मिलावटी शिक्षा : राष्ट्रघात का सबसे सुंदर नाम
भारत राजनीतिक रूप से सात दशक पहले आज़ाद हुआ,लेकिन उसकी शिक्षा आज भी औपनिवेशिक कैद में पड़ी है।यह विडंबना है कि 21वीं सदी का भारत अब भी 1835 के मैकाले की चिट्ठी का बोझ ढो रहा है
वह चिट्ठी जिसमें उसने लिखा था कि “भारत में ऐसा वर्ग तैयार करो जो रंग-रूप से भारतीय हो,
लेकिन सोच, स्वाद और नैतिकता में अंग्रेज।”आज हम गर्व से कह सकते हैं—मैकाले का सपना पूरा हो चुका है।और इसे हमने ही पूरा किया है, मिलावट के नाम पर।
इतिहास की मिलावट : जड़ों को काटने का शास्त्रीय तरीका,हमारे बच्चे पढ़ते हैं कि भारत “हज़ार साल गुलाम” रहा।वे यह नहीं पढ़ते कि उसी काल में विजयनगर दुनिया का सबसे समृद्ध नगर था,चोल नौसेना हिंद महासागर पर न्यायकर्ता थी,अहोम साम्राज्य ने 600 वर्ष तक मुगलों को हराया,और भारत विश्व अर्थव्यवस्था में शीर्ष पर था।नालंदा को जलाने वाले का नाम पुस्तक में है,पर नालंदा को बनाने, चलाने, बचाने वाले इतिहास से गायब हैं।जब इतिहास का संतुलन तोड़ा जाता है,तो राष्ट्र का आत्मसम्मान भी साथ टूटता है।
भाषा की मिलावट : आत्महीनता की सबसे गहरी प्रयोगशाला,अंग्रेज़ी को प्रतिष्ठा और हिंदी को पिछड़ेपन का प्रतीक बनाना केवल भाषा का प्रश्न नहीं,एक सुनियोजित मानसिक ढांचा तैयार करने की प्रक्रिया है।संस्कृत को “मृत” घोषित कर देना और मातृभाषाओं को “लोकल” कहकर हाशिए पर डाल देना यह वही नीतिगत गलती है जिसका परिणामcआज की कमज़ोर, बाहरी प्रभावों से डांवाडोल पीढ़ी में दिखता है।जिस कौम को अपनी ही भाषा में सोचने पर शर्म आए,वह किसी भी वैश्विक दौड़ में टिक नहीं सकती।संस्कार की मिलावट : अपनी परंपरा को संदिग्ध बनाना,रामायण-महाभारत, गीता, उपनिषद—इन सबको “धार्मिक ग्रंथ” कहकर पाठ्यक्रम से दूर रखा जाता है।लेकिन पश्चिमी और अब्राहमिक साहित्यविश्व संस्कृति” के नाम पर स्कूलों में स्थान पा जाता है।चाणक्य, विदुर, भर्तृहरि, तिरुवल्लुवर—इन नीति-दर्शनकारों को आज के युवा केवल नाम से भी नहीं जानते।पर यह सिर्फ़ विस्मरण नहीं—यह एक नीतिगत विलोपन है।
संस्कार का अभाव किसी समाज को
चतुर तो बना सकता है, समझदार नहीं।
उद्देश्य की मिलावट : नागरिक नहीं, उपभोक्ता तैयार करना,
शिक्षा का लक्ष्य अब चरित्रवान नागरिक निर्माण नहीं,बल्कि कॉर्पोरेट-रेडी संसाधन तैयार करना बन गया है।6 वर्ष का बच्चा कोडिंग सीख रहा है,लेकिन अपनी नदी, अपना गाँव, अपनी विरासत नहीं जानता।
“ग्लोबल सिटिजन” बनने की दौड़ में
वह “स्थानीय इंसान” भी नहीं बन पा रहा।
मिलावटी शिक्षा के दुष्परिणाम : आज का संकट, कल का खतरा,
हम ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं जो अमेरिका जाकर “भारत पिछड़ा है” बताती है,जो UPSC में चयनित होकर भी राष्ट्र-विरोधी विचारों की गिरफ्त में आ जाती है,जो अपनी ही भाषा को “लो क्लास” कहकर नकार देती है।यह स्थिति किसी दुर्घटना की उपज नहीं—यह नीति-स्तर पर decades तक चली मानसिक इंजीनियरिंग का परिणाम है।
आधी-अधूरी सर्जरी से काम नहीं चलेगा,औपनिवेशिक ढांचा पूरी तरह हटे,मैकाले-प्रेरित पाठ्यक्रम का चरणबद्ध,लेकिन निश्चित रूप से पूर्ण विस्थापन होना ही चाहिए। प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में अनिवार्य हो भारतीय ज्ञान-परंपरा शिक्षा की धुरी बनेरामायण, महाभारत, गीता, उपनिषद, पंचतंत्र, चाणक्य नीति—इनका स्थान “धर्म” में नहीं,बल्कि “नीति, दर्शन, चरित्र और विवेक” में है।
इतिहास का निष्पक्ष पुनर्लेखन,जहाँ विजयनगर, चोल, गुप्त, मौर्य, अहोम, मराठा—सभी समान रूप से उपस्थित हों। विद्यालयों में योग–ध्यान को दैनिक अभ्यास बनाया जाए, परीक्षा प्रणाली में चरित्र, विवेक, व्यवहार-कौशल को प्राथमिकता मिले,
भारतीय शिक्षा का भारतीयकरण अब विलंब नहीं सह सकता,
आज देश विश्वगुरु बनने का स्वप्न देख रहा है—लेकिन जिस शिक्षा-व्यवस्था से उसके नागरिक निकल रहे हैं,
वह उन्हें ग्लोबल इम्पोर्टेड विचारों का उपभोक्ता बना रही है,न कि भारतीय चिंतन का वाहक।मिलावट से राष्ट्र नहीं बनते।मिलावट से केवल बाज़ार बनता है।समय है कि शिक्षा को शुद्ध भारतीय बनाया जाए—अन्यथा यही मिलावटी शिक्षाराष्ट्र के भविष्य का अंतिम संस्कार कर देगी।
जय हिंद।जय भारत माता।जय भारतमाता

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