शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

राजा गणपति आर होना आसान नहीं, चोरी का धन और सम्मान अस्थाई होता है

 






यह एक भावनात्मक और सामाजिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली विषय है — जिसमें सिद्धार्थनगर के जिलाधिकारी राजा गणपति के तबादले को केंद्र में रखते हुए जनता, राजनीतिक वर्ग और प्रशासनिक नैतिकता पर चिंतन की आवश्यकता पर बल दिया गया है। नीचे इसी आधार पर एक प्रेरक संपादकीय लिखा गया है, जिसमें आलोचनात्मक दृष्टि और विचारशीलता का संतुलन रखा गया है।संपादकीय: सादगी, ईमानदारी और सिद्धार्थनगर की आत्मा सिद्धार्थनगर—यह नाम ही एक दर्शन है, जो बुद्ध की करुणा, सत्य और संयम से जुड़ा है। परंतु आज, जब वहां के जिलाधिकारी राजा गणपति का तबादला हुआ, तो लोगों की प्रतिक्रियाओं ने जिले के नैतिक चरित्र पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया।

 कौन खुश है और कौन दुखी—यह अब केवल भावनाओं का नहीं, बल्कि ईमानदारी बनाम स्वार्थ का पैमाना बन गया है।राजा गणपति का कार्यकाल सिद्धार्थनगर में प्रशासनिक सादगी, नैतिकता और कर्मठता का पर्याय था। उन्होंने दिखाया कि सरकारी पद शक्ति प्रदर्शन का नहीं, सेवा का दायित्व है। जहां लोगों की भावनाएं घुटती हैं, वहां उन्होंने खुलकर संवाद और समाधान का माहौल बनाया। यह स्वाभाविक है कि ईमानदारी के सामने बेईमानी असहज महसूस करती है—और आज जो लोग उनके तबादले से प्रसन्न हैं, उन्हें स्वयं से प्रश्न पूछना चाहिए कि सच्चाई से उनका रिश्ता क्या है।

हमारा समाज तब गिरता है जब कर्मठ अधिकारी को राजनीति के तराजू पर तोला जाता है। सांसद, विधायक, प्रमुख या कर्मचारी—यदि सबका प्रयास व्यक्तिगत लाभ तक सिमट जाए, तो सिद्धार्थनगर जैसा धरातल बुद्ध के नाम का बोझ ढोता रह जाएगा, पर उसके विचारों का प्रतिनिधि नहीं बन पाएगा।गणपति जैसे अधिकारी जहां भी रहेंगे, वहां प्रकाश फैलेगा। जैसे आकाश में एक चंद्रमा अपने उजाले से अनगिनत तारों की उपेक्षा को भी अर्थ देता है। सवाल यह है कि क्या सिद्धार्थनगर उस उजाले को पहचानने की विनम्रता रखता है?यह समय है कि हम चित्त में झांकेँ—कि हम सच में विकास चाहते हैं या सिर्फ पदों और पैसों के हड़पने की राजनीति। गणपति का जाना सिर्फ एक प्रशासनिक तथ्य नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक आत्ममंथन का अवसर है। सत्य और सादगी आज भी हारते नहीं, हम ही उन्हें अपनाने से डरते हैं।

सजा काट कर लौटे बहुचर्चित नीतीश कटारा हत्याकांड के सुपारी किलर सुखदेव की सड़क हादसे में मौत

 सजा काट कर लौटे बहुचर्चित नीतीश कटारा हत्याकांड के सुपारी किलर सुखदेव की सड़क हादसे में मौत!


मनोज श्रीवास्तव/लखनऊ। 


बहुचर्चित नीतीश कटारा हत्याकांड में 20 साल की सजा काटने के बाद चार माह से रिहा हुए कॉन्ट्रैक्ट किलर सुखदेव यादव उर्फ पहलवान की सड़क हादसे में मौत हो गई है। कुशीनगर जिले के तुर्क पट्टी इलाके में एक सड़क हादसे में उसकी जान चली गई। सुखदेव अपने दो साथियों के साथ बाइक से जा रहा था।तभी सामने से आ रही कार ने टक्कर मार दिया, उसके दोनों साथी गंभीर रूप से घायल हैं।हादसे में घायल हुए लोगों की पहचान विजय गुप्ता और भागवत सिंह के रूप में हुई है। दोनों का एक स्थानीय अस्पताल में इलाज चल रहा है। पुलिस ने हादसे में शामिल कार को हमने जब्त कर लिया है।मंगलवार की शाम को एक महिंद्रा स्कॉर्पियो और मोटरसाइकिल में भिड़ंत हुई है। जिसमें तीन लोग घायल हुए हैं, जिनमें एक व्यक्ति की हालत गंभीर बताई जा गई थी। चश्मदीदों ने बताया कि स्कॉर्पियो विपरीत दिशा से आ रही थी और टक्कर के बाद कुछ दूरी जाकर रुक गई। ग्रामीणों ने दौड़कर उसको रोका और उसके यात्रियों को बाहर निकाला। थोड़ी ही देर में पुलिस भी पहुंच गई और घायलों को नजदीकी अस्पताल ले जाया गया। लेकिन डॉक्टरों ने सुखदेव यादव को मृत घोषित कर दिया।


सुखदेव यादव का नाम देश के सबसे हाई-प्रोफाइल मर्डर केस में से एक नीतीश कटारा हत्याकांड से जुड़ा रहा। 23 साल के बिजनेस एग्जीक्यूटिव नीतीश कटारा पूर्व सांसद डी.पी. यादव की बेटी और विकास यादव की बहन भारती यादव के साथ रिलेशनशिप में थे। लेकिन परिवार इस रिश्ते के खिलाफ था। इसी नाराजगी में विकास यादव और उसके चचेरे भाई विशाल यादव ने साल 2002 में नीतीश का अपहरण कर लिया। तीन दिन बाद बुलंदशहर के पास पुलिस को उसका जला हुआ शव मिला था। इस हत्याकांड ने पूरे देश को झकझोर दिया था। इस कांड को अंजाम देने में विकास और विशाल के साथ सुखदेव की भूमिका बहुत अहम थी। उसे ही नीतीश की हत्या की सुपारी दी गई थी।उसने विकास और विशाल के साथ मिलकर इस वारदात को किया था। दिल्ली की एक फास्ट-ट्रैक कोर्ट ने 2008 में विकास और विशाल को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। सुखदेव यादव भी अपहरण और हत्या की साजिश में शामिल पाया गया।कोर्ट ने उसे 20 साल की सजा सुनाई थी। दिल्ली हाई कोर्ट ने साल 2014 में इस सजा को बरकरार रखा। दो साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी विकास यादव और विशाल यादव की सजा पर मुहर लगाते हुए बिना किसी छूट के 25 साल की कैद की पुष्टि कर दी।जबकि सुखदेव यादव को तय अवधि यानी 20 साल की सजा दी गई थी।



सजा पूरी होने के बाद सुखदेव यादव ने पैरोल के लिए दिल्ली हाई कोर्ट में अर्जी दी, लेकिन वह खारिज हो गई। इसके बाद उसने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान पाया कि सुखदेव पहले ही 20 साल की जेल की सजा पूरी कर चुका है और उसे रिहा किया जाना चाहिए। दिल्ली सरकार ने विरोध करते हुए कहा कि जब तक सरकार रिमिशन (छूट) नहीं देती, तब तक रिहाई संभव नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि जब सजा एक तय समय के लिए दी गई हो, जैसे इस मामले में 20 साल, तो रिमिशन की जरूरत नहीं होती। कोर्ट ने आदेश दिया कि सजा पूरी हो चुकी है, इसलिए सुखदेव की रिहाई में कोई बाधा नहीं है। हालांकि, नीतीश कटारा की मां ने अगस्त 2024 में सुखदेव की रिहाई का खुलकर विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि यह फैसला उनके बेटे की आत्मा के साथ अन्याय है।इसके बावजूद कानून के मुताबिक सुखदेव यादव को रिहा कर दिया गया था। जेल से बाहर निकले कुछ ही महीनों के बाद ही वही सुखदेव, जिसने कभी किसी की जान ली थी, अब खुद सड़क पर मौत का शिकार बन गया। पुलिस ने उस कार को जब्त कर लिया है। लेकिन ड्राइवर मौके से फरार है। इस मामले में अभी तक औपचारिक शिकायत नहीं दी गई है।

प्रथम प्रधानमंत्री,गाँधी, पटेल, डॉ अम्बेडकर या जेपी होते तो?

 

प्रथम प्रधानमंत्री,गाँधी, पटेल, डॉ अम्बेडकर या जेपी होते तो?
नमन लौह पुरुष!
















यह विषय भारतीय स्वतंत्रता के बाद की उस ऐतिहासिक घड़ी से जुड़ा है जब नए भारत की बुनियाद रखी जा रही थी। यदि महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण, डॉ. भीमराव अंबेडकर या सरदार वल्लभभाई पटेल में से कोई एक स्वतंत्र भारत का प्रथम प्रधानमंत्री बनता, तो देश की दिशा और दशा अनेक रूपों में भिन्न हो सकती थी। विशेष रूप से यह विचार कि शायद भारत विभाजन का दंश नहीं झेलता और आतंकवाद जैसी स्थितियाँ उत्पन्न नहीं होतीं—ऐतिहासिक विश्लेषण की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक है।
गांधी युग की वैकल्पिक संभावनाएँ यदि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री महात्मा गांधी होते, तो देश की राजनीतिक नीति का केंद्र बिंदु सेवा, सत्य और अहिंसा होता। गांधी सत्ता की चाह नहीं रखते थे, लेकिन यदि राष्ट्र ने उन्हें मार्गदर्शक से आगे बढ़ाकर कार्यकारी नेता बना दिया होता, तो:भारत की शासन प्रणाली अत्यधिक विकेंद्रीकृत होती। गांधी ग्राम स्वराज के प्रबल समर्थक थे।दिल्ली से नियंत्रण के बजाय, ग्राम पंचायतें और स्थानीय शासन इकाइयाँ सशक्त होतीं।धार्मिक सौहार्द की दिशा में बड़े पैमाने पर नैतिक सुधार आंदोलन प्रारंभ होता।विभाजन के समय हिंदू-मुस्लिम एकता बनाए रखने के लिए गांधी का व्यक्तिगत प्रभाव निर्णायक साबित हो सकता था।भारत का औद्योगिक ढाँचा पश्चिमी शैली पर आधारित न होकर आत्मनिर्भर कुटीर उद्योगों पर आधारित होता।

