शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

वंदे मातरम् @150: राष्ट्रवाद की नई परिभाषा और आधुनिक भारत का सांस्कृतिक पुनर्जागरण

एकविंश श्रृंखला( 21)

वंदे मातरम् @150: राष्ट्रवाद की नई परिभाषा और आधुनिक भारत का सांस्कृतिक पुनर्जागरण


साल 2025 भारतीय इतिहास में एक अद्वितीय मील का पत्थर है—वंदे मातरम् के 150 वर्ष।एक गीत, जो प्रारम्भ में राष्ट्रकाव्य था, फिर जनजागरण बना, और अंततः भारतीय स्वतंत्रता-समर का शंखनाद। किसी राष्ट्र के इतिहास में ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते जब कोई गीत, कोई शब्द, या कोई विचार पूरी सभ्यता के आत्मबोध का पर्याय बन जाए। वंदे मातरम् ऐसा ही अमर उच्चार है—एक ऐसा मंत्र जो केवल राष्ट्र के प्रति प्रेम नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और वैचारिक धरोहर के पुनर्जागरण का प्रतीक है।

आज जब भारत आत्मविश्वास के साथ वैश्विक पटल पर उभर रहा है, तब वंदे मातरम् केवल एक ऐतिहासिक स्मृति नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चेतना के नए युग का उद्घोष बनकर खड़ा है। 150 वर्षों का यह अवसर हमें पूछता है—क्या राष्ट्रवाद केवल अतीत की स्मृति है? या यह नई पीढ़ियों के लिए नई व्याख्या चाहता है? क्या आधुनिक भारत, तकनीक और वैश्वीकरण के इस युग में भी अपनी सांस्कृतिक आत्मा को उसी दृढ़ता से जी सकता है, जैसे स्वतंत्रता-सेनानी उसे 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जीते थे?

यह सम्पादकीय इसी प्रश्न का उत्तर खोजता है—वंदे मातरम् @150: भारत के बदलते राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की नई कहानी।

 वंदे मातरम् का जन्म—एक कल्पना, जो राष्ट्र बन गई,बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने 1875 में वंदे मातरम् की रचना की।यह वह समय था जब भारत राजनीतिक रूप से पराधीन और मानसिक रूप से विचलित था। अंग्रेजी शासन की कठोरता और भारतीय समाज की विखण्डित पहचान के बीच यह गीत एक सांस्कृतिक एकता का प्रथम सूत्र बना। इसमें राष्ट्र केवल भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि माँ के रूप में उपस्थित हुआ—मातृभूमि एक सजीव सत्ता, एक करुणा और शक्ति से भरपूर चेतना।

यह वह क्षण था जब भारत ने स्वयं को धर्म, जाति, भाषा और प्रान्तों के पार जाकर एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया।
बंकिमचन्द्र का भारत भौगोलिक से अधिक आध्यात्मिक था—नदियाँ, वन, खेत, प्रदेश—सब माँ का अंग। यही विचार आगे चलकर स्वतंत्रता-संग्राम का मुख्य भाव बना।

वंदे मातरम् और स्वतंत्रता-संग्राम: संघर्ष का घोष, बलिदान की ऊर्जा,वंदे मातरम् ने केवल साहित्य को नहीं बदला—इसने राजनीति को बदल दिया राजनीतिक मंचों, अखाड़ों, विद्यालयों और सत्याग्रहों में यह गीत एक ऊर्जा, एक ज्वाला बनकर फूटा। इसके उच्चारण मात्र से आंदोलन को दिशा मिलती थी।1905: बंगाल विभाजन के विरोध में यह गीत राष्ट्रीय प्रतिरोध की सबसे शक्तिशाली भाषा बन गया।क्रांतिकारी आंदोलनों में यह शपथ और संकल्प का सूत्र बना।कांग्रेस के अधिवेशनों में यह आधिकारिक राष्ट्रगीत के रूप में गूँजता रहा।अनगिनत सेनानी फाँसी के तख्ते तक यह जयघोष करते पहुँचे: “वंदे मातरम्!”किसी गीत में इतनी प्रेरणा, इतना संबल और इतनी एकता—विश्व इतिहास में दुर्लभ है।

