शनिवार, 6 दिसंबर 2025

करुणा के नामपर अराजकता नहीं, राष्ट्र हित सर्वोपरि

 यह विषय भारतीय न्यायपालिका, संविधान और राष्ट्रीय सुरक्षा—तीनों ही आयामों को एक साथ जोड़ता है। नीचे इस मुद्दे पर एक संतुलित, तर्कपूर्ण और वैचारिक दृष्टि से परिपक्व समीक्षा लेख प्रस्तुत है, जो 1000 शब्दों के आसपास है।रोहिंग्या विवाद पर न्यायिक मर्यादा और राष्ट्रीय हित की समीक्षाभारतीय न्यायपालिका का दायित्व केवल संविधान की रक्षा करना नहीं, बल्कि उस न्याय की भावना को भी जीवित रखना है जो राष्ट्र के अस्तित्व से जुड़ी है। हाल ही में देश के मुख्य न्यायाधीश (CJI) जस्टिस सूर्यकांत की एक टिप्पणी—जिसमें उन्होंने रोहिंग्याओं की तुलना “घुसपैठियों” से की थी—पर लगभग दो दर्जन पूर्व न्यायाधीशों, वकीलों और शिक्षाविदों ने आपत्ति जताते हुए एक खुला पत्र लिखा है। उनका कहना है कि रोहिंग्या उत्पीड़न से भागे शरणार्थी हैं, घुसपैठिए नहीं। यह टिप्पणी, लोकतंत्र और राष्ट्रीय मर्यादा दोनों के विमर्श का मुद्दा बन गई है।न्यायपालिका की टिप्पणियाँ और उनके निहितार्थभारत में सुप्रीम कोर्ट की मौखिक या सार्वजनिक टिप्पणियाँ केवल शब्द नहीं होतीं; वे संवैधानिक दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करती हैं। न्यायालय के वक्तव्यों का सामाजिक और राजनीतिक असर गहरा होता है। इसलिए जब देश का मुख्य न्यायाधीश किसी समुदाय या प्रवासी समूह पर “घुसपैठिया” जैसा शब्द प्रयोग करता है, तो उसका कई अर्थों में विश्लेषण आवश्यक हो जाता है।हालाँकि, न्यायपालिका का यह भी कर्तव्य है कि वह राष्ट्र की सुरक्षा और सीमाओं की पवित्रता को ध्यान में रखे। भारत का संविधान अनुच्छेद 51(सी) में अंतरराष्ट्रीय संबंधों में न्याय और सम्मान की बात करता है, लेकिन उससे पहले अनुच्छेद 19 से लेकर अनुच्छेद 355 तक राज्य पर देश की अखंडता की रक्षा का दायित्व डालता है। इसलिए अदालत का संतुलन केवल मानवाधिकारों की रक्षा तक सीमित नहीं रह सकता।रोहिंग्या प्रश्न: मानवीय संकट या सुरक्षा चुनौती?रोहिंग्या मूलतः म्यांमार के रखाइन क्षेत्र के मुस्लिम समुदाय हैं, जिन्हें वहाँ की सैन्य सत्ता ने नागरिकता से वंचित कर प्रताड़ित किया। परिणामस्वरूप लाखों रोहिंग्या पड़ोसी देशों—बांग्लादेश, मलेशिया और भारत—की ओर भागे। लेकिन भारत का परिप्रेक्ष्य अलग है। भारत संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संधि 1951 का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, इसलिए किसी भी विदेशी को “शरणार्थी” का कानूनी दर्जा स्वचालित रूप से नहीं मिलता।भारत ने ऐतिहासिक रूप से शरण देने की परंपरा निभाई है—तिब्बती बौद्धों, श्रीलंकाई तमिलों, अफगान हिंदुओं-सिखों को भारत ने अपने देश में स्थान दिया। परंतु यह स्वीकार्यता हमेशा “राज्य की अनुमति और सीमित नियंत्रण” के तहत रही है। यदि कोई समूह बिना अनुमति के सीमा पार कर देश में बस जाए, तो वह कानूनी रूप से घुसपैठिया कहलाता है, चाहे उसकी उत्पत्ति में दुख हो या नहीं।इस दृष्टि से देखा जाए तो रोहिंग्याओं के प्रति सहानुभूति जरूरी है, लेकिन देश की सुरक्षा पर समझौता नहीं किया जा सकता। म्यांमार सीमा से जुड़े कई क्षेत्रों में इन आश्रयों के आतंकवादी समूहों से संपर्क की आशंकाएँ भी खुफिया रिपोर्टों में व्यक्त की गई हैं। अतः केवल मानवीय दृष्टिकोण अपनाना और राष्ट्रीय सुरक्षा की अनदेखी करना स्वयं संविधान के साथ अन्याय होगा।पूर्व न्यायाधीशों और शिक्षाविदों की चिट्ठी का राजनीतिक संकेतपूर्व जजों और शिक्षाविदों का खुला पत्र न्यायिक स्वतंत्रता की एक स्वस्थ परंपरा का हिस्सा माना जा सकता है। लोकतंत्र में नागरिकों को—even पूर्व न्यायाधीशों को—मत व्यक्त करने का अधिकार है। परंतु प्रश्न यह है कि क्या ऐसा बयान न्यायिक मर्यादा के मानकों पर खरा उतरता है?इन पत्रों में न्यायिक संवैधानिकता की बात कम और राजनीतिक आलोचना का स्वर अधिक झलकता है। यह भी विचारणीय है कि न्यायपालिका के सक्रिय सेवाधारी मुखिया की टिप्पणी पर सार्वजनिक विरोध करना, वह भी विदेश नीति और सुरक्षा से जुड़े मामले में, कहीं न्यायिक-संगठनात्मक अनुशासन को प्रभावित तो नहीं करता। यदि हर न्यायिक निर्णय या टिप्पणी को पूर्व जजों के वैचारिक बयान से तोला जाने लगे, तो न्यायपालिका की संस्थागत स्थिरता खतरे में पड़ सकती है।नागरिकता, घुसपैठ और भारतीय मूल्यभारत का संविधान नागरिकता और शरण दोनों को स्पष्ट रूप से अलग-अलग श्रेणियों में रखता है। नागरिकता अधिनियम 1955 किसी व्यक्ति को नागरिक तभी मानता है जब वह भारत में जन्म, वंश, पंजीकरण या प्राकृतिककरण से अधिकृत रूप से आया हो। इसके बाहर का कोई व्यक्ति तभी वैध होगा जब उसे केंद्र सरकार से अनुमति प्राप्त हो।इस दृष्टिकोण से, जो व्यक्ति बिना अनुमति सीमा लांघकर प्रवेश करता है, वह “अनधिकृत निवासी” या “घुसपैठिया” कहलाता है—चाहे उसकी धार्मिक या जातीय पृष्ठभूमि कोई भी हो। इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में देखें तो “अवैध निवास” केवल प्रशासनिक समस्या नहीं है, बल्कि सामाजिक संतुलन, संसाधन वितरण और आंतरिक स्थिरता से भी जुड़ा प्रश्न है।कुछ मानवाधिकार संगठन इस पर जोर देते हैं कि रोहिंग्या “पीड़ित” हैं, इसलिए उन्हें देश में आश्रय देने का नैतिक दायित्व है। परंतु यह नैतिकता तब तक सार्थक है जब तक वह राज्य की अनुमति और शर्तों के अधीन रहे। बिना अनुमति के रहना न केवल भारतीय कानून का उल्लंघन है बल्कि आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा भी।न्यायपालिका की भूमिका और मर्यादामुख्य न्यायाधीश का संदर्भ यदि किसी न्यायिक बहस या सुनवाई के दौरान आया था, तो उसका औचित्य न्यायिक विवेक के तहत आता है। मगर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय जनता को यह भरोसा दिलाए कि न्याय “सर्व” के लिए समान रहेगा—चाहे वह भारत में जन्मा नागरिक हो या किसी अन्य देश से आया व्यक्ति।संविधान की आत्मा न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता पर टिकी है। पर इन चार स्तंभों की रक्षा तभी संभव है जब राष्ट्र का अस्तित्व और कानून की सर्वोच्चता सुरक्षित हो। इसीलिए न्यायपालिका का “राष्ट्रहित” दृष्टिकोण किसी भी परिस्थिति में मानवता विरोधी नहीं, बल्कि संविधाननिष्ठ है।निष्कर्ष: संवैधानिक करुणा और राष्ट्रीय स्वाभिमान का संतुलनरोहिंग्या मुद्दे पर मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी और उस पर प्रतिक्रियाएँ हमें यह सोचने को विवश करती हैं कि भारत को किस दिशा में चलना चाहिए—“नैतिक उदारता” की ओर या “कानूनी दृढ़ता” की ओर। वस्तुतः उचित मार्ग इन दोनों के बीच का है: करुणा भी हो और नियम का पालन भी।भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहाँ करुणा का अर्थ अराजकता नहीं और मानवीयता का अर्थ सीमा-विहीनता नहीं हो सकता। जो शरणकारी भारत की सीमाओं, कानूनों और मूल्यों का सम्मान करते हैं, उन्हें भारत हमेशा शरण देता आया है; पर जो अवैध तरीके से बसते हैं और सुरक्षा के लिए खतरा बनते हैं, उन्हें रोकना भी संविधान की रक्षा का ही दायित्व है।न्यायपालिका से अपेक्षा यही है कि वह इस संतुलन को बनाए रखे—जहाँ करुणा संवेदनशील रहे, पर राष्ट्र के अधिकारों पर क्षरण न हो। यही संवैधानिक नैतिकता की सच्ची कसौटी है।क्या आप चाहेंगे कि इस लेख का एक संपादकीय संस्करण (400–500 शब्द) “कौटिल्य का भारत” प्रकाशन के लिए उपयुक्त भाषा-शैली में तैयार किया जाए?

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

यूपी में जीरो टॉलरेंस नीति से माफियाराज का अंत हुआ – स्वतंत्र देव सिंह

यूपी में जीरो टॉलरेंस नीति से माफियाराज का अंत हुआ – स्वतंत्र देव सिंह

भाजपा कार्यकर्ताओं ने फूलमाला पहनाकर कैबिनेट मंत्री का किया स्वागत





बस्ती। प्रदेश सरकार के जलशक्ति मंत्री स्वतंत्र देव सिंह का शुक्रवार को बड़ेवन टोल प्लाजा पर भव्य स्वागत किया गया। भाजपा के क्षेत्रीय मंत्री राजेश पाल चौधरी एवं जिला कार्य समिति सदस्य नितेश शर्मा के संयुक्त नेतृत्व में कार्यकर्ताओं ने मंत्री को फूलमालाएं पहनाकर अभिनंदन किया।

जलशक्ति मंत्री ने संबोधन में कहा कि भारतीय जनता पार्टी की डबल इंजन सरकार गांव, गरीब और किसानों के उत्थान के लिए निरंतर कार्य कर रही है। उन्होंने कहा कि सुशासन और विकास की नीति के चलते बिहार में एनडीए गठबंधन ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की, और 2027 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी यही रिकॉर्ड दोहराया जाएगा।

उन्होंने दावा किया कि जनता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नीतियों से पूरी तरह संतुष्ट है। सरकार गरीबों को मकान, किसानों को सम्मान निधि, बेटियों की मुफ्त शादी, 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन, आयुष्मान इलाज तथा शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं उपलब्ध करवा रही है।

मंत्री ने कहा कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जीरो टॉलरेंस नीति ने प्रदेश में माफियाराज का अंत कर दिया है, जिससे जनता का पुलिस-प्रशासन पर विश्वास और मजबूत हुआ है।

स्वागत कार्यक्रम में मौजूद प्रमुख कार्यकर्ता:
हिमांशु पाल गोलू, रमेश चौधरी, अभिषेक पटेल, मनोज चौधरी, अशोक दुबे, सन्नी सोनकर, रियाज़ अहमद, प्रमोद चौधरी, मुन्ना उपाध्याय, चंद्रप्रकाश चौधरी, आशुतोष शुक्ला, सौरभ दुबे, शिवानंद पाठक, विपिन कुमार, रवि पाठक, राम भारत यादव, आकाश चौधरी आदिउपस्थित रहे.

बस्ती मंडल में स्वास्थ्य व्यवस्था की हत्या: अवैध पैथोलॉजी केंद्रों का आतंक, प्रशासन में नीद में!

 बस्ती मंडल में स्वास्थ्य व्यवस्था की हत्या: अवैध पैथोलॉजी केंद्रों का आतंक, प्रशासन की नींद,खतरे में डाले जनता की जान!



प्रदीप कुमार सिंह

बस्ती मंडल  तीनो जिलों की गलियों और मोहल्लों में अनियंत्रित और बिना किसी योग्यता वाले पैथोलॉजी केंद्रों का आतंक छाया हुआ है। ये केंद्र न केवल अवैध हैं, बल्कि जहां अनुभवहीन, अनुशासनहीन लोग मरीजों के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, वहीं नियम-कायदे की तो कोई सुनवाई नहीं। खून की जांच के नाम पर चालू ये खतरनाक खेल तेजी से फैल रहा है, जो सूबे के स्वास्थ्य ढांचे को कमजोर कर रहा है।

 अनुभवी कर्मी नदारद हैं, लेकिन कलेक्शन एजेंट बनाकर अनभिज्ञ लोगों को काम सौंपा जा रहा है, जो छोटे-बड़े अस्पतालों और निजी क्लीनिकों में घातक रिपोर्ट्स का जन्म दे रहे हैं। नेपाल बार्डर की जनता भी चपेट में,स्वास्थ्य विभाग के जिला और मंडलीय अधिकारी, जिनकी ज़िम्मेदारी जनता की जान की सुरक्षा है, वे तो मौन साधे बैठे हैं। सांसद, विधायक और जनप्रतिनिधि भी इस सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट पर पर्दा डालते नजर आ रहे हैं। 

अवैध पैथोलॉजी सेंटरों ने नर्सिंग होम्स के साथ मिलकर स्वास्थ्य विभाग का गढ़ पूरी तरह से नष्ट/ध्वस्त कर दिया है। ये अवैध केंद्र साधारण अपराधी नहीं, बल्कि स्वास्थ्य विभाग पर संवैधानिक डाका डालने वाले संगठन की तरह काम कर रहे हैं।कब जागेगा प्रशासन?संदेह की सुई अब ऊपर जा चुकी है। छापेमारी और बंदिशें केवल कागजी कार्रवाई बनकर रह गई हैं।निदान की कार्यप्रणाली पर तत्काल कार्रवाई आवश्यक है, नहीं तो बस्ती मंडल स्वास्थ्य क्षेत्र का 'रक्तबीज' बन जाएगा।

संसद और विधानसभा में इस बात को मुद्दा बनाना ही जनता की आखिरी उम्मीद बची है।अगर अब भी अधिकारी जवाबदेही से भागे, तो जनता सड़कों पर उतरकर अपनी जान की रक्षा करेगी।यह महज एक स्वास्थ्य समस्या नहीं, बल्कि न्याय, कर्तव्य और संवेदनशीलता की हत्या है। अधिकारी जब तक अपनी नींद से नहीं उठेंगे, तब तक बस्ती मंडल की जनता को इस खतरनाक सड़ी हुई व्यवस्था में जहन्नुम का सामना करना पड़ेगा। 

रक्तबीज से भी तेज बढ़ने वाले इन केंद्रों पर अब रोकना जीवन रक्षा का सवाल बन चुका है।अब वक्त आ चुका है — या तो प्रशासन कठोर कदम उठाए या जनता से जवाबदेही मांगे। क्योंकि अब कोई बहाना नहीं चलेगा!जिला सहकारी बैंक क़े अध्यक्ष राजेंद्र नाथ तिवारी ने मुख्य मंत्री और स्वास्थ्य मंत्री को पत्र लिख कर जिम्मेदार अधिकारीयों को नीद से जगाने का आग्रह किया है.

यदि चौपाल चरित्रहीन होजायेगा तो गांव पंचायतें विखर जाएंगी





सम्पादकीय











"बस्ती में गाँव की चौपाल में  बैठा भ्रष्टाचार — गाँव का न्याय अब बोली पर, सच्चाई पर नहीं”


बस्ती जिले के गाँवों की चौपाल किसी समय लोक-न्याय की अकादमी हुआ करती थी। यहाँ न कोई स्टांप, न एफिडेविट—सिर्फ सच, तर्क और लोकसम्मति। बुजुर्गों का एक-एक शब्द संविधान की तरह माना जाता था।पर आज बस्ती की चौपालें अपनी आत्मा खो रही हैं।जहाँ कभी बुजुर्गों का न्याय था, वहाँ अब रसूखदारों का “प्रभाव” बैठता है।जहाँ कभी सत्य की प्रतिष्ठा थी, वहाँ अब “सम्पर्क + शक्ति = फैसला” का फार्मूला चल रहा है।गाँव की चौपड़ अब सत्ता-खेल का मैदान

सबसे दर्दनाक बात यह है कि गाँव की चौपड़ अब गांव के लोगों का केंद्र नहीं रही। यह कुछ चुनिंदा लोगों की निजी अदालत बन गई है—जो मनरेगा की सूची से लेकर आवास पात्रता तक, और पट्टा से लेकर सरकारी योजनाओं तक हर जगह अपनी पकड़ बनाए हुए हैं।

कई ग्राम पंचायतों में यह स्थिति इतनी बुरी है कि जिस गरीब की समस्या सुने जाने योग्य होती है, उसी गरीब को “बाद में आना”, “कल बतायेंगे”, “जिलाधिकारी से मिल लो” जैसा टका-सा जवाब मिलता है।गाँव में एक नई कहावत चल रही है—“चौपाल में सच नहीं चलता, पहचान चलती है।”बस्ती की पंचायतें क्यों हार रही हैं?

क्योंकि—ग्राम प्रधान की मनमानी बढ़ रही है।सचिव और रोजगार सेवक गांव से कट चुके हैं।गरीब की तरफ से बोलने वाला कोई नहीं बचा। शिकायतें ऊपर तक जाते-जाते ‘निस्तारित’ दिखा दी जाती हैं।सामाजिक लेखा-जोखा (Social Audit) सिर्फ कागज़ पर हो रहा है। यही कारण है कि बस्ती में चौपाल का स्तर गिर रहा है, और गाँवों के बीच अविश्वास बढ़ रहा है।भूमि विवाद—बस्ती की नई राजनीतिक प्रयोगशाला,एक समय बस्ती में खेत-मेढ़ का विवाद भी चौपाल पर सुलझ जाता था।
आज वही विवाद रसूखदारों की जेब भरने का जरिया है।जिस किसान का खेत है, उसे ही कई जगह अपने हक का सबूत देने के लिए बार-बार दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं।बस्ती में खेत सिर्फ फसल का नहीं, सत्ता का भी प्रतीक बन गया है।क्या यह हाल ऐसे ही रहेगा?नहीं, समाधान है—और वह सरल है, बस राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए:चौपाल में बैठकों की अनिवार्य रिकॉर्डिंग, निर्णयों को सूचना बोर्ड पर चिपकाने की व्यवस्था, पट्टा, मनरेगा, आवास—सभी चयन प्रक्रियाओं को पारदर्शी बनाना, युवाओं की निगरानी समिति: “बस्ती नव-चौपाल मॉडल”
 अधिकारियों के औचक निरीक्षण—सिर्फ फोटो नहीं, कार्रवाई चाहिए
कौटिल्य का भारत का स्पष्ट मत“यदि बस्ती की चौपाल पुनः निष्पक्ष हो गई, तो पूर्वांचल का सामाजिक ढांचा फिर उठ खड़ा होगा।जिस दिन चौपाल मजबूत होगी, उसी दिन भ्रष्टाचार कमजोर पड़ेगा।”बस्ती की चौपाल सिर्फ लकड़ी की बैठक नहीं है—यह जनता के अधिकारों की पहली पाठशाला है।इसे बचाना प्रशासन की ज़िम्मेदारी ही नहीं, समाज की प्रतिष्ठा भी है।यदि चौपाल चरित्रहीन हो गई, तो गाँव बिखर जाएँगे, और जब गाँव बिखरते हैं, तब राष्ट्र मजबूत नहीं रह पायेगा.

ब्राह्मण बेटियों को अपमानित करने वाले,फर्जी आदेश बनाने वालों — जज और अफसर — दोनों की कानूनी गिरफ्तारी हो, दोनों क़े बीच 114 बार बात?

न्याय पर हमला या न्याय का अपमान?आईएएस संतोष वर्मा–जज विजयेंद्र सिंह रावत मामला : व्यवस्था की सड़ांध बेनकाब





इंदौर मध्यप्रदेश

लोकतंत्र की बुनियाद केवल चुनावों से नहीं टिकती, वह टिकती है न्याय पर, व्यवस्था पर, प्रशासन की ईमानदारी पर और संविधान की प्रतिष्ठा पर। यदि कोई आम नागरिक अदालत के दरवाज़े पर दस्तक देता है, तो वह इस भरोसे के साथ जाता है कि कानून उसके लिए समान होगा, न्याय निष्पक्ष होगा और सत्य की रक्षा करने वाली संस्था अदालत किसी भी व्यक्ति, पद, जाति, धर्म या प्रभाव के आगे झुकेगी नहीं। यही भरोसा लोकतंत्र की आत्मा है।लेकिन मध्यप्रदेश के चर्चित मामले — आईएएस संतोष वर्मा और तत्कालीन न्यायिक अधिकारी विजयेंद्र सिंह रावत — ने इस आत्मा को गहरे आघात पहुँचाया है। यह केवल भ्रष्टाचार का मामला नहीं, यह व्यवस्था के चरित्र के पतन का मामला है। इसमें सत्ता, अहंकार, जाति, अपराध, पद और न्यायपालिका — सब कुछ दांव पर लगा हुआ है।

कैसे एक आरोपी अफसर न्याय के नाम पर ‘नायक’ बनाया गया?

मामले की जड़ उस समय से शुरू होती है जब संतोष वर्मा पर एक महिला ने गंभीर आरोप लगाए। आरोप मामूली नहीं थे — अपमान, धमकी, चोट पहुँचाने तथा अभद्र सामग्री प्रसारित करने के। सामान्यतः ऐसे मामलों में सरकारी अधिकारी को पदोन्नति रोक दी जाती है, जांचें तेज होती हैं और सेवा आचरण नियम के अनुसार, उन्हें उच्च पद की जिम्मेदारी नहीं दी जाती।लेकिन यहाँ उल्टा हुआ!वर्मा ने बाकायदा अदालत का एक आदेश पेश कर दिया, जिसमें लिखा था कि उन्हें इन आरोपों से बरी कर दिया गया है। इस तथाकथित आदेश के आधार पर उन्हें आईएएस पदोन्नति दे दी गई। एक अपराध का आरोपी, अचानक एक सम्मानित उच्चाधिकारी के रूप में सामने आया और उसने सत्ता का लाभ लेना चालू कर दिया।बाद में जो खुलासा हुआ, उसने पूरे तंत्र की पोल खोल दी — जिस दिन उन्हें ‘बरी’ दिखाया गया, उस दिन जज छुट्टी पर थे!यानी आदेश नकली था, मनगढ़ंत था, और वह आदेश उसी अदालत से निकलने का दावा कर रहा था जिसके न्यायाधीश उस दिन अनुपस्थित थे! क्या यह महज इत्तफ़ाक़ था? नहीं। यह सुनियोजित अपराध था।जज और अफसर के बीच ‘114 बार संपर्क’ — क्या यह मात्र संवाद था?जांच में यह तथ्य भी निकलकर सामने आया कि उस समय के न्यायिक अधिकारी विजयेंद्र रावत और संतोष वर्मा के बीच 114 बार मोबाइल संपर्क हुआ। एक फर्जी आदेश, और उससे पहले सैकड़ों बार एक अफसर और एक जज का संपर्क — क्या यह केवल दोस्ती थी? या सत्ता और न्याय का व्यापार हो रहा था?यह प्रश्न आज हर नागरिक को पूछना चाहिए, क्योंकि जब न्यायपालिका के भीतर ही न्याय खरीदा-बेचा जाने लगे, तब लोकतंत्र की आधारशिला हिल जाती है।

प्रमोशन: अपराध से बड़ा प्रमाणपत्र?विडंबना देखिए — जिस अपराध में वर्मा आरोपी थे, उसी मामले के कथित ‘नकली आदेश’ को प्रमोशन बोर्ड के सामने रखा गया और यही ‘कथित न्याय’ वर्मा को उच्च प्रशासनिक पद दिलाने का साधन बन गया।प्रश्न यह है:क्या प्रमोशन समिति दस्तावेजों की जांच नहीं करती?क्या अदालत के आदेश की सत्यता जांचने की ज़िम्मेदारी नहीं होती?क्या इतनी बड़ी प्रक्रिया केवल एक काग़ज़ के सहारे पूरी कर दी जाती है?यदि उत्तर ‘हाँ’ है, तो यह प्रणाली केवल काग़ज़ी नहीं, भ्रष्ट है। यदि उत्तर ‘नहीं’ है, तो इस मामले में कई स्तरों पर मिलीभगत है। दोनों ही स्थिति लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है।फिर वही जाति, स्त्री का अपमान और सत्ता का अहंकार,जब मामला शांत हुआ नहीं था, तभी संतोष वर्मा ने एक सार्वजनिक मंच पर बेहद अशोभनीय और जाति–वैमनस्य फैलाने वाला बयान दे दिया। उन्होंने कहा कि “आरक्षण तब तक चलता रहेगा जब तक एक ब्राह्मण अपनी बेटी किसी दूसरे वर्ग को न दे।”यह बयान न केवल जाति के नाम पर समाज को बांटने वाला था, बल्कि महिलाओं की गरिमा का घोर अपमान था। महिलाओं के सम्मान को व्यापार बना देना, उन्हें दहेज या सौदे में बदल देना — यह मानसिकता कितनी विकृत है!एDक उच्चाधिकारी, जिसकी जिम्मेदारी संविधान की रक्षा करना है, वह संविधान की आत्मा — समानता और सम्मान — को ही लांघ जाता है। यह केवल बयान नहीं था, यह सभ्य समाज के खिलाफ अपराध था।

अब सवाल यह नहीं कि दोषी कौन, सवाल है कि दोषी बचेंगे या नहीं?आज सड़कें गरम हैं, प्रदर्शन हो रहे हैं, जनता गुस्से में है। अफसर और जज खुद कानून के शिकंजे में फँसे दिख रहे हैं। लेकिन क्या इससे न्याय मिलेगा? देश की जनता पूछ रही है:क्या केवल निलंबन पर्याप्त है?क्या फर्जी आदेश बनाना ‘जमानती खिलवाड़’ है?क्या न्यायालय की गरिमा का अपमान ‘धोखा’ नहीं?क्या जज और अधिकारी दोनों को गिरफ्तारी होनी चाहिए?क्या प्रमोशन वापस लेना चाहिए?इन सवालों से भागकर सरकार या अदालतें खुद अपने पवित्र दायित्व से भागेंगी।

कठोर कार्यवाही क्यों अनिवार्य है?यदि ऐसे अपराधी बच गए, तो तीन बड़ी हानियाँ होंगी:

 न्याय का भरोसा टूट जाएगाजब अपराधी ताक़तवर हो जाए, और जज उसका सहयोगी, तब आम नागरिक न्याय के द्वार पर दस्तक क्यों देगा? वह जान जाएगा कि कानून सत्ता के लिए है, समाज के लिए नहीं।प्रशासन में अपराधी बढ़ेंगे,यदि कानून अफसर की गलती पर भी चुप रहे, तो हर अधिकारी यही सीख लेगा कि पद और सत्ता अपराध को ढाल बना सकते हैं।समाज में जातीय विभाजन और स्त्री–विरोधी मानसिकता बढ़ेगी सत्ता जब जाति और महिला–विरोधी सोच को वैधता दे दे, तब समाज हिंसक बनता है, भेदभाव बढ़ता है और सभ्यता मरने लगती है।तो रास्ता क्या है?इस पूरे मामले पर कठोरतम कार्रवाई आवश्यक है। इसे केवल कानून नहीं, राष्ट्र के नैतिक अनुशासन का मामला समझकर निपटाया जाना चाहिए। सरकार, न्यायपालिका और समाज को निम्न कदम उठाने चाहिए:

फर्जी आदेश बनाने वालों — जज और अफसर — दोनों की कानूनी गिरफ्तारी

वर्मा का प्रमोशन तुरंत रद्द, फर्जी आदेश बनवाने में शामिल सभी की संयंत्रित जांच और सज़ा

 अदालतों में डिजिटल आदेश और लॉग प्रणाली अनिवार्य,सरकारी अधिकारियों द्वारा दिए गए महिला–अपमान और जाति–उकसाऊ बयान पर त्वरितदंड अनिवार्य.

 न्याय को बचाना होगा, वरना देश खो जाएगा,इस मामले में केवल एक अधिकारी और एक जज दोषी नहीं हैं। दोषी है वह मानसिकता जो पद, जाति, अहंकार, सत्ता और पितृसत्तात्मक सोच के सहारे न्याय को अपने पैरों तले कुचल देना चाहती है। यदि आज चुप रहा गया, तो कल यह अपराध और बड़े रूप में लौटेगा।न्याय व्यवस्था केवल अदालत की नींव नहीं, यह लोकतंत्र की सांस है। इसे बचाना हमारा कर्तव्य है, अन्यथा हम नागरिक नहीं, मूक गुलाम बन जाएंगे।जो न्याय के विरुद्ध है, वही राष्ट्र के विरुद्ध है।इसलिए आज सज़ा जरूरी है — केवल कानून के लिए नहीं, न्याय की प्रतिष्ठा के लिए.

यदि शिक्षा मातृभूमि के प्रति सम्मान नहीं जगा पाए, तो वह केवल नौकरी पैदा करती है, नागरिक नहीं!(28)।

वन्देमातरम अष्टाविंशति  श्रृंखला

वंदे मातरम्, सार्वजनिक शिक्षा : पाठ्यक्रम में क्यों आवश्यक?

 राष्ट्र-आत्मा का गीत::राष्ट्र केवल भूमि, जनसंख्या या शासन व्यवस्था का नाम नहीं होता; वह होती है—एक ऐसी जीवंत आत्मा, जो इतिहास, संस्कृति, भाषा, धर्म, कला, साहित्य, लोक-संस्कार और संघर्षों से निर्मित होती है। भारत की इस राष्ट्र-आत्मा को यदि एक भाव, एक मंत्र, एक ध्वनि, और एक शब्द में बांधा जाए तो वह है—“वंदे मातरम्”। यह केवल एक गीत नहीं, यह भारतीय चेतना का शंखनाद, स्वतंत्रता-संग्राम का प्रेरणास्त्रोत और मातृभूमि की पूजा का भाव है। इसलिए प्रश्न उठता है—जब यह गीत हमारी राष्ट्रीय आत्मा का प्रतिनिधि है, तो सार्वजनिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में इसे स्थान देना क्यों आवश्यक है?

वंदे मातरम् का ऐतिहासिक महत्व : स्वतंत्रता का मंत्र,बंकिमचंद्र चटोपाध्याय ने 1875-76 के बीच जब “आनंदमठ” में वंदे मातरम् की रचना की, तब यह केवल साहित्यिक अभिव्यक्ति नहीं थी; यह गुलाम भारत की वेदना, आक्रोश और जागरण की घोषणा थी।स्वतंत्रता आन्दोलन में भूमिका 1905 का स्वदेशी आंदोलन इसी गीत के नारे से प्रारम्भ हुआ।1906 में कांग्रेस के मंच से इसे गाया गया, पूरा देश उत्तेजित हो उठा।क्रांतिकारियों के लिए यह आतंकित ब्रिटिश सत्ता का भय था; भगत सिंह, राजगुरु, आज़ाद, खुदीराम, बिस्मिल, और countless सेनानियों के लिए यह युद्धघोष।जेलों में देशभक्त इसे गाते हुए यातना सहते थे; इसलिए यह गीत एक आध्यात्मिक-देशभक्ति ऊर्जा बन गया।वंदे मातरम् से ब्रिटिश भय ब्रिटिश सरकार ने कई बार इसे सार्वजनिक रूप से गाने पर प्रतिबंध लगाया।एक गीत से किसी साम्राज्य को डर क्यों लगा? क्योंकि यह गीत व्यक्ति के भीतर की दास मानसिकता को तोड़ता था। यही वह सत्ता-भंजक शक्ति है, जिसके कारण वंदे मातरम् शिक्षा में भी आवश्यक है—क्योंकि शिक्षा का मूल उद्देश्य दास नहीं, स्वतंत्र नागरिक बनाना है।वंदे मातरम् और सार्वजनिक शिक्षा : क्यों आवश्यक? राष्ट्रीय पहचान की स्थापना,पाठ्यक्रम का अर्थ केवल भाषाएँ और विज्ञान पढ़ाना नहीं; शिक्षा का कार्य राष्ट्र का ‘इंटेलेक्चुअल चरित्र’ बनाना होता है। वंदे मातरम् इस चरित्र का निर्माण इस प्रकार करता है—यह मातृभूमि को देवी रूप में प्रस्तुत करता है।यह मातृभक्ति को नागरिक कर्तव्य से जोड़ता है।यह भारतीय पहचान को भावनात्मक आधार देता है।शिक्षित होना केवल पढ़ना नहीं, बल्कि जिम्मेदार नागरिक बनना है; वंदे मातरम् इस जिम्मेदारी को राष्ट्रीय प्रेम से जोड़ता है।

चरित्र-निर्माण और नैतिक शिक्षा::भारत की शिक्षा पर सदैव प्रश्न रहे—अंक मिलते हैं पर चरित्र नहीं बनता, डिग्रियाँ बढ़ती हैं पर कर्तव्यबोध घटता है।वंदे मातरम् इससे जोड़कर शिक्षा को नैतिक आधार देता है—बच्चे राष्ट्र को, प्रकृति को, माता के रूप में सम्मान करना सीखते हैं।समाज हित, देशभक्ति और त्याग का भाव उत्पन्न होता है।उपभोगवादी मानसिकता की जगह कर्तव्य-केन्द्रित नागरिकता विकसित होती है।इसलिए वंदे मातरम् नैतिक शिक्षा का मूल सूत्र है।

 सांस्कृतिक सुरक्षा और सभ्यता का संरक्षण::शिक्षा एक पीढ़ी को नहीं, आने वाली पीढ़ियों की सभ्यता का आधार तय करती है।यदि पाठ्यक्रम में वंदे मातरम् न हो, तो अगली पीढ़ियाँ—अपने संघर्षों से अनभिज्ञ रहेंगी,देशभक्तों के बलिदानों से कट जाएंगी,मूल्यहीन वैश्विकता की शिकारहो जाएंगी। वंदे मातरम् सांस्कृतिक स्मृति का संरक्षक है।

 पर्यावरण-चेतना का राष्ट्रीय रूप::वंदे मातरम् केवल राष्ट्र-भक्ति नहीं; यह प्रकृति-भक्ति भी है। सिंधु, नदियाँ, खेत, हरियाली, वायु, जल, वसुंधरा—सब माता का रूप हैं। इस दृष्टि से वंदे मातरम् शिक्षा में पर्यावरण को संस्कृति से जोड़ता है।भारत में प्रकृति संरक्षण कानूनों से नहीं, संस्कारों से होता है।

 संविधान और “राष्ट्रीय सम्मान”:यद्यपि जन-गाण-मन राष्ट्रीय गान है, पर वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गीत का संवैधानिक सम्मान प्राप्त है।अर्थात इसे सार्वजनिक शिक्षा में स्थान देना संवैधानिक कर्तव्य भी है—संविधान का अनुच्छेद 51(A) नागरिकों को राष्ट्र-चिन्हों का सम्मान करने का निर्देश देता है।वंदे मातरम् शिक्षा में न पढ़ाना इस कर्तव्य से विमुख होना है।

आधुनिक शिक्षा और वंदे मातरम् : प्रासंगिकता::आज की शिक्षा ‘सूचना-प्रधान’ हो गई, किंतु ‘संस्कार-हीन’।तकनीक, विज्ञान, गणित शिक्षा के महत्वपूर्ण अंग हैं, लेकिन मूल्य-आधारित चेतना के बिना इनका उपयोग विनाशकारी भी हो सकता है।आज क्यों आवश्यक है? समाज में बढ़ती स्वार्थपरता,जातीय/धार्मिक विभाजन,पर्यावरण संकट,नागरिक कर्तव्यहीनता,लोकतांत्रिक मर्यादा का पतन,इन रोगों का उपचार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से पोषित शिक्षा ही कर सकती है, और वंदे मातरम् इस राष्ट्रवाद का अमृत-बीज है।

पाठ्यक्रम में कैसे शामिल किया जाए? प्राथमिक स्तर,काव्य-पाठ और भावानुवाद,देश, प्रकृति और माता के प्रति प्रेम की कहानियाँ माध्यमिक स्तर,वंदे मातरम् का साहित्यिक, ऐतिहासिक अध्ययन,स्वदेशी आन्दोलन से जोड़कर अध्यापन,चित्रांकन, नाटक, वाद-विवाद प्रतियोगिता

 उच्च शिक्षा::राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, भारतीय सभ्यता के संदर्भ में शोध भारतीय राजनीतिक-सांस्कृतिक आंदोलनों में वंदे मातरम् की भूमिका का अध्ययन

आपत्तियाँ और समाधान::कुछ समूह इसे धार्मिक आधार पर विवादित करते हैं।परंतु—वंदे मातरम् किसी देवी/देवता की पूजा नहीं, यह मातृभूमि का स्तवन है। इसमें किसी धर्म-विशेष का उल्लेख नहीं, यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का गीत है। राष्ट्रवाद किसी धर्म का नहीं होता; राष्ट्र सबका है।इसलिए वंदे मातरम् को शिक्षा में शामिल करना धर्म नहीं, नागरिकता का पाठ है।

 शिक्षा का स्वाधीन स्वर::एक राष्ट्र तभी जीवित रहता है जब उसकी नई पीढ़ियाँ अपनी जड़ों से जुड़ी हों। वंदे मातरम् वह ध्वनि है जो—भारतीयों को भारतीय होने का गर्व देती है,शिक्षा को मूल्य और आत्मा प्रदान करती है,विज्ञान और तकनीक को संस्कार के साथ जोड़ती है,स्वाधीनता-संग्राम की स्मृति को भविष्य की मार्गदर्शिका बनाती है।इसलिए सार्वजनिक शिक्षा में वंदे मातरम् का स्थान वैकल्पिक नहीं, अनिवार्य होना चाहिए।

यदि शिक्षा मातृभूमि के प्रति सम्मान नहीं जगा पाए, तो वह केवल नौकरी पैदा करती है, नागरिक नहीं।

वंदे मातरम् शिक्षा को नागरिक-निर्माण, संस्कृति-सुरक्षा और नैतिक राष्ट्रवाद से जोड़ता है।

यही कारण है—वंदे मातरम् पाठ्यक्रम में आवश्यक है, अनिवार्य है, और शिक्षा की आत्मा है।

वंदे मातरम 🙏

क्रमशः----

गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

“शिक्षकों के सम्मान पर यूपी सरकार सख्त — अधिकारियों को फटकार, गरिमामय व्यवहार के आदेश”

जिले के अधिकारियों को शिक्षकों का सम्मान करना ही होगा, उत्तर प्रदेश शासन, का पुराना आदेश वायरल








लखनऊ। उत्तर प्रदेश सरकार ने शिक्षकों के सम्मान और गरिमा से जुड़े एक महत्वपूर्ण आदेश जारी करते हुए स्पष्ट किया है कि किसी भी स्तर पर शिक्षकों के साथ असम्मानजनक व्यवहार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। प्रमुख सचिव प्रभात कुमार सारंगी द्वारा जारी इस पत्र को शासन स्तर पर गंभीरता से लिया जा रहा है।

प्राप्त जानकारी के अनुसार शासन के संज्ञान में यह बात आई थी कि कई जिलों में जिलाधिकारी, पुलिस अधिकारी तथा अन्य प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा बैठकों या निरीक्षण के दौरान शिक्षकों के प्रति अनुचित भाषा और असम्मानजनक रवैया अपनाए जाने की शिकायतें मिल रही थीं। इस पर नाराजगी जताते हुए शासन ने तत्काल प्रभाव से सभी मंडलायुक्तों, जिलाधिकारियों और संबंधित वरिष्ठ अधिकारियों को दिशानिर्देश भेजे हैं।

पत्र में स्पष्ट कहा गया है कि शिक्षक समाज का आधार स्तंभ हैं और उनके मान-सम्मान में कोई भी प्रकार की कमी प्रशासनिक अनुशासन और लोकतांत्रिक मर्यादा के विरुद्ध है। शासन ने यह भी निर्देश दिया है कि सभी अधिकारीगण शिक्षकों के साथ सौहार्दपूर्ण व्यवहार रखें तथा बैठकों, निरीक्षणों या समीक्षा दौरों के समय गरिमामय भाषा का प्रयोग अवश्य करें।

इसके साथ ही यह भी आदेश दिया गया है कि यदि किसी भी अधिकारी द्वारा शिक्षकों का अपमान या अभद्र व्यवहार किया जाता है तो उसकी रिपोर्ट शासन को भेजी जाए ताकि समुचित कार्रवाई सुनिश्चित की जा सके। पत्र में यह भी उल्लेख है कि कुछ जिलों में अधिकारियों की सख्त भाषा और अपमानजनक टिप्पणियाँ शिक्षकों में रोष और असंतोष का कारण बन रही हैं, जो किसी भी परिस्थिति में स्वीकार्य नहीं है।

शासन ने मंडल स्तर के अधिकारियों को भी निर्देशित किया है कि वे स्वयं इस व्यवस्था की निगरानी करें और यह सुनिश्चित करें कि जिले के किसी भी अधिकारी द्वारा शिक्षकों के आत्मसम्मान को ठेस न पहुंचे।

सरकार के इस कदम का शिक्षकों के बीच व्यापक स्वागत हो रहा है। शिक्षकों ने कहा है कि यह आदेश न केवल प्रशासनिक स्वच्छता को मजबूत करेगा बल्कि शिक्षा जगत में सम्मान और विश्वास का वातावरण भी बनाएगा।

लाइक और कमेंट ही सफलता का आधार,सोशल मीडिया: मृग-मरीचिका से भी घातक छलावा!