गांधी के नेतृत्व में यह संभव था कि पाकिस्तान की मांग को नैतिक और संवादमयी समाधान के माध्यम से टाला जा सके। गांधी ने अंतिम समय तक विभाजन के विरोध में आवाज बुलंद की थी। यदि निर्णय तंत्र उनके हाथ में होता, तो सीमांकन के बजाय संयुक्त भारत की कल्पना साकार हो सकती थी।जयप्रकाश नारायण की समाजवादी सोच जयप्रकाश नारायण (जेपी) स्वतंत्रता संग्राम के समाजवादी धड़े के प्रमुख नेता थे। यदि वे प्रधानमंत्री होते, तो भारत के राजनीतिक दर्शन की नींव समाजवाद और जनशक्ति पर रखी जाती।जेपी सत्ता के केंद्रीकरण के सख्त विरोधी थे। वे जन आंदोलनों के माध्यम से लोकतंत्र को जन-भागीदारी का माध्यम बनाना चाहते थे।उनके नेतृत्व में भूमि सुधार, श्रम हित संरक्षण और आर्थिक समानता को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलती।बड़े औद्योगिक घरानों की जगह सहकारी मॉडल को बढ़ावा दिया जाता।श्रीनगर, कश्मीर या पंजाब में उत्पन्न होने वाले क्षेत्रीय असंतोष का समाधान जयप्रकाश की लोकतांत्रिक संवेदना के माध्यम से संभव था।वे समाज में धार्मिक और आर्थिक असमानताओं को समाप्त करने के लिए व्यापक सामाजिक क्रांति के पक्षधर थे।जेपी का नेतृत्व भावनात्मक रूप से जनता को जोड़ने वाला था। उनके प्रधानमंत्री बनने पर भारत की लोकतांत्रिक संस्कृति और ज़मीनी सक्रियता आज कहीं अधिक परिपक्व और सशक्त होती।
डॉ. भीमराव अंबेडकर का वैचारिक नेतृत्व डॉ. अंबेडकर यदि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री होते, तो संविधानिक शासन व्यवस्था और सामाजिक न्याय के तत्व और अधिक गहराई से लागू होते।अंबेडकर ने दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के अधिकारों की जो परिकल्पना संविधान में की, वह प्रशासनिक और राजनीतिक निर्णयों में प्रत्यक्ष नीति बन जाती।भारत की शिक्षा नीति ज्ञान आधारित, तकनीकी और व्यावसायिक सशक्तिकरण पर केंद्रित होती।पाकिस्तान बनने के पीछे जो धार्मिक मतभेद और असमानता की भावना थी, उसे अंबेडकर तर्कपूर्ण और कानूनी आधार पर नियंत्रित कर सकते थे। वे समान नागरिकता और समान अधिकारों के प्रवक्ता थे।अंबेडकर के नेतृत्व में भारत एक मजबूत सामाजिक लोकतंत्र के रूप में उभरता, जिसमें किसी वर्ग या मज़हब के नाम पर राजनीति नहीं होती।आतंकवाद जैसी समस्या, जो असमानता और अलगाव की भावना से जन्म लेती है, उनका शासन उस मानसिकता को ही समाप्त कर देता।डॉ. अंबेडकर का शासन बोधि वृक्ष की तरह सामाजिक समरसता, शिक्षा और आर्थिक सशक्तिकरण पर टिका होता, न कि राजनीतिक नारेबाज़ी पर।
सरदार वल्लभभाई पटेल का राष्ट्रनिर्माणभारत के ‘लौह पुरुष’ सरदार पटेल यदि प्रथम प्रधानमंत्री होते, तो भारत का राजनीतिक नक्शा और रणनीतिक स्थिति दोनों अत्यंत सुदृढ़ होते।उन्होंने 562 रियासतों के एकीकरण का जो कार्य गृहमंत्री रहते किया, वह राष्ट्र के प्रति उनकी प्रशासनिक और संगठनात्मक क्षमता को प्रमाणित करता है।प्रधानमंत्री के रूप में वे पाकिस्तान के साथ समझौते में भावनाओं के बजाय तर्क और सख्ती दिखाते।कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ जैसे मुद्दों पर उनका रुख मजबूत होता, जिससे इन क्षेत्रों में भविष्य की अस्थिरता कम होती।सरदार पटेल की प्राथमिकता राष्ट्रीय सुरक्षा, प्रशासनिक अनुशासन और राजनीतिक एकता होती।वे धार्मिक या भाषायी भावनाओं के बजाय भारत के एक अखंड राजनीतिक ढांचे को प्राथमिकता देते।यदि वे प्रधानमंत्री बनते, तो यह लगभग सुनिश्चित था कि विभाजन वैसा न होता जैसा हुआ। यदि विभाजन होता भी, तो सीमाएं और समझौते अधिक तटस्थ और दीर्घकालिक दृष्टि से तैयार होते। परिणामस्वरूप, पंजाब और कश्मीर में बाद के दशकों में जो आतंकवाद और अलगाववाद पनपा, उसकी संभावना बहुत सीमित रह जाती।संभावित ऐतिहासिक परिणाम 
यदि इन चारों में से कोई भी नेता स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री होता, तो कई ऐतिहासिक परिणाम अलग होते:विभाजन की आशंका घटती, क्योंकि गांधी और पटेल दोनों ही एकीकृत भारत के पक्षधर थे।धार्मिक राजनीति कमजोर पड़ती, क्योंकि अंबेडकर और जेपी समाज आधारित समानता पर बल देते थे।कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद उभरने के कारण ही उत्पन्न न होते, क्योंकि प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर पहले ही रोकथाम होती।लोकतंत्र का स्वरूप अधिक सहभागी और मूल्य आधारित होता, सिर्फ चुनावी नहीं।गरीबी और जातिगत विषमता तेजी से घट सकती थी, विशेषकर अंबेडकर और जेपी के नेतृत्व में।
विशेषकर  स्वतंत्रता के बाद का नेतृत्व यदि गांधी, जयप्रकाश नारायण, डॉ. अंबेडकर या सरदार पटेल में से किसी के हाथ में होता, तो भारतीय राज्य का चरित्र नैतिक, संगठनात्मक और सामाजिक दृष्टि से कहीं अधिक संतुलित होता। विभाजन की त्रासदी से बचना पूरी तरह संभव न सही, लेकिन उसका स्वरूप और मानसिक प्रभाव अत्यंत सीमित होता। आतंकवाद और धार्मिक विघटन की जड़ें, जो भारत-पाक विभाजन से उपजीं, शायद कभी इतनी मजबूत न होतीं।इन महान नेताओं की दृष्टि एक व्यापक, न्यायसंगत और समरस भारत की थी। स्वतंत्र भारत को यदि उस दृष्टि की दिशा मिलती, तो आज का भारत शायद अधिक शांतिपूर्ण, सामर्थ्यवान और विश्व के नैतिक नेतृत्व में अग्रणी होता।

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

सड़क हादसे में श्रद्धालुओं से भरी ट्रैवलर को ट्रक ने मारी टक्कर, दस से अधिक घायल








जौनपुर। लखनऊ-वाराणसी राष्ट्रीय राजमार्ग पर सीहीपुर स्थित श्री कृष्णा इंटरनेशनल स्कूल के पास श्रद्धालुओं से भरी एक फोर्स ट्रैवलर गाड़ी को पीछे से तेज रफ्तार ट्रक ने टक्कर मार दी। हादसे में 10 से अधिक श्रद्धालु घायल हो गए। टक्कर इतनी भीषण थी कि वाहन के पुर्जे सड़क पर बिखर गए और ट्रैवलर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई।दुर्घटनाग्रस्त वाहन आरएस टूर एंड ट्रैवल्स के नाम से पंजीकृत बताया गया है। इसमें आंध्र प्रदेश से आए श्रद्धालु धार्मिक यात्रा पर थे। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, ट्रक चालक की लापरवाही या अचानक ब्रेक लगाने के कारण यह दुर्घटना हुई।

सूचना मिलते ही पुलिस मौके पर पहुंची, घायलों को नजदीकी अस्पताल भेजवाया और मार्ग पर यातायात बहाल कराया। ट्रक चालक फरार बताया जा रहा है, जिसकी तलाश जारी है। यह घटना राष्ट्रीय राजमार्गों पर यात्री सुरक्षा और रात में भारी वाहनों द्वारा बरती जा रही लापरवाही पर गंभीर सवाल खड़े करती है।क्या आप चाहेंगे कि मैं इस खबर के लिए एक प्रभावशाली शीर्षक और बाइलाइन भी जोड़ दूं?

. पी. पी. मिश्र को ‘बेस्ट फिजिशियन’ अवॉर्ड — स्वास्थ्य सेवाओं में बस्ती का ऊँचा हुआ मान

 . पी. पी. मिश्र को ‘बेस्ट फिजिशियन’ अवॉर्ड — स्वास्थ्य सेवाओं में बस्ती का ऊँचा हुआ मान

लखनऊ/बस्ती।









 उत्तर प्रदेश सरकार के उप मुख्यमंत्री एवं स्वास्थ्य मंत्री माननीय बृजेश पाठक द्वारा बस्ती जनपद स्थित श्री कृष्णा मिशन हॉस्पिटल के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. पी. पी. मिश्र को “जनपद के बेस्ट फिजिशियन” सम्मान से सम्मानित किया गया। यह उपलब्धि न केवल डॉ. मिश्र की व्यक्तिगत उत्कृष्टता का प्रतीक है, बल्कि बस्ती जनपद की चिकित्सा सेवाओं की गुणवत्ता का भी प्रमाण है।वसंत चौधरी द्वारा समाजसेवा के भाव से स्थापित कृष्णा मिशन हॉस्पिटल ने तेरह वर्षों के भीतर जिस ऊँचाई को प्राप्त किया है, उसमें डॉ. पी. पी. मिश्र का योगदान अत्यंत उल्लेखनीय रहा है।

 अस्पताल आज पूर्वांचल तथा नेपाल सीमा तक विस्तृत जनमानस के लिए आशा और विश्वास का केंद्र बन चुका है। उच्च चिकित्सकीय सुविधा, अनुशासन और समर्पण के कारण यह संस्थान क्षेत्रीय स्वास्थ्य व्यवस्था का उदाहरण बन गया है।डॉ. मिश्र अपनी दिन-रात की सतत सेवा, मानवीय दृष्टिकोण और रोगियों के प्रति अटूट दायित्वबोध के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने बगैर किसी प्रचार के, निस्वार्थ भाव से चिकित्सा को लोकसेवा का साधन बना दिया है। बस्ती जैसे जनपद में, जहाँ गुणवत्तापूर्ण चिकित्सकीय सेवा की आवश्यकता निरंतर बढ़ रही है, वहाँ डॉ. मिश्र का योगदान दिशादर्शक है।राजधानी लखनऊ में आयोजित समारोह में स्वास्थ्य मंत्री बृजेश पाठक ने डॉ. मिश्र को सम्मानित करते हुए कहा कि प्रदेश की चिकित्सा सेवाएं तभी सशक्त हो सकती हैं जब चिकित्सक अपने कर्तव्य को सेवा के रूप में स्वीकार करें। डॉ. मिश्र की कार्यशैली और समर्पण भाव इसी आदर्श का उदाहरण हैं.

बस्ती जनपद के नागरिकों और चिकित्सा जगत में इस सम्मान से गहरी प्रसन्नता व्यक्त की जा रही है। यह सम्मान एक चिकित्सक के रूप में डॉ. मिश्र की निष्ठा का नहीं, बल्कि बस्ती के आरोग्य और मानवीय संवेदना के प्रति उनके योगदान का सार्वजनिक स्वीकार है।

कभी शिक्षक “गुरु” कहलाता था — अब “कैंडिडेट” है। कभी वह “संस्कार” देता था — अब “सर्टिफिकेट” ढूँढता है। यह रूपांतरण शिक्षा की आत्मा पर सबसे बड़ा व्यंग्य है।

 

टीईटी का जाल या न्याय का सवाल?


