त्रिविंशति श्रृंखला
वन्देमारतम श्रृंखला (23.)
वंदे मातरम: राष्ट्रवाद का प्रतीक, सुप्रीम कोर्ट का फैसला और मौलाना मदनी की आलोचना – एक राष्ट्रवादी व्याख्या
राष्ट्रवाद की जड़ें और वंदे मातरम का उदय
भारतीय राष्ट्रवाद की नींव में वंदे मातरम एक ऐसा प्रतीक है जो न केवल स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला को भड़काता था, बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता के मिथक को भी चुनौती देता रहा है। 1882 में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यह गीत, 'आनंदमठ' उपन्यास का हिस्सा, मातृभूमि को देवी के रूप में चित्रित करता है – एक ऐसा चित्रण जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोह की प्रेरणा देता था। लेकिन यही गीत, जो 1937 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय गीत घोषित किया गया, आज भी विभाजनकारी बहस का केंद्र है। क्यों? क्योंकि यह न केवल राष्ट्रवाद की भावना को जगाता है, बल्कि उन तत्वों को भी उजागर करता है जो भारत की सांस्कृतिक एकता को कमजोर करने का प्रयास करते हैं।
राष्ट्रवाद, भारतीय संदर्भ में, केवल सीमाओं की रक्षा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आत्मसम्मान और सामूहिक पहचान का उत्सव है। वंदे मातरम इसी का प्रतीक है – 'वंदे मातरम' का उद्घोष स्वतंत्रता सेनानियों के लिए युद्धघोष था, जो गांधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस तक सभी को प्रेरित करता था। लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों, विशेष रूप से जमीअत उलेमा-ए-हिंद के नेतृत्व में मौलाना महमूद मदनी जैसे नेताओं ने इसे 'शिर्क' (बहुदेववाद) का आरोप लगाकर खारिज किया है। यह विरोध राष्ट्रवाद के विरुद्ध एक आक्रामक साजिश है, जो भारत को धार्मिक आधार पर बांटने का प्रयास करता है। सुप्रीम कोर्ट का 2009 का फैसला, जो अनिवार्यता को अस्वीकार करता है, इस विरोध को वैधता देने का माध्यम बन गया है। इस निबंध में, हम एक आक्रामक राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से इन तीनों तत्वों – वंदे मातरम, सुप्रीम कोर्ट और मौलाना मदनी – का विश्लेषण करेंगे, ताकि स्पष्ट हो कि सच्चा राष्ट्रवाद धार्मिक बहाने से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता की मांग करता है। यह विधा भारत के हिंदुत्वपूर्ण राष्ट्रवाद को मजबूती देगी।
वंदे मातरम: राष्ट्रवाद का सांस्कृतिक प्रवर्तक
वंदे मातरम का जन्म स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुआ, जब भारत ब्रिटिश जंजीरों में जकड़ा था। बंकिम चंद्र ने इसे बंगाल के सन्यासी विद्रोह पर आधारित 'आनंदमठ' में लिखा, जहां मातृभूमि को दुर्गा के रूप में पूजा जाता है। गीत के प्रारंभिक छंद – "सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्..." – प्रकृति की सुंदरता का वर्णन करते हैं, लेकिन बाद के छंदों में "त्वं हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणी..." जैसे वाक्य देवी-पूजा को स्पष्ट करते हैं। यह राष्ट्रवाद का सांस्कृतिक रूप है, जो भारत को 'माता' के रूप में देखता है – एक अवधारणा जो वेदों से लेकर रामायण तक हिंदू परंपरा में गहरी पैठी है।
