़ता है।विधायिका को संविधान ने विधायी प्रतिरक्षा, कार्यपालिका को प्रशासनिक सुरक्षा, और न्यायपालिका को न्यायिक स्वतंत्रता प्रदान की।
पर प्रेस को? कानूनी सुरक्षा का कोई ठोस प्रावधान नहीं — न वेतन की गारंटी, न सुरक्षा की नीति, न संस्थागत संरचना।
क्यों “बलात् फूफा”?भारतीय राजनीति में प्रेस की स्थिति अब उस ‘फूफा’ जैसी हो गई है जिसे न तो घरवाले स्वीकारते हैं न छोड़ते हैं।जब सत्ता की आलोचना करनी होती है तो उसे “एंटी-नेशनल” कहा जाता है।जब सरकार की प्रशंसा करता है तो “गोदी मीडिया” कहा जाता है।
जब तटस्थ रहता है तो “ग़ैर-प्रासंगिक” घोषित कर दिया जाता है।इस प्रकार प्रेस को हर दिशा से धकेला गया है —
राजनीतिक सत्ता उसे “विरोधी” समझती है,
व्यवसायिक घराने उसे “निवेश साधन” समझते हैं,
और जनता उसे “मनोरंजन” का माध्यम मानने लगी है।
यह “बलात् फूफा” की स्थिति इसलिए है क्योंकि वह परिजन है — परन्तु “सत्ता का अनिवार्य अंग” नहीं; सम्मान है, पर अधिकार नहीं।
विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका: क्यों सुरक्षित हैं?विधायिका का संरक्षण लोकतांत्रिक संप्रभुता से है — उसे जनता चुनती है, इसलिए वह कानूनी रूप से सर्वोच्च मानी जाती है।कार्यपालिका का संरक्षण प्रशासनिक ढांचे और अनुशासनिक नियमों से है — अधिकारी और कर्मचारी सेवा नियमों से बंधे हैं, उनके लिए आयोग, न्यायालय, सेवा शर्तें आदि हैं।न्यायपालिका को संविधान ने स्वतंत्रता की विशेष गारंटी दी है — वेतन, कार्यकाल, नियुक्ति की प्रक्रिया तक को राजनीतिक हस्तक्षेप से अलग रखा गया है।
पर प्रेस? न उसका संविधान में उल्लेख है, न उसकी स्वतंत्रता के लिए कोई आयोग, न कोई नियामक शक्ति जो सरकार से स्वतंत्र हो।“प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया” नामक संस्था है, पर उसका कोई दंडात्मक अधिकार नहीं — वह केवल सुझाव दे सकती है।इसलिए तीनों स्तंभ सत्ता की छत्रछाया में सुरक्षित हैं, जबकि प्रेस बिना छत्र, बिना सुरक्षा — खुले आकाश में नंगा प्रहरी बनकर खड़ा है।
सत्ता और प्रेस का ऐतिहासिक समीकरण स्वतंत्रता संग्राम में प्रेस, शक्ति नहीं शक्ति-भंजक था।बाल गंगाधर तिलक के ‘केसरी’ से लेकर गणेशशंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ तक, प्रेस ने जनजागरण की भूमिका निभाई।पर स्वतंत्र भारत में यह समीकरण बदल गया —राजनीति को प्रचार चाहिए था, और प्रेस को पूँजी।दोनों का गठजोड़ बना, और वहाँ से “मालिक-रिपोर्टर” की दूरी बढ़ी।1975 का आपातकाल इस प्रवृत्ति की चरम परिणति था — सेंसरशिप ने प्रेस की रीढ़ तोड़ दी।लेकिन 1977 के बाद भी लोकतंत्र ने उसे पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी; बल्कि अब सूक्ष्म सेंसरशिप ने जगह ली — विज्ञापन नियंत्रण, चैनल लाइसेंस, आयकर नोटिस, और ट्रोल आर्मी जैसी नीतियाँ।
क्यों “बलात् फूफा”?भारतीय राजनीति में प्रेस की स्थिति अब उस ‘फूफा’ जैसी हो गई है जिसे न तो घरवाले स्वीकारते हैं न छोड़ते हैं।जब सत्ता की आलोचना करनी होती है तो उसे “एंटी-नेशनल” कहा जाता है।जब सरकार की प्रशंसा करता है तो “गोदी मीडिया” कहा जाता है।