— जब शिक्षक भी बन गए परीक्षा की प्रयोगशाला के प्राणी

बस्ती से उठी यह आवाज़ आज देश के लाखों शिक्षकों की पीड़ा का प्रतीक है।शिक्षक — जो समाज का निर्माता है,अब “प्रमाणपत्र” का याचक बन चुका है।

गुरुवार को उत्तर प्रदेशीय प्राथमिक शिक्षक संघ के पदाधिकारियों ने केन्द्रीय मंत्री जयन्त चौधरी को ज्ञापन सौंपकर एक साधारण, पर बेहद गम्भीर मांग रखी —
“शिक्षकों को टीईटी परीक्षा से मुक्त किया जाए।”
कारण — सर्वोच्च न्यायालय का आदेश, जिसने कहा कि शिक्षण सेवा में कार्यरत प्रत्येक शिक्षक को पात्रता परीक्षा पास करनी होगी। विवेचना : कानून और यथार्थ की टकराहट

न्यायालय का आशय स्पष्ट है — शिक्षा की गुणवत्ता बढ़े, अध्यापक योग्य हों।परन्तु जमीनी सच कुछ और कहता है।जो शिक्षक वर्षों से सेवा दे रहे हैं, जिन्होंने अनेक बार विद्यार्थियों को परीक्षा के मापदंड समझाए हैं —उन्हीं को आज पुनः एक परीक्षा का परीक्षार्थी बना दिया गया है!क्या यह गुणवत्ता सुधार है या नौकरशाही का अविश्वास?क्या अनुभवी शिक्षक की योग्यता का पैमाना केवल एक टेस्ट स्कोर होगा?यह वह प्रश्न है जो हर विद्यालय की दीवारों से टकराकर शासन के कानों तक पहुँचना चाहता है।समस्या का मूल : नीति की नकल, परिस्थिति की अनदेखी

भारत की शिक्षा नीतियाँ अक्सर संकल्प में उत्तम पर कार्यान्वयन में असंवेदनशील होती हैं।टीईटी जैसी परीक्षा का उद्देश्य था — नए अभ्यर्थियों की छंटनी और मानकीकरण।पर जब यही परीक्षा कार्यरत शिक्षकों पर लागू कर दी गई, तो यह सुधार नहीं,संवेदनहीनता बन गया।सरकारों की प्रवृत्ति रही है कि हर नई समस्या का हल “नई परीक्षा” या “नया कानून” में खोजा जाए।

परंतु शिक्षा-क्षेत्र की पीड़ा कागज़ पर नहीं, कक्षा में दिखाई देती है।
वह शिक्षक जो 15–20 वर्षों से बच्चों के भविष्य को आकार दे रहा है,उसे एक दिन कहा जाता है — “पहले अपनी पात्रता साबित करो।”यह शिक्षक का नहीं, नीति-निर्माण की दृष्टि का अवमूल्यन है। ज्ञापन और जनभावना : अभय सिंह यादव का नेतृत्व

शिक्षक नेता अभय सिंह यादव ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट कहा —
सरकार स्वयं हस्तक्षेप कर नियमों में संशोधन करे।
उनका यह आग्रह केवल एक वर्गीय मांग नहीं, बल्कि एक संस्थागत चेतावनी है —कि जब नीति व्यावहारिकता से कट जाती है, तो आंदोलन अनिवार्य हो जाता है।उन्होंने बताया कि शिक्षक काली पट्टी बाँधकर शिक्षण कार्य कर रहे हैं।यह विरोध की मर्यादित परंतु गहरी अभिव्यक्ति है —

l“काम भी करेंगे, विरोध भी करेंगे।”
यही लोकतंत्र का शिक्षक धर्म है।

 राजनीतिक संकेत : जयन्त चौधरी का आश्वासन

केंद्रीय मंत्री जयन्त चौधरी का यह कथन —प्रकरण सरकार के संज्ञान में है, शीघ्र हल निकाला जाएगा” —भारतीय प्रशासनिक संस्कृति की परिचित पंक्ति है।यह “वादा” और “विलंब” के बीच की मध्यवर्ती स्थिति है।फिर भी यह उल्लेखनीय है कि शिक्षकों की यह आवाज़ दिल्ली तक पहुँची है।

आज का ज्ञापन केवल एक प्रशासनिक दस्तावेज नहीं,
बल्कि उस मानसिक बेचैनी का प्रतीक है जो शिक्षक वर्ग वर्षों से महसूस कर रहा है।

 शिक्षक और परीक्षा का विरोधाभास

विडम्बना यह है कि जो समाज के विद्यार्थियों को परीक्षा के लिए तैयार करता है,उसे ही अब अपनी नौकरी बचाने के लिए परीक्षा देनी पड़ रही है।यह विरोधाभास केवल प्रशासनिक नहीं, दार्शनिक भी है।

कभी शिक्षक “गुरु” कहलाता था — अब “कैंडिडेट” है।
कभी वह “संस्कार” देता था — अब “सर्टिफिकेट” ढूँढता है।
यह रूपांतरण शिक्षा की आत्मा पर सबसे बड़ा व्यंग्य है।

 कौटिल्य दृष्टि : राज्य जब शिक्षक को संदेह की दृष्टि से देखे…

कौटिल्य ने “अर्थशास्त्र” में लिखा था —

“राज्य का स्थायित्व शिक्षित वर्ग की निष्ठा पर निर्भर है।”

यदि वही वर्ग असंतुष्ट हो, और उसे बार-बार अपनी पात्रता सिद्ध करनी पड़े,
तो यह शासन की नीति-संदेह की स्थिति है।
शासन को चाहिए कि वह सुधार और सम्मान में भेद करे।
सुधार वह है जो योग्यता बढ़ाए;
संदेह वह है जो योग्यता को अपमानित करे।

टीईटी की बाध्यता आज शिक्षा-सुधार नहीं, शिक्षक-संदेह का प्रतीक बन गई है

 समाधान : संशोधन नहीं, संवेदनशीलता चाहिए

सरकार चाहे तो नया कानून लाए —
जिसमें कहा जाए कि जिन शिक्षकों की सेवा अवधि निश्चित सीमा से अधिक है,
उन्हें “स्वतः पात्र” माना जाए।
यह न तो न्यायालय की अवमानना होगी,
न ही शिक्षक सम्मान का हनन।
बल्कि यह नीति की मानवीय व्याख्या होगी।

यह याद रखना होगा —
विद्यालय केवल भवन नहीं, शिक्षक के आचरण से बनते हैं।
और जब शिक्षक ही असुरक्षित महसूस करेगा,
तो शिक्षा का वातावरण कैसे सुरक्षित रहेगा?

शिक्षक के सम्मान से ही राष्ट्र का उत्थान

बस्ती से चला यह ज्ञापन केवल एक जिला नहीं, एक दिशा दिखाता है।
यह चेतावनी है कि यदि शिक्षा-व्यवस्था का पहिया अधिक नियमों में फँसा,
तो उसका केन्द्र — शिक्षक — निरुत्साहित हो जाएगा।

शिक्षक को प्रमाणपत्र नहीं, सम्मान का प्रमाण चाहिए।
नीति को परीक्षा नहीं, विश्वास की नीति चाहिए.

परिवार का मर्डर करो या अपनी जान दो-आत्माओं से परेशान बच्चे ने सुसाइड कर लिया!

 परिवार का मर्डर करो या अपनी जान दो-आत्माओं से परेशान बच्चे ने सुसाइड कर लिया!


मनोज श्रीवास्तव/लखनऊ।

मनोवेज्ञानिक, डॉ देवाशीष


जब विज्ञान शिखर पर की अग्रसर है तब भी भ्रांति की चपेट में लोग आकर जान दे दें तो इसको क्या कहेंगे। कानपुर में ऐसा ही एक मामला प्रकाश में आया है। जब परिवार के लोग छठ मना रहे थे, इकलौते बेटे ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है। छात्र के पास से बरामद सुसाइड नोट में आत्माओं की तरफ से परिवार वालों की हत्या या आत्महत्या करने की धमकी देने की बात लिखी है। मौके पर पहुंची पुलिस ने बरामद सुसाइड नोट को कब्जे में ले लिया है और जांच पड़ताल में जुटी है। सुसाइड नोट में लिखा है कि छात्र को कुछ लोगों की छवि दिखाई देती थी। जो उसे परिवार वालों की हत्या करने के लिए उकसाती थी। वह छात्र से कहती थी कि या तो परिवार वालों को मार दो या खुद मर जाओ। घटना की जानकारी के बाद परिवार में कोहराम मचा हुआ है।प्राप्त जानकारी के अनुसार पुराना कानपुर के कोहना में आलोक मिश्रा पत्नी दिव्या, बेटी मान्या और इकलौते बेटे 16 वर्षीय आरव के साथ रहते हैं। परिजनों के अनुसार आरव ने दीपावली से पहले अपनी बहन को बताया कि उसे कुछ लोगों की छवि दिखाई देती है। जो उसे कहते हैं की पूरे परिवार को मार डालो या खुद मर जाओ। हालांकि परिवार ने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया।


इसके बाद छात्र के माता-पिता छठ पूजा के लिए भागलपुर चले गए। सोमवार को उनकी बेटी कॉलेज गई थी। इसी दौरान आरव घर पर अपनी दादी के साथ था। देर शाम को दादी उसे बुलाने गई तो दरवाजा अंदर से बंद था। आवाज देने के बाद भी दरवाजा नहीं खुला। अनहोनी की आशंका पर उन्होंने पड़ोसियों की मदद से दरवाजा तोड़ा तो अंदर का नजारा देखकर चीख पड़ी। कमरे में पंखे के सहारे आरव का शव लटकता हुआ मिला। तत्काल उन्होंने घटना की जानकारी परिजनों और पुलिस को दी। इकलौते बेटे की छठ के दिन मौत की सूचना से परिवार में कोहराम मच गया। मौके पर पहुंची पुलिस ने फोरेंसिक टीम बुलाकर जांच पड़ताल की। इस दौरान पुलिस को छात्र के पास से एक सुसाइड नोट बरामद हुआ। इसमें भी वही बात लिखी थी जो उसने बहन को बताई थी। इसमें भी उसने जिक्र किया है कि कुछ लोगों की उसे छवि दिखाई देती हैं। छवि उससे कहती है कि अपने परिवार को मार डालो या खुद मर जाओ। कोहना थाना प्रभारी विनय तिवारी ने बताया कि छात्र ने आत्महत्या की है। उसके पास से बरामद सुसाइड नोट में आत्माओं द्वारा परेशान करने का जिक्र है। फिलहाल मामले की जांच पड़ताल की जा रही है। मरने वाला छात्र जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा का नाती (भांजे का बेटा) लगता था। आरव के पिता आलोक मिश्रा उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के सगे भांजे हैं।


इस संदर्भ में बलरामपुर चिकित्सालय के चिकित्सा अधीक्षक व वरिष्ठ मनो रोग विशेषज्ञ डॉ देवाशीष शुक्ल का कहना है कि जब बच्चे ने परिवार में चर्चा किया तो उसे समय पर मनो चिकित्सक डॉक्टर के पास लेकर जाना था। बच्चा कल्पनाओं में डूबता चला गया। उसे यह बताने की जरूरत थी कि आत्मा जैसी कोई चीज नहीं आती-जाती। उसी दिशा में सोचते-सोचते बच्चा अवसाद में चला गया। परिवार को उसकी समस्या पर ध्यान देना था। उसकी हरकतों पर सबको दृष्टि रखना था। तब पता चलता, सोने पर वह बार-बार चौंक तो नहीं जाता, जगने पर भयभीत तो नहीं रहता था। उसके संपर्क में रह कर उससे बात-चीत कर उसके काल्पनिक डर को निकालना सबको मिल कर करना था।साथ ही उपयुक्त चिकत्सक की दवाओं को नियमित खिलाने से धीरे-धीरे वह सामान्य स्थिति में लौटता। इस तरह की बीमारी में कई चरण में इलाज होता है। थोड़ा लंबे समय तक दवायें चलती हैं। समस्याओं को लेकर भगने नहीं जगने की जरूरत है।

संवेदना पूर्ण

सभ्यता को" लगाउट "करती रील संस्कृति #रील_से_ऋषि तक | कौटिल्य का भारत "विचार से वायरल तक — भारत का मनोवैज्ञानिक संक्रमण"









रील संस्कृति बनाम ऋषि संस्कृति : मनोरंजन से मनोविज्ञान तक


(कौटिल्य का भारत – सम्पादकीय विशेषांक)

