सोमवार, 10 नवंबर 2025

वन्देमातरम एक राष्ट्र गीत नहीं अपितु जीवंत भारत की जवलन्त आत्म कथा है!

राजेंद्र नाथ तिवारी





वन्देमातरम के 150 वर्ष: राष्ट्रभक्ति का अनन्त तराना भारत की आत्मा को यदि किसी गीत में पिरोया गया है, तो वह है “वंदे मातरम”। यह केवल एक स्तुति नहीं, बल्कि उस भावना का घोष है, जिसने इस देश को दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए करोड़ों भारतीयों के हृदय में अग्नि प्रज्वलित की। वर्ष 2025 में जब इस राष्ट्रीय गीत के 150 वर्ष पूरे हुए, तब भारत ने न केवल एक गाने की वर्षगांठ मनाई, बल्कि उस चेतना का उत्सव भी मनाया, जिसने भारत के पुनर्जागरण, स्वाधीनता और राष्ट्रीय एकता के आधार तैयार किए।
उत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि“वंदे मातरम” की उत्पत्ति साहित्य के माध्यम से हुई। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने यह अमर रचना 1875 में लिखी थी, जो पहली बार उनकी पत्रिका बंगदर्शन में प्रकाशित हुई। बाद में इसे उनके प्रसिद्ध उपन्यास आनंदमठ (1882) में स्थान मिला, जिसमें यह गीत संन्यासी योद्धाओं द्वारा गाया जाता है।
 इस गान में मातृभूमि को देवी के रूप में, शक्ति और करुणा के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। बंकिम ने अपनी लेखनी से राष्ट्रवाद को अध्यात्म का रूप दिया।जिस कालखंड में यह रचना हुई, वह भारत में राजनीतिक जागृति का प्रारंभिक दौर था। ब्रिटिश शासन के प्रभाव में भारतीय समाज आर्थिक रूप से शोषित और मानसिक रूप से दमनग्रस्त था। ऐसे समय में “वंदे मातरम” ने भारतीयों को आत्म-स्मरण कराया कि उनकी मातृभूमि केवल भौगोलिक भूमि नहीं, बल्कि एक जीवंत चेतना है, जिसकी आराधना जीवन का परम उद्देश्य है।साहित्य से आंदोलन तक की यात्रा इस गीत को सबसे पहले 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने स्वर प्रदान किए। वह क्षण भारतीय इतिहास में अजेय बन गया। इसके बाद “वंदे मातरम” मात्र गीत नहीं रहा; वह स्वतंत्रता आंदोलन का प्रेरणा-स्रोत बन गया। 
1905 में जब बंगाल का विभाजन हुआ, तब स्वदेशी आंदोलन के दौरान यह गीत सड़कों, सभाओं और जनांदोलनों का नारा बन गया।1905 के 7 अगस्त को जब छात्रों का महासागर कलकत्ता के टाउन हॉल की ओर “वंदे मातरम” के नारों के साथ बढ़ा, तब यह राष्ट्र की सामूहिक चेतना का विस्फोट था। यह वह क्षण था जब साहित्य और राजनीति का संगम हुआ, और मातृभूमि के प्रति भक्ति आंदोलन का ईंधन बन गई।ब्रिटिश शासन का भय और प्रतिरोध ब्रिटिश शासन इस गीत की शक्ति को भलीभांति समझ गया था। इसलिए इस पर प्रतिबंध लगाने के आदेश जारी किए गए। स्कूलों और कॉलेजों में “वंदे मातरम” बोलने या गाने पर दंड का प्रावधान हुआ। 
1906 में रंगपुर के विद्यार्थियों पर केवल इसलिए जुर्माना लगाया गया क्योंकि उन्होंने यह गीत गाया। परंतु जितना इसे रोकने की कोशिश की गई, उतना ही यह गीत लोगों के दिलों में गहराई से उतरता गया। यह वह प्रतीक बन गया, जिसे दबाना असंभव था।हम देख सकते हैं कि महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु जैसे दूर-दराज़ के प्रांतों में भी “वंदे मातरम” स्वतंत्रता सेनानियों के अधरों पर छा गया था। हिमालय से हिन्द महासागर, अरब सागर से रंगून तक —हर जगह यह गीत प्रतिरोध का शंखनाद था। यह गीत युवाओं के रक्त में दौड़ता जोश था; और मातृभूमि के लिए प्राणोत्सर्ग का घोष।
आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की भावना अनुप्रणित बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय केवल कवि नहीं थे, वे भारतीय चिंतन के अग्रदूत थे। उन्होंने भारत को यह दृष्टि दी कि मातृभूमि कोई निर्जीव भूभाग नहीं, बल्कि एक जीती-जागती शक्ति है। उनके उपन्यास आनंदमठ में माँ की तीन रूपों की व्याख्या—भव्या, पीड़ित और पुनर्जाग्रत माँ—भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य की त्रयी का प्रतीक है।
 यह दृष्टि भारत के आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की नींव बनी।श्री अरबिंद ने इस गीत का अर्थ इस प्रकार समझाया कि बंकिम की कल्पना की माँ के हजारों हाथों में भिक्षा पात्र नहीं, तलवारें थीं। यह राष्ट्रभक्ति के धर्म का उद्घोष था। “वंदे मातरम” के माध्यम से बंकिम ने यह स्थापित किया कि राष्ट्रसेवा भी भक्ति का ही एक रूप है।विदेशी भूमि पर गूंजता वंदे मातरम इस गीत की शक्ति इतनी व्यापक थी कि उसने भारत की सीमाओं को लांघ लिया। 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टटगार्ट में पहली बार भारतीय तिरंगा फहराया, तो उस पर “वंदे मातरम” अंकित था। 
इंग्लैंड में जब 1909 में मदनलाल ढींगरा को फांसी दी जा रही थी, उनके अंतिम शब्द यही थे—“वंदे मातरम”। यह नारा केवल भारत का नहीं, बल्कि वैश्विक भारतीय चेतना का प्रतीक बन गया।विदेशों में बसे भारतीय क्रांतिकारियों ने “बंदे मातरम” नाम से पत्रिकाएँ निकालीं, जिनके लेखों ने आज़ादी की लौ को प्रज्वलित रखा। दक्षिण अफ्रीका से लेकर पेरिस तक, हर जगह यह गीत भारतीय अस्मिता की पहचान बन चुका था।संविधान सभा और वंदे मातरम का सम्मान स्वतंत्र भारत बनने के बाद 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा में वंदे मातरम को आधिकारिक रूप से राष्ट्रगीत का दर्जा दिया गया। उस समय डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि “वंदे मातरम” को राष्ट्रगान “जन गण मन” के समान ही सम्मान मिलेगा। इस निर्णय ने स्वतंत्रता संग्राम में इस गीत की ऐतिहासिक भूमिका को औपचारिक मान्यता दी।यह गीत केवल अतीत की स्मृति नहीं है; यह आज भी भारत के राष्ट्रीय चरित्र के केंद्र में स्थित है। स्कूलों, सभाओं, आयोजनों और खेल प्रतियोगिताओं में जब “वंदे मातरम” गूंजता है, तब हर भारतीय के भीतर मातृभूमि के प्रति निष्ठा और गौरव की भावना जाग्रत होती है।वंदे मातरम: आधुनिक भारत की प्रेरणावर्ष 2025 में, जब इसके 150 वर्ष पूर्ण हुए, भारत सरकार ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का निर्णय लिया।
 7 नवंबर को पूरे देश में कार्यक्रमों, सांस्कृतिक प्रस्तुतियों, प्रदर्शनियों और संगोष्ठियों का आयोजन हुआ। दिल्ली  से लेकर ग्राम पंचायतों तक “वंदे मातरम” की गूंज फैल गई। स्मारक डाक टिकट और स्मृति सिक्के जारी हुए, डॉक्यूमेंटरी फ़िल्में प्रदर्शित की गईं, और डिजिटल माध्यमों से इस गीत की प्रेरणा नई पीढ़ी तक पहुंचाई गई।सरकार ने इसे चार चरणों में मनाने की रूपरेखा तैयार की—राष्ट्रीय, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और वैश्विक स्तर पर। विदेशों में भारतीय दूतावासों ने “वंदे मातरम” के सांस्कृतिक संध्या कार्यक्रम आयोजित किए। सोशल मीडिया पर 25 एक मिनट की लघु फ़िल्में जारी की गईं, जो इस गीत के विभिन्न ऐतिहासिक और भावनात्मक पहलुओं को उजागर करती हैं।
इन सब आयोजनों का केंद्रीय उद्देश्य केवल उत्सव नहीं, बल्कि इस गीत की आत्मा को पुनः जाग्रत करना था—एक ऐसी भावना जो एकता, त्याग और मातृभक्ति का संदेश देती है। “वंदे मातरम” का संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 1905 में था। जब हम जलवायु, सीमाओं या वैचारिक मतभेदों से जूझते हैं, तब यह गीत हमें याद दिलाता है कि भारत किसी व्यक्ति या विचार का नहीं, बल्कि माता का देश है।
राष्ट्रवाद का जीवंत प्रतीक वंदे मातरम ने भारत के राष्ट्रवाद को भावनात्मक आयाम दिया। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में यह सिर्फ विरोध का प्रतीक नहीं था, बल्कि आत्मगौरव और सांस्कृतिक स्वाभिमान का प्रतीक भी था। इस गीत की पंक्तियों ने प्रत्येक भारतीय को यह अहसास कराया कि उनकी निष्ठा केवल शासन व्यवस्था से नहीं, बल्कि अपनी मातृभूमि से है। यही वह प्रेरणा थी जिसने व्यक्ति को स्वार्थ से परे जाकर, समाज और राष्ट्र के लिए बलिदान करने का जोश दिया।आधुनिक भारत में भी, जब हम प्रगति, तकनीक और वैश्विक प्रतिस्पर्धा की बात करते हैं, तब “वंदे मातरम” हमें हमारे मूल्यों से जोड़ता है। यह हमें बताता है कि आधुनिकता और परंपरा विरोधी नहीं हैं—बल्कि भारत ने हमेशा इन्हें संतुलित रूप में आत्मसात किया है।वन्देमातरम  की 150वीं वर्षगांठ केवल एक ऐतिहासिक आयोजन नहीं, बल्कि भावनात्मक पुनर्जागरण का क्षण है। यह गीत भारत की आत्मा का शाश्वत प्रतीक है—एक ऐसा स्वर जो आज भी हर भारतीय के भीतर प्रतिध्वनित होता है। जब भी हम “वंदे मातरम” उच्चारित करते हैं, हम अपनी उस सांस्कृतिक स्मृति को जाग्रत करते हैं, जिसने हमें इतिहास की हर परीक्षा में विजयी बनाया।बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की यह रचना न केवल अतीत का गौरव है, बल्कि भविष्य की दिशा भी है। आज का भारत जब आत्मनिर्भरता और वैश्विक सहयोग की नई यात्रा पर है, तब यह गीत हमें याद दिलाता है कि हमारी सबसे बड़ी शक्ति हमारी एकता और मातृभूमि के प्रति समर्पण में है।“वंदे मातरम” केवल राष्ट्रगीत नहीं—यह भारत की आत्मकथा है, जो 150 वर्ष बाद भी उसी विश्वास के साथ कहती है—
माँ, मैं तुझे प्रणाम करता हूँ। क्रमशः आगे......!

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