सम्पादकीय
सोशल मीडिया: मृग-मरीचिका से भी घातक छलावा
आज सूचना का विस्फोट हो रहा है, लेकिन सत्य की कमी गहराती जा रही है। सोशल मीडिया दुनिया को जोड़ने का दावा करता है, किंतु वास्तव में यह मनुष्य को भ्रमित, विच्छिन्न और असुरक्षित बना देता है। युवाओं पर इसका प्रभाव सबसे विनाशकारी है, जहाँ चिंता, अवसाद और विकृत आत्म-छवि जैसी समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं
यह डिजिटल मृग-मरीचिका पारंपरिक मीडिया के एकाधिकार को तोड़ती है, वास्तविक समय में समाचार साझा करने की सुविधा देती है, किंतु एल्गोरिदम के मौन आक्रमण से उपयोगकर्ताओं को फिल्टर बबल्स में कैद कर लेती है । भारत जैसे समाज में यह जवाबदेही बढ़ाने का वादा करता है, जैसे कोविड-19 के दौरान ऑक्सीजन की कमी उजागर हुई, लेकिन फर्जी खबरों और ट्रोलिंग से विभाजन गहरा जाता है ।भ्रम का डिजिटल साम्राज्य सोशल मीडिया पर दिखावा ही सर्वोपरि बिकता है। उपयोगकर्ता आभासी पहचान गढ़ते हैं, जहाँ लाइक्स और फॉलोअर्स वास्तविक स्वीकृति का पैमाना बन जाते हैं। इससे प्रामाणिक व्यक्तित्व धुंधला पड़ता है, भ्रम और भावनात्मक तनाव बढ़ता है
।युवा अपनी कमजोरियाँ छिपाते हैं, प्रदर्शन-प्रधान संस्कृति में फँसकर सच्चे भाव दब जाते हैं। FOMO (कुछ छूट जाने का डर) और आदर्श जीवन से तुलना आत्म-सम्मान को चूर-चूर कर देती है । अत्यधिक उपयोग से वास्तविक जीवन की गतिविधियाँ, जैसे शिक्षा और काम, प्रभावित होती हैं ।एल्गोरिद्म का नियंत्रण एल्गोरिदम अब स्वतंत्र मंच को भीड़-व्यवहार की प्रयोगशाला बना चुके हैं। ये मशीनें तय करती हैं कि किसे गुस्सा दिलाना है, किसे अलग-थलग करना है। उपयोगकर्ता अनजाने में चरम विचारों के जाल में फँसते हैं ।डोपामाइन-चालित पुरस्कार प्रणाली इसे व्यसनकारी बनाती है, ध्यान अवधि कम करती है और स्मृति हानि का कारण बनती है । बड़ी टेक कंपनियाँ इस अराजकता से लाभ कमाती हैं, जबकि मानसिक स्वास्थ्य जोखिम बढ़ते जाते हैं ।सामाजिक संवाद का विघटनपरिवारों में संवाद घटा, स्क्रीन का शोर बढ़ा। ट्रोल और मीम्स ने तर्क-संवाद की जगह ले ली। साइबरबुलिंग, घृणास्पद टिप्पणियाँ और डीपफेक से युवा शोषण का शिकार होते हैं।बच्चों को चाइल्ड इन्फ्लुएंसर्स बनाकर वयस्क आय कमाते हैं, जो मानसिक परिपक्वता से पहले प्रदर्शन का दबाव डालता है। इससे अकेलापन और तनाव फैलता है । समाज में असमान पहुँच गरीब-अमीर की खाई गहरी करती है ।मानसिक स्वास्थ्य पर संकटऑनलाइन आदर्श तस्वीरें आत्म-धारणा को नुकसान पहुँचाती हैं, विशेषकर किशोरियों में अपर्याप्तता का भाव जन्म लेता है। अवसाद, चिंता और नींद की कमी आम हो गई ।संज्ञानात्मक विफलताएँ बढ़ती हैं, विचारों में चूक होती है। सकारात्मक प्रभाव जैसे जागरूकता भी हैं, किंतु अत्यधिक उपयोग नकारात्मकता हावी कर देता है ।लोकतंत्र पर डिजिटल दबावफर्जी खबरें, प्रोपेगेंडा और वायरल झूठ मतदाताओं को भ्रमित करते हैं। राजनीतिक अतिवाद बढ़ता है, निर्णय वायरलिटी पर निर्भर हो जाते हैं ।भारत में यह पारंपरिक मीडिया को चुनौती देता है, किंतु साइबर धमकी लोकतंत्र की नींव हिलाती है ।समाधान की राहडिजिटल साक्षरता, विनियमन और नैतिक डिजाइन आवश्यक हैं। व्यक्तिगत स्तर पर समय सीमा और सचेत उपयोग से बचाव संभव है । समाज सत्य के स्रोत तलाशे।मृग-मरीचिका आँखें धोखा देती है, सोशल मीडिया मन-समाज को। साहस से इस जाल से बाहर निकलें, वरना पीढ़ियाँ सत्य पहचानने में उलझेंगी.

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