कभी ऋषि अपने मन को साधते थे, आज के मनुष्य ने मोबाइल को साध लिया है — और वही उसकी आत्मा बन गई है। जिस देश में पहले “श्रवण” साधना थी, वहाँ अब “स्क्रॉलिंग” साधना है।यह युग विचार का नहीं, व्यू का है; तप का नहीं, ट्रेंड का है।आज भारत के युवा का मस्तिष्क स्क्रीन पर है, और उसकी आत्मा रील के साउंड ट्रैक में गुम है। हमने गंगा की शांति छोड़ दी, और इंस्टाग्राम की स्टोरी पकड़ ली।सभ्यता के सूर्य से आँखें चुराकर हम रिंग लाइट में सुख खोज रहे हैं — यही आधुनिकता का भारतीय संस्करण है।

 रील संस्कृति : जहां गहराई का मज़ाक और गाली का ग्लैमर,रील संस्कृति वह जगह है जहाँ ज्ञान को ‘क्रिंज’ और अज्ञान को ‘कूल’ कहा जाता है।जहाँ लोग “गीता” के श्लोक पर नहीं रुकते, पर “ट्रेंडिंग बीट” पर उछल पड़ते हैं।रील संस्कृति एक अदृश्य साम्राज्य है —जहाँ राजा है एल्गोरिद्म, प्रजा है डोपामिन की गुलाम,
और संविधान है — “देखो, दिखाओ, भूल जाओ।”कभी लोग अपने विचार लिखते थे; अब अपने होंठों की नकल करते हैं।कभी लोग सत्य खोजते थे; अब फिल्टर चुनते हैं।यह “रील राष्ट्र” का नया धर्म है — जहाँ गंभीरता अपराध है, और मूर्खता मनोरंजन।


ऋषि संस्कृति : जहां शब्द मंत्र है, मौन भी वाणी,वहीं दूसरी ओर ऋषि संस्कृति है —जो रील के ‘रैंडम साउंड’ की नहीं, ओंकार की नाद की उपज थी।जहाँ “देखना” नहीं, “देखना सीखना” था।
जहाँ कैमरा नहीं था, पर दृष्टि थी।ऋषि संस्कृति कहती थी —“अहम् ब्रह्मास्मि” — मैं ही वह सत्य हूँ।
और रील संस्कृति कहती है —“अहम् वायरलास्मि” — मैं ही वह ट्रेंड हूँ।


ऋषि संस्कृति ने मनुष्य को आत्मा का दर्पण दिया था,रील संस्कृति ने उसे सेल्फी कैमरा दे दिया।एक से आत्मबोध हुआ, दूसरे से आत्मविस्मृति।

 मनोविज्ञान : रील का नशा, ऋषि की निश्चलता,रील संस्कृति ने आज के युवाओं को “डोपामिन ड्रोन” बना दिया है। हर स्क्रॉल पर दिमाग को झूठा सुख मिलता है — जैसे अफीम का कश।
सोशल मीडिया अब कोई प्लेटफॉर्म नहीं, नशाखोरी की प्रयोगशाला है।
हर ‘लाइक’ एक डोपामिन इंजेक्शन है। परंतु जब यह नशा उतरता है, तो भीतर खालीपन, बेचैनी और दिशाहीनता का रेगिस्तान रह जाता है।

इसके उलट ऋषि संस्कृति का आनंद भीतर से आता था।वह ध्यान से उत्पन्न होता था, ध्वनि से नहीं।
ऋषि जब मौन होता था, तब भी ब्रह्म बोलता था।वह अपने भीतर वह “रील” देखता था जो अनंत काल तक चलती है —आत्मा की रील, जो कभी बफर नहीं होती।


 समाजशास्त्र : जनसंस्कृति बनाम लोकसंस्कृति,रील संस्कृति ने लोकसंस्कृति को निगल लिया है।
अब लोकगीत नहीं, “रीमिक्स” है;लोकनृत्य नहीं, “ट्रांज़िशन” है;लोकसंवाद नहीं, “कमेंट सेक्शन” है।
जहाँ कभी चौपालों में विवेक का संवाद होता था,वहाँ अब 15 सेकंड की हँसी है — और उतनी ही जल्दी विस्मृति भी।आज का समाज बुद्धि के बजाए बैकग्राउंड म्यूज़िक से संचालित हो रहा है।

ऋषि संस्कृति का लोक माटी से जुड़ा था,रील संस्कृति का लोक “मार्केटिंग” से जुड़ा है।ऋषि संस्कृति ने विविधता से एकता बनाई,रील संस्कृति ने एकरूपता से अस्मिता मिटजाएगी.

रील संस्कृति का ईश्वर कैमरा है —वह सब कुछ दिखाती है, पर कुछ भी नहीं सिखाती।ऋषि संस्कृति का ईश्वर दृष्टा है — जो भीतर देखता है।


रील संस्कृति का सूत्र है —“जो दिखता है वही बिकता है।”
ऋषि संस्कृति का सूत्र था —“जो नहीं दिखता, वही टिकता है।”

दृश्य का आकर्षण अस्थायी है, दृष्टि की साधना शाश्वत।इसलिए ऋषि संस्कृति टिकेगी,
रील संस्कृति थकेगी।
भारत का धर्म : तकनीक को तप में बदलो

कौटिल्य ने कहा है — “जिस साधन से राज्य बर्बाद हो सकता है, उसी से राज्य संभल भी सकता है।”यह सूत्र रील संस्कृति पर भी लागू होता है।यदि रील को हम ज्ञान का माध्यम बनाएं —संस्कृति, शास्त्र, परंपरा और राष्ट्र-चेतना का सेतु —तो यही माध्यम डिजिटल आश्रम बन सकता है।


भारत की सनातन दृष्टि हर साधन में साधना देखती है।हमने अग्नि को पूजा में  , अब रील को प्रबोधन में बदलने की जिम्मेदारी हमारी है।रील को “राग” दो, “राष्ट्र” दो, “रस” दो —
तब वह ऋषि संस्कृति की उत्तराधिकारी बन सकती है।


  जब सभ्यता स्क्रॉल करती है,सभ्यता तब नहीं मरती जब युद्ध होता है,वह तब मरती है जब मनुष्य सोचने की क्षमता खो देता है।आज वही हो रहा है।रील संस्कृति ने हमारे समय का स्मृति-दहन कर दिया है।जो समाज 108 उपनिषदों को संभालता था, वह अब 108 सेकंड तक ध्यान नहीं रख पाता।पर आशा शेष है —क्योंकि इस भूमि में अब भी वे लोग हैं जो जानते हैं कि“रील नहीं, ऋषि ही वास्तविक इन्फ्लुएंसर है।”

 एक देश जो ‘ऋषि-मुनियों’ से बना था,यदि वही ‘रील-मेकर्स’ से चलने लगे,तो समझो कि सभ्यता ने स्वयं को लॉगआउट कर दिया।


अब भारत को फिर से लॉगइन करना है —रील में नहीं, ऋषि के रसायन में।
व्यूज़ से नहीं, विवेक से।और यही “कौटिल्य का भारत” का संकल्प है —
रील की रोशनी में भी ऋषि की ज्योति जगाना।


कांग्रेस लोकतंत्र की पार्टी या परिवार की प्रॉपर्टी?




कांग्रेस : लोकतंत्र की पार्टी या परिवार की प्रॉपर्टी?
भावेश
भारत का लोकतंत्र आज विश्व का सबसे बड़ा और सबसे जटिल लोकतंत्र कहा जाता है, परन्तु इसी लोकतंत्र की जड़ों में जो राजनीतिक दल हैं — वही कई बार अपने भीतर लोकतांत्रिक आचरण से सबसे अधिक दूर दिखाई देते हैं। कांग्रेस पार्टी इसका सबसे बड़ा उदाहरण बन चुकी है। एक समय जो संगठन स्वतंत्रता संग्राम का पर्याय था, आज वह लोकतंत्र का नहीं बल्कि “वंशतंत्र” का प्रतीक बन गया है।

1. कांग्रेस का मूल स्वरूप और वैधानिक स्थिति


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) को 1885 में एक “सार्वजनिक संगठन” के रूप में स्थापित किया गया था, जिसका उद्देश्य था — ब्रिटिश शासन से भारत की राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित कराना। बाद में यही संगठन स्वतंत्रता संग्राम की रीढ़ बना और स्वतंत्र भारत के पहले शासन की जननी भी।क़ानूनी रूप से कांग्रेस आज भी “सोसाइटीज़ रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860” के अंतर्गत पंजीकृत संस्था है, जिसे लोक प्रदर्शित अधिनियम (Public Representation Act, 1951) के अंतर्गत एक राजनीतिक दल के रूप में मान्यता प्राप्त है। परंतु व्यवहारिक स्तर पर कांग्रेस पार्टी का संचालन जिस प्रकार होता है, वह किसी लोकतांत्रिक संस्था की नहीं, बल्कि एक प्रोपराइटरशिप फर्म की भाँति प्रतीत होता है — जहाँ सब निर्णय एक व्यक्ति या परिवार के आदेश पर निर्भर होते हैं।


2. लोकतंत्र से वंशतंत्र तक का संक्रमण


स्वतंत्रता के पश्चात् पंडित नेहरू से लेकर सोनिया गांधी तक कांग्रेस की कमान एक ही परिवार के इर्द-गिर्द घूमती रही है। यह सिलसिला इतना गहरा हो गया कि पार्टी में नेतृत्व का अर्थ “गांधी परिवार की स्वीकृति” बन गया।

नेहरू के बाद इंदिरा गांधी,इंदिरा के बाद राजीव गांधी,

राजीव के बाद सोनिया गांधी,और आज राहुल गांधी —


यह परंपरा किसी लोकतांत्रिक चुनाव या वैचारिक प्रतिस्पर्धा का परिणाम नहीं, बल्कि वंशानुक्रम की राजनीति का द्योतक है।

पार्टी संविधान में आंतरिक चुनाव की व्यवस्था अवश्य है, परंतु व्यवहार में न तो ईमानदार मतगणना होती है, न स्वतंत्र प्रत्याशी खड़े होते हैं। अधिकांश पदाधिकारी मनोनीत किए जाते हैं — परिवार की इच्छा से। इसीलिए कहा जा सकता है कि कांग्रेस एक “registered democracy” नहीं, बल्कि एक “hereditary corporation” बन चुकी है।

3. कांग्रेस और जनता के बीच दूरी


आज कांग्रेस का संकट केवल चुनावी नहीं, वैचारिक भी है।वह भारत के बदलते सामाजिक–सांस्कृतिक मानस को समझ नहीं पाई।1947 के बाद भी उसने औपनिवेशिक मानसिकता को नहीं छोड़ा। उसकी नीतियाँ ‘राज्य सर्वोपरि’ दृष्टिकोण पर टिकी रहीं, जबकि जनता अब ‘जन सर्वोपरि’ की आकांक्षा रखती है।


कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं में भी जमीनी जुड़ाव का अभाव है। पार्टी का ढांचा दिल्ली-केंद्रित हो गया है, जबकि भारत की राजनीति अब प्रादेशिक अस्मिताओं और स्थानीय नेतृत्व के इर्द-गिर्द घूम रही है.