जब तटस्थ रहता है तो “ग़ैर-प्रासंगिक” घोषित कर दिया जाता है।इस प्रकार प्रेस को हर दिशा से धकेला गया है —
राजनीतिक सत्ता उसे “विरोधी” समझती है,
व्यवसायिक घराने उसे “निवेश साधन” समझते हैं,
और जनता उसे “मनोरंजन” का माध्यम मानने लगी है।
यह “बलात् फूफा” की स्थिति इसलिए है क्योंकि वह परिजन है — परन्तु “सत्ता का अनिवार्य अंग” नहीं; सम्मान है, पर अधिकार नहीं।
विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका: क्यों सुरक्षित हैं?विधायिका का संरक्षण लोकतांत्रिक संप्रभुता से है — उसे जनता चुनती है, इसलिए वह कानूनी रूप से सर्वोच्च मानी जाती है।कार्यपालिका का संरक्षण प्रशासनिक ढांचे और अनुशासनिक नियमों से है — अधिकारी और कर्मचारी सेवा नियमों से बंधे हैं, उनके लिए आयोग, न्यायालय, सेवा शर्तें आदि हैं।न्यायपालिका को संविधान ने स्वतंत्रता की विशेष गारंटी दी है — वेतन, कार्यकाल, नियुक्ति की प्रक्रिया तक को राजनीतिक हस्तक्षेप से अलग रखा गया है।
पर प्रेस? न उसका संविधान में उल्लेख है, न उसकी स्वतंत्रता के लिए कोई आयोग, न कोई नियामक शक्ति जो सरकार से स्वतंत्र हो।“प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया” नामक संस्था है, पर उसका कोई दंडात्मक अधिकार नहीं — वह केवल सुझाव दे सकती है।इसलिए तीनों स्तंभ सत्ता की छत्रछाया में सुरक्षित हैं, जबकि प्रेस बिना छत्र, बिना सुरक्षा — खुले आकाश में नंगा प्रहरी बनकर खड़ा है।
सत्ता और प्रेस का ऐतिहासिक समीकरण स्वतंत्रता संग्राम में प्रेस, शक्ति नहीं शक्ति-भंजक था।बाल गंगाधर तिलक के ‘केसरी’ से लेकर गणेशशंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ तक, प्रेस ने जनजागरण की भूमिका निभाई।पर स्वतंत्र भारत में यह समीकरण बदल गया —राजनीति को प्रचार चाहिए था, और प्रेस को पूँजी।दोनों का गठजोड़ बना, और वहाँ से “मालिक-रिपोर्टर” की दूरी बढ़ी।1975 का आपातकाल इस प्रवृत्ति की चरम परिणति था — सेंसरशिप ने प्रेस की रीढ़ तोड़ दी।लेकिन 1977 के बाद भी लोकतंत्र ने उसे पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी; बल्कि अब सूक्ष्म सेंसरशिप ने जगह ली — विज्ञापन नियंत्रण, चैनल लाइसेंस, आयकर नोटिस, और ट्रोल आर्मी जैसी नीतियाँ।
. डिजिटल युग की गुलामी प्रौद्योगिकी ने सूचना की गति बढ़ाई, पर सत्य की गहराई घटा दी। अब पत्रकार ‘ग्राउंड रिपोर्टर’ नहीं, ‘डिजिटल ऑपरेटर’ बन गया है।
रिपोर्टिंग की जगह रेंडरिंग, संपादन की जगह ट्रेंडिंग ने ले ली है।राजनीतिक दल अब सोशल मीडिया के माध्यम से “नैरेटिव” बनाते हैं —मीडिया उसकी प्रतिध्वनि मात्र बन गया है।आज चैनल चलाने के लिए 90% पूँजी कॉर्पोरेट से आती है,इसलिए जो “कॉर्पोरेट-सत्ता गठबंधन” है वही खबर तय करता है। इसमें पत्रकार केवल सूचना-श्रमिक है — मालिक की नीति बोलने वाला “वॉयस एक्टिवेटेड माइक्रोफोन”।
पत्रकार की असुरक्षा : भय, भूख और ब्लैकमेल
प्रस असुरक्षित क्यों है? क्योंकि पत्रकार असुरक्षित है।
रिपोर्टिंग की जगह रेंडरिंग, संपादन की जगह ट्रेंडिंग ने ले ली है।राजनीतिक दल अब सोशल मीडिया के माध्यम से “नैरेटिव” बनाते हैं —मीडिया उसकी प्रतिध्वनि मात्र बन गया है।आज चैनल चलाने के लिए 90% पूँजी कॉर्पोरेट से आती है,इसलिए जो “कॉर्पोरेट-सत्ता गठबंधन” है वही खबर तय करता है। इसमें पत्रकार केवल सूचना-श्रमिक है — मालिक की नीति बोलने वाला “वॉयस एक्टिवेटेड माइक्रोफोन”।
पत्रकार की असुरक्षा : भय, भूख और ब्लैकमेल
प्रस असुरक्षित क्यों है? क्योंकि पत्रकार असुरक्षित है।
वह न सरकारी सेवा में है, न निजी क्षेत्र में स्थायित्व पा सकता है। न उसके लिए पेंशन है, न बीमा, न श्रमिक सुरक्षा।जो सच्चाई लिखेगा, वह मुकदमे झेलेगा, नौकरी खोएगा, और कभी-कभी जान भी देगा। भारत में पिछले एक दशक में दर्जनों पत्रकारों की हत्या हुई, पर शायद ही किसी का न्यायिक परिणाम सामने आया हो।इसलिए पत्रकार आज भी वह “अघोषित शहीद” है जो लोकतंत्र की लड़ाई जनता के लिए नहीं, अपने अंतःकरण के लिए लड़ता है।
प्रेस की नैतिकता बनाम राजनीतिक अपेक्षा राजनीति चाहती है कि प्रेस “विज्ञापन” बने,जनता चाहती है कि प्रेस “संघर्ष” करे, और प्रेस खुद चाहता है कि वह “सत्य” बोले।
परंतु इस त्रिभुज में सत्य सबसे कमजोर बिंदु बन गया है।
सत्ता “सकारात्मक पत्रकारिता” की मांग करती है — यानी आलोचना नहीं, अलंकरण।मालिक “प्रायोजित खबरें” चाहता है — यानी तथ्य नहीं, व्यापार।और जनता “मनोरंजन” चाहती है — यानी विचार नहीं, तमाशा।
इसलिए जो प्रेस था — वह अब “प्रेस-टिट्यूट” कहे जाने तक गिर गया। पर दोष केवल उसका नहीं — लोकतंत्र ने उसे वह स्थान ही नहीं दिया, जो संविधान ने अन्य स्तंभों को दिया था।समाधान : प्रेस की पुनर्संरचना की आवश्यकता,अगर लोकतंत्र को सचमुच जीवित रखना है तो प्रेस को केवल “चौथा स्तंभ” नहीं, “पहला प्रहरी” बनाना होगा।इसके लिए तीन बुनियादी सुधार आवश्यक हैं:
संवैधानिक मान्यता —प्रेस की स्वतंत्रता को संविधान के मूल अधिकारों में स्पष्ट रूप से जोड़ना चाहिए।
अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ “प्रेस की स्वतंत्रता” को पृथक उपखंड के रूप में जोड़ा जाए। स्वतंत्र प्रेस आयोग —
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को संवैधानिक आयोग का दर्जा देकर उसे दंडात्मक, अनुशासनात्मक और सुरक्षा संबंधी शक्तियाँ दी जाएँ। पत्रकार सुरक्षा कानून —
प्रत्येक राज्य में पत्रकार सुरक्षा अधिनियम बने जिसमें पत्रकारों पर हमले, धमकी या फर्जी मुकदमों की स्वतः न्यायिक निगरानी हो।इसके साथ ही प्रेस फंड, न्यूनतम वेतन नीति, और राजनीतिक विज्ञापन पारदर्शिता कानून भी अनिवार्य किए जाएँ। प्रेस को “फूफा” से “परिजन” बनाने की राह,प्रेस को बलात फूफा की स्थिति से निकालने के लिए राजनीति को यह स्वीकार करना होगा कि—
“जो आलोचना करता है, वही सबसे सच्चा सहयोगी है।”
राज्य को यह मानना होगा कि प्रेस न शत्रु है न अनुचर, वह साझी चेतना का दर्पण है। जनता को भी यह समझना होगा कि “फेक न्यूज़” केवल झूठ नहीं, लोकतंत्र का अपघटन है।
और पत्रकार को स्वयं यह संकल्प लेना होगा कि वह सत्ता का दलाल नहीं, समाज का प्रहरी रहेगा — चाहे उसकी कीमत अपनी नौकरी ही क्यों न हो। लोकतंत्र तब तक जीवित नहीं रह सकता जब तक उसका प्रहरी जिंदा न हो।
