यह विषय भारतीय न्यायपालिका, संविधान और राष्ट्रीय सुरक्षा—तीनों ही आयामों को एक साथ जोड़ता है। नीचे इस मुद्दे पर एक संतुलित, तर्कपूर्ण और वैचारिक दृष्टि से परिपक्व समीक्षा लेख प्रस्तुत है, जो 1000 शब्दों के आसपास है।रोहिंग्या विवाद पर न्यायिक मर्यादा और राष्ट्रीय हित की समीक्षाभारतीय न्यायपालिका का दायित्व केवल संविधान की रक्षा करना नहीं, बल्कि उस न्याय की भावना को भी जीवित रखना है जो राष्ट्र के अस्तित्व से जुड़ी है। हाल ही में देश के मुख्य न्यायाधीश (CJI) जस्टिस सूर्यकांत की एक टिप्पणी—जिसमें उन्होंने रोहिंग्याओं की तुलना “घुसपैठियों” से की थी—पर लगभग दो दर्जन पूर्व न्यायाधीशों, वकीलों और शिक्षाविदों ने आपत्ति जताते हुए एक खुला पत्र लिखा है। उनका कहना है कि रोहिंग्या उत्पीड़न से भागे शरणार्थी हैं, घुसपैठिए नहीं। यह टिप्पणी, लोकतंत्र और राष्ट्रीय मर्यादा दोनों के विमर्श का मुद्दा बन गई है।न्यायपालिका की टिप्पणियाँ और उनके निहितार्थभारत में सुप्रीम कोर्ट की मौखिक या सार्वजनिक टिप्पणियाँ केवल शब्द नहीं होतीं; वे संवैधानिक दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करती हैं। न्यायालय के वक्तव्यों का सामाजिक और राजनीतिक असर गहरा होता है। इसलिए जब देश का मुख्य न्यायाधीश किसी समुदाय या प्रवासी समूह पर “घुसपैठिया” जैसा शब्द प्रयोग करता है, तो उसका कई अर्थों में विश्लेषण आवश्यक हो जाता है।हालाँकि, न्यायपालिका का यह भी कर्तव्य है कि वह राष्ट्र की सुरक्षा और सीमाओं की पवित्रता को ध्यान में रखे। भारत का संविधान अनुच्छेद 51(सी) में अंतरराष्ट्रीय संबंधों में न्याय और सम्मान की बात करता है, लेकिन उससे पहले अनुच्छेद 19 से लेकर अनुच्छेद 355 तक राज्य पर देश की अखंडता की रक्षा का दायित्व डालता है। इसलिए अदालत का संतुलन केवल मानवाधिकारों की रक्षा तक सीमित नहीं रह सकता।रोहिंग्या प्रश्न: मानवीय संकट या सुरक्षा चुनौती?रोहिंग्या मूलतः म्यांमार के रखाइन क्षेत्र के मुस्लिम समुदाय हैं, जिन्हें वहाँ की सैन्य सत्ता ने नागरिकता से वंचित कर प्रताड़ित किया। परिणामस्वरूप लाखों रोहिंग्या पड़ोसी देशों—बांग्लादेश, मलेशिया और भारत—की ओर भागे। लेकिन भारत का परिप्रेक्ष्य अलग है। भारत संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संधि 1951 का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, इसलिए किसी भी विदेशी को “शरणार्थी” का कानूनी दर्जा स्वचालित रूप से नहीं मिलता।भारत ने ऐतिहासिक रूप से शरण देने की परंपरा निभाई है—तिब्बती बौद्धों, श्रीलंकाई तमिलों, अफगान हिंदुओं-सिखों को भारत ने अपने देश में स्थान दिया। परंतु यह स्वीकार्यता हमेशा “राज्य की अनुमति और सीमित नियंत्रण” के तहत रही है। यदि कोई समूह बिना अनुमति के सीमा पार कर देश में बस जाए, तो वह कानूनी रूप से घुसपैठिया कहलाता है, चाहे उसकी उत्पत्ति में दुख हो या नहीं।इस दृष्टि से देखा जाए तो रोहिंग्याओं के प्रति सहानुभूति जरूरी है, लेकिन देश की सुरक्षा पर समझौता नहीं किया जा सकता। म्यांमार सीमा से जुड़े कई क्षेत्रों में इन आश्रयों के आतंकवादी समूहों से संपर्क की आशंकाएँ भी खुफिया रिपोर्टों में व्यक्त की गई हैं। अतः केवल मानवीय दृष्टिकोण अपनाना और राष्ट्रीय सुरक्षा की अनदेखी करना स्वयं संविधान के साथ अन्याय होगा।पूर्व न्यायाधीशों और शिक्षाविदों की चिट्ठी का राजनीतिक संकेतपूर्व जजों और शिक्षाविदों का खुला पत्र न्यायिक स्वतंत्रता की एक स्वस्थ परंपरा का हिस्सा माना जा सकता है। लोकतंत्र में नागरिकों को—even पूर्व न्यायाधीशों को—मत व्यक्त करने का अधिकार है। परंतु प्रश्न यह है कि क्या ऐसा बयान न्यायिक मर्यादा के मानकों पर खरा उतरता है?