4. लोक प्रदर्शित अधिनियम बनाम वास्तविक आचरण


लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (Representation of the People Act, 1951) राजनीतिक दलों को पारदर्शिता, वित्तीय जवाबदेही और आंतरिक लोकतंत्र की अपेक्षा करता है। निर्वाचन आयोग ने बार-बार सभी दलों से आंतरिक चुनावों की रिपोर्ट मांगी है।परंतु कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी बार-बार “अंतरिम अध्यक्ष” या “कार्यवाहक अध्यक्ष” के नाम पर इस नियम से बच निकलती है। रिपोर्टें या तो अधूरी दी जाती हैं या दाखिल ही नहीं की जातीं। इस प्रकार कांग्रेस क़ानूनी रूप से लोक प्रदर्शित अधिनियम के अधीन होने के बावजूद व्यवहारिक रूप से “परिवार स्वामित्व वाली राजनीतिक इकाई” के रूप में काम करती है।

5. लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना

भारत में लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो दल संसद में “जनप्रतिनिधित्व” की बात करते हैं, वही अपने दलों में “आंतरिक प्रतिनिधित्व” से डरते हैं। कांग्रेस इसका चरम उदाहरण है।राहुल गांधी के भाषणों में लोकतंत्र, पारदर्शिता, संवैधानिकता के शब्द भले गूंजते हों, पर उनकी नियुक्तियाँ, फैसले और नेतृत्व की शैली “एकल स्वामित्व” की तरह हैं — जहाँ कोई असहमति न सुनी जाती है, न सहन की जाती है।


6. कांग्रेस के भविष्य की दिशा

कांग्रेस के भविष्य को तीन दिशाओं में देखा जा सकता है:

(1) आत्ममंथन और पुनर्निर्माण का रास्ता:यदि कांग्रेस ईमानदारी से संगठनात्मक चुनाव कराए, नए नेतृत्व को अवसर दे, विचारधारा को भारतीय समाज की आकांक्षाओं के अनुरूप ढाले — तो वह पुनः एक सशक्त विपक्ष के रूप में उभर सकती है।

(2) वंशतंत्र की निरंतरता:यदि परिवारवाद जारी रहा, तो कांग्रेस धीरे-धीरे केवल “नाममात्र की पार्टी” बनकर रह जाएगी। राज्यों में उसकी शाखाएँ पहले ही क्षेत्रीय दलों में विलीन होती जा रही हैं।

(3) गठबंधन–निर्भर अस्तित्व:कांग्रेस का तीसरा रास्ता यही है कि वह स्वयं सशक्त न रहते हुए भी गठबंधनों के सहारे बनी रहे — जैसा कि “INDIA” गठबंधन के रूप में दिखाई देता है।

परंतु इस स्थिति में भी नेतृत्व की विश्वसनीयता प्रश्न के घेरे में रहेगी, क्योंकि जनता अब “सत्ता में हिस्सेदारी” नहीं, “सत्ता में जवाबदेही” चाहती है।


कांग्रेस आज जिस मोड़ पर है, वहाँ उसके सामने दो ही विकल्प हैं —
या तो वह अपने भीतर लोकतंत्र को पुनः जीवित करे, या इतिहास का हिस्सा बन जाए।
कांग्रेस का संकट बाहरी नहीं, आंतरिक है। जनता अब नेताओं के वंश पर नहीं, उनके विचार और कार्यक्षमता पर भरोसा करती है।


कांग्रेस यदि सचमुच लोकतंत्र की जननी कहलाना चाहती है, तो उसे पहले स्वयं लोकतांत्रिक बनना होगा।
अन्यथा वह एक “पारिवारिक उद्यम” की तरह ही इतिहास में दर्ज हो जाएगी —
जहाँ पद चुनाव से नहीं, वंश से तय होते हैं; और विचार, नेतृत्व की जगह केवल “नाम” बनकर रह जाता है।



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संक्षेप में:

> “कांग्रेस का पुनर्जन्म तभी संभव है जब वह खुद को नेहरू–गांधी परिवार के बंधन से मुक्त कर, भारत के जनमानस से पुनः जुड़ने का साहस करे —
अन्यथा वह लोकतंत्र की पाठशाला से निकलकर, इतिहास के संग्रहालय में रखी एक ‘राजनीतिक वस्तु’ बन जाएगी।” 

"विचारों की असहमति का मतलब घृणा, हिंसा और सामूहिक दंड नहीं

 

 "विचारों की असहमति का मतलब घृणा, हिंसा और सामूहिक दंड नहीं"

राजेंद्र नाथ तिवारी










आज जब किसी मतभेद, विचार या आलोचना को लेकर लोग हिंसा के रास्ते पर उतरते हैं — हत्या की धमकियाँ, सामूहिक बलात्कार जैसी जघन्य घटनाओं की धमकी, किसी के परिवार के सामने हुलिया-निर्वासन और बलात्कार करार देने की बातें — तो यह सिर्फ़ एक अपराध नहीं बल्कि समाज की नींव पर हमला है। लोकतंत्र तभी जीवित रह सकता है जब वैचारिक असहमति को हाथापाई, बलात्कार, हत्या या समुदाय-आधारित नृशंसता में बदलने की अनुमति न दी जाए। हम दो बातें स्पष्ट कर दें: (1) जघन्य अपराधों की सख़्त से सख़्त निंदा जरूरी है; (2) दोषियों को बिना भेदभाव, कानून के तहत कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए — न कि साम्प्रदायिक बदले या धार्मिक-आधार पर अलग कानून लागू कर देना।

कानून स्पष्ट है — जब किसी के साथ बलात्कार, हत्या, धमकी या सार्वजनिक अपमान जैसा घृणास्पद अपराध होता है तो उसे स्वतः अपराध मानकर कठोर दंड का प्रावधान है। भारतीय दंड संहिता में बलात्कार, उससे जुड़े अपराध और सज़ा के प्रावधान स्पष्ट हैं (उदाहरण के लिए अनुभाग 375/376)। मृत्युदंड या कड़ी सज़ा देने की परिकल्पना भी मामलों की गंभीरता और कानून के अनुरूप तय होती है।

पर सवाल केवल सज़ा तक सीमित नहीं है — समस्या तब और घातक हो जाती है जब समुदाय, धर्मगुरु या स्थानीय शक्तिशाली लोग ऐसे अपराधों को प्रोत्साहित करें, उसे ढकने की कोशिश करें, या अपराधियों को संरक्षण दें। ऐसी स्थितियों में, अगर किसी धार्मिक गुरु, नेता या संगठन के कर्तव्य या कथित गतिविधियों से अपराध को बढ़ावा मिला या उसे छिपाने का प्रयास हुआ, तो उन व्यक्तियों/संस्थाओं पर भी कानून के तहत जवाबदेही लगनी चाहिए। आईपीसी में ऐसे कार्यों के लिए आपराधिक सहयोग, साज़िश और फेक/प्रचार से हिंसा को भड़काने वाले प्रावधान मौजूद हैं — जैसे कि 153A (धार्मिक/समुदाय के आधार पर शत्रुता बढ़ाना), 505 (जन हित में अशांति फैलाने वाले बयानों पर दंड) और साज़िश के प्रावधान। इन धाराओं के तहत किसी भी व्यक्ति को — चाहे वह खालिस धर्मगुरु हो या नेता — तब भी कड़ी कार्रवाई का सामना करना पड़ना चाहिए जब सबूत यह दिखाएँ कि उसने अपराध को प्रोत्साहित किया या संरक्षण दिया।

यहाँ हम एक महत्वपूर्ण नैतिक-कानूनी सिद्धांत पर बल देते हैं: और समुदाय-आधारित सज़ा (जैसे “जिस धर्म का अपराधी है उसे उसके धर्म के अनुसार सज़ा दी जाए”) न केवल क़ानून के सिद्धांतों के खिलाफ है बल्कि मानवाधिकारों और न्याय के बुनियादी सिद्धांतों के भी विरुद्ध है। अपराधियों को उनके व्यक्तिगत कृत्यों के आधार पर दंडित किया जाना चाहिए — किसी समुदाय, मज़हब या जाति के आधार पर सामूहिक सज़ा देना न्याय का अंधाधुंध विघटन है और यह धार्मिक स्वतंत्रता व समानता के सिद्धांतों का गला घोंटता है। इसलिए किसी विशेष धर्म के अपराधियों के लिए अलग कानून लागू करने का सुझाव, चाहे वह किसी भी धर्म के प्रति भड़काऊ भाव से ही कहा गया हो, संवैधानिक और मानवाधिकार के दृष्टिकोण से अस्वीकार्य और खतरनाक है।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम मौन रहें जब किसी समुदाय के धार्मिक नेता सीधे-सीधे हिंसा का समर्थन करें या अपराधियों को आश्रय दें। कानून के दायरे में, यदि यह साबित होता है कि किसी धार्मिक नेता ने अपराध की साज़िश की, उकसाया, या अपराधियों को शरण दी, तो उस नेता को भी सजा मिलनी चाहिए — जैसा कि किसी अन्य नागरिक के साथ होता। इसका अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए निम्न कदम आवश्यक हैं:

त्-काल और निष्पक्ष जांच + तेज ट्रायल: हिंसा, बलात्कार और सामूहिक अपराधों की घटनाओं की निष्पक्ष जांच हो और आरोपियों के खिलाफ तेज़ ट्रायल व कड़े दंड सुनिश्चित किये जाएँ। फास्ट-ट्रैक अदालतों, विशेष जांच दलों और पीड़ित सुरक्षा प्रावधानों का उपयोग बढ़ाया जाना चाहिए — न्यायिक रिपोर्टों और कमेटियों ने भी तत्काल फ़ास्ट-ट्रैक सुनवाईयों की सिफारिश की है।स्ष्ट  कानूनी परिभाषा और कड़ी धाराएँ लागू करना: नफरत पर फैलने वाले दायरों (hate speech) और सार्वजनिक तौर पर हिंसा के लिए उकसाने वाले बयान पर कड़े प्रावधान लगें — पर इनमें भी सावधानी हो कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सांविधानिक संरक्षण बिना कारण प्रभावित न हो। हाल के अध्ययनों और बिल-प्रस्तावों ने समान रूप से नफरत भड़काने वाले कृत्यों को दंडनीय घोषित करने की वकालत की है।

धर्मिक और सामुदायिक नेताओं पर जवाबदेही: कोई भी नेता जो खुलेआम हिंसा या सामूहिक दंड की वकालत करता है या अपराधियों को ढंकता है — उस पर समान नागरिकों की तरह कानूनी कार्रवाइयाँ हों। पर इसका आधार साव्यवहारिक सबूत और निष्पक्ष कानूनी प्रक्रिया होनी चाहिए — साम्प्रदायिक सौदेबाज़ी नहीं। (निष्कर्ष: जवाबदेही हाँ, सामुदायिक दंड नहीं।)पुलिस सुधार, प्रशिक्षण और त्वरित सुसज्जन: अक्सर पीड़ितों की शिकायत सड़क पर मिलती है पर पुलिस/प्रशासनिक उदासीनता के कारण FIR दर्ज नहीं होती, सबूत नष्ट हो जाते हैं, या पुलिस पक्षपाती रवैया अपनाती है। बढ़िया प्रशिक्षण, स्पेशल इन्वेस्टिगेशन यूनिट्स और साक्ष्य-संरक्षण के बेहतर नियम मामलों की सच्चाई सामने लाते हैं। न्यायमहल में देर और निष्पक्षता की कमी पीड़ितों का विश्वास तोड़ देती है।

सामाजिक-सांस्कृतिक उपाय: कानून अकेला काम नहीं करता — स्कूलों, मस्जिदों, मंदिरों, पंचायतों और नागरिक समाज में हिंसा-विरोधी शिक्षा, महिला सुरक्षा अभियान, और संवाद के माध्यम से सामुदायिक स्तर पर मनोवृति बदली जानी चाहिए। धार्मिक नेताओं को समाज में सहिष्णुता और नैतिकता का संदेश देने के लिए सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए; जो ऐसा नहीं करते और अपराध को बढ़ावा देते हैं, उन्हें कानूनी दायरे में लाया जाना चाहिए। पीड़ितों की सुरक्षा और मुआवज़ा: पीड़ित और उनके परिवारों के लिए त्वरित चिकित्सा, मनोवैज्ञानिक सहायता, आर्थिक मदद और पुनर्वास ज़रूरी है। राज्यों के पास अपराधों के पीड़ितों के लिए मुआवज़ा व पुनर्वास के स्कीम होने चाहिए।

अंत में, यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि किसी धर्म के अनुसार सज़ा देना — विभिन्न धर्मों के अलग-अलग दंडों का राज्य द्वारा प्रयोग करना — संविधान और मानवाधिकारों के विरोध में है। न्याय का सिद्धांत यह कहता है: दोषी को उसी क़ानून के अंतर्गत दंडित किया जाना चाहिए जो सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होता है। अगर कोई व्यक्ति किसी भी धर्म का अनुयायी है और उसने अपराध किया है तो उसे देश के दंड-नियमों के तहत आज़माया और दंडित किया जाना चाहिए — न कि उसके धर्म के ‘कानून’ के अनुसार, जो राज्य के कानून से अलग और अक्सर अमान्य माना जाएगा। हम एक वैधानिक, निष्पक्ष और गैर-पक्षपाती न्याय-प्रक्रिया की वकालत करते हैं जो अपराधियों को सज़ा दे पर समुदायों को टार्गेट न करे।

हिंसा का जवाब हिंसा नहीं हो सकता — पर यह भी सच है कि उदासीनता, संरक्षण और सांप्रदायिक आवेग को भी कड़ा दंड मिलना चाहिए। हमारा लक्ष्य एक ऐसा समाज होना चाहिए जहाँ विचारों की असहमति मंचों पर हो, अदालतों में मुक़दमे हों — सड़कों पर नफरत और जघन्य अपराधों को अंजाम देने का अधिकार किसी को भी न हों। हम दर्दनाक घटनाओं के पीड़ितों के साथ हैं, और न्याय की मांग में निर्मम, अडिग और संवैधानिक बने रहना ही समाज की ताकत है।

बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

“नया नेतृत्व, नई उम्मीदें, नवागत जिलाधिकारी श्रीमती कृतिका ज्योत्स्ना!

 सम्पादकीय

 “नया नेतृत्व, नई उम्मीदें

बस्ती को नई जिलाधिकारी श्रीमती कृत्तिका ज्योत्सना का नेतृत्व मिला है और उनकी कार्यशैली के शुरुआती संकेत उत्साह बढ़ाने वाले हैं। कार्यभार ग्रहण करते ही उन्होंने जन सुनवाई से संवाद की शुरुआत की और स्पष्ट कर दिया कि प्रशासन का दरवाज़ा जनता के लिए हमेशा खुला रहेगा।

उन्होंने यह भी संदेश दिया कि फाइल का निस्तारण ही समाधान नहीं, बल्कि समस्या की जड़ तक पहुँचना और लोगों को राहत दिलाना असली प्रशासन है। अक्सर देखा गया है कि शिकायतें कागज़ों में दम तोड़ देती हैं। नई जिलाधिकारी की यह दृढ़ता कि “बिना समाधान फाइल बंद नहीं होगी” सुशासन की सीधी घोषणा है।

भदेश्वरनाथ मंदिर में आशीर्वाद लेकर जनसेवा की शुरुआत करना परंपरा और विश्वास का सम्मान भी दर्शाता है। जनता यही चाहती है—संवेदनशीलता और सख्ती का संतुलित संयोजन।

अब निगाहें इस बात पर होंगी कि क्या यह संवाद और जिम्मेदारी की पहल जमीनी स्तर तक पहुँचकर बस्ती को बेहतर प्रशासन का मॉडल बनाएगी।
उम्मीदें बड़ी हैं और उम्मीदों पर खरा उतरना ही प्रशासन की सबसे बड़ी परीक्षा है। 







“कागज़ी निस्तारण पर रोक, वास्तविक समाधान की ओर

नवागत जिलाधिकारी ने पहला ही संदेश दिया कि शिकायतें केवल आँकड़ों का खेल नहीं—जनता की पीड़ा हैं। यह सोच प्रशासनिक संस्कृति में बड़ा बदलाव ला सकती है। यदि अधिकारी निर्देशों को ज़मीनी स्तर पर उतार दें, तो बस्ती में बदलाव दूर नहीं।

 “बस्ती को चाहिए जवाबदेह प्रशासन

जनसुनवाई तभी सफल है जब जनता दोबारा शिकायत लेकर न लौटे। जिलाधिकारी का निर्देश कि “जनता से संवाद बना रहे” एक स्वस्थ लोकतांत्रिक दृष्टिकोण है। अब समय है कि हर विभाग जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरे।


मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

भ्र्ष्टाचार के महासागर मेँ गोता लगा रहे पैसे के भूखे भड़िये









प्रधान और सचिव की जोड़ी ने मनरेगा को बनाया निजी ठेका मंडी — नियम-कानून ताक पर, गरीबों के हक पर डाका!

बहादुरपुर/बस्ती।
विकास खण्ड बहादुरपुर में भ्रष्टाचार अब खुलेआम तांडव कर रहा है। ग्राम पंचायत सोनबरसा में मनरेगा की पवित्र योजना को लूट के जरिये में तब्दील कर दिया गया है। विकास का दावा करने वाले प्रधान और सचिव अब ठेका मजदूरों से कार्य करवा रहे हैं, जबकि गाँव के असली जॉब कार्ड धारक सिर्फ कागजों पर मजदूरी कर रहे हैं।

सचिव और प्रधान की मिलीभगत ने मनरेगा एक्ट की ऐसी धज्जियाँ उड़ाई हैं कि अब नियम-कानून इनकी जेब में कैद नजर आते हैं।

फर्जी हाज़िरी से गरीबों का हक मारा गया

ग्राम पंचायत सोनबरसा में दर्जनों जॉब कार्ड धारकों के नाम पर फर्जी हाज़िरी लगाई जा रही है। जबकि ज़मीनी स्तर पर इंटरलाकिंग कार्य बाहरी मजदूरों से कराया जा रहा है।रामकिशोर के घर से जबीउल्लाह के खेत तक, मंदिर से राम प्रताप के खेत तक और राम नेवास से शकील के घर तक इंटरलाकिंग निर्माण कार्य में गाँव के कार्डधारक तो गायब हैं, परंतु बाहरी दिहाड़ी मजदूर दिन-रात पसीना बहा रहे हैं।

“अपना भला तो जग भला” के नाम पर चल रहा खेल

प्रधान ने चुनाव के दौरान गरीबों से विकास के जो वादे किए थे, वे अब भ्रष्टाचार की आहुति में जल चुके हैं। ग्राम पंचायत अधिकारी और सचिव दोनों ने विकास को ठेका व्यवस्था में बदल दिया है, जहाँ नियम-कानून के बजाय रिश्वत और दबाव का सिक्का चलता है।

ग्राम पंचायत के तीन प्रमुख प्रोजेक्टों पर मनरेगा के तहत कार्य तो चल रहा है, मगर मजदूरी का लाभ बाहरी लोगों की जेब में जा रहा है। असली लाभार्थी — गाँव के जॉब कार्ड धारक — सिर्फ कागज पर मजदूर बनकर रह गए हैं।

उच्च अधिकारी बने “मौन दर्शक”

ब्लॉक विकास अधिकारी बहादुरपुर की चुप्पी भी अब सवालों के घेरे में है। ऐसा प्रतीत होता है कि भ्रष्टाचार की इस महासागर में वे भी गादुर पक्षी की तरह आँख बंद किए बैठे हैं। ग्राम पंचायत अधिकारी वीडिओ की भूमिका भी संदिग्ध बताई जा रही है — ग्रामीणों के अनुसार, सचिव उनके संरक्षण में मनरेगा की धांधली को खुलेआम अंजाम दे रहे हैं।

ग्रमीणों का आक्रोश और मीडिया की पड़ताल

मीडिया की धरातलीय पड़ताल में यह खुलासा हुआ कि जिन तीन परियोजनाओं पर कार्य चल रहा है, वहाँ बाहरी मज़दूर काम कर रहे हैं, जबकि गाँव के असली कार्डधारक कोने में बैठे हैं।
गाँव के लोगों का कहना है —“प्रधान और सचिव की मिलीभगत से गरीबों के हक की रोटी छीनी जा रही है। अधिकारी चाहें तो सच्चाई एक दिन में सामने आ सकती है, पर सबकी मिलीभगत से भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है।”

अब देखना है — क्या कार्रवाई होगी?

फोन पर सम्पर्क करने की कोशिश के बावजूद वीडिओ से वार्ता नहीं हो पाई। उनका पक्ष प्रकाशित किया जाएगा, लेकिन सवाल यही है 
क्या ब्लॉक प्रशासन और उच्च अधिकारी अब भी आंख मूंदे रहेंगे?
या फिर सोनबरसा पंचायत के इस खुले भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की हिम्मत दिखाएंगे.

जब विकास की योजनाएं ठेकेदारों के हवाले हों, और अधिकारी मौन साध लें — तब लोकतंत्र नहीं, लूटतंत्र जन्म लेता है।

श्रीमती कृतिका ज्योत्स्ना बस्ती की नई कलक्टर, रवीश गुप्त को पावर कारपोरेशन पश्चिमांचल की कमान

 बस्ती, उत्तरप्रदेश 

बस्ती जिला अधिकारियों की सूची के अनुसार, बस्ती जिले के जिलाधिकारी दो हैं: श्रीमती कृत्तिका ज्योत्सना (विशेष सचिव, राज्य कर विभाग, उत्तर प्रदेश शासन) और श्री रवीश गुप्ता (प्रबंध निदेशक, पश्चिमांचल विद्युत वितरण निगम, मेरठ)।यह अधिकारी जिला प्रशासन की जिम्मेदारियां संभालते हैं और प्रदेश शासन के विभिन्न विभागों के साथ समन्वय करते हैं। जिला अधिकारी प्रशासनिक निर्णय, योजनाओं का क्रियान्वयन, और विकास कार्यों की निगरानी करते हैं ताकि जिले के समाज और विकास को बढ़ावा दिया जा सके।

 इनके साथ ही अन्य महत्वपूर्ण पदों पर भी अधिकारी तैनात हैं जिनकी जिम्मेदारियां विभागीय और क्षेत्रीय स्तर पर विभिन्न प्रशासनिक कार्यों की देखरेख करना है।बस्ती जिले में प्रशासन के सुचारु संचालन एवं विकास के लिए ये अधिकारी मिलकर काम करते हैं, जिससे क्षेत्र के नागरिकों को बेहतर सेवा और विकास की ओर तेजी मिल सके। 

बिना सदस्यता, बिना कृषक पंजिका क़े अब समितियों से नहीं मिलेगी खाद

 बस्ती, उत्तरप्रदेश







उत्तर प्रदेश में सहकारिता आंदोलन की नई दिशा: समीक्षा बैठक पर विश्लेषणप्रदेश की सहकारिता व्यवस्था की दिशा और दशा को लेकर आज उत्तर प्रदेश के माननीय सहकारिता मंत्री श्री जे.पी.एस. राठौर ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से प्रदेश के सभी सहकारी बैंकों के अध्यक्षों, संयुक्त निबंधकों, उपनिबंधकों, समितियों के सचिवों तथा वरिष्ठ अधिकारियों के साथ महत्वपूर्ण संवाद किया। यह बैठक केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि नीतिगत रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण कही जा सकती है क्योंकि इसमें सहकारिता आंदोलन के मूल उद्देश्य, सदस्यता विस्तार, सहकारी समितियों की गुणवत्ता और किसानों तक पहुंच सुनिश्चित करने पर नए सिरे से मंथन हुआ।मंत्री जी ने अपने कठोर तेवरों में स्पष्ट संकेत दिया कि सरकार अब सहकारिता के क्षेत्र में निष्क्रियता या औपचारिकता को बर्दाश्त नहीं करेगी।

 उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति या संस्था सहकारिता की सदस्यता नहीं लेगी, उन्हें खाद वितरण जैसी योजनाओं का लाभ नहीं दिया जाएगा। इसी प्रकार जिन किसानों का सहकारिता पंजीकरण नहीं होगा, उन्हें भी खाद नहीं दी जाएगी। यह निर्णय प्रशासनिक रूप से कठोर अवश्य प्रतीत हो सकता है, किन्तु नीति के दृष्टिकोण से यह सहकारिता के केंद्रीकृत विस्तार का एक सशक्त कदम है।मंत्री जी का यह भी कहना था कि यदि किसी समिति के सचिव सदस्यता विस्तार में जानबूझकर ढिलाई बरतते पाए गए तो उनके खिलाफ 10 लाख रुपए तक की व्यापारिक सुविधा को तत्काल बंद किया जा सकता है, और अनुशासनात्मक कार्यवाही भी की जाएगी।

 सहकारिता विभाग के अधिकारियों पर यह संदेश सीधा है — सदस्यता विस्तार केवल आंकड़ा नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन की आधारशिला है।सहकारिता का उद्देश्य और आज की चुनौतियाँसहकारिता का मूल भाव साझेदारी, समानता और सामूहिक प्रगति पर आधारित है। उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में सहकारिता ही वह माध्यम है जो खेती, लघु उद्योग, ग्रामीण वित्त और रोजगार को एक साथ जोड़ सकता है। परंतु पिछले कुछ दशकों में यह तंत्र राजनीतिक व आर्थिक दबावों के कारण अपने मूल उद्देश्य से भटक गया था।कई सहकारी समितियाँ केवल कागजों पर संचालित हो रही थीं, जहाँ सदस्यता औपचारिक बनी रही और वास्तविक किसान या श्रमिक इससे दूर रहे। खाद वितरण और ऋण योजना जैसे कार्यों में पारदर्शिता की कमी ने किसानों के बीच अविश्वास पैदा किया। ऐसी पृष्ठभूमि में मंत्री राठौर का कठोर रुख यह संकेत देता है कि सरकार अब सहकारिता को प्रशासनिक सुविधा या राजनीतिक मंच नहीं, बल्कि एक आर्थिक संगठन के रूप में देखना चाहती है।

सदस्यता आधार का पुनर्गठनबैठक में यह बात विशेष रूप से उभरकर सामने आई कि सहकारी संस्थाओं की असली शक्ति उनके सदस्य हैं। जिस क्षेत्र में जितने अधिक सक्रिय सदस्य होंगे, वहां की समिति उतनी ही सशक्त होगी। मंत्री जी ने कहा कि सहकारिता के सभी अधिकारी अपने जिलों में सदस्यता अभियान को प्राथमिकता दें, सदस्यों से संवाद बढ़ाएं और युवाओं को भी इसमें जोड़ें।यह बात सही भी है कि नए भारत में सहकारिता केवल खेती तक सीमित नहीं रह सकती। अब यह किसान उत्पादक संगठन, दुग्ध संघ, ग्रामीण उद्योग, महिला स्व-सहायता समूह और डिजिटल सेवाओं तक फैली हो चुकी है। सदस्यता के विस्तार के साथ-साथ डिजिटल प्रणाली के उपयोग से पारदर्शिता, जवाबदेही और दक्षता में उल्लेखनीय सुधार संभव है।मिशन 2047: सहकारिता से आत्मनिर्भरताश्री राठौर ने अपनी समीक्षा बैठक के दौरान मिशन 2047 का उल्लेख करते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश का आत्मनिर्भर भविष्य सहकारिता के बिना संभव नहीं है। भारत के स्वतंत्रता के शताब्दी वर्ष 2047 तक यदि ग्राम्य अर्थव्यवस्था को सशक्त करना है, तो हमें प्रत्येक ब्लॉक और पंचायत स्तर पर सहकारिता की मजबूत जड़ें स्थापित करनी होंगी।इस दृष्टिकोण से, सहकारी बैंकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है।

 वे केवल ऋण वितरक नहीं, बल्कि ग्रामीण निवेश, कृषि नवाचार और स्थानीय उद्योग के संरक्षक बनने की दिशा में अग्रसर हैं। यदि इनके माध्यम से युवाओं को प्रशिक्षण, किसानों को तकनीकी सहायता और महिलाओं को लघु उद्यम की सुविधाएँ दी जाएँ, तो सहकारिता वास्तविक रूप में ‘लोक-आधारित विकास मॉडल’ बन सकती है।अनुशासन और पारदर्शिता की आवश्यकताबैठक में मंत्री जी का यह संदेश भी स्पष्ट था कि सहकारिता में अब किसी भी प्रकार की लापरवाही या भ्रष्ट आचरण के लिए शून्य सहनशीलता नीति अपनाई जाएगी। सचिवों और अधिकारियों से अपेक्षा की गई कि वे सदस्यता में पारदर्शिता बनाए रखें, भ्रष्टाचार मुक्त वातावरण सुनिश्चित करें और किसी भी राजनीतिक दबाव से ऊपर उठकर कार्य करें।पिछले वर्षों में कई समितियों पर पदाधिकारियों द्वारा अनियमितताओं की रिपोर्ट मिलती रही हैं। इन पर नियंत्रण तभी संभव होगा जब प्रत्येक समिति अपने आंतरिक लेखा परीक्षण को नियमित करे और सहकारी बैंक भी अपने नेटवर्क का ऑडिट डिजिटल माध्यम से सुनिश्चित करें।सहकारिता का भविष्य और सामूहिक विकासमंत्री जी ने अपने समापन वक्तव्य में कहा कि सहकारिता बैंकों और समितियों का सामूहिक विकास तभी संभव है जब हर जिले, हर क्षेत्र में सहकारी सदस्य सक्रिय हों। 

सहकारिता की मजबूती का अर्थ है ग्रामीण समाज की आर्थिक आत्मनिर्भरता, वितरण की समानता और स्थानीय उत्पादन का सम्मान।यदि सहकारिता को केवल सरकारी योजनाओं का माध्यम नहीं, बल्कि समाज सुधार और स्थानीय विकास का औजार माना जाए, तो उत्तर प्रदेश मिशन 2047 के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सबसे आगे होगा।इस बैठक से यह स्पष्ट झलकता है कि राज्य सरकार धीरे-धीरे प्रशासनिक नियंत्रण से हटकर सहभागी शासन की ओर बढ़ रही है। जहाँ जनता स्वयं अपनी प्रगति की संरचना बनेगी और सरकारी संस्थाएँ उसके सहयोगी के रूप में कार्य करेंगी।


बिहार चुनाव, दहशत की राजनीति,क्या कोई राज्य सरकार केंद्र नीत कानून को फाड़ने का अधिकार रखती है?












 वर्तमान भारत में वक्फ संशोधन कानून को लेकर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर तीव्र मतभेद हैं। खासतौर पर बिहार की राजनीति में विपक्ष के मुखिया तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी राजद के कुछ कट्टरवादी नेताओं ने खुलेआम इस कानून का विरोध करते हुए कहा है कि यदि वे सत्ता में आए तो इस कानून को 'कूड़ेदान में फेंक दिया जाएगा'। यह बयान न केवल संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन करता है बल्कि लोकतांत्रिक नियमों के प्रति एक चुनौती भी प्रस्तुत करता है।पहले यह समझना आवश्यक है कि वक्फ कानून का संशोधन क्यों लाया गया। वक्फ बोर्ड और वक्फ संपत्तियों की हिफाजत के लिए यह जरूरी हो गया था कि उनके संचालन में पारदर्शिता, जवाबदेही और नियमन हो। पुरानी व्यवस्थाएं निरंकुश और भ्रष्टाचार से ग्रस्त थीं।

 इसलिए संसद ने इस कानून को पारित कर केंद्र सरकार ने इसे लागू किया। संविधान के अनुसार संसद का बनाया कानून सभी राज्यों पर लागू होता है और किसी भी राज्य सरकार का इसे उलटने का अधिकार नहीं होता।परंतु विपक्षी दलों ने इस कानून को सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास किया। उनका आरोप था कि यह कानून मुस्लिम समुदाय के खिलाफ है और इसका मकसद 'मुस्लिम तुष्टिकरण' खत्म करना है। यह धारणा पूरी तरह झूठी और राजनीतिक लालच से प्रेरित है। वास्तव में इस कानून का उद्देश्य वक्फ की संपत्तियों को दुरुपयोग से बचाना और उनके विकास को सुनिश्चित करना है।तेजस्वी यादव ने एक सार्वजनिक मंच से कहा कि बिहार में उनकी सरकार बनने पर वे इस कानून को फाड़ देंगे। यह बयान असंवैधानिक होने के साथ-साथ लोकतंत्र और कानून के प्रति अवमानना है। संसद के दोनों सदनों में पारित और राष्ट्रपति की मंजूरी प्राप्त कानून को एक राज्य सरकार कुछ भी करने का निर्णय नहीं ले सकती। कानून तो अपनी जगह स्थिर रहेगा। यदि वे कागज के दस्तावेज फाड़ देंगे, तो क्या पड़ेगा? यह केवल तमाशा होगा, लेकिन कानून का प्रभाव यथावत रहेगा।इस संदर्भ में यह भी देखना महत्वपूर्ण है कि न्यायपालिका ने इस कानून के कुछ प्रावधानों पर अंतरिम आदेश दिया है, मगर पूरी तरह इस पर रोक नहीं लगाई है। इसका मतलब है कि कानूनी प्रक्रिया जारी है और न्यायपालिका इसे जांच रही है। इससे भी स्पष्ट होता है कि किसी राजनीतिक नेता को कानून को तोड़ने-फोड़ने की धमकी देना उचित नहीं है।राजद-कांग्रेस के कुछ नेता चुनावी रैलियों में मुस्लिम वोट बैंक को उकसाने के लिए ऐसी भाषा प्रयोग कर रहे हैं, जिसमें 'इलाज' और 'सबक सिखाने' जैसी धमकियां शामिल हैं। यह 'जंगलराज' की भावना को जिंदा रखने की कोशिश है, जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बिहार की जनता को आगाह किया है कि विपक्ष हिंसा और आतंक फैलाने की कोशिश कर रहा है।इस पूरी स्थिति से एक बात स्पष्ट होती है कि वक्फ कानून विरोधी राजनीति केवल वोट बैंक की राजनीति है। तेजस्वी यादव ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान 'पढ़ाई, कमाई और दवाई' का जो नारा दिया था, वह कहीं खो गया है। इसके बजाय 'वक्फ कानून फाड़ने' का नारा दिया जाना इस बात का संकेत है कि विपक्ष मुख्य विकास मुद्दों को छोड़कर सांप्रदायिक और अल्पसंख्यक भय के जरिये चुनावी फसाद मचा रहा है।

छत्तीसगढ़ के रायपुर में हाल ही में वक्फ बोर्ड ने पुरानी कॉलोनियों में बसने वाले परिवारों को नोटिस भेजा है, जो 60 से 65 वर्षों से वहां रह रहे हैं। यह बताता है कि वक्फ संपत्तियों की व्यवस्था में सुधार की सख्त जरूरत है और इसीलिए यह संशोधन कानून आया है।वास्तव में, लोकतंत्र में मतभेद और विरोध की जगह है, लेकिन संविधान और कानून का सम्मान सबसे ऊपर है। किसी भी राजनीतिक दल या नेता का यह अधिकार नहीं कि वे खुलेआम कानून तोड़ने की बात करें। इससे न केवल शासन व्यवस्था कमजोर होती है, बल्कि सामाजिक शांति और एकता पर भी बुरा असर पड़ता है।इसलिए, देश के मुस्लिम समाज को इस सियासी फसाद से बचना चाहिए, और समझना चाहिए कि वक्फ कानून का मकसद उनका हित है और उनकी संपत्ति की सुरक्षा।

 राजनीतिक दलों के झूठे वादों और दहशत फैलाने वाली रणनीतियों से सावधान रहना जरूरी है। वे वोट बैंक के लिए धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग कर रहे हैं।निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि वक्फ कानून को फाड़ने जैसी कोई कानूनी या संवैधानिक छूट किसी राज्य सरकार को नहीं है। संविधान हमें कानून के पालन का निर्देश देता है और न्यायपालिका इसके संरक्षण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विपक्ष को चाहिए कि वे लोकतांत्रिक संवाद के माध्यम से अपनी बात रखें न कि धमकियों और कानून विरोधी बयानों से।विभाजनकारी राजनीति से ऊपर उठकर विकास और लोकतंत्र के सशक्तिकरण पर ध्यान देना भारत के सभी नागरिकों का दायित्व है।

 वक्फ कानून सुधार इस दिशा में एक कदम है जो सही नियमन के माध्यम से सभी के हित में कार्य करेगा।य

जब अधिकारी गांधी को पहचानता है, तो जनता की आवाज़ से क्यों डरता है?”