 21वीं सदी का भारत: क्या राष्ट्रवाद बदल गया है?,आज का भारत स्वतंत्र है, आत्मनिर्भर है और विश्व-राजनीति में निर्णायक भूमिका निभा रहा है।लेकिन प्रश्न यह है—आज का राष्ट्रवाद कैसा है?क्या राष्ट्रवाद केवल सीमा-रक्षा का मुद्दा है?क्या वह केवल ‘विरोध’ में खड़ा रहने वाला विचार है?क्या वह केवल राजनीतिक नारा है?आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद की नई परिभाषा उभर रही है—जो परंपरा और आधुनिकता दोनों को साथ लेकर चलती है।सांस्कृतिकआत्मविश्वास,भारत अब अपनी सभ्यता को ‘अतीत’ के बोझ की तरह नहीं, बल्कि ‘समकालीन शक्ति’ की तरह देख रहा है।योग, आयुर्वेद, भारतीय ज्ञान-परम्परा, तकनीकी नेतृत्व, डिजिटल व्यवस्था—सब मिलकर भारतीयता का नया आयाम रच रहे हैं।




विकास-आधारित राष्ट्रवाद,भारत का राष्ट्रवाद अब केवल भावनात्मक नहीं रहा; यह तकनीक, नवाचार और विश्व-सहयोग आधारित राष्ट्रवाद है।AI, अंतरिक्ष कार्यक्रम, वैश्विक कूटनीति—भारत का स्वाभिमान अब इनसे भी परिभाषित होता है।

नीचे लगभग 2000 शब्दों में सम्पादकीय प्रस्तुत है — “वंदे मातरम् @150: राष्ट्रवाद की नई परिभाषा और आधुनिक भारत का सांस्कृतिक पुनर्जागरण”सांस्कृतिक आत्मा को उसी दृढ़ता से जी सकता है, जैसे स्वतंत्रता-सेनानी उसे 20वीं शताब्दी के  जाकर एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया।

बंकिमचन्द्र का भारत भौगोलिक से अधिक आध्यात्मिक था—नदियाँ, वन, खेत, प्रदेश—सब माँ का अंग। यही विचार आगे चलकर स्वतंत्रता-संग्राम का मुख्य भाव बना। 

वंदे मातरम् और स्वतंत्रता-संग्राम: संघर्ष का घोष, बलिदान की ऊर्जा

वंदे मातरम् ने केवल साहित्य को नहीं बदला—इसने राजनीति को बदल दिया।
राजनीतिक मंचों, अखाड़ों, विद्यालयों और सत्याग्रहों में यह गीत एक ऊर्जा, एक ज्वाला बनकर फूटा। इसके उच्चारण मात्र से आंदोलन को दिशा मिलती थी।

  • 1905: बंगाल विभाजन के विरोध में यह गीत राष्ट्रीय प्रतिरोध की सबसे शक्तिशाली भाषा बन गया।
  • क्रांतिकारी आंदोलनों में यह शपथ और संकल्प का सूत्र बना।
  • कांग्रेस के अधिवेशनों में यह आधिकारिक राष्ट्रगीत के रूप में गूँजता रहा।
  • अनगिनत सेनानी फाँसी के तख्ते तक यह जयघोष करते पहुँचे: “वंदे मातरम्!”

किसी गीत में इतनी प्रेरणा, इतना संबल और इतनी एकता—विश्व इतिहास में दुर्लभ है। 21वीं सदी का भारत: क्या राष्ट्रवाद बदल गया है?

आज का भारत स्वतंत्र है, आत्मनिर्भर है और विश्व-राजनीति में निर्णायक भूमिका निभा रहा है।
लेकिन प्रश्न यह है—आज का राष्ट्रवाद कैसा है?

क्या राष्ट्रवाद केवल सीमा-रक्षा का मुद्दा है?
क्या वह केवल ‘विरोध’ में खड़ा रहने वाला विचार है?
क्या वह केवल राजनीतिक नारा है?

आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद की नई परिभाषा उभर रही है—जो परंपरा और आधुनिकता दोनों को साथ लेकर चलती है।

सांस्कृतिक आत्मविश्वास

भारत अब अपनी सभ्यता को ‘अतीत’ के बोझ की तरह नहीं, बल्कि ‘समकालीन शक्ति’ की तरह देख रहा है।
योग, आयुर्वेद, भारतीय ज्ञान-परम्परा, तकनीकी नेतृत्व, डिजिटल व्यवस्था—सब मिलकर भारतीयता का नया आयाम रच रहे हैं।

 विकास-आधारित राष्ट्रवाद

भारत का राष्ट्रवाद अब केवल भावनात्मक नहीं रहा; यह तकनीक, नवाचार और विश्व-सहयोग आधारित राष्ट्रवाद है।
AI, अंतरिक्ष कार्यक्रम, वैश्विक कूटनीति—भारत का स्वाभिमान अब इनसे भी परिभाषित होता है।

 सांस्कृतिक समरसता

“हम कौन हैं?”—यह प्रश्न अब भारतीय मन की खोज का मूल है।
वंदे मातरम् हमें याद दिलाता है कि भारत की वास्तविक शक्ति सांस्कृतिक एकता मे5

. वंदे मातरम्: नई पीढ़ी के लिए क्या अर्थ रखता है?

आज का युवा डिजिटल है, वैश्विक है और तेज़ गति से बदलते संसार का हिस्सा है।
लेकिन वह अपनी जड़ों से भी जुड़ना चाहता है।

नई पीढ़ी के लिए वंदे मातरम् का अर्थ केवल राष्ट्रभक्ति नहीं—बल्कि आइडेंटिटी है:

 “मैं कौन हूँ?”

वंदे मातरम् बताता है—तुम उस भूमि की संतान हो जो अध्यात्म, विज्ञान, संस्कृति और मानवता का अद्वितीय संगम है।

 “मेरा भारत कैसा होना चाहिए?”

एक ऐसा भारत जहाँ संस्कृति आधुनिकता से संघर्ष नहीं करती—बल्कि उसे दिशा देती है।

 “राष्ट्र मेरा नहीं—मैं राष्ट्र हूँ”

युवाओं के लिए यह विचार आज पहले से अधिक व्यावहारिक है—स्टार्टअप्स, टेक नवाचार, वैश्विक नेतृत्व—आज का युवा राष्ट्रनिर्माता है।आधुनिक राष्ट्रवाद के पाँच प्रमुख स्तंभ: वंदे मातरम् की नई व्याख्या,150 वर्षों के अवसर पर भारत को राष्ट्रवाद की नई रूपरेखा पर विचार करना चाहिए।यह पाँच स्तंभ आज के भारत की आत्मा हैं:भारतीय राष्ट्रवाद हिंसा या टकराव पर नहीं, बल्कि “सबका विकास, सबकी चिंता” जैसे आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित है।





 वंदे मातरम् और भारतीय राजनीति: जोड़ या दूरी?कभी यह गीत राजनीति को दिशा देता था।आज इसका उपयोग राजनीतिक विवादों में फँस जाता है।असल प्रश्न यह है—क्या कोई राष्ट्रगीत विवाद का विषय हो सकता है?क्या किसी माँ को ‘पक्ष’ या ‘विपक्ष’ का प्रतीक बनाया जा सकता है?वंदे मातरम् राजनीति से ऊपर है—यह राष्ट्र की आत्मा है।और जिस दिन यह फिर से केवल संस्कृति का गीत बन जाएगा, उसी दिन इसकी ऊर्जा पुनः सम्पूर्ण राष्ट्र को जोड़ देगी।

150वीं वर्षगाँठ पर राष्ट्र का संकल्प: एक नई दृष्टि की जरूरत

हमारे लिए यह क्षण केवल गीत की वर्षगाँठ नहीं—यह राष्ट्र-चेतना की वर्षगाँठ है।
भारत को अब ऐसी राष्ट्रीय दृष्टि की आवश्यकता है जो—आधुनिक हो पर पश्चिमी न हो,वैज्ञानिक हो पर अध्यात्म-विहीन न हो,वैश्विक हो पर जड़ों से कटी न हो,प्रगतिशील हो पर परम्परा-विरोधी न हो,यह वह राष्ट्रवाद है, जिसकी जड़ें वंदे मातरम् में हैं और शाखाएँ आधुनिक भारत के भविष्य में फैल रही हैं।9

 वंदे मातरम्—अतीत की प्रतिध्वनि नहीं, भविष्य का घोष,150 वर्षों का यह उत्सव हमें याद दिलाता है कि:भारत केवल एक भूभाग नहीं—यह एक सभ्यता है।राष्ट्रवाद केवल भावनात्मक नारा नहीं—यह विकास, आत्मविश्वास और सांस्कृतिक गरिमा का संगम है।वंदे मातरम् केवल गीत नहीं—यह भारतीय आत्मा का सार है।आज का भारत नए आत्मविश्वास के साथ खड़ा है—अर्थव्यवस्था में, तकनीक में, कूटनीति में, संस्कृति में।यह आत्मविश्वास संयोग नहीं—यह वही शक्ति है जिसे बंकिमचन्द्र ने शब्द दिया था, जिसे स्वतंत्रता सेनानियों ने जीवन दिया था, और जिसे आज का भारत नए अर्थ दे रहा है।

वंदे मातरम् @150 भारत को याद दिलाता है—हमारे राष्ट्र की आत्मा अमर है, और जब भी हम अपनी जड़ों की ओर लौटते हैं, भारत एक नया स्वर्णयुग रचता है।

राजेंद्र नाथ तिवारी, टीम कौटिल्य 

क्रमशः 21श्रृंखला 

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