वन्दे मातरम् – श्रृंखला षड्विंशति( 26)
अग्निपुत्रों का महागान : आज़ाद, भगत, सुखदेव, राजगुरु, बिस्मिल और वन्दे मातरम् की शाश्वत ध्वजा!
“न हि सत्यात् परं बलम्”—सत्य से बढ़कर कोई शक्ति नहीं।इसी वैदिक वचन की अनुगूँज थी उन युवाओं की आँखों में,जिन्होंने जीवन, स्वप्न, आयु, और भविष्य—सब कुछ मातृभूमि के चरणों में अर्पित कर दिया।चद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और रामप्रसाद बिस्मिल—ये केवल नाम नहीं, भारतीय राष्ट्रचेतना के महानाग हैं,जिनके फण पर वन्दे मातरम् का तेज झलकता है।उनके भीतर क्रांति केवल एक कार्य नहीं थी,वह तप, व्रत और उपासना थी।और उस उपासना का मंत्र—वन्दे मातरम
वन्दे मातरम्—एक गीत नहीं, क्रांति का महामंत्र::जब अंग्रेजी साम्राज्य अपनी लाठी, कानून और फाँसी के सहारे भारत को कुचल रहा था,तब इस गीत ने भारतीय आत्मा को अमरता प्रदान की।यह गीत क्यों खतरनाक था?क्योंकि यह…मन को जागृत करता था,हृदय को प्रज्वलित करता था,और कायरता के भस्मावशेष पर वीरता का वटवृक्ष उगा देता था।अग्रेज समझ गए थे—“वन्दे मातरम्” गूँजने का अर्थ है—जनता का जाग्रति-सूत्र खोल देना।इसलिए उन्होंने इसे प्रतिबंधित किया।परंतु कुछ मंत्र प्रतिबंधों से नहीं मरते;वे अनुष्ठान में बदल जाते हैं।भारत के क्रांतिकारी इसे जीते थे,गाते नहीं—जीते थे।
चंद्रशेखर आज़ाद : अग्नि का मानव रूप::आज़ाद का व्यक्तित्व सूर्य की पहली किरण जैसा था—उग्र परंतु करुणामय, तेजस्वी परंतु संतुलित।उनके लिए वन्दे मातरम् का अर्थ था—“मातृभूमि से बड़ा कोई देवता नहीं।”उन्होंने स्वयं को ‘आजाद’ नाम इसलिए दियाक्यों कि परतंत्रता का एक क्षण भी उन्हें असह्य था।अल्फ्रेड पार्क में जब उन्होंने अंतिम गोली अपनी कनपटी पर चलाई,तो वह मृत्यु नहीं थी—वह स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा का पूर्णाहुति–यज्ञ था।आज़ाद ने मौत को नहीं,दासता को मारा।
भगत सिंह : विचार-क्रांति का तपस्वी ऋषि::भगत सिंह क्रांति के केवल योद्धा नहीं;
क्रांति के चिंतक, मनीषी और ऋषि थे।वह जानते थे—“यदि विचार पर विजय पा ली गई,तो हथियार अपने आप गिर जाते हैं।”उनका वन्दे मातरम् कहना अदालतों में, जेल की कोठरियों में,और फाँसी की छाया में गूँजता था—मानो कोई कह रहा होः“मृत्यु मेरे लिए अंतिम सत्य नहीं—स्वतंत्रता ही मेरा सत्य है।”वे फाँसी से हँसते हुए इसलिए गुज़रे क्योंकि वह कोई अंत नहीं थवह राष्ट्र की मुक्ति के लिए दिया गया यज्ञ-फल था।
सुखदेव : अनुशासन, निष्ठा और मौन-वीरता का पवित्र स्तंभ::सुखदेव वह दीपक थे जिसका तेज बाहर से कम दिखता था,पर भीतर से वह अतुलनीय प्रचंड अग्नि थे।उनके लिए वन्दे मातरम् का अर्थ था—कर्मयोग, समर्पण, और मौन-तप।संगठन, योजना, गुप्त संचालन—
सब कुछ उनकी शांति और गहराई में छिपा था।वे जानते थे—“क्रांति केवल शोर से नहीं,संयम और समर्पण से भी होती है।”उनका बलिदान—भारत की स्वतंत्रता का आधार-शिला है।
राज गुरु : निर्भीकता का विजयी शंखनाद :राजगुरु वह युवक थे जनके अंदर शिवाजी की वीरता पुनर्जन्म ले चुकी थी।उनका लक्ष्य–सिद्धि कौशल,उनका हृदय,उनका साहस—सब वन्दे मातरम् की ज्वाला से पोषित थे।उनकी आँखों में मृत्यु नहीं,मातृभूमि की विजय दिखती थी।जब उन्होंने मृत्यु को स्वीकार किया तो ऐसा लगा मानो कोई योद्धा कह रहा हो—“मेरा शरीर गिर सकता है,पर मेरे साहस की ध्वजा नहीं
रामप्रसाद बिस्मिल : वाणी का योद्धा, कलम का शूरवीर::बिस्मिल वह कवि थे जिनकी कविताएँ गोलियों की तरह चलती थींcऔर गोलियाँ कविताओं की तरह गूँजती थीं।“सरफ़रोशी की तमन्ना—”यह केवल पंक्ति नहीं,भारत की क्रांति का ब्रह्मगरुड़ था।उनकी प्रत्येक कविता में वन्दे मातरम् एक दिव्य-सूत्र की तरह गूँजता था।काकोरी कांड में उनका नेतृत्व,उनकी निर्भीकता,उनकी जेल-डायरी—सब कुछ इस बात का प्रमाण हैं कि कविताएँ कभी-कभी फाँसी के तख़्ते भी जीत लेती हैं.
वन्दे मातरम् : स्वतंत्रता-संग्राम की आत्मा::
यदि कोई पूछे—“क्या चीज़ थी जिसने दासता से त्रस्त भारत को जगाया?”उत्तर एक ही है—वन्दे मातरम् की अदृश्य अग्नि।यह गीत–आम जनता को शक्ति देता था,क्रांतिकारियों को संकल्प,और अत्याचारियों को भय।अंग्रेजों ने इसका उच्चारण रोक दिया,क्योंकि वे जानते थे—जब यह गीत गूँजता है,तो भारत जाग उठता है।और जागा हुआ भारत कभी पराजित नहीं हो सकता।
वन्दे मातरम्—अमरता का महामंत्र::
इस गीत के प्रत्येक शब्द में अमरता,वीरता,त्याग,और स्वाभिमान यह एक महायज्ञ की तरह स्थापित है। जब हम वन्दे मातरम् कहते हैं,तो यह केवल आवाज़ नहीं होती—यह उन क्रांतिकारियों के रक्त से निकला हुआ इतिहास–सत्य है।आज़ाद का तेज,भगत का विचार,सुखदेव का मौन-बलिदान,राजगुरु का साहस,और बिस्मिल की कविता—सब इस गीत में अनंत हो गए हैं।
वन्देमातरम, वन्देमातरम, वन्देमातरम

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