 





जब अधिकारी गांधी को पहचानता है, तो जनता की आवाज़ से क्यों डरता है?”

भारत आज भी उस मिट्टी की संतान है जहाँ सत्य को महात्मा गांधी ने जन-जन के दिल में उतारा था। आज़ादी के अमर संघर्ष में गांधी का नाम इसलिए नहीं अमर हुआ कि वे कुर्सी पर बैठे थे, बल्कि इसलिए कि उन्होंने कुर्सी को जवाबदेह बनाया था। लेकिन विडम्बना देखिए—आज का प्रशासन, जो गांधी के चित्र पर हस्ताक्षर किए हुए नोटों से वेतन लेता है, वही अधिकारी जनता की आवाज़ को अख़बार और सोशल मीडिया पर देखकर तिलमिला जाता है। प्रश्न यह है कि जब वह गांधी को पहचानता है और RBI गवर्नर के हस्ताक्षर पर भरोसा करता है, तो जनता की सच्चाई से क्यों भयभीत होता है?

 लोकतंत्र का पहला अध्याय — जवाबदेही

लोकतंत्र में अधिकारी जनता का सेवक होता है, मालिक नहीं। संविधान ने उसे शक्ति दी है, परंतु वह शक्ति सीमित और उत्तरदायी है। अख़बार और सोशल मीडिया आज उस उत्तरदायित्व की कसौटी हैं। जब कोई पत्रकार या नागरिक प्रश्न उठाता है, तो वह लोकतंत्र की आत्मा को जीवित रखता है। लेकिन आज की स्थिति यह है कि अधिकारी प्रश्न से नहीं, प्रश्न पूछने वाले से नाराज़ होता है। यह वही मानसिकता है जिसने अंग्रेज़ी राज को जनआन्दोलन के सामने झुकने पर मजबूर किया था, और आज वही बीमारी हमारे अफसरशाही में फिर पलने लगी है।

 गांधी का चित्र और गवर्नर का हस्ताक्षर — दो प्रतीक

हर भारतीय नोट पर गांधी का चेहरा और RBI गवर्नर के हस्ताक्षर होते हैं। एक बताता है कि यह राष्ट्र सत्य और विश्वास पर टिका है, दूसरा इस बात का प्रमाण है कि वह विश्वास संस्थागत रूप से मान्य है। लेकिन अफ़सोस, जिन अधिकारियों को इन दोनों प्रतीकों से रोज़ का वेतन मिलता है, वे उन्हीं मूल्यों की उपेक्षा करते हैं। गांधी की मुस्कान उनके मेज़ पर टंगी रहती है, पर उनके आचरण में अहिंसा, संवाद और उत्तरदायित्व का नामोनिशान नहीं।

मीडिया से भय क्यों?

यदि कोई अधिकारी अपना कार्य ईमानदारी से कर रहा है, तो उसे किसी अख़बार या सोशल मीडिया पोस्ट से क्यों डरना चाहिए? डर तो उसी को लगता है जिसने गलती की हो। पर आज हाल यह है कि ज़िला प्रशासन से लेकर मंत्रालयों तक, अधिकारी “छवि प्रबंधन” के नाम पर सच्चाई से मुँह मोड़ लेते हैं। वे सोचते हैं कि खबर छपने से बदनामी होगी — पर नहीं समझते कि खबर छपने से पहले यदि वे सुधार कर लें, तो वही मीडिया उनका सबसे बड़ा सहयोगी बन सकता है।

 सोशल मीडिया — नया जनदरबार

आज सोशल मीडिया वही स्थान ले चुका है जो गांधी युग में प्रार्थना सभाओं का था। यह जनता का दरबार है जहाँ हर नागरिक बोल सकता है। पर अधिकारियों को यह स्वतंत्रता पसंद नहीं। उन्हें केवल एकतरफा आदेश देने की आदत है, सुनने की नहीं। वे चाहते हैं कि जनता फ़ाइलों में कैद रहे, ट्वीट्स या पोस्ट में नहीं बोले। लेकिन याद रखिए — जनदरबार को दबाने वाला कभी टिक नहीं सकता। जनता की आवाज़ जितनी दबाई जाती है, उतनी ऊँची गूँजती है।

प्रशासन बनाम जनसंचार

आज अधिकारी और पत्रकार के बीच संवाद की जगह अविश्वास बैठ गया है। अफ़सर सोचते हैं कि मीडिया केवल आलोचना करता है, जबकि मीडिया चाहता है कि प्रशासन पारदर्शी हो। अगर दोनों एक-दूसरे की भूमिका को समझ लें, तो भ्रष्टाचार आधा हो जाएगा। लेकिन यहाँ उल्टा हो रहा है — अधिकारी फ़ाइलें दबाते हैं, और जब बात बाहर आती है तो “नकारात्मक प्रचार” कहकर भाग खड़े होते हैं। यही मानसिकता जनता से दूरी बढ़ाती है।

 गांधी की चेतावनी

गांधी ने कहा था — “सत्य बोलने में डरना, अपने आत्मा को मारना है।” आज यह डर हमारे शासन तंत्र की नस-नस में घुस गया है। अधिकारी सोचते हैं कि मीडिया को जवाब देना उनकी प्रतिष्ठा से नीचे है। पर यही अहंकार लोकतंत्र की नींव हिलाता है। अगर गांधी जीवित होते, तो वे सबसे पहले इसी अहंकार के विरुद्ध सत्याग्रह करते।

 पारदर्शिता का भय

पारदर्शिता से डरने वाला प्रशासन अंधकार में काम करना चाहता है। लेकिन जिस युग में हर नागरिक के हाथ में मोबाइल है, वहाँ अंधकार छिप नहीं सकता। सोशल मीडिया पर हर फोटो, हर दस्तावेज़, हर वीडियो जनता की आँख बन चुका है। यह अधिकारी के लिए खतरा नहीं, चेतावनी है कि ईमानदारी से काम कीजिए, वरना जनता खुद निर्णय करेगी।

 प्रेस और सोशल मीडिया — लोकतंत्र की ऑक्सीजन

अख़बार लोकतंत्र की पहली साँस थे, और सोशल मीडिया उसका नया फेफड़ा है। दोनों का काम है प्रशासन को जीवित और सतर्क रखना। पर अगर प्रशासन इन्हें शत्रु मानने लगे, तो समझिए कि सिस्टम में सड़न शुरू हो गई है। गांधी के भारत में सत्य की परीक्षा बंद दरवाज़ों में नहीं, खुले मंच पर होती है।

अधिकारी का असली धर्म

अधिकारी का धर्म जनता की सेवा है, न कि सत्ता की रक्षा। वह वेतन उस गांधी के चित्र वाले नोट से लेता है, जिसने कहा था — “मैं जनता का सेवक हूँ।” अगर वह इस मूल भावना को भूल गया, तो उसका हर निर्णय जनता पर अत्याचार बन जाएगा। सेवा का भाव ही उसे सम्मान दिलाता है, भय नहीं।

जनता का उत्तरदायित्व भी

केवल अधिकारी ही दोषी नहीं, जनता को भी अपनी आवाज़ ज़िम्मेदारी से उठानी होगी। सोशल मीडिया पर अफवाह नहीं, तथ्य बोलें। आलोचना हो पर तथ्यपूर्ण हो। गांधी ने सिखाया था — “सत्य बिना प्रमाण अधूरा है।” जनता अगर यह अनुशासन रखे, तो कोई अधिकारी उसकी आवाज़ को अनदेखा नहीं कर सकेगा।

निडर संवाद की आवश्यकता

देश को अब ऐसे अधिकारियों की ज़रूरत है जो फ़ाइलों से नहीं, संवाद से शासन करें। जो प्रेस कॉन्फ़्रेंस से न भागें, जो सोशल मीडिया पर प्रश्नों का उत्तर दें। जनता सवाल पूछे तो उसे अपराध न मानें। यह निडर संवाद ही लोकतंत्र की असली परंपरा है। गांधी का “सत्याग्रह” इसी निडर संवाद का प्रतीक था। 

गांधी की तस्वीर से सीखिए

हर दफ़्तर में गांधी की तस्वीर लगी है — पर कितने अधिकारी दिन में एक बार उस मुस्कान को देखकर खुद से पूछते हैं, “क्या मैं आज गांधी के रास्ते पर चला?” शायद ही कोई। तस्वीर को सजाने से गांधी नहीं आते, विचार को अपनाने से आते हैं। गांधी का चित्र नोटों पर है, पर उनका विचार हमारे मन पर नहीं।

 डर से नहीं, संवाद से बनता है भारत

अख़बार और सोशल मीडिया कोई शत्रु नहीं, बल्कि जनता और शासन के बीच संवाद का पुल हैं। जो अधिकारी इस पुल को तोड़ता है, वह लोकतंत्र की आत्मा को घायल करता है। यदि वे सचमुच गांधी को पहचानते हैं, तो उन्हें यह भी समझना होगा कि गांधी का सबसे बड़ा हथियार “जनमत” था, न कि आदेश।
महात्मा गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्य को कलम और शब्द से हिलाया था — क्या हमारे अधिकारी एक अख़बार या पोस्ट से इतने कमज़ोर हैं कि सच्चाई देखकर भी मुँह भी फेर लेते हैं.

सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

रोगटे खड़ा करनेवाली वारदात, चारपाई पर सोते युवक पर पट्रोल छिड़क आग क़े हवाले

   सोते युवक को पेट्रोल गिरा कर जलाया, हालत गंभीर


जौनपुर। 
बक्शा थाना क्षेत्र के बेलापार गांव में रविवार देर रात दुस्साहसिक  घटना सामने आई, जहां सो रहे एक युवक को   पेट्रोल डालकर आग के हवाले कर दिया। गंभीर रूप से झुलसे युवक को परिजनों ने आनन-फानन में बचाकर पास के नौपेड़वा सीएचसी पहुंचाया, जहां हालत नाजुक देखते हुए डॉक्टरों ने जिला अस्पताल रेफर कर दिया।  बेलापार निवासी राजेन्द्र प्रसाद यादव का 30 वर्षीय पुत्र विनोद कुमार यादव वाहन चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता है।   रात वह घर के पीछे टिन शेड में चारपाई डालकर सोया हुआ था। करीब ढाई बजे रात में अज्ञात हमलावर वहां पहुंचे और उसके ऊपर पेट्रोल छिराकर आग लगा दी।विनोद की चीख-पुकार सुनकर परिजन व आसपास के लोग दौड़े और किसी तरह आग बुझाई। तब तक युवक के शरीर का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा जल चुका था।
 घटना की सूचना पुलिस को दे दी गई है, वहीं हमलावरों की तलाश में पुलिस ने जांच शुरू कर दी है। पुलिस ने बताया एक व्यक्ति अपने चारपाई पर सो रहा था उसे किसी अज्ञात के द्वारा जलाया गया है जिसे गंभीरता से लेते हुए गंभीर रूप से झुलसे व्यक्ति को जिला अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है और अज्ञात के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कर अन्य विधि कार्रवाई की जा रही है।  दो भाइयों में बड़ा झुलसे विनोद के पिता राजