शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

कांग्रेस के दुश्मन: कांग्रेसी ही, या कुछ और?


कांग्रेस के दुश्मन: कांग्रेसी ही, या कुछ और? 
संपादकीय


भारतीय राजनीति में एक पुराना, किंतु बार-बार दोहराया जाने वाला वाक्य है—“कांग्रेस की सबसे बड़ी दुश्मन… कांग्रेस खुद है।”लंबे समय तक इसे सिर्फ़ राजनीतिक व्यंग्य माना जाता रहा, लेकिन 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में करारी पराजय के बाद यह कथन अब एक कटु सत्य की तरह सामने खड़ा है। चुनाव में 61 सीटों पर उम्मीदवार उतारकर केवल 6 पर जीत, और महज़ 8–9% वोट—यह किसी बाहरी शक्तिशाली दुश्मन का नहीं, बल्कि स्वयं-निर्मित कमजोरियों का परिणाम है।

यह लेख इसी सच्चाई के विभिन्न आयामों—आंतरिक कलह, गठबंधन राजनीति, संगठनात्मक शिथिलता, और ऐतिहासिक जड़ता—का विश्लेषण करता है। आंतरिक कलह: कांग्रेस का ‘ऑपरेटिंग सिस्टम’ क्यों जाम है?कांग्रेस की सबसे बड़ी बीमारी उसकी खुद की नसों में बहती है—गुटबाजी, वंशवाद, नेतृत्वहीनता और स्थानीय स्तर पर निरुत्साहित कैडर।बिहार चुनाव के दौरान टिकट बंटवारे पर बवाल, ज़िले-ज़िले में कार्यकर्ताओं का विद्रोह, “टिकट चोर” के नारे, और हार के बाद दर्जनों नेताओं को शो-काज़ नोटिस—ये सब किसी बाहरी हमले का नहीं, बल्कि भीतर के टूटे अनुशासन और अव्यवस्था का संकेत हैं।संगठन के भीतर यह धारणा गहरी है कि शीर्ष नेतृत्व “दूर से राजनीति” करता है, जबकि ज़मीनी कार्यकर्ता खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं। राहुल गांधी की यात्राओं और सभाओं का प्रभाव वहीं खत्म हो गया जहाँ बूथ-स्तर की मशीनरी शुरू होनी चाहिए थी।कांग्रेस “कमांडर” के भरोसे चलने वाली सेना नहीं रही; वह “बिना कमांडर, बिना प्लाटून” वाली बिखरी टुकड़ी जैसी दिखने लगी है।

सहयोगी दल: क्या कांग्रेस का दुश्मन बाहर भी है?आरोप अक्सर BJP पर लगाया जाता है, लेकिन सच्चाई यह है कि कांग्रेस को सबसे बड़ा नुकसान उसके गठबंधन सहयोगियों ने पहुँचाया।बिहार में RJD का दबदबा इतना अधिक था कि कांग्रेस को सिर्फ़ औपचारिक सीटें मिलीं।उत्तर प्रदेश में SP ने कांग्रेस को हाशिये पर धकेल दिया।बंगाल में TMC ने कांग्रेस के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी।INDIA गठबंधन एक विचार था, लेकिन उसी विचार में कांग्रेस सबसे कमजोर कड़ी बन गई।विरोधाभास देखिए—

जिस व्यापक विपक्ष को कांग्रेस जोड़ती है, वही विपक्ष कांग्रेस के राजनीतिक आधार को खा रहा है।कांग्रेस का “दुश्मन” यहीं दो हिस्सों में बंट जाता है—

एक वह जो पार्टी के भीतर है, और दूसरा वह जो साथ खड़ा दिखाई देता है, लेकिन ताकत अपने हिस्से में ले जाता है। ऐतिहासिक भार: विचारधारा की पतन-कथा कांग्रेस का संकट आज पैदा नहीं हुआ—यह पिछले 30 वर्षों में धीरे-धीरे पनपा वह वैचारिक और नैतिक पतन है जिसने पार्टी की रीढ़ ही नरम कर दी।