 सम्पादकीय

सोशल मीडिया: मृग-मरीचिका से भी घातक छलावा


आज सूचना का विस्फोट हो रहा है, लेकिन सत्य की कमी गहराती जा रही है। सोशल मीडिया दुनिया को जोड़ने का दावा करता है, किंतु वास्तव में यह मनुष्य को भ्रमित, विच्छिन्न और असुरक्षित बना देता है। युवाओं पर इसका प्रभाव सबसे विनाशकारी है, जहाँ चिंता, अवसाद और विकृत आत्म-छवि जैसी समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं 

यह डिजिटल मृग-मरीचिका पारंपरिक मीडिया के एकाधिकार को तोड़ती है, वास्तविक समय में समाचार साझा करने की सुविधा देती है, किंतु एल्गोरिदम के मौन आक्रमण से उपयोगकर्ताओं को फिल्टर बबल्स में कैद कर लेती है । भारत जैसे समाज में यह जवाबदेही बढ़ाने का वादा करता है, जैसे कोविड-19 के दौरान ऑक्सीजन की कमी उजागर हुई, लेकिन फर्जी खबरों और ट्रोलिंग से विभाजन गहरा जाता है ।भ्रम का डिजिटल साम्राज्य सोशल मीडिया पर दिखावा ही सर्वोपरि बिकता है। उपयोगकर्ता आभासी पहचान गढ़ते हैं, जहाँ लाइक्स और फॉलोअर्स वास्तविक स्वीकृति का पैमाना बन जाते हैं। इससे प्रामाणिक व्यक्तित्व धुंधला पड़ता है, भ्रम और भावनात्मक तनाव बढ़ता है 

।युवा अपनी कमजोरियाँ छिपाते हैं, प्रदर्शन-प्रधान संस्कृति में फँसकर सच्चे भाव दब जाते हैं। FOMO (कुछ छूट जाने का डर) और आदर्श जीवन से तुलना आत्म-सम्मान को चूर-चूर कर देती है । अत्यधिक उपयोग से वास्तविक जीवन की गतिविधियाँ, जैसे शिक्षा और काम, प्रभावित होती हैं ।एल्गोरिद्म का नियंत्रण एल्गोरिदम अब स्वतंत्र मंच को भीड़-व्यवहार की प्रयोगशाला बना चुके हैं। ये मशीनें तय करती हैं कि किसे गुस्सा दिलाना है, किसे अलग-थलग करना है। उपयोगकर्ता अनजाने में चरम विचारों के जाल में फँसते हैं ।डोपामाइन-चालित पुरस्कार प्रणाली इसे व्यसनकारी बनाती है, ध्यान अवधि कम करती है और स्मृति हानि का कारण बनती है । बड़ी टेक कंपनियाँ इस अराजकता से लाभ कमाती हैं, जबकि मानसिक स्वास्थ्य जोखिम बढ़ते जाते हैं ।सामाजिक संवाद का विघटनपरिवारों में संवाद घटा, स्क्रीन का शोर बढ़ा। ट्रोल और मीम्स ने तर्क-संवाद की जगह ले ली। साइबरबुलिंग, घृणास्पद टिप्पणियाँ और डीपफेक से युवा शोषण का शिकार होते हैं।बच्चों को चाइल्ड इन्फ्लुएंसर्स बनाकर वयस्क आय कमाते हैं, जो मानसिक परिपक्वता से पहले प्रदर्शन का दबाव डालता है। इससे अकेलापन और तनाव फैलता है । समाज में असमान पहुँच गरीब-अमीर की खाई गहरी करती है ।मानसिक स्वास्थ्य पर संकटऑनलाइन आदर्श तस्वीरें आत्म-धारणा को नुकसान पहुँचाती हैं, विशेषकर किशोरियों में अपर्याप्तता का भाव जन्म लेता है। अवसाद, चिंता और नींद की कमी आम हो गई ।संज्ञानात्मक विफलताएँ बढ़ती हैं, विचारों में चूक होती है। सकारात्मक प्रभाव जैसे जागरूकता भी हैं, किंतु अत्यधिक उपयोग नकारात्मकता हावी कर देता है ।लोकतंत्र पर डिजिटल दबावफर्जी खबरें, प्रोपेगेंडा और वायरल झूठ मतदाताओं को भ्रमित करते हैं। राजनीतिक अतिवाद बढ़ता है, निर्णय वायरलिटी पर निर्भर हो जाते हैं ।भारत में यह पारंपरिक मीडिया को चुनौती देता है, किंतु साइबर धमकी लोकतंत्र की नींव हिलाती है ।समाधान की राहडिजिटल साक्षरता, विनियमन और नैतिक डिजाइन आवश्यक हैं। व्यक्तिगत स्तर पर समय सीमा और सचेत उपयोग से बचाव संभव है । समाज सत्य के स्रोत तलाशे।मृग-मरीचिका आँखें धोखा देती है, सोशल मीडिया मन-समाज को। साहस से इस जाल से बाहर निकलें, वरना पीढ़ियाँ सत्य पहचानने में उलझेंगी.

अन्न ही ब्रह्म है. माँ अन्नपूर्णा!इसे व्यर्थ न करें!

 अन्न ही ब्रह्म है. माँ अन्नपूर्णा!






डॉ  ऋतंभरा  की लेखनी से







मार्गशीर्ष पूर्णिमा: अन्नपूर्णा जयंती का पावन पर्व – महत्व, कथा, पूजा विधि एवं उपाय
आज, 4 दिसंबर 2025 को मार्गशीर्ष पूर्णिमा का उदय हो रहा है, जो हिंदू धर्म में अत्यंत पवित्र एवं फलदायी तिथि मानी जाती है। यह न केवल वर्ष की अंतिम पूर्णिमा है, बल्कि मां अन्नपूर्णा के आविर्भाव दिवस के रूप में भी जानी जाती है। मां अन्नपूर्णा, जो भगवती पार्वती का अन्न-समृद्धि प्रदान करने वाला स्वरूप हैं, इस दिन भक्तों को पोषण, समृद्धि एवं सुख की वर्षा करती है.
मार्गशीर्ष पूर्णिमा का धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व
मार्गशीर्ष मास, जिसे अगहन भी कहा जाता है, हिंदू पंचांग का आठवां मास है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं भगवद्गीता (अध्याय 10, श्लोक 35) में कहा है – "मासानां मार्गशीर्षोऽहम्" अर्थात्, मैं ही मार्गशीर्ष मास हूं। यह मास भक्ति, तपस्या एवं दान के लिए सर्वोत्तम माना जाता है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर चंद्रमा की पूर्ण कला उदय होता है, जो मन को शांति एवं बुद्धि को प्रखर बनाती है। यह तिथि 4 दिसंबर 2025 को सुबह 4:37 बजे से प्रारंभ होकर 5 दिसंबर को समाप्त होगी, जिससे उदया तिथि के अनुसार पूजन का विशेष महत्व है।

इस पूर्णिमा का महत्व अनेक कारणों से है। प्रथम, यह दत्तात्रेय जयंती से भी जुड़ी है, जहां भगवान दत्त (ब्रह्मा, विष्णु, महेश का संयुक्त रूप) का जन्म हुआ। द्वितीय, अन्नपूर्णा जयंती के रूप में यह अन्न की महत्ता सिखाती है। शास्त्रों में कहा गया है कि अन्न ही जीवन का आधार है; बिना इसके संसार की कल्पना असंभव। तृतीय, यह वर्ष की अंतिम पूर्णिमा होने से पापों का नाश एवं नई शुरुआत का प्रतीक है। इस दिन व्रत, दान एवं सत्कर्म से मोक्ष प्राप्ति होती है। ज्योतिषीय दृष्टि से, इस तिथि पर गुरु पुष्य योग या अन्य शुभ योग बनने से धन-धान्य की वृद्धि होती है।
मार्गशीर्ष मास में सूर्य धनु राशि में प्रवेश करता है, जो आध्यात्मिक उन्नति का संकेत है। पुराणों में वर्णित है कि इस मास में की गई तपस्या देवताओं को भी प्रसन्न करती है। विशेष रूप से, महिलाएं इस दिन व्रत रखकर परिवार की समृद्धि की कामना करती हैं। यह पर्व हमें पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी देता है – अन्न का अपव्यय न करें, क्योंकि मां अन्नपूर्णा की कृपा से ही यह प्राप्ति होती है।

मां अन्नपूर्णा का स्वरूप एवं इतिहास
मां अन्नपूर्णा भगवती पार्वती का एक दिव्य अवतार हैं, जिन्हें अन्न-धान्य की अधिष्ठात्री कहा जाता है। संस्कृत में "अन्न" का अर्थ भोजन एवं "पूर्णा" का अर्थ पूर्ण या भरपूर। वे "अन्नदा" (भोजन दाता) के नाम से विख्यात हैं। उनका स्वरूप लाल वर्ण का, चंद्रमा जैसे मुख वाली, तीन नेत्रों वाली एवं चार भुजाओं वाली होता है। निचली बायीं भुजा में खीर का पात्र, दायीं में सोने का लडलु, एवं अन्य भुजाओं में अभय एवं वर मुद्रा। सिर पर चंद्रमा एवं आभूषणों से सुशोभित। हिमालय की अन्नपूर्णा पर्वत श्रृंखला भी उनके नाम पर ही है, जो हिमवत राजा की पुत्री मानी जाती हैं।

इतिहास में, मां का प्रमुख मंदिर काशी (वाराणसी) में है, जहां आदि शंकराचार्य ने स्थापना की। अन्य मंदिर होरानाडु (कर्नाटक), इंदौर, गुजरात के उंझा (उमिया माता रूप) एवं नेपाल के काठमांडू में हैं। स्कंद पुराण, लिंग पुराण एवं देवी भागवत में उनका वर्णन है। कालिदास के कुमारसंभव एवं अन्य ग्रंथों में भी उल्लेख मिलता है। अन्नपूर्णा उपनिषद् में उन्हें ज्ञान की स्रोत कहा गया है।

अन्नपूर्णा जयंती की पौराणिक कथा
अन्नपूर्णा जयंती की कथा अत्यंत मार्मिक एवं शिक्षाप्रद है। एक बार कैलाश पर्वत पर भगवान शिव एवं मां पार्वती के बीच वाद-विवाद हुआ। शिव जी ने कहा, "यह संसार माया है, अन्न व्यर्थ है। आत्मा अमर है, भोजन का कोई महत्व नहीं।" इससे क्रोधित होकर मां पार्वती ने कहा, "यदि अन्न व्यर्थ है, तो मैं इसे गायब कर देती हूं।" तत्काल सारा अन्न पृथ्वी पर लुप्त हो गया।
परिणामस्वरूप, पृथ्वी पर भयंकर अकाल पड़ गया। देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी सब भूख से तड़पने लगे। शिव जी के गण भी कमजोर हो गए। शिव जी स्वयं भिक्षाटन (भिक्षा मांगने) के लिए काशी पहुंचे। वहां एक छोटे से मंदिर में मां अन्नपूर्णा सिंहासन पर विराजमान थीं, लाल वस्त्राभूषित एवं अन्न से भरे पात्र लिए। उन्होंने शिव जी को भिक्षा-पात्र में अन्न भरकर कहा, "हे महादेव! अन्न माया नहीं, बल्कि ब्रह्म का ही रूप है। यह जीवन का आधार है। आपके भक्तों को भूखा न छोड़ें।" शिव जी ने भिक्षुक वेश में अन्न ग्रहण किया एवं कहा, "मैं तो निर्गुण ब्रह्म हूं, लेकिन मेरे भक्तों के लिए अन्न आवश्यक है।" 

इस घटना से शिव जी को ज्ञान हुआ कि आध्यात्मिकता के साथ-साथ भौतिक पोषण भी जरूरी है। मां ने अन्न लौटा दिया, एवं संसार हरित हो गया। यह कथा सिखाती है – अन्न का सम्मान करें, अपव्यय न करें, एवं दान से जीवन समृद्ध होता है। लिंग पुराण में वर्णित है कि व्यास जी को भी मां ने अन्न प्रदान किया था। इसी दिन मां का प्राकट्य हुआ, इसलिए मार्गशीर्ष पूर्णिमा को जयंती मनाई जाती है.

पूजा विधि: चरणबद्ध तरीका
अन्नपूर्णा जयंती पर पूजा सरल एवं फलदायी है। 2025 में ब्रह्म मुहूर्त (सुबह 4:19-5:10) में उठें, स्नान करें एवं स्वच्छ वस्त्र धारण करें। व्रत संकल्प लें – फलाहार या एक समय भोजन।पूजन सामग्री: मां की मूर्ति/फोटो, कलश, नारियल, आमपत्ता, लाल चुनरी, फूल, चंदन, कुमकुम, अगरबत्ती, दीपक, अन्न (चावल, दाल), फल, मिठाई (खीर/हलवा), घी, हल्दी।
चरण:कलश स्थापना: स्वच्छ स्थान पर मंडप बनाएं। कलश में जल भरें,नारियल रखें एवं आमपत्ते से सजाएं।गणेश पूजन: विघ्नहर्ता गणेश की पूजा से प्रारंभ करें।मां की स्थापना: मूर्ति को लाल आसन पर विराजमान करें। चुनरी ओढ़ाएं, चंदन-कुमकुम चढ़ाएं।मंत्र जाप: "ॐ अन्नपूर्णायै नमः" या अन्नपूर्णा स्तोत्र (आदि शंकराचार्य रचित) का 108 बार जाप। सहस्रनाम या शतनाम पाठ करें।

भोग अर्पण: खीर, हलवा, फल चढ़ाएं। गैस स्टोव या चूल्हे की पूजा करें, क्योंकि अन्नपूर्णा रसोई की देवी हैं।आरती एवं प्रदक्षिणा: घी का दीपक जलाएं, आरती उतारें। तुलसी पूजन करें।
विसर्जन: कथा सुनें एवं प्रसाद वितरण करें।
मार्गशीर्ष मास में 21 दिनों का व्रत रखने से विशेष फल मिलता है। काशी में विशेष उत्सव होते हैं, जहां प्रसाद वितरण प्रमुख है।

विशेष उपाय एवं लाभ
इस दिन कुछ सरल उपाय मां की कृपा प्राप्त करने में सहायक हैं:
हल्दी उपाय: 1 चुटकी हल्दी गंगाजल में घोलकर मां को अर्पित करें। इससे धन-समृद्धि आती है।अन्न दान: चावल, दाल, वस्त्र गरीबों को दान करें। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में अन्नदान को सर्वोत्तम कहा गया।

रसोई पूजा: घर की रसोई साफ करें, गैस स्टोव पर तिलक लगाएं।
मंत्र सिद्धि: "ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे" का जाप।
लाभ: घर में अन्न की कभी कमी न हो, स्वास्थ्य अच्छा रहे, संतान सुख मिले, एवं आर्थिक उन्नति हो। विवाह में मां की मूर्ति दान करने से गृहस्थ जीवन सुखी होता है। यह पर्व हमें सिखाता है – भोजन केवल तृप्ति नहीं, बल्कि ईश्वरीय कृपा है।

 मां की कृपा से समृद्ध जीवन
मार्गशीर्ष पूर्णिमा एवं अन्नपूर्णा जयंती हमें जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं का सम्मान सिखाती है। आधुनिक युग में, जहां भोजन की बर्बादी आम है, यह पर्व पर्यावरण एवं सामाजिक जिम्मेदारी का संदेश देता है। कल इस पावन दिन मां की आराधना करें, दान दें एवं कथा सुनें। जय मां अन्नपूर्णा! आपका जीवन अन्न-पूर्ण हो। 

नेताजी सुभाषचंद्र बोस, वन्दे मातरम् और अयोध्या के गुमनामी बाबा!

 

वंदे मातरम्   सप्तविंशतिः   (   27वीं श्रृंखला)

नेताजी सुभाषचंद्र बोस, वन्दे मातरम् और अयोध्या के गुमनामी बाबा!




 राष्ट्रगीत और राष्ट्रपुरुषों का अदृश्य सेतु::भारत की स्वतंत्रता-गाथा केवल राजनीतिक घटनाओं का इतिहास नहीं, बल्कि भावनाओं का वह महाकाव्य है, जिसे हजारों अनाम, अदृश्य, अपूर्व और अद्वितीय व्यक्तित्वों ने अपने त्याग से लिखा। इस महागाथा में ‘वन्दे मातरम्’ वह ज्योति है, जिसने क्रांति और संघर्ष के अंधकार में अगणित क्रांतिकारियों की राह प्रकाशित की। इसी ज्योति के रथ पर सवार होकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस विश्व इतिहास में उस स्थान पर खड़े दिखते हैं, जहाँ विद्रोह, रणनीति, दार्शनिक दृष्टि और राष्ट्रभक्ति एक साथ संगठित होकर सशस्त्र आंदोलन की विराटता को जन्म देती है।

आज इसी वन्दे मातरम् के आलोक में एक रहस्य-व्यक्ति की चर्चा होती है—अयोध्या के ‘गुमनामी बाबा’ या ‘भगवानजी’। क्या वे नेताजी स्वयं थे? क्या वे किसी राजनीतिक समझौते की उपज थे? क्या वे राष्ट्रहित में अदृश्य रहने का प्रतिरोध थे? इन प्रश्नों का कोई अंतिम उत्तर इतिहास के पास नहीं, किंतु इन प्रश्नों से उत्पन्न विमर्श, भारत की स्वतंत्रता के अदृश्य अध्यायों को पढ़ने की शक्ति अवश्य देता है। श्री राम हरख सिंह तत्कालीन पंचायत अधिकारी ने एक पुस्तक लिखा था" अयोध्या के  गुमनामी बाबा नेताजी सुभाष चंद्र बोस नहीं तो कौन विपक्ष सहित संपूर्ण भारत सरकार जवाब दे" इसमें उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपतिवराह  वेंकटगिरी का एक उदाहरण लिखा था कि"

 मैं वी वी गिरी राष्ट्रपति भारत गणराज्य द्वारा घोषणा करता हूं कि हमारे प्रिय नेता सुभाष चंद्र बोस जी अगर कहीं हो और आकाशवाणी से मेरी यह आवाज सुन रहे हो तो कृपया हमको जिस भी परिस्थिति में हो बताएं भारत सरकार उनका सम्मान वापस लाने का प्रयास करेंगी" वह पुस्तक छापने के कुछ दिन बाद ही भी बाबा जी अंत में ब्रह्मलीन हो गए और पुस्तक भी प्रज्ञा प्रकाशन न्याय मार्ग बस्ती 272001 से छपी थी परंतु दुर्भाग्य से वह अप्राप्त है.मैं ही उसका प्रकाशक था एक भी प्रति संरक्षित न करने का पाप मै स्वयं अपने ऊपर ले रहा हूं. संदर्भ ग्रंथ के संबंध में वह पुस्तक थी रामहरख सिंह कहा करते थे की नेताजी सुभाष चंद्र बोस वंदे मातरम को प्राण से भी बढ़कर के मानते थे और "शक्ति भवन" अयोध्या में श्री भगवान जी के रूप में निवास कर रहे थे उनका खाना था कि वह नियमित वेट करने भी जाते थे यद्यपि पहन के पीछे सारी बेटे की बात बताई जाती है परंतु मेरी अभिलाषा राखी रह गई मैं श्री भगवान जी से कभी मिल नहीं सका और वे ब्रह्मलीन हो गए आप यह स्पष्ट है कि वह नेताजी थे या कोई और महा पुरुष!

नायक और राष्ट्रगीत का संबंध::नेताजी सुभाषचंद्र बोस के राजनीतिक दर्शन में राष्ट्रवादी चेतना ही सर्वोच्च थी, और इस चेतना के केंद्र में ‘वन्दे मातरम्’ का स्त्रोत था। नेताजी ने इसे केवल गीत न माना, बल्कि इसे राष्ट्रिक शक्ति का दैवी संस्कार माना। यही कारण है कि आज़ाद हिंद फौज के सैनिकों के लिए ‘वन्दे मातरम्’ सिर्फ एक उद्घोष नहीं, बल्कि सैनिक धर्म का मंत्र था। जब सैनिक मौत के सामने मुस्कुरा रहे होते, तब उनकी होंठों पर सबसे पहले यही पंक्ति होती—“वंदे मातरम्… स्वाधीनता हमारा धर्म है और मातृभूमि हमारी देवी।”‘वंदे मातरम’ के धार्मिक-भाववादी अर्थों को लेकर कुछ समकालीन राजनीतिक वर्गों ने विवाद खड़े किए, किंतु नेताजी का दृष्टिकोण इस विवाद से ऊपर था। उनके लिए भारत केवल भू-भाग नहीं, ‘माता’ थी, और माता की वंदना में ‘वंदे मातरम्’ पूर्ण, पवित्र और सर्वोच्च था।

नेताजी और सशस्त्र क्रांति की मानस-भूमि::नेताजी की क्रांति की भूमि केवल राजनीति नहीं, बल्कि आध्यात्मिक राष्ट्रवाद पर आधारित थी। उनका विश्वास था—“स्वतंत्रता भीख में नहीं मिलती, रक्त से अर्जित करनी होती है।”नेताजी की यह मान्यता उनके बंगाल, पंजाब, उड़ीसा और तमिल सैनिकों में भी समान रूप से प्रतिबिंबित होती थी। वे ब्रिटिश राज को केवल शासन नहीं मानते थे, बल्कि भारतीय आत्मा पर बना विदेशी दासत्व का बंधन मानते थे। इसीलिए आज़ाद हिंद फौज की शपथ में धर्म या जाति नहीं, केवल राष्ट्र और माता के प्रति समर्पण था।प्रश्न उठता है—क्या ऐसी चेतना वाला व्यक्ति युद्ध हारने के पश्चात चुपचाप दुनिया से विलुप्त हो सकता है? इतिहास इसके उत्तर में मौन दिखता है।

अयोध्या के गुमनामी बाबा : एक अनुत्तरित प्रश्न::अयोध्या के मटमैलों स्मृति-चिह्न, पुलिस अभिलेख, इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट, अदालतों में हुए वाद-विवाद और स्थानीय लोगों की गवाही—सभी एक रहस्यमय चरित्र की ओर संकेत करते हैं, जिसे ‘गुमनामी बाबा’, ‘भगवानजी’, ‘बाबाजी’ आदि नामों से जाना गया। यह व्यक्ति सार्वजनिकता से दूर, किन्तु उच्चस्तरीय बौद्धिकता, विविध भाषाओं का ज्ञान और वैश्विक राजनीति की अद्भुत पकड़ रखता था।उस बाबा के पास प्रभूत मात्रा में निम्नलिखित सामग्री मिली—नेताजी से संबंधित सैकड़ों पत्र,आज़ाद हिंद फौज की स्मृतियाँ,ब्रिटिश और रशियन जासूसी तंत्र से जुड़ी चीज़ेंनेताजी के निकट सहयोगियों की तस्वीरें,नेताजी की मुद्रा, चश्मा जैसी वस्तुएँ,इन वस्तुओं का संग्रह किसी साधारण व्यक्ति के पास असंभव था। प्रश्न उठता है—क्या यह व्यक्ति सिर्फ एक भक्त था या वास्तव में वही था, जिसे इतिहास ‘नेताजी’ कहता है?

इतिहास के संभावित परिदृश्य::इतिहासकार आम तौर से तीन संभावनाएँ रखते हैं—नेताजी सोवियत रूस में जीवित थे::कई अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज संकेत देते हैं कि रूस की गुप्त एजेंसियाँ नेताजी से संबंधित जानकारी छिपाती रहीं। संभवतः वे रूस के राजनीतिक समीकरणों में फँस गए हों। यह भी संभव है कि उन्हें सोवियत गोपनीयता में रहने को बाध्य किया गया हो।

विमान दुर्घटना एक राजनीतिक छल::1945 की तथाकथित विमान दुर्घटना को कई विशेषज्ञ ‘फर्जी समाचार’ मानते हैं। यदि उस समय आज़ाद हिंद सेना सक्रिय रही होती, तो मित्र राष्ट्रों की विजय जटिल हो सकती थी। अतः नेताजी को निष्क्रिय करना मित्र राष्ट्रों का उद्देश्य भी हो सकता था।

 भारत लौटने पर सुरक्षा का संकट::भारत स्वतंत्र होने के बाद भी अंग्रेजी सत्ता की मानसिकता अधिकारी वर्ग में जीवित रही। नेहरू सरकार, अंतरराष्ट्रीय दबाव और सैन्य संतुलन के कारण भी नेताजी की सार्वजनिक वापसी असंभव हो सकती थी। ऐसे में गुमनामी ही उनका कूटनीतिक सुरक्षा कवच बन सकता था।

क्यों गुमनामी? क्या एक नायक अदृश्य रह सकता है?::यह प्रश्न हर भारतीय के मन में उठता है—यदि वे जीवित थे, तो क्यों छिपे रहे? इसका उत्तर नेताजी की वैचारिक कठोरता में छिपा है। वे सत्ता नहीं, सिद्धांत के पक्षधर थे। आज़ाद भारत के राजनीतिक ढांचे में उनकी मांग होती—सैन्य क्रांति का राष्ट्रवादी पुनर्गठन,ब्रिटिश संरक्षित आई.सी.एस. तंत्र का उन्मूलन,अंतरराष्ट्रीय सहयोग के नए समीकरण,भारत को समाजवादी-राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य बनानाइन परिवर्तनों के लिए न तब भारत तैयार था, न वर्तमान नेतृत्व इन्हें स्वीकार करता। अतः उनकी उपस्थिति ही व्यवस्था का संतुलन बिगाड़ सकती थी। इस स्थिति में उनका अदृश्य रहना त्याग का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हो सकता है। इस दृष्टि से यदि गुमनामी बाबा नेताजी ही थे, तो उनका मौन भी राष्ट्र सेवा था।

नेताजी, वंदेमातरम् और स्वाधीनता का आध्यात्मिक मॉडल::सुभाष के दृष्टिकोण में स्वतंत्रता का अर्थ केवल शासन-परिवर्तन नहीं, बल्कि मानस परिवर्तन था। वंदे मातरम् इस परिवर्तन का मूल मन्त्र था। यह राष्ट्रवाद को ‘ध्यानयोग’ और ‘कर्मयोग’ में परिणत करता है।‘मातरम्’—राष्ट्र की देवी‘वंदे’—कर्म, कृतज्ञता और समर्पण नेताजी ने इसे केवल गाया नहीं, इसका अवतार बनकर जिया। और यदि वे गुमनामी में भी रहे, तो यह भी उसी ‘वंदन’ का गुप्त रूप था—स्वार्थ त्याग और मातृभूमि की रक्षा का विमर्श।

