वंदे मातरम् सप्तविंशतिः ( 27वीं श्रृंखला)
नेताजी सुभाषचंद्र बोस, वन्दे मातरम् और अयोध्या के गुमनामी बाबा!
राष्ट्रगीत और राष्ट्रपुरुषों का अदृश्य सेतु::भारत की स्वतंत्रता-गाथा केवल राजनीतिक घटनाओं का इतिहास नहीं, बल्कि भावनाओं का वह महाकाव्य है, जिसे हजारों अनाम, अदृश्य, अपूर्व और अद्वितीय व्यक्तित्वों ने अपने त्याग से लिखा। इस महागाथा में ‘वन्दे मातरम्’ वह ज्योति है, जिसने क्रांति और संघर्ष के अंधकार में अगणित क्रांतिकारियों की राह प्रकाशित की। इसी ज्योति के रथ पर सवार होकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस विश्व इतिहास में उस स्थान पर खड़े दिखते हैं, जहाँ विद्रोह, रणनीति, दार्शनिक दृष्टि और राष्ट्रभक्ति एक साथ संगठित होकर सशस्त्र आंदोलन की विराटता को जन्म देती है।
आज इसी वन्दे मातरम् के आलोक में एक रहस्य-व्यक्ति की चर्चा होती है—अयोध्या के ‘गुमनामी बाबा’ या ‘भगवानजी’। क्या वे नेताजी स्वयं थे? क्या वे किसी राजनीतिक समझौते की उपज थे? क्या वे राष्ट्रहित में अदृश्य रहने का प्रतिरोध थे? इन प्रश्नों का कोई अंतिम उत्तर इतिहास के पास नहीं, किंतु इन प्रश्नों से उत्पन्न विमर्श, भारत की स्वतंत्रता के अदृश्य अध्यायों को पढ़ने की शक्ति अवश्य देता है। श्री राम हरख सिंह तत्कालीन पंचायत अधिकारी ने एक पुस्तक लिखा था" अयोध्या के गुमनामी बाबा नेताजी सुभाष चंद्र बोस नहीं तो कौन विपक्ष सहित संपूर्ण भारत सरकार जवाब दे" इसमें उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपतिवराह वेंकटगिरी का एक उदाहरण लिखा था कि"
मैं वी वी गिरी राष्ट्रपति भारत गणराज्य द्वारा घोषणा करता हूं कि हमारे प्रिय नेता सुभाष चंद्र बोस जी अगर कहीं हो और आकाशवाणी से मेरी यह आवाज सुन रहे हो तो कृपया हमको जिस भी परिस्थिति में हो बताएं भारत सरकार उनका सम्मान वापस लाने का प्रयास करेंगी" वह पुस्तक छापने के कुछ दिन बाद ही भी बाबा जी अंत में ब्रह्मलीन हो गए और पुस्तक भी प्रज्ञा प्रकाशन न्याय मार्ग बस्ती 272001 से छपी थी परंतु दुर्भाग्य से वह अप्राप्त है.मैं ही उसका प्रकाशक था एक भी प्रति संरक्षित न करने का पाप मै स्वयं अपने ऊपर ले रहा हूं. संदर्भ ग्रंथ के संबंध में वह पुस्तक थी रामहरख सिंह कहा करते थे की नेताजी सुभाष चंद्र बोस वंदे मातरम को प्राण से भी बढ़कर के मानते थे और "शक्ति भवन" अयोध्या में श्री भगवान जी के रूप में निवास कर रहे थे उनका खाना था कि वह नियमित वेट करने भी जाते थे यद्यपि पहन के पीछे सारी बेटे की बात बताई जाती है परंतु मेरी अभिलाषा राखी रह गई मैं श्री भगवान जी से कभी मिल नहीं सका और वे ब्रह्मलीन हो गए आप यह स्पष्ट है कि वह नेताजी थे या कोई और महा पुरुष!