कभी नेहरू, पटेल, शास्त्री और इंदिरा के नेतृत्व ने संगठन को दिशा दी;
लेकिन 1990 के दशक के बाद नेतृत्व वंशवाद की परिधि तक सिमट गया।
आज कांग्रेस का सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि—वह किस विचार का प्रतिनिधित्व करती है?क्या वह उदारवाद है? समाजवाद है? सेक्युलरिस्ट राष्ट्रवाद? प्रगतिशील आर्थिक मॉडल?या सिर्फ़ “BJP-विरोध” ही उसकी पहचान बचा हुआ है?एक विचारहीन पार्टी को संगठन बचा नहीं सकता—और यह संकट कांग्रेस के शिखर से बूथ तक रिसता चला गया है।

 चुनावी मशीनरी की कमजोरी: मैदान खाली, नारे भारी लोकतंत्र में चुनाव सिर्फ सभाओं से नहीं जीते जाते।उन्हें जीतने के लिए चाहिए—वास्तविक कार्यकर्ताबूथ प्रबंधन लाभार्थी संपर्क स्थानीय मुद्दों की पकड़ और सबसे जरूरी—विश्वास कांग्रेस के पास इन पाँच में से चार तत्व लगातार कमजोर होते गए।

RJD, BJP, JD(U), TMC, SP जैसे दलों ने बूथ-स्तर पर अपनी मशीनरी को दुरुस्त रखा, जबकि कांग्रेस “इमेज-पॉलिटिक्स” के भरोसे रह गई।2025 के बिहार नतीजों ने इस फर्क को खौलते पानी की तरह साफ कर दिया।

भविष्य की दिशा: क्या कांग्रेस खुद को बचा सकती है?कांग्रेस अभी भी भारत का 20% से अधिक वोट-बैंक रखती है।यह किसी भी लोकतंत्र में एक बड़ा राजनीतिक पूँजी है।लेकिन उसके सामने दो ही रास्ते हैं—सुधार का रास्ता — लंबा लेकिन संभवसंगठन का सम्पूर्ण रिबूट,स्थानीय नेतृत्व को अधिकार,गठबंधन की नई परिभाषा,विचारधारा का पुनर्गठन,टिकट वितरण की पारदर्शिता,पतन का रास्ता — आसान लेकिन खतरनाक अगर वही पुराना ढर्रा चलता रहा,तो कांग्रेस धीरे-धीरे “राष्ट्रीय विचार से क्षेत्रीय प्रासंगिकता तक” सिमट जाएगी।

कांग्रेस का दुश्मन ‘अंदर’ भी है… और ‘पास’ भी,कांग्रेस के दुश्मन सिर्फ कांग्रेसी ही हैं—यह आधा सच है।पूरा सच यह है कि—कांग्रेस का सबसे बड़ा दुश्मन उसकी अपनी आंतरिक कमजोरियाँ हैं, और दूसरा बड़ा दुश्मन उसके वे सहयोगी हैं जो उसके स्थान पर खुद को स्थापित कर रहे हैं।

यह राजनीतिक विडंबना है कि कांग्रेस “गठबंधन” की जननी है,
और उसी गठबंधन में वह सबसे कमजोर खिलाड़ी बन चुकी है।

परिवर्तन की संभावनाएँ आज भी मौजूद हैं—लेकिन वही, जो भीतर से निकले;वही, जो कांग्रेस को “अतीत की पार्टी” नहीं, “भविष्य की उम्मीद” बना सकें।भारत की राजनीति ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं,और कांग्रेस का यह दौर भी इतिहास के उसी चक्र का हिस्सा है।पर सवाल यह है—क्या कांग्रेस इस बार खुद से जूझ कर कबतक जिन्दा रह सकेगी.

राजेंद्र नाथ तिवारी-टीम कौटिल्य

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