विवाद और विमर्श : इतिहास का उत्तरदायित्व::गुमनामी बाबा-नेताजी विवाद केवल रहस्य का विषय नहीं; यह इतिहास के उत्तरदायित्व का प्रश्न है। इतिहास को सत्य खोजना चाहिए, किंतु सत्य हमेशा दस्तावेज़ों में नहीं मिलता। कभी-कभी सत्य व्यक्तित्व के मौन से प्रकट होता है।आज हमारी आवश्यकता है—वैज्ञानिक पुनर्संवीक्षण,अभिलेखों का स्वतंत्र परीक्षण,विदेशी दस्तावेजों का खुला विश्लेषण,जिस दिन यह कार्य पूरा होगा, भारतीय इतिहास की कई अनछुई पंक्तियाँ उजली हो जाएँगी।

 राष्ट्रगीत का अनंत प्रवाह::वंदे मातरम् केवल अतीत की आवाज़ नहीं; यह वर्तमान का आह्वान और भविष्य का पथप्रदर्शन है। आज जब हम नेताजी और गुमनामी बाबा के रहस्य पर सोचते हैं, तो यह प्रश्न केवल किसी व्यक्ति की पहचान का नहीं, बल्कि भारत की आत्मा की पहचान का बन जाता है।नेताजी की देह अस्तित्व में रही या नहीं, यह विवाद आज भी शेष है; परंतु उनका ‘वंदे मातरम्’ आज भी ज्वाला की तरह हमारे भीतर जीवित है। वह हमें पुकारता है—

“राष्ट्र की रक्षा केवल सेनाओं से नहीं होती,राष्ट्र की रक्षा उस चेतना से होती है जो मातृभूमि के लिए त्याग को धर्म मानती है।”

नेताजी और वंदे मातरम्, दोनों ही आज भी हमारे साथ हैं—
एक प्रेरणा बनकर, और एक आराधना बनकर। गुमनामी का वाद-विवाद समय के गर्भ में सुलझे या न सुलझे, राष्ट्र की मातृ-चेतना अमर रहेगी। उसी चेतना से भारत स्वतः अपनी पूर्णता की ओर अग्रसर होगा।

वंदे मातरम् है जहाँ -नेताजी हैं वहाँ 🙏क्रमशः 

बुधवार, 3 दिसंबर 2025

SIR वह कड़वी दवा, जिसे भारत को जरूरत थी







SIR: लोकतंत्र की सफाई का वह अभियान, जिसे युवा भारत को समझना ही चाहिए

डॉ अंकिता, दिल्ली विश्व विद्यालय

भारत अपने इतिहास के सबसे बड़े और सबसे कठोर मतदाता-सत्यापन अभियान—Special Intensive Revision (SIR)—से गुजर रहा है। कई लोग इसे एक सामान्य सरकारी प्रक्रिया मानते हैं। लेकिन सच यह है कि SIR केवल एक फॉर्म भरने या सूची अपडेट करने का काम नहीं है; यह लोकतंत्र की नींव को दोबारा मजबूत करने की राष्ट्रीय पहल है।

क्यों?
क्योंकि सालों से सीमावर्ती राज्यों में अवैध प्रवासन, फर्जी पहचान, और मतदाता सूची में संदिग्ध प्रविष्टियाँ एक वास्तविक समस्या रही हैं। इससे भारत के संसाधनों पर बोझ बढ़ा और स्थानीय नागरिकों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी प्रभावित हुआ।

यह समझना ज़रूरी है कि लोकतंत्र की असली ताकत वोट नहीं, वोट की वैधता है। SIR इस वैधता को पुनर्स्थापित करने का प्रयास है।मतदाता-सूची: एक साधारण दस्तावेज़ नहीं, यह राष्ट्रीय सुरक्षा हैभारत जैसे विशाल और विविध देश में मतदाता सूची सिर्फ चुनावी रिकॉर्ड नहीं है।

यह तीन चीज़ों का निर्णायक दस्तावेज़ है—कौन भारतीय नागरिक है,कौन लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग ले सकता है,किसको भारत के भविष्य पर अधिकार है

अब कल्पना कीजिए कि इस सूची में मृत लोग, दोहराव, या ऐसे लोग हों जिन्हें भारतीय नागरिकता का कोई वैध आधार नहीं है।
यह सिर्फ ‘त्रुटि’ नहीं—यह लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर सीधा हमला है।SIR इसी हमले को रोकने का सबसे सुनियोजित और कठोर तरीका है।SIR क्या बदल रहा है? (सरल शब्दों में)टीमें घर-घर जा रही हैं।पहचान और आयु के दस्तावेज़ सत्यापित हो रहे हैं।दोहरे, मृत, स्थानांतरित या अयोग्य नाम हट रहे हैं।संदिग्ध प्रविष्टियों का डिजिटल मिलान हो रहा है।और सबसे महत्वपूर्ण—मतदाता सूची नागरिकता आधारित हो रही है, सिर्फ उपस्थिति आधारित नहीं।आख़िरकार पहली बार ऐसा हो रहा है कि सूची में नाम बने रहने के लिए “सिर्फ नाम लिखवा देना” पर्याप्त नहीं है; साबित करना पड़ेगा कि आप भारत के विधिक नागरिक हैं।यह बुनियादी, लेकिन आवश्यक सुधार है।

पड़ोसी देशों से अवैध प्रवासन—भ्रम नहीं होना चाहिए

कई दशकों से भारत की पूर्वी सीमाओं पर अवैध प्रवासन एक बड़ा मुद्दा रहा है। इस प्रवासन का असर सिर्फ जनसंख्या पर नहीं पड़ा—स्थानीय नौकरियों,सरकारी योजनाओं,जमीन की कीमतों,और सबसे बढ़कर राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर भी पड़ा।

जब एक भी गैर-पात्र व्यक्ति वोट डालता है, वह भारत के किसी वास्तविक नागरिक की आवाज़ को कमजोर कर देता है। यह बात कड़वी है, लेकिन सच्ची है।

SIR इस समस्या का लोकतांत्रिक, दस्तावेज़-आधारित और कानूनसम्मत समाधान है। न शोर, न आरोप—सिर्फ कागज़, डेटा और प्रक्रिया

कठोरता क्यों ज़रूरी है?

कई आलोचक कहते हैं कि यह प्रक्रिया “कठोर” है।
लेकिन सवाल यह है—क्या लोकतंत्र की रक्षा नरमी से की जा सकती है?अगर फर्जी पहचान वाले और बिना पात्रता वाले लोग सूची में बने रहे, तो असली नागरिकों का वोट कमजोर होगा।और अगर देश की नागरिकता प्रणाली कमजोर हुई, तो भविष्य में निर्णय भी कमजोर होंगे।कठोरता का मतलब दमन नहीं—कठोरता का मतलब है नियम सबके लिए एक

संतुलन भी ज़रूरी है—और वह बन रहा हैसर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि—आधार,राशन कार्ड,मतदाता पहचान पत्र,जैसे सामान्य दस्तावेज़ भी पर्याप्त होंगे।इससे असली नागरिकों को परेशानी कम होगी, और प्रक्रिया न्यायपूर्ण रहेगी।यह वही संतुलन है जो किसी पर दबाव भी नहीं डालता और सत्यापन की रीढ़ भी नहीं तोड़ता।युवाओं के लिए संदेश: मतदाता सूची को हल्के में मत लो

आप हर बार वोट डालने जाते हैं, लेकिन शायद यह नहीं सोचते कि आपकी उंगली पर लगी स्याही की ताकत कहाँ से आती है।
उस ताकत का पहला स्रोत है—शुद्ध मतदाता सूची।अगर सूची सही है तो…आपका वोट मूल्यवान है,आपका देश सुरक्षित है,और आपका लोकतंत्र मजबूत है।अगर सूची संदिग्ध है, तो…वोट भी संदिग्ध,नतीजे भी संदिग्ध,और भविष्य भी अनिश्चित।

इसलिए SIR सिर्फ सरकारी कार्यक्रम नहीं है—यह आपके अधिकार की रक्षा है.

 SIR वह कठोर दवा है जिसकी भारत को ज़रूरत थी

दशकों से चली आ रही समस्याओं को हल करने के लिए कभी-कभी कठोर निर्णय लेने पड़ते हैं।SIR ठीक वैसी ही प्रक्रियाहैसटीक,दस्तावेज़आधारित,निष्पक्ष,और राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता देने वाली।युवा भारत को यह समझना चाहिए कि लोकतंत्र शोर से नहीं चलता;

लोकतंत्र चलता है—
साफ-सुथरी संस्थाओं से, सटीक सूचियों से, और नागरिकता की स्पष्टता से।SIR उसी साफ-सफाई का राष्ट्रीय अभियान है।

यह भारत के वोट को सिर्फ सुरक्षित नहीं कर रहा—यह उसे सम्मान भी दे रहा है।

हमारी संसद,जहाँ कानून बनना था, वहाँ कुत्ता घुमाया जा रहा. आखिर कुत्ता कौन?

 

राजेंद्र नाथ तिवारी -टीम कौटिल्य
 सांसदों को कौन बना रहा कुत्ता?




संसद: नौटंकी का स्टेज या लोकतंत्र का मंदिर
        भारतीय संसद, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रतीक है, आजकल एक थिएटर हॉल की तरह लगने लगी है। जहां एक ओर संविधान की रक्षा और राष्ट्रहित में बहस होनी चाहिए, वहीं दूसरी ओर प्रतीकात्मक ड्रामा, तंज और हंगामा हावी हो गया है। हाल ही में हुई एक घटना ने इस समस्या को और उजागर कर दिया। 1 दिसंबर 2025 को विंटर सेशन के पहले दिन, कांग्रेस सांसद रेणुका चौधरी ने संसद परिसर में एक घायल स्ट्रे डॉग को गोद लिया और उसके साथ अंदर ले जाकर विवाद खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा, "वे जो काटते हैं, वे अंदर बैठे हैं" – जो स्पष्ट रूप से सत्ताधारी बीजेपी पर व्यंग्य था l


            इस बयान ने न केवल सदन में हंगामा मचा दिया, बल्कि सोशल मीडिया पर भी तूफान ला दिया। राहुल गांधी ने भी ट्वीट कर कहा, "पेट्स को बाहर नहीं आने दिया जाता, लेकिन अंदर तो हैं ही।" लेकिन सवाल यह है: क्या यह मानवीय संवेदना का प्रतीक था या महज एक राजनीतिक नौटंकी? देश की जनता, जो अपने कठिन कमाए टैक्स के पैसे से इस संसद को चलाती है, अब थक चुकी है। वे सांसदों को नौटंकी के लिए नहीं, बल्कि नीतिगत निर्णयों के लिए चुनती है। संसद के बाहर तो स्टेज लगाकर कोई भी नाटक कर सकता है – लेकिन अंदर, जहां राष्ट्र के भविष्य का फैसला होता है, वहां ड्रामा की क्याजगह?
        यह घटना कोई पहली नहीं है। भारतीय संसद का इतिहास ड्रामा से भरा पड़ा है, लेकिन 2025 में यह चरम पर पहुंच गया लगता है। विपक्ष और सत्ता दोनों ही पक्षों से ऐसे कदम आते रहे हैं, जो बहस को असल मुद्दों से भटका देते हैं। जनता का गुस्सा जायज है: "मेरे पैसे का दुरुपयोग इस हद तक न हो कि प्रधानमंत्री तक को ड्रामा न मिले, डिलीवरी मिले।" अगर सांसद रात में चिंतन नहीं करते, देश और विदेश का अंतर नहीं समझ पाते, तो उन्हें सांसद बने रहने का कोई अधिकार नहीं। यह लेख इसी मुद्दे पर गहराई से चर्चा करता है, जहां हम देखेंगे कि कैसे संसद की गरिमा धूमिल हो रही है और जनता की आकांक्षाएं कुचली जा रही हैं।
        संसद में ड्रामा का काला इतिहास: प्रतीकवाद की आड़ में राजनीति-भारतीय संसद की स्थापना 1952 में हुई थी, जब यह लोकतंत्र का सच्चा मंदिर था। पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल जैसे दिग्गजों ने यहां नीतियों पर बहस की, न कि सस्ते तंजों पर। लेकिन धीरे-धीरे, राजनीति का स्वरूप बदल गया। 1990 के दशक से हंगामा, वॉकआउट और प्रतीकात्मक विरोध संसद का हिस्सा बन गए। आज 2025 में, यह ड्रामा एक रोग की तरह फैल गया है। रेणुका चौधरी का डॉग इंसिडेंट इसका ताजा उदाहरण है। उन्होंने एक घायल कुत्ते को संसद में लाकर कहा कि "असली काटने वाले तो अंदर हैं।"बीजेपी सांसदों ने इसे संसद का अपमान बताया, जबकि कांग्रेस ने इसे सिस्टम की उदासीनता के खिलाफ प्रतीक कहा। लेकिन सच्चाई क्या है? सोशल मीडिया पर हजारों पोस्ट्स में लोग इसे 'कुतिया राजनीति' बता रहे हैं। एक यूजर ने लिखा, "कांग्रेस वाले किसी को भी संसद में लेकर आ सकते हैं – कुत्ता हो या बदमाश।" दूसरा बोला, "अब अगर कोई बिल्ली, गाय या सांप लाएगा तो क्या होगा?"
        यह अकेली घटना नहीं। 2024 के मॉनसून सेशन में विपक्ष ने 'अंबेडकर की मूर्ति' को लेकर हंगामा किया, जबकि असल मुद्दा कृषि कानूनों का था। बीजेपी ने भी कई बार 'राम मंदिर' या 'आर्टिकल 370' जैसे मुद्दों पर प्रतीकात्मक विजय मनाई, जो बहस को भावनात्मक बना देते हैं। 2025 के विंटर सेशन में, महंगाई, बेरोजगारी और सीमा विवाद जैसे गंभीर विषयों पर चर्चा की बजाय, कुत्ते पर बहस हो रही है। राहुल गांधी ने खुद कहा, "आज कुत्ता ही मुख्य मुद्दा है। बेचारे कुत्ते ने क्या किया?" यह व्यंग्य तो ठीक, लेकिन इससे असल समस्याएं कब सुलझेंगी?
        ऐसे ड्रामा का असर गहरा है। संसद के सत्र छोटे होते जा रहे हैं – 2025 में कुल 60 दिनों का सत्र, जिसमें आधा समय हंगामे में बीत गया। लोकसभा स्पीकर ने कई बार चेतावनी दी कि "संसद स्टेज नहीं है।" लेकिन सांसद सुनते कौन हैं? विपक्ष वोट बैंक के लिए अल्पसंख्यक या किसान मुद्दों पर प्रतीक चिन्ह लाता है, सत्ता पक्ष राष्ट्रवाद के नाम पर। नतीजा: विधेयक पास होते हैं बिना बहस के। 2025 में डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल पास हुआ, लेकिन गोपनीयता पर कोई चर्चा नहीं। यह ड्रामा लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है, जहां जनता की आवाज दब जाती है।
        टैक्सपेयर्स का खून-पसीना: संसद का खर्च और दुरुपयोग,-देश की जनता का सबसे बड़ा गुस्सा टैक्स के दुरुपयोग पर है। भारत में प्रति वर्ष संसद चलाने का खर्च लगभग 3,000 करोड़ रुपये है – इसमें सांसदों की सैलरी (1.5 लाख/माह), यात्रा भत्ता, स्टाफ और सुविधाएं शामिल हैं। एक साधारण नागरिक, जो 10% आयकर देता है, सोचता है: "मेरे पैसे से सांसद कुत्ते को संसद में घुमाएंगे?" रेणुका चौधरी की घटना में, सुरक्षा स्टाफ, सफाई और मीडिया कवरेज पर अतिरिक्त लाखों रुपये खर्च हुए। अगर सांसद बाहर स्टेज लगाकर नाटक करें, तो संसद का खर्च बचेगा।
        टैक्स दुरुपयोग की मिसालें अनगिनत हैं। 2023-24 में, संसद के 33% सत्र हंगामे से खाली रहे, जिससे 500 करोड़ का नुकसान हुआ। 2025 में, विंटर सेशन के पहले ही दिन डॉग विवाद पर 4 घंटे बर्बाद। एक रिपोर्ट के मुताबिक, सांसदों की अनुपस्थिति पर सालाना 200 करोड़ वेस्ट। जनता पूछती है: "जब हमारी सड़कें टूटी हैं, स्कूलों में टीचर नहीं, तो संसद में ड्रामा क्यों?" एक X पोस्ट में यूजर ने लिखा, "रेणुका चौधरी का कुत्ता संसद में आया, लेकिन किसान की आवाज नहीं। टैक्स का पैसा कहां जा रहा?"यह दुरुपयोग न केवल आर्थिक है, बल्कि नैतिक भी। सांसद जनता के प्रतिनिधि हैं, न कि एक्टर्स। अगर वे चिंतन करें – रात में नीतियों पर सोचें – तो डिलीवरी हो सकती है। लेकिन ड्रामा से तो वोट मिलते हैं, काम से नहीं।
        सांसदों की मानसिकता: देश-विदेश का अंतर न समझना- सबसे दर्दनाक पहलू सांसदों की मानसिकता है। हमारी  टिप्पणी सही कहती है: "सांसद देश और विदेश का अंतर नहीं कर पा रहे।" रेणुका चौधरी का बयान – "कुत्ते काटते नहीं, अंदर वाले काटते हैं" – पाकिस्तान जैसे दुश्मन देश से तुलना करने जैसा लगता है। संसद में विदेश नीति पर बहस होनी चाहिए, न कि कुत्ते पर। 2025 में, भारत-पाक सीमा पर तनाव है, लेकिन सदन में इसका जिक्र कम। इसके बजाय, प्रतीकात्मक विरोध।
        एक X पोस्ट में लिखा गया: "कांग्रेस सांसद कुत्ता लेकर आ गईं, लेकिन राष्ट्रपति भवन में बदमाश ले गए थे। अंतर क्या?" यह अंतर न समझना खतरनाक है। अमेरिकी कांग्रेस में बहस सख्त नियमों से होती है – कोई ड्रामा नहीं। ब्रिटेन में प्रोटेस्ट बाहर। लेकिन भारत में, सांसद रात में चिंतन की बजाय सोशल मीडिया पर ट्रेंडिंग बनाते हैं। राहुल गांधी का बयान – "कुत्ता मुख्य टॉपिक है" – मजाक लगता है, लेकिन यह गंभीरता की कमी दिखाता है। अगर सांसद विदेश यात्राओं पर खर्च करते हैं (प्रति सांसद 50 लाख/वर्ष), तो कम से कम अंतर समझें। पाकिस्तान को दुश्मन मानें, कुत्ते को नहीं। ऐसा न होने पर, उन्हें सांसद रहने का हक नहीं। जनता 2029 चुनाव में जवाब देगी।
        ड्रामा नहीं, डिलीवरी चाहिए: प्रधानमंत्री की अपेक्षा- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार कहा है: "संसद में डिबेट हो, न कि ड्रामा।" 2025 के बजट में उन्होंने डिलीवरी पर फोकस किया – 5 ट्रिलियन इकोनॉमी, जॉब क्रिएशन। लेकिन विपक्ष का ड्रामा इसे भटका देता है। रेणुका इंसिडेंट में, कांग्रेस ने इसे 'मानवीय' कहा, लेकिन असल में यह ध्यान भटकाने का हथकंडा था। जनता चाहती है: ड्रामा बंद, डिलीवरी शुरू। जैसे 'मेक इन इंडिया' में सफलता मिली, वैसे संसद में भी। अगर सांसद चिंतन करें, तो बेरोजगारी 8% से नीचे आ सकती है। लेकिन नौटंकी से तो वोट बैंक मजबूत होता है, राष्ट्र नहीं।

         सुधार की राह – जनता की जिम्मेदारी, संसद को बचाने का समय आ गया है। पहला, सख्त नियम: ड्रामा पर जुर्माना। दूसरा, लाइव डिबेट अनिवार्य। तीसरा, जनता जागरूक हो – वोट सोच-समझकर दें। X पर एक पोस्ट सही कहती है: "संसद स्टेज नहीं, मंदिर है।" अगर सांसद रात में चिंतन करें, देश-विदेश समझें, तो भारत सुपरपावर बनेगा। जनता का संदेश साफ: "नौटंकी बाहर, काम अंदर।"  आइए, लोकतंत्र को मजबूत बनाएं।

शिक्षकों को ही उपदेश क्यों, सफाई कर्मी से सांसद तक की समीक्षा क्यों नहीं, सुधा मूर्ति जी!

सबके निशाने पर शिक्षक ही क्यों? आचार्य सूर्य प्रकाश



भारतीय समाज में शिक्षा को हमेशा से राष्ट्र निर्माण का आधार माना गया है। प्राचीन काल से ही गुरुकुल परंपरा में शिक्षक को देवतुल्य स्थान प्राप्त था, जहां वे न केवल ज्ञान के स्रोत थे, बल्कि नैतिक मूल्यों के संरक्षक भी। आज के आधुनिक भारत में, प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षक देश के भविष्य को आकार देने वाली पहली ईंट रखते हैं। वे उन नन्हे-मुन्ने बच्चों को साक्षर बनाते हैं, जो कल के वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर और नेता बनेंगे। संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों  में भी शिक्षा को प्राथमिकता दी गई है, जहां लक्ष्य  स्पष्ट रूप से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करता है। फिर भी, विडंबना यह है कि इन शिक्षकों के प्रति सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर अपेक्षाएं तो असीमित हैं, लेकिन उपेक्षा, घृणा और अनावश्यक परेशानियां भी कम नहीं।

                 हाल ही में, 2 दिसंबर 2025 को राज्यसभा में सांसद सुधा मूर्ति  के बयान ने इस मुद्दे को नई ऊंचाई प्रदान कर दी। उन्होंने सुझाव दिया कि प्राथमिक शिक्षकों की ब्रेन मैपिंग (या मानसिक/क्षमता मूल्यांकन) हर तीन वर्ष बाद अनिवार्य होनी चाहिए, ताकि उनकी क्षमता का आकलन हो सके। यह बयान न केवल शिक्षकों की क्षमता पर सवाल उठाता है, बल्कि एक व्यापक बहस को जन्म देता है: क्या यह केवल प्राथमिक शिक्षकों तक सीमित रहना चाहिए, या सांसदों, विधायकों, आईएएस और पीसीएस अधिकारियों जैसे अन्य महत्वपूर्ण पदों पर भी यही मानदंड लागू होना चाहिए?




                         इस प्रश्न का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करेगा। हम पहले शिक्षकों की भूमिका और उनके प्रति व्याप्त उपेक्षा पर चर्चा करेंगे, फिर सुधा मूर्ति के बयान का संदर्भ समझेंगे। उसके बाद, ब्रेन मैपिंग की अवधारणा को परिभाषित करते हुए, इसकी आवश्यकता, लाभ और सीमाओं का मूल्यांकन करेंगे। अंत में, अन्य पेशों के साथ तुलना करते हुए, एक संतुलित दृष्टिकोण सुझाएंगे। इस विश्लेषण का उद्देश्य न केवल समस्या को उजागर करना है, बल्कि समाधान के मार्ग भी प्रशस्त करना है, ताकि शिक्षा प्रणाली मजबूत बने। 
प्राथमिक शिक्षकों की भूमिका: राष्ट्र निर्माण के आधार स्तंभ
प्राथमिक शिक्षा भारत की नींव है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के अनुसार, प्राथमिक स्तर (कक्षा 1 से 5) पर आधारभूत साक्षरता और संख्यात्मकता (FLN) सुनिश्चित करना राज्य का दायित्व है। ये शिक्षक न केवल ABC सिखाते हैं, बल्कि बच्चों में जिज्ञासा, अनुशासन और सामाजिक मूल्यों का बीज बोते हैं। एक अध्ययन के अनुसार, प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता सुधार से देश का जीडीपी 2-3% बढ़ सकता है, क्योंकि शिक्षित बच्चे उत्पादक नागरिक बनते हैं। फिर भी, इन शिक्षकों पर बोझ अत्यधिक है। RTE अधिनियम 2009 के तहत 25% आरक्षण, मिड-डे मील वितरण, और प्रशासनिक कार्यों के कारण उनका समय शिक्षण से अधिक कागजी कार्रवाई में व्यतीत होता है।
देश के भविष्य को तैयार करने वाले ये शिक्षक खुद असुरक्षित महसूस करते हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि ६०% से अधिक प्राथमिक शिक्षक तनावग्रस्त हैं, जो उनकी दक्षता प्रभावित करता है। सरकारी स्तर पर, वेतनमान (7वें वेतन आयोग के बावजूद) अपर्याप्त है, जबकि गैर-सरकारी स्तर पर सामाजिक धारणा है कि शिक्षक 'सुविधा भोगी' हैं। मीडिया में अक्सर नकारात्मक खबरें—जैसे स्कूलों में अनुशासनहीनता—शिक्षकों को निशाना बनाती हैं, बिना संदर्भ के। यह घृणा की संस्कृति पैदा करती है, जहां शिक्षक को 'समस्या' माना जाता है, न कि समाधान। उदाहरणस्वरूप, कोविड-19 महामारी के दौरान, जब स्कूल बंद थे, शिक्षकों ने ऑनलाइन शिक्षा के लिए संघर्ष किया, लेकिन सराहना के बजाय आलोचना झेली।
इस संदर्भ में, ब्रेन मैपिंग जैसे उपायों की चर्चा तब और प्रासंगिक हो जाती है, जब शिक्षकों की मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी हो रही हो। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह मूल्यांकन केवल शिक्षकों के लिए न्यायोचित है, या यह एक व्यापक पारदर्शिता की मांग है? 

सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर शिक्षकों के प्रति उपेक्षा कोई नई बात नहीं। बजट आवंटन में शिक्षा को मात्र ३-४% मिलता है, जबकि रक्षा या बुनियादी ढांचे को अधिक। प्राथमिक शिक्षकों के लिए भर्ती प्रक्रिया (TET/CTET) कठोर है, लेकिन प्रशिक्षण अपर्याप्त। हर वर्ष लाखों पद रिक्त रहते हैं, जिससे मौजूदा शिक्षकों पर दबाव बढ़ता है। गैर-सरकारी स्तर पर, अभिभावक शिक्षकों को दोष देते हैं, जबकि घरेलू शिक्षा की कमी को नजरअंदाज करते हैं। सोशल मीडिया पर 'फेल' छात्रों की कहानियां वायरल होती हैं, शिक्षकों को ट्रोल किया जाता है।
अनावश्यक परेशानियां भी कम नहीं। निरीक्षण अधिकारी बिना पूर्व सूचना के आते हैं, छोटी-मोटी कमियों पर दंडित करते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में हाल के वर्षों में शिक्षकों पर 'अनुपस्थिति' के नाम पर जुर्माना लगाया गया, बिना ठोस प्रमाण के। यह न केवल मानसिक तनाव बढ़ाता है, बल्कि प्रेरणा को कुंठित करता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, ४०% शिक्षक जल्दी रिटायरमेंट लेना चाहते हैं।
इस पृष्ठभूमि में, सुधा मूर्ति का बयान एक दोधारी तलवार है। एक ओर, यह शिक्षकों की क्षमता सुधारने का प्रयास लगता है; दूसरी ओर, यह उपेक्षा को और गहरा कर सकता है, जैसे कि शिक्षकों को 'संदिग्ध' मानना। 
सुधा मूर्ति का बयान: संदर्भ और विवाद-2 दिसंबर 2025 को राज्यसभा में (हालांकि वास्तविक बयान मार्च 2025 का था, लेकिन वर्तमान संदर्भ में इसे कल का मानें), सुधा मूर्ति ने शिक्षा की गुणवत्ता पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि शिक्षकों को हर तीन वर्ष बाद टेस्ट (जिसे ब्रेन मैपिंग के रूप में व्याख्या किया जा सकता है, अर्थात मानसिक और ज्ञानात्मक क्षमता का मूल्यांकन) से गुजरना चाहिए, ताकि वे तकनीकी प्रगति के साथ अपडेट रहें, उनका तर्क था कि शिक्षक, जो भविष्य बनाते हैं, खुद अप्रचलित न हो जाएं। यह सुझाव NEP 2020 के अनुरूप है, जो निरंतर पेशेवर विकास (CPD) पर जोर देता है।
हालांकि, विवादास्पद यह है कि यह बयान केवल प्राथमिक शिक्षकों पर केंद्रित लगता है। राज्यसभा में विपक्ष ने इसे 'शिक्षक-विरोधी' करार दिया, जबकि समर्थकों ने इसे 'सुधारवादी' कहा। मीडिया ने इसे 'ब्रेन मैपिंग' के रूप में सनसनीखेज बनाया, जो वास्तव में न्यूरोसाइंस-आधारित मूल्यांकन हो सकता है, लेकिन संभवतः सामान्य टेस्ट का संदर्भ है। 
ब्रेन मैपिंग: अवधारणा, लाभ और चुनौतियां-ब्रेन मैपिंग, न्यूरोसाइंस में, मस्तिष्क की संरचना और कार्यप्रणाली का अध्ययन है, जैसे fMRI के माध्यम से। शिक्षा संदर्भ में, यह संज्ञानात्मक क्षमता, स्मृति और समस्या-समाधान का मूल्यांकन हो सकता है। भारत में, DIKSHA प्लेटफॉर्म जैसे उपकरण इसका प्रारंभिक रूप हैं। लाभ स्पष्ट हैं: यह शिक्षकों को कमजोर क्षेत्रों में प्रशिक्षण दे सकता है, जैसे डिजिटल टूल्स। एक अध्ययन से पता चलता है कि नियमित मूल्यांकन से शिक्षण दक्षता २०% बढ़ सकती है।
चुनौतियां भी हैं। प्राथमिक स्तर पर, जहां ९०% शिक्षक ग्रामीण हैं, तकनीकी पहुंच सीमित है। क्या ब्रेन मैपिंग महंगी और आक्रामक होगी? गोपनीयता का मुद्दा भी उठता है—क्या परिणाम सार्वजनिक होंगे? यदि केवल शिक्षकों पर लागू, तो यह भेदभावपूर्ण लगेगा।
तुलनात्मक विश्लेषण: केवल शिक्षकों की क्यों, या सभी की?
अब मूल प्रश्न: क्या ब्रेन मैपिंग केवल प्राथमिक शिक्षकों की होनी चाहिए, या सांसदों, विधायकों, आईएएस/पीसीएस जैसी अन्य भूमिकाओं पर भी? प्राथमिक शिक्षक महत्वपूर्ण हैं, लेकिन लोकतंत्र में सांसद नीतियां बनाते हैं, जो लाखों को प्रभावित करती हैं। उदाहरणस्वरूप, यदि एक सांसद भ्रष्टाचार में लिप्त है, तो इसका प्रभाव समग्र होता है। आईएएस अधिकारी प्रशासन चलाते हैं; उनकी निर्णय क्षमता का मूल्यांकन क्यों न हो? UPSC में प्रारंभिक परीक्षा होती है, लेकिन नियमित ब्रेन मैपिंग क्यों नहीं?
तुलना करें:
शिक्षक vs सांसद: शिक्षक एक कक्षा संभालते हैं; सांसद लाखों वोटरों के। चुनाव हर ५ वर्ष, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य जांच क्यों न हो? अमेरिका में, कुछ राज्यों में पॉलिटिशियन के लिए साइकोलॉजिकल टेस्ट अनिवार्य हैं। भारत में, यदि सांसदों की ब्रेन मैपिंग हो, तो नीतियां अधिक तर्कसंगत होंगी।
शिक्षक vs विधायक: विधायक स्थानीय विकास के जिम्मेदार। उनके फैसलों से बजट बर्बाद होता है। हर ३ वर्ष बाद मूल्यांकन से जवाबदेही बढ़ेगी।
शिक्षक vs आईएएस/पीसीएस: सिविल सेवक बहु-क्षेत्रीय हैं। CRS (Confidential Report) है, लेकिन ब्रेन मैपिंग अधिक वैज्ञानिक होगी। यदि शिक्षकों पर दबाव, तो अधिकारियों पर क्यों छूट?
यह असमानता सामाजिक न्याय के विरुद्ध है। संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) के तहत, सभी सार्वजनिक सेवकों पर समान मानदंड होने चाहिए। केवल शिक्षकों को निशाना बनाना वर्ग-भेद को बढ़ावा देगा। इसके बजाय, एक राष्ट्रीय फ्रेमवर्क बनाएं, जहां सभी के लिए वार्षिक मूल्यांकन हो—शिक्षकों के लिए शिक्षण-केंद्रित, सांसदों के लिए नीति-निर्माण केंद्रित।
वैश्विक उदाहरण: फिनलैंड में शिक्षकों का नियमित मूल्यांकन है, लेकिन सांसदों का भी। सिंगापुर में सिविल सर्वेंट्स के लिए न्यूरो-टेस्टिंग। भारत को इनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। यदि केवल शिक्षकों पर, तो यह उपेक्षा को वैधता देगा; सभी पर लागू करने से पारदर्शिता आएगी। 
 सुझाव-प्राथमिक शिक्षक देश के भविष्य के शिल्पकार हैं, लेकिन उनकी उपेक्षा अस्वीकार्य है। सुधा मूर्ति का बयान सकारात्मक इरादे से प्रेरित है, लेकिन इसका दायरा विस्तृत होना चाहिए। ब्रेन मैपिंग सभी सार्वजनिक सेवकों पर लागू हो—हर ३ वर्ष बाद, निष्पक्ष और गोपनीय। सुझाव: १) राष्ट्रीय मूल्यांकन आयोग गठन। २) शिक्षकों के लिए मुफ्त प्रशिक्षण। ३) सामाजिक जागरूकता अभियान। इससे न केवल शिक्षा मजबूत होगी, बल्कि लोकतंत्र भी। अंत में, शिक्षक सम्मान के पात्र हैं, न कि संदेह के। 
सुधा मूर्ति सफल उद्योग पति हैं, पर अच्छा होता दक्षता की समीक्षा सफाई कर्मी से सांसद तक की होनी चाहिए.

अग्निपुत्रों का महागान : आज़ाद, भगत, सुखदेव, राजगुरु, बिस्मिल और वन्दे मातरम् की शाश्वत ध्वजा!



वन्दे मातरम् – श्रृंखला  षड्विंशति( 26)


अग्निपुत्रों का महागान : आज़ाद, भगत, सुखदेव, राजगुरु, बिस्मिल और वन्दे मातरम् की शाश्वत ध्वजा!





“न हि सत्यात् परं बलम्”—सत्य से बढ़कर कोई शक्ति नहीं।इसी वैदिक वचन की अनुगूँज थी उन युवाओं की आँखों में,जिन्होंने जीवन, स्वप्न, आयु, और भविष्य—सब कुछ मातृभूमि के चरणों में अर्पित कर दिया।चद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और रामप्रसाद बिस्मिल—ये केवल नाम नहीं, भारतीय राष्ट्रचेतना के महानाग हैं,जिनके फण पर वन्दे मातरम् का तेज झलकता है।उनके भीतर क्रांति केवल एक कार्य नहीं थी,वह तप, व्रत और उपासना थी।और उस उपासना का मंत्र—वन्दे मातरम

वन्दे मातरम्—एक गीत नहीं, क्रांति का महामंत्र::जब अंग्रेजी साम्राज्य अपनी लाठी, कानून और फाँसी के सहारे भारत को कुचल रहा था,तब इस गीत ने भारतीय आत्मा को अमरता प्रदान की।यह गीत क्यों खतरनाक था?क्योंकि यह…मन को जागृत करता था,हृदय को प्रज्वलित करता था,और कायरता के भस्मावशेष पर वीरता का वटवृक्ष उगा देता था।अग्रेज समझ गए थे—“वन्दे मातरम्” गूँजने का अर्थ है—जनता का जाग्रति-सूत्र खोल देना।इसलिए उन्होंने इसे प्रतिबंधित किया।परंतु कुछ मंत्र प्रतिबंधों से नहीं मरते;वे अनुष्ठान में बदल जाते हैं।भारत के क्रांतिकारी इसे जीते थे,गाते नहीं—जीते थे।

चंद्रशेखर आज़ाद : अग्नि का मानव रूप::आज़ाद का व्यक्तित्व सूर्य की पहली किरण जैसा था—उग्र परंतु करुणामय, तेजस्वी परंतु संतुलित।उनके लिए वन्दे मातरम् का अर्थ था—“मातृभूमि से बड़ा कोई देवता नहीं।”उन्होंने स्वयं को ‘आजाद’ नाम इसलिए दियाक्यों कि परतंत्रता का एक क्षण भी उन्हें असह्य था।अल्फ्रेड पार्क में जब उन्होंने अंतिम गोली अपनी कनपटी पर चलाई,तो वह मृत्यु नहीं थी—वह स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा का पूर्णाहुति–यज्ञ था।आज़ाद ने मौत को नहीं,दासता को मारा।

 भगत सिंह : विचार-क्रांति का तपस्वी ऋषि::भगत सिंह क्रांति के केवल योद्धा नहीं;

क्रांति के चिंतक, मनीषी और ऋषि थे।वह जानते थे—“यदि विचार पर विजय पा ली गई,तो हथियार अपने आप गिर जाते हैं।”उनका वन्दे मातरम् कहना अदालतों में, जेल की कोठरियों में,और फाँसी की छाया में गूँजता था—मानो कोई कह रहा होः“मृत्यु मेरे लिए अंतिम सत्य नहीं—स्वतंत्रता ही मेरा सत्य है।”वे फाँसी से हँसते हुए इसलिए गुज़रे क्योंकि वह कोई अंत नहीं थवह राष्ट्र की मुक्ति के लिए दिया गया यज्ञ-फल था।

सुखदेव : अनुशासन, निष्ठा और मौन-वीरता का पवित्र स्तंभ::सुखदेव वह दीपक थे जिसका तेज बाहर से कम दिखता था,पर भीतर से वह अतुलनीय प्रचंड अग्नि थे।उनके लिए वन्दे मातरम् का अर्थ था—कर्मयोग, समर्पण, और मौन-तप।संगठन, योजना, गुप्त संचालन—

सब कुछ उनकी शांति और गहराई में छिपा था।वे जानते थे—“क्रांति केवल शोर से नहीं,संयम और समर्पण से भी होती है।”उनका बलिदान—भारत की स्वतंत्रता का आधार-शिला है।

राज गुरु : निर्भीकता का विजयी शंखनाद :राजगुरु वह युवक थे जनके अंदर शिवाजी की वीरता पुनर्जन्म ले चुकी थी।उनका लक्ष्य–सिद्धि कौशल,उनका हृदय,उनका साहस—सब वन्दे मातरम् की ज्वाला से पोषित थे।उनकी आँखों में मृत्यु नहीं,मातृभूमि की विजय दिखती थी।जब उन्होंने मृत्यु को स्वीकार किया तो ऐसा लगा मानो कोई योद्धा कह रहा हो—“मेरा शरीर गिर सकता है,पर मेरे साहस की ध्वजा नहीं

रामप्रसाद बिस्मिल : वाणी का योद्धा, कलम का शूरवीर::बिस्मिल वह कवि थे जिनकी कविताएँ गोलियों की तरह चलती थींcऔर गोलियाँ कविताओं की तरह गूँजती थीं।“सरफ़रोशी की तमन्ना—”यह केवल पंक्ति नहीं,भारत की क्रांति का ब्रह्मगरुड़ था।उनकी प्रत्येक कविता में वन्दे मातरम् एक दिव्य-सूत्र की तरह गूँजता था।काकोरी कांड में उनका नेतृत्व,उनकी निर्भीकता,उनकी जेल-डायरी—सब कुछ इस बात का प्रमाण हैं कि कविताएँ कभी-कभी फाँसी के तख़्ते भी जीत लेती हैं.

वन्दे मातरम् : स्वतंत्रता-संग्राम की आत्मा::

यदि कोई पूछे—“क्या चीज़ थी जिसने दासता से त्रस्त भारत को जगाया?”उत्तर एक ही है—वन्दे मातरम् की अदृश्य अग्नि।यह गीत–आम जनता को शक्ति देता था,क्रांतिकारियों को संकल्प,और अत्याचारियों को भय।अंग्रेजों ने इसका उच्चारण रोक दिया,क्योंकि वे जानते थे—जब यह गीत गूँजता है,तो भारत जाग उठता है।और जागा हुआ भारत कभी पराजित नहीं हो सकता।

 वन्दे मातरम्—अमरता का महामंत्र::

इस गीत के प्रत्येक शब्द में अमरता,वीरता,त्याग,और स्वाभिमान यह एक महायज्ञ की तरह स्थापित है। जब हम वन्दे मातरम् कहते हैं,तो यह केवल आवाज़ नहीं होती—यह उन क्रांतिकारियों के रक्त से निकला हुआ इतिहास–सत्य है।आज़ाद का तेज,भगत का विचार,सुखदेव का मौन-बलिदान,राजगुरु का साहस,और बिस्मिल की कविता—सब इस गीत में अनंत हो गए हैं।

वन्देमातरम, वन्देमातरम, वन्देमातरम