इन पत्रों में न्यायिक संवैधानिकता की बात कम और राजनीतिक आलोचना का स्वर अधिक झलकता है। यह भी विचारणीय है कि न्यायपालिका के सक्रिय सेवाधारी मुखिया की टिप्पणी पर सार्वजनिक विरोध करना, वह भी विदेश नीति और सुरक्षा से जुड़े मामले में, कहीं न्यायिक-संगठनात्मक अनुशासन को प्रभावित तो नहीं करता। यदि हर न्यायिक निर्णय या टिप्पणी को पूर्व जजों के वैचारिक बयान से तोला जाने लगे, तो न्यायपालिका की संस्थागत स्थिरता खतरे में पड़ सकती है।नागरिकता, घुसपैठ और भारतीय मूल्यभारत का संविधान नागरिकता और शरण दोनों को स्पष्ट रूप से अलग-अलग श्रेणियों में रखता है। नागरिकता अधिनियम 1955 किसी व्यक्ति को नागरिक तभी मानता है जब वह भारत में जन्म, वंश, पंजीकरण या प्राकृतिककरण से अधिकृत रूप से आया हो। इसके बाहर का कोई व्यक्ति तभी वैध होगा जब उसे केंद्र सरकार से अनुमति प्राप्त हो।इस दृष्टिकोण से, जो व्यक्ति बिना अनुमति सीमा लांघकर प्रवेश करता है, वह “अनधिकृत निवासी” या “घुसपैठिया” कहलाता है—चाहे उसकी धार्मिक या जातीय पृष्ठभूमि कोई भी हो। इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में देखें तो “अवैध निवास” केवल प्रशासनिक समस्या नहीं है, बल्कि सामाजिक संतुलन, संसाधन वितरण और आंतरिक स्थिरता से भी जुड़ा प्रश्न है।कुछ मानवाधिकार संगठन इस पर जोर देते हैं कि रोहिंग्या “पीड़ित” हैं, इसलिए उन्हें देश में आश्रय देने का नैतिक दायित्व है। परंतु यह नैतिकता तब तक सार्थक है जब तक वह राज्य की अनुमति और शर्तों के अधीन रहे। बिना अनुमति के रहना न केवल भारतीय कानून का उल्लंघन है बल्कि आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा भी।न्यायपालिका की भूमिका और मर्यादामुख्य न्यायाधीश का संदर्भ यदि किसी न्यायिक बहस या सुनवाई के दौरान आया था, तो उसका औचित्य न्यायिक विवेक के तहत आता है। मगर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय जनता को यह भरोसा दिलाए कि न्याय “सर्व” के लिए समान रहेगा—चाहे वह भारत में जन्मा नागरिक हो या किसी अन्य देश से आया व्यक्ति।संविधान की आत्मा न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता पर टिकी है। पर इन चार स्तंभों की रक्षा तभी संभव है जब राष्ट्र का अस्तित्व और कानून की सर्वोच्चता सुरक्षित हो। इसीलिए न्यायपालिका का “राष्ट्रहित” दृष्टिकोण किसी भी परिस्थिति में मानवता विरोधी नहीं, बल्कि संविधाननिष्ठ है।निष्कर्ष: संवैधानिक करुणा और राष्ट्रीय स्वाभिमान का संतुलनरोहिंग्या मुद्दे पर मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी और उस पर प्रतिक्रियाएँ हमें यह सोचने को विवश करती हैं कि भारत को किस दिशा में चलना चाहिए—“नैतिक उदारता” की ओर या “कानूनी दृढ़ता” की ओर। वस्तुतः उचित मार्ग इन दोनों के बीच का है: करुणा भी हो और नियम का पालन भी।भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहाँ करुणा का अर्थ अराजकता नहीं और मानवीयता का अर्थ सीमा-विहीनता नहीं हो सकता। जो शरणकारी भारत की सीमाओं, कानूनों और मूल्यों का सम्मान करते हैं, उन्हें भारत हमेशा शरण देता आया है; पर जो अवैध तरीके से बसते हैं और सुरक्षा के लिए खतरा बनते हैं, उन्हें रोकना भी संविधान की रक्षा का ही दायित्व है।न्यायपालिका से अपेक्षा यही है कि वह इस संतुलन को बनाए रखे—जहाँ करुणा संवेदनशील रहे, पर राष्ट्र के अधिकारों पर क्षरण न हो। यही संवैधानिक नैतिकता की सच्ची कसौटी है।क्या आप चाहेंगे कि इस लेख का एक संपादकीय संस्करण (400–500 शब्द) “कौटिल्य का भारत” प्रकाशन के लिए उपयुक्त भाषा-शैली में तैयार किया जाए?
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