नायक और राष्ट्रगीत का संबंध::नेताजी सुभाषचंद्र बोस के राजनीतिक दर्शन में राष्ट्रवादी चेतना ही सर्वोच्च थी, और इस चेतना के केंद्र में ‘वन्दे मातरम्’ का स्त्रोत था। नेताजी ने इसे केवल गीत न माना, बल्कि इसे राष्ट्रिक शक्ति का दैवी संस्कार माना। यही कारण है कि आज़ाद हिंद फौज के सैनिकों के लिए ‘वन्दे मातरम्’ सिर्फ एक उद्घोष नहीं, बल्कि सैनिक धर्म का मंत्र था। जब सैनिक मौत के सामने मुस्कुरा रहे होते, तब उनकी होंठों पर सबसे पहले यही पंक्ति होती—“वंदे मातरम्… स्वाधीनता हमारा धर्म है और मातृभूमि हमारी देवी।”‘वंदे मातरम’ के धार्मिक-भाववादी अर्थों को लेकर कुछ समकालीन राजनीतिक वर्गों ने विवाद खड़े किए, किंतु नेताजी का दृष्टिकोण इस विवाद से ऊपर था। उनके लिए भारत केवल भू-भाग नहीं, ‘माता’ थी, और माता की वंदना में ‘वंदे मातरम्’ पूर्ण, पवित्र और सर्वोच्च था।
नेताजी और सशस्त्र क्रांति की मानस-भूमि::नेताजी की क्रांति की भूमि केवल राजनीति नहीं, बल्कि आध्यात्मिक राष्ट्रवाद पर आधारित थी। उनका विश्वास था—“स्वतंत्रता भीख में नहीं मिलती, रक्त से अर्जित करनी होती है।”नेताजी की यह मान्यता उनके बंगाल, पंजाब, उड़ीसा और तमिल सैनिकों में भी समान रूप से प्रतिबिंबित होती थी। वे ब्रिटिश राज को केवल शासन नहीं मानते थे, बल्कि भारतीय आत्मा पर बना विदेशी दासत्व का बंधन मानते थे। इसीलिए आज़ाद हिंद फौज की शपथ में धर्म या जाति नहीं, केवल राष्ट्र और माता के प्रति समर्पण था।प्रश्न उठता है—क्या ऐसी चेतना वाला व्यक्ति युद्ध हारने के पश्चात चुपचाप दुनिया से विलुप्त हो सकता है? इतिहास इसके उत्तर में मौन दिखता है।
अयोध्या के गुमनामी बाबा : एक अनुत्तरित प्रश्न::अयोध्या के मटमैलों स्मृति-चिह्न, पुलिस अभिलेख, इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट, अदालतों में हुए वाद-विवाद और स्थानीय लोगों की गवाही—सभी एक रहस्यमय चरित्र की ओर संकेत करते हैं, जिसे ‘गुमनामी बाबा’, ‘भगवानजी’, ‘बाबाजी’ आदि नामों से जाना गया। यह व्यक्ति सार्वजनिकता से दूर, किन्तु उच्चस्तरीय बौद्धिकता, विविध भाषाओं का ज्ञान और वैश्विक राजनीति की अद्भुत पकड़ रखता था।उस बाबा के पास प्रभूत मात्रा में निम्नलिखित सामग्री मिली—नेताजी से संबंधित सैकड़ों पत्र,आज़ाद हिंद फौज की स्मृतियाँ,ब्रिटिश और रशियन जासूसी तंत्र से जुड़ी चीज़ेंनेताजी के निकट सहयोगियों की तस्वीरें,नेताजी की मुद्रा, चश्मा जैसी वस्तुएँ,इन वस्तुओं का संग्रह किसी साधारण व्यक्ति के पास असंभव था। प्रश्न उठता है—क्या यह व्यक्ति सिर्फ एक भक्त था या वास्तव में वही था, जिसे इतिहास ‘नेताजी’ कहता है?
इतिहास के संभावित परिदृश्य::इतिहासकार आम तौर से तीन संभावनाएँ रखते हैं—नेताजी सोवियत रूस में जीवित थे::कई अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज संकेत देते हैं कि रूस की गुप्त एजेंसियाँ नेताजी से संबंधित जानकारी छिपाती रहीं। संभवतः वे रूस के राजनीतिक समीकरणों में फँस गए हों। यह भी संभव है कि उन्हें सोवियत गोपनीयता में रहने को बाध्य किया गया हो।
विमान दुर्घटना एक राजनीतिक छल::1945 की तथाकथित विमान दुर्घटना को कई विशेषज्ञ ‘फर्जी समाचार’ मानते हैं। यदि उस समय आज़ाद हिंद सेना सक्रिय रही होती, तो मित्र राष्ट्रों की विजय जटिल हो सकती थी। अतः नेताजी को निष्क्रिय करना मित्र राष्ट्रों का उद्देश्य भी हो सकता था।
भारत लौटने पर सुरक्षा का संकट::भारत स्वतंत्र होने के बाद भी अंग्रेजी सत्ता की मानसिकता अधिकारी वर्ग में जीवित रही। नेहरू सरकार, अंतरराष्ट्रीय दबाव और सैन्य संतुलन के कारण भी नेताजी की सार्वजनिक वापसी असंभव हो सकती थी। ऐसे में गुमनामी ही उनका कूटनीतिक सुरक्षा कवच बन सकता था।
क्यों गुमनामी? क्या एक नायक अदृश्य रह सकता है?::यह प्रश्न हर भारतीय के मन में उठता है—यदि वे जीवित थे, तो क्यों छिपे रहे? इसका उत्तर नेताजी की वैचारिक कठोरता में छिपा है। वे सत्ता नहीं, सिद्धांत के पक्षधर थे। आज़ाद भारत के राजनीतिक ढांचे में उनकी मांग होती—सैन्य क्रांति का राष्ट्रवादी पुनर्गठन,ब्रिटिश संरक्षित आई.सी.एस. तंत्र का उन्मूलन,अंतरराष्ट्रीय सहयोग के नए समीकरण,भारत को समाजवादी-राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य बनानाइन परिवर्तनों के लिए न तब भारत तैयार था, न वर्तमान नेतृत्व इन्हें स्वीकार करता। अतः उनकी उपस्थिति ही व्यवस्था का संतुलन बिगाड़ सकती थी। इस स्थिति में उनका अदृश्य रहना त्याग का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हो सकता है। इस दृष्टि से यदि गुमनामी बाबा नेताजी ही थे, तो उनका मौन भी राष्ट्र सेवा था।
नेताजी, वंदेमातरम् और स्वाधीनता का आध्यात्मिक मॉडल::सुभाष के दृष्टिकोण में स्वतंत्रता का अर्थ केवल शासन-परिवर्तन नहीं, बल्कि मानस परिवर्तन था। वंदे मातरम् इस परिवर्तन का मूल मन्त्र था। यह राष्ट्रवाद को ‘ध्यानयोग’ और ‘कर्मयोग’ में परिणत करता है।‘मातरम्’—राष्ट्र की देवी‘वंदे’—कर्म, कृतज्ञता और समर्पण नेताजी ने इसे केवल गाया नहीं, इसका अवतार बनकर जिया। और यदि वे गुमनामी में भी रहे, तो यह भी उसी ‘वंदन’ का गुप्त रूप था—स्वार्थ त्याग और मातृभूमि की रक्षा का विमर्श।
विवाद और विमर्श : इतिहास का उत्तरदायित्व::गुमनामी बाबा-नेताजी विवाद केवल रहस्य का विषय नहीं; यह इतिहास के उत्तरदायित्व का प्रश्न है। इतिहास को सत्य खोजना चाहिए, किंतु सत्य हमेशा दस्तावेज़ों में नहीं मिलता। कभी-कभी सत्य व्यक्तित्व के मौन से प्रकट होता है।आज हमारी आवश्यकता है—वैज्ञानिक पुनर्संवीक्षण,अभिलेखों का स्वतंत्र परीक्षण,विदेशी दस्तावेजों का खुला विश्लेषण,जिस दिन यह कार्य पूरा होगा, भारतीय इतिहास की कई अनछुई पंक्तियाँ उजली हो जाएँगी।
राष्ट्रगीत का अनंत प्रवाह::वंदे मातरम् केवल अतीत की आवाज़ नहीं; यह वर्तमान का आह्वान और भविष्य का पथप्रदर्शन है। आज जब हम नेताजी और गुमनामी बाबा के रहस्य पर सोचते हैं, तो यह प्रश्न केवल किसी व्यक्ति की पहचान का नहीं, बल्कि भारत की आत्मा की पहचान का बन जाता है।नेताजी की देह अस्तित्व में रही या नहीं, यह विवाद आज भी शेष है; परंतु उनका ‘वंदे मातरम्’ आज भी ज्वाला की तरह हमारे भीतर जीवित है। वह हमें पुकारता है—
“राष्ट्र की रक्षा केवल सेनाओं से नहीं होती,राष्ट्र की रक्षा उस चेतना से होती है जो मातृभूमि के लिए त्याग को धर्म मानती है।”
नेताजी और वंदे मातरम्, दोनों ही आज भी हमारे साथ हैं—
एक प्रेरणा बनकर, और एक आराधना बनकर। गुमनामी का वाद-विवाद समय के गर्भ में सुलझे या न सुलझे, राष्ट्र की मातृ-चेतना अमर रहेगी। उसी चेतना से भारत स्वतः अपनी पूर्णता की ओर अग्रसर होगा।
वंदे मातरम् है जहाँ -नेताजी हैं वहाँ 🙏क्रमशः

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