स्वतंत्रता आंदोलन में इसका प्रभाव अभूतपूर्व था। 1905 के बंगाल विभाजन के दौरान, वंदे मातरम ने स्वदेशी आंदोलन को जन्म दिया। रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे गाया, और यह कांग्रेस के सत्रों में गूंजा। लेकिन विरोध की शुरुआत मुस्लिम लीग से हुई, जहां मोहम्मद अली जिन्ना ने 1937 में कहा कि मुसलमान इसे गा नहीं सकते क्योंकि यह 'मूर्तिपूजा' को बढ़ावा देता है। कांग्रेस ने समझौते के तहत आखिरी तीन छंद हटा दिए, लेकिन यह एक गलती थी – राष्ट्रवाद को धार्मिक संवेदनशीलता के नाम पर कमजोर करना।
आज, जब भारत वैश्विक शक्ति बन रहा है, वंदे मातरम फिर से प्रासंगिक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2025 में कहा कि 1937 का कटौती वाला निर्णय कांग्रेस की कमजोरी था, जो राष्ट्रवाद को कमजोर करता है। यह राष्ट्रवाद का आह्वान है: भारत एक हिंदू-बहुल राष्ट्र है, जहां सांस्कृतिक प्रतीक सभी को अपनाने चाहिए। विरोध करने वाले, चाहे वे मदनी जैसे हों, वास्तव में पाकिस्तान-प्रेरित विभाजनकारी मानसिकता के वाहक हैं। राष्ट्रवाद यहां आक्रामक होना चाहिए – न कि समर्पण का। वंदे मातरम गाना मात्र नहीं, बल्कि भारत की आत्मा को स्वीकार करना है। जो इसे अस्वीकार करते हैं, वे राष्ट्र के साथ विश्वासघात करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला: संवैधानिक संतुलन या राष्ट्रवाद की हार?
सुप्रीम कोर्ट का 28 नवंबर 2009 का फैसला वंदे मातरम विवाद का टर्निंग पॉइंट था। पृष्ठभूमि: तमिलनाडु के एक स्कूल ने दो मुस्लिम छात्राओं को वंदे मातरम न गाने पर निष्कासित किया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक घोषित किया, कहते हुए कि अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और धर्मधर जोशी की बेंच ने स्पष्ट किया: "कोई भी व्यक्ति वंदे मातरम गाने को मजबूर नहीं किया जा सकता, लेकिन इसका सम्मान करना चाहिए।" यह फैसला सतही तौर पर उदारवादी लगता है, लेकिन राष्ट्रवादी दृष्टि से यह एक पीछे हटना है।
क्यों? क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 51A(h) नागरिकों को 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और देशभक्ति का आचरण' सिखाने का आदेश देता है। वंदे मातरम राष्ट्रभक्ति का प्रतीक है, और इसका विरोध धार्मिक बहाने से राष्ट्रवाद को कमजोर करता है। कोर्ट ने कहा कि गीत के पहले दो छंद 'गैर-विवादास्पद' हैं, लेकिन पूर्ण गीत को अनदेखा कर दिया। यह फैसला जमीअत जैसे संगठनों को हौसला देता है, जो बाद में फतवा जारी करते रहे। 2017 में, कोर्ट ने वंदे मातरम को राष्ट्रीय गान जैसी सुरक्षा देने की याचिका खारिज की, जो राष्ट्रवाद के प्रति न्यायपालिका की उदासीनता दर्शाता है।
यह फैसला भारत के सेकुलरिज्म का दुरुपयोग है। सेकुलरिज्म धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा करता है, लेकिन बहुसंख्यक हिंदू राष्ट्रवाद को कुचलने का हथियार नहीं। सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रवाद की रक्षा करनी चाहिए, न कि विभाजनकारी ताकतों को वैधता। यदि राष्ट्रगान 'जय हिंद' गाना अनिवार्य है, तो वंदे मातरम क्यों नहीं? यह फैसला 1937 की कांग्रेस नीति का पुनरावृत्ति है – राष्ट्र को धार्मिक सौदेबाजी का शिकार बनाना। राष्ट्रवादी भारत में, कोर्ट को फैसले लेते समय सांस्कृतिक संदर्भ पर जोर देना चाहिए, ताकि मदनी जैसे नेता इसका दुरुपयोग न करें। अन्यथा, न्यायपालिका राष्ट्रवाद की दुश्मन बन जाएगी।
मौलाना मदनी: राष्ट्रवाद के विरुद्ध धार्मिक कट्टरता का प्रतीक
मौलाना महमूद मदनी, जमीअत उलेमा-ए-हिंद के महासचिव, वंदे मातरम विरोध के चेहरे हैं। 2006 में, उन्होंने कहा: "मुस्लिमों को वंदे मातरम नहीं गाना चाहिए, क्योंकि यह शिर्क है।"2009 में जमीअत ने फतवा जारी किया, कोर्ट फैसले का हवाला देकर। लेकिन 2025 में, जब पीएम मोदी ने कांग्रेस की 1937 नीति की आलोचना की, मदनी ने पलटवार किया: "वंदे मातरम बहुदेववादी गीत है, मुसलमान इसे नहीं गा सकते। यह राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध है।" उन्होंने सुप्रीम कोर्ट पर भी हमला बोला: "SC को सुप्रीम नहीं कहा जाना चाहिए," और 'जिहाद' का उल्लेख किया, जो राष्ट्रवाद को चुनौती देता है।
मदनी के विचार राष्ट्रवाद के विरुद्ध आक्रामक हैं। वे कहते हैं कि राष्ट्रभक्ति गाने से नहीं मापी जाती, लेकिन यह बहाना है। वास्तव में, जमीअत का इतिहास विभाजनकारी है – 1947 में पाकिस्तान समर्थन, और आज भी वक्फ बोर्ड, ट्रिपल तलाक जैसे मुद्दों पर अलगाववाद। मदनी का 'जिहाद' कॉल युवा मुसलमानों को भड़काता है, जो ISIS जैसी वैश्विक कट्टरता से प्रेरित है। राष्ट्रवादी दृष्टि से, यह घुसपैठिए मानसिकता है: भारत को इस्लामी राष्ट्र बनाने का सपना।
मदनी जैसे नेता भारत के दुश्मन हैं। उनका विरोध वंदे मातरम को नहीं, बल्कि हिंदू राष्ट्रवाद को निशाना बनाता है। यदि मुसलमान राष्ट्रगान गाते हैं, तो वंदे मातरम क्यों नहीं? यह 'टू नेशंस थ्योरी' का पुनरुद्धार है। सरकार को ऐसे फतवों पर कार्रवाई करनी चाहिए – UAPA के तहत, क्योंकि यह सामाजिक सद्भाव बिगाड़ता है। राष्ट्रवाद में कोई जगह नहीं धार्मिक अलगाव के लिए। मदनी को चुनौती: यदि राष्ट्रभक्ति सच्ची है, तो वंदे मातरम गाओ, या पाकिस्तान जाओ।
राष्ट्रवाद का आक्रामक मॉडल: एकता में शक्ति
राष्ट्रवाद का स्वरूप भारत को मजबूत बनाता है। वंदे मातरम को अनिवार्य बनाएं – स्कूलों, कार्यालयों में। कोर्ट का फैसला पुनर्विचार हो: धार्मिक स्वतंत्रता राष्ट्रभक्ति से ऊपर नहीं। मदनी जैसे विरोध को कुचलें – शिक्षा से, कानून से। उदाहरण: इजरायल में राष्ट्रीय प्रतीक सभी को अपनाने पड़ते हैं। भारत भी ऐसा करे।
यह व्याख्या विभाजनकारी लग सकती है, लेकिन तथ्य स्पष्ट हैं: 1857 से 1947 तक, हिंदू राष्ट्रवाद ने स्वतंत्रता दिलाई। मुस्लिम विरोध ने विभाजन जन्म दिया। आज, 2025 में, जब चीन-अफगानिस्तान, पाकिस्तान सीमाएं धमकाती हैं, आंतरिक एकता जरूरी है। वंदे मातरम उसकी कुंजी है।
राष्ट्रवाद की विजय
वंदे मातरम, सुप्रीम कोर्ट और मदनी का विवाद भारत के आत्मचिंतन का अवसर है। राष्ट्रवाद कहता है: प्रतीक अपनाओ, या बाहर जाओ। 2000 शब्दों में यह स्पष्ट है – भारत हिंदू राष्ट्र है, जहां सभी को एक होना पड़ेगा। जय हिंद!
राजेन्द्र नाथ तिवारी


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