आज प्रेस “बलात् फूफा” बना दिया गया है —
सम्मान का प्रतीक पर प्रभाव से विहीन, उपस्थित सभी में पर किसी का नहीं।
प्रेस की नैतिकता बनाम राजनीतिक अपेक्षा राजनीति चाहती है कि प्रेस “विज्ञापन” बने,जनता चाहती है कि प्रेस “संघर्ष” करे, और प्रेस खुद चाहता है कि वह “सत्य” बोले।
परंतु इस त्रिभुज में सत्य सबसे कमजोर बिंदु बन गया है।
सत्ता “सकारात्मक पत्रकारिता” की मांग करती है — यानी आलोचना नहीं, अलंकरण।मालिक “प्रायोजित खबरें” चाहता है — यानी तथ्य नहीं, व्यापार।और जनता “मनोरंजन” चाहती है — यानी विचार नहीं, तमाशा।
इसलिए जो प्रेस था — वह अब “प्रेस-टिट्यूट” कहे जाने तक गिर गया। पर दोष केवल उसका नहीं — लोकतंत्र ने उसे वह स्थान ही नहीं दिया, जो संविधान ने अन्य स्तंभों को दिया था।समाधान : प्रेस की पुनर्संरचना की आवश्यकता,अगर लोकतंत्र को सचमुच जीवित रखना है तो प्रेस को केवल “चौथा स्तंभ” नहीं, “पहला प्रहरी” बनाना होगा।इसके लिए तीन बुनियादी सुधार आवश्यक हैं:
संवैधानिक मान्यता —प्रेस की स्वतंत्रता को संविधान के मूल अधिकारों में स्पष्ट रूप से जोड़ना चाहिए।
अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ “प्रेस की स्वतंत्रता” को पृथक उपखंड के रूप में जोड़ा जाए। स्वतंत्र प्रेस आयोग —
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को संवैधानिक आयोग का दर्जा देकर उसे दंडात्मक, अनुशासनात्मक और सुरक्षा संबंधी शक्तियाँ दी जाएँ। पत्रकार सुरक्षा कानून —
प्रत्येक राज्य में पत्रकार सुरक्षा अधिनियम बने जिसमें पत्रकारों पर हमले, धमकी या फर्जी मुकदमों की स्वतः न्यायिक निगरानी हो।इसके साथ ही प्रेस फंड, न्यूनतम वेतन नीति, और राजनीतिक विज्ञापन पारदर्शिता कानून भी अनिवार्य किए जाएँ। प्रेस को “फूफा” से “परिजन” बनाने की राह,प्रेस को बलात फूफा की स्थिति से निकालने के लिए राजनीति को यह स्वीकार करना होगा कि—
“जो आलोचना करता है, वही सबसे सच्चा सहयोगी है।”
राज्य को यह मानना होगा कि प्रेस न शत्रु है न अनुचर, वह साझी चेतना का दर्पण है। जनता को भी यह समझना होगा कि “फेक न्यूज़” केवल झूठ नहीं, लोकतंत्र का अपघटन है।
और पत्रकार को स्वयं यह संकल्प लेना होगा कि वह सत्ता का दलाल नहीं, समाज का प्रहरी रहेगा — चाहे उसकी कीमत अपनी नौकरी ही क्यों न हो। लोकतंत्र तब तक जीवित नहीं रह सकता जब तक उसका प्रहरी जिंदा न हो।
आज प्रेस “बलात् फूफा” बना दिया गया है —
सम्मान का प्रतीक पर प्रभाव से विहीन, उपस्थित सभी में पर किसी का नहीं।
छोटे प्रेस की स्थिति तो बंधुआ मजदूर से भी बदतर है, सरकार सो रही है न्यायपालिका ने विधायिका न कार्यपालिका और न ही नीति आयोग आखिर प्रेस कहां फरियाद करें.क्योंकि वही एक ऐसा दीपक है जो जब जलता है तो अंधकार में छिपे सभी पाप, सभी कपट, सभी राजनीतिक मुखौटे स्वयं प्रकट हो जाते हैं।ज़ब पड़ता है तो तीनों स्तम्भ में उसके पास जाते हैं काम निकल जाने पर तीनों परवाह नहीं करते.

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