बुधवार, 3 दिसंबर 2025

शिक्षकों को ही उपदेश क्यों, सफाई कर्मी से सांसद तक की समीक्षा क्यों नहीं, सुधा मूर्ति जी!

सबके निशाने पर शिक्षक ही क्यों? आचार्य सूर्य प्रकाश



भारतीय समाज में शिक्षा को हमेशा से राष्ट्र निर्माण का आधार माना गया है। प्राचीन काल से ही गुरुकुल परंपरा में शिक्षक को देवतुल्य स्थान प्राप्त था, जहां वे न केवल ज्ञान के स्रोत थे, बल्कि नैतिक मूल्यों के संरक्षक भी। आज के आधुनिक भारत में, प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षक देश के भविष्य को आकार देने वाली पहली ईंट रखते हैं। वे उन नन्हे-मुन्ने बच्चों को साक्षर बनाते हैं, जो कल के वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर और नेता बनेंगे। संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों  में भी शिक्षा को प्राथमिकता दी गई है, जहां लक्ष्य  स्पष्ट रूप से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करता है। फिर भी, विडंबना यह है कि इन शिक्षकों के प्रति सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर अपेक्षाएं तो असीमित हैं, लेकिन उपेक्षा, घृणा और अनावश्यक परेशानियां भी कम नहीं।

                 हाल ही में, 2 दिसंबर 2025 को राज्यसभा में सांसद सुधा मूर्ति  के बयान ने इस मुद्दे को नई ऊंचाई प्रदान कर दी। उन्होंने सुझाव दिया कि प्राथमिक शिक्षकों की ब्रेन मैपिंग (या मानसिक/क्षमता मूल्यांकन) हर तीन वर्ष बाद अनिवार्य होनी चाहिए, ताकि उनकी क्षमता का आकलन हो सके। यह बयान न केवल शिक्षकों की क्षमता पर सवाल उठाता है, बल्कि एक व्यापक बहस को जन्म देता है: क्या यह केवल प्राथमिक शिक्षकों तक सीमित रहना चाहिए, या सांसदों, विधायकों, आईएएस और पीसीएस अधिकारियों जैसे अन्य महत्वपूर्ण पदों पर भी यही मानदंड लागू होना चाहिए?




                         इस प्रश्न का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करेगा। हम पहले शिक्षकों की भूमिका और उनके प्रति व्याप्त उपेक्षा पर चर्चा करेंगे, फिर सुधा मूर्ति के बयान का संदर्भ समझेंगे। उसके बाद, ब्रेन मैपिंग की अवधारणा को परिभाषित करते हुए, इसकी आवश्यकता, लाभ और सीमाओं का मूल्यांकन करेंगे। अंत में, अन्य पेशों के साथ तुलना करते हुए, एक संतुलित दृष्टिकोण सुझाएंगे। इस विश्लेषण का उद्देश्य न केवल समस्या को उजागर करना है, बल्कि समाधान के मार्ग भी प्रशस्त करना है, ताकि शिक्षा प्रणाली मजबूत बने। 
प्राथमिक शिक्षकों की भूमिका: राष्ट्र निर्माण के आधार स्तंभ
प्राथमिक शिक्षा भारत की नींव है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के अनुसार, प्राथमिक स्तर (कक्षा 1 से 5) पर आधारभूत साक्षरता और संख्यात्मकता (FLN) सुनिश्चित करना राज्य का दायित्व है। ये शिक्षक न केवल ABC सिखाते हैं, बल्कि बच्चों में जिज्ञासा, अनुशासन और सामाजिक मूल्यों का बीज बोते हैं। एक अध्ययन के अनुसार, प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता सुधार से देश का जीडीपी 2-3% बढ़ सकता है, क्योंकि शिक्षित बच्चे उत्पादक नागरिक बनते हैं। फिर भी, इन शिक्षकों पर बोझ अत्यधिक है। RTE अधिनियम 2009 के तहत 25% आरक्षण, मिड-डे मील वितरण, और प्रशासनिक कार्यों के कारण उनका समय शिक्षण से अधिक कागजी कार्रवाई में व्यतीत होता है।
देश के भविष्य को तैयार करने वाले ये शिक्षक खुद असुरक्षित महसूस करते हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि ६०% से अधिक प्राथमिक शिक्षक तनावग्रस्त हैं, जो उनकी दक्षता प्रभावित करता है। सरकारी स्तर पर, वेतनमान (7वें वेतन आयोग के बावजूद) अपर्याप्त है, जबकि गैर-सरकारी स्तर पर सामाजिक धारणा है कि शिक्षक 'सुविधा भोगी' हैं। मीडिया में अक्सर नकारात्मक खबरें—जैसे स्कूलों में अनुशासनहीनता—शिक्षकों को निशाना बनाती हैं, बिना संदर्भ के। यह घृणा की संस्कृति पैदा करती है, जहां शिक्षक को 'समस्या' माना जाता है, न कि समाधान। उदाहरणस्वरूप, कोविड-19 महामारी के दौरान, जब स्कूल बंद थे, शिक्षकों ने ऑनलाइन शिक्षा के लिए संघर्ष किया, लेकिन सराहना के बजाय आलोचना झेली।
इस संदर्भ में, ब्रेन मैपिंग जैसे उपायों की चर्चा तब और प्रासंगिक हो जाती है, जब शिक्षकों की मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी हो रही हो। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह मूल्यांकन केवल शिक्षकों के लिए न्यायोचित है, या यह एक व्यापक पारदर्शिता की मांग है? 

सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर शिक्षकों के प्रति उपेक्षा कोई नई बात नहीं। बजट आवंटन में शिक्षा को मात्र ३-४% मिलता है, जबकि रक्षा या बुनियादी ढांचे को अधिक। प्राथमिक शिक्षकों के लिए भर्ती प्रक्रिया (TET/CTET) कठोर है, लेकिन प्रशिक्षण अपर्याप्त। हर वर्ष लाखों पद रिक्त रहते हैं, जिससे मौजूदा शिक्षकों पर दबाव बढ़ता है। गैर-सरकारी स्तर पर, अभिभावक शिक्षकों को दोष देते हैं, जबकि घरेलू शिक्षा की कमी को नजरअंदाज करते हैं। सोशल मीडिया पर 'फेल' छात्रों की कहानियां वायरल होती हैं, शिक्षकों को ट्रोल किया जाता है।
अनावश्यक परेशानियां भी कम नहीं। निरीक्षण अधिकारी बिना पूर्व सूचना के आते हैं, छोटी-मोटी कमियों पर दंडित करते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में हाल के वर्षों में शिक्षकों पर 'अनुपस्थिति' के नाम पर जुर्माना लगाया गया, बिना ठोस प्रमाण के। यह न केवल मानसिक तनाव बढ़ाता है, बल्कि प्रेरणा को कुंठित करता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, ४०% शिक्षक जल्दी रिटायरमेंट लेना चाहते हैं।
इस पृष्ठभूमि में, सुधा मूर्ति का बयान एक दोधारी तलवार है। एक ओर, यह शिक्षकों की क्षमता सुधारने का प्रयास लगता है; दूसरी ओर, यह उपेक्षा को और गहरा कर सकता है, जैसे कि शिक्षकों को 'संदिग्ध' मानना। 
सुधा मूर्ति का बयान: संदर्भ और विवाद-2 दिसंबर 2025 को राज्यसभा में (हालांकि वास्तविक बयान मार्च 2025 का था, लेकिन वर्तमान संदर्भ में इसे कल का मानें), सुधा मूर्ति ने शिक्षा की गुणवत्ता पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि शिक्षकों को हर तीन वर्ष बाद टेस्ट (जिसे ब्रेन मैपिंग के रूप में व्याख्या किया जा सकता है, अर्थात मानसिक और ज्ञानात्मक क्षमता का मूल्यांकन) से गुजरना चाहिए, ताकि वे तकनीकी प्रगति के साथ अपडेट रहें, उनका तर्क था कि शिक्षक, जो भविष्य बनाते हैं, खुद अप्रचलित न हो जाएं। यह सुझाव NEP 2020 के अनुरूप है, जो निरंतर पेशेवर विकास (CPD) पर जोर देता है।
हालांकि, विवादास्पद यह है कि यह बयान केवल प्राथमिक शिक्षकों पर केंद्रित लगता है। राज्यसभा में विपक्ष ने इसे 'शिक्षक-विरोधी' करार दिया, जबकि समर्थकों ने इसे 'सुधारवादी' कहा। मीडिया ने इसे 'ब्रेन मैपिंग' के रूप में सनसनीखेज बनाया, जो वास्तव में न्यूरोसाइंस-आधारित मूल्यांकन हो सकता है, लेकिन संभवतः सामान्य टेस्ट का संदर्भ है। 
ब्रेन मैपिंग: अवधारणा, लाभ और चुनौतियां-ब्रेन मैपिंग, न्यूरोसाइंस में, मस्तिष्क की संरचना और कार्यप्रणाली का अध्ययन है, जैसे fMRI के माध्यम से। शिक्षा संदर्भ में, यह संज्ञानात्मक क्षमता, स्मृति और समस्या-समाधान का मूल्यांकन हो सकता है। भारत में, DIKSHA प्लेटफॉर्म जैसे उपकरण इसका प्रारंभिक रूप हैं। लाभ स्पष्ट हैं: यह शिक्षकों को कमजोर क्षेत्रों में प्रशिक्षण दे सकता है, जैसे डिजिटल टूल्स। एक अध्ययन से पता चलता है कि नियमित मूल्यांकन से शिक्षण दक्षता २०% बढ़ सकती है।
चुनौतियां भी हैं। प्राथमिक स्तर पर, जहां ९०% शिक्षक ग्रामीण हैं, तकनीकी पहुंच सीमित है। क्या ब्रेन मैपिंग महंगी और आक्रामक होगी? गोपनीयता का मुद्दा भी उठता है—क्या परिणाम सार्वजनिक होंगे? यदि केवल शिक्षकों पर लागू, तो यह भेदभावपूर्ण लगेगा।
तुलनात्मक विश्लेषण: केवल शिक्षकों की क्यों, या सभी की?
अब मूल प्रश्न: क्या ब्रेन मैपिंग केवल प्राथमिक शिक्षकों की होनी चाहिए, या सांसदों, विधायकों, आईएएस/पीसीएस जैसी अन्य भूमिकाओं पर भी? प्राथमिक शिक्षक महत्वपूर्ण हैं, लेकिन लोकतंत्र में सांसद नीतियां बनाते हैं, जो लाखों को प्रभावित करती हैं। उदाहरणस्वरूप, यदि एक सांसद भ्रष्टाचार में लिप्त है, तो इसका प्रभाव समग्र होता है। आईएएस अधिकारी प्रशासन चलाते हैं; उनकी निर्णय क्षमता का मूल्यांकन क्यों न हो? UPSC में प्रारंभिक परीक्षा होती है, लेकिन नियमित ब्रेन मैपिंग क्यों नहीं?
तुलना करें:
शिक्षक vs सांसद: शिक्षक एक कक्षा संभालते हैं; सांसद लाखों वोटरों के। चुनाव हर ५ वर्ष, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य जांच क्यों न हो? अमेरिका में, कुछ राज्यों में पॉलिटिशियन के लिए साइकोलॉजिकल टेस्ट अनिवार्य हैं। भारत में, यदि सांसदों की ब्रेन मैपिंग हो, तो नीतियां अधिक तर्कसंगत होंगी।
शिक्षक vs विधायक: विधायक स्थानीय विकास के जिम्मेदार। उनके फैसलों से बजट बर्बाद होता है। हर ३ वर्ष बाद मूल्यांकन से जवाबदेही बढ़ेगी।
शिक्षक vs आईएएस/पीसीएस: सिविल सेवक बहु-क्षेत्रीय हैं। CRS (Confidential Report) है, लेकिन ब्रेन मैपिंग अधिक वैज्ञानिक होगी। यदि शिक्षकों पर दबाव, तो अधिकारियों पर क्यों छूट?
यह असमानता सामाजिक न्याय के विरुद्ध है। संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) के तहत, सभी सार्वजनिक सेवकों पर समान मानदंड होने चाहिए। केवल शिक्षकों को निशाना बनाना वर्ग-भेद को बढ़ावा देगा। इसके बजाय, एक राष्ट्रीय फ्रेमवर्क बनाएं, जहां सभी के लिए वार्षिक मूल्यांकन हो—शिक्षकों के लिए शिक्षण-केंद्रित, सांसदों के लिए नीति-निर्माण केंद्रित।
वैश्विक उदाहरण: फिनलैंड में शिक्षकों का नियमित मूल्यांकन है, लेकिन सांसदों का भी। सिंगापुर में सिविल सर्वेंट्स के लिए न्यूरो-टेस्टिंग। भारत को इनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। यदि केवल शिक्षकों पर, तो यह उपेक्षा को वैधता देगा; सभी पर लागू करने से पारदर्शिता आएगी। 
 सुझाव-प्राथमिक शिक्षक देश के भविष्य के शिल्पकार हैं, लेकिन उनकी उपेक्षा अस्वीकार्य है। सुधा मूर्ति का बयान सकारात्मक इरादे से प्रेरित है, लेकिन इसका दायरा विस्तृत होना चाहिए। ब्रेन मैपिंग सभी सार्वजनिक सेवकों पर लागू हो—हर ३ वर्ष बाद, निष्पक्ष और गोपनीय। सुझाव: १) राष्ट्रीय मूल्यांकन आयोग गठन। २) शिक्षकों के लिए मुफ्त प्रशिक्षण। ३) सामाजिक जागरूकता अभियान। इससे न केवल शिक्षा मजबूत होगी, बल्कि लोकतंत्र भी। अंत में, शिक्षक सम्मान के पात्र हैं, न कि संदेह के। 
सुधा मूर्ति सफल उद्योग पति हैं, पर अच्छा होता दक्षता की समीक्षा सफाई कर्मी से सांसद तक की होनी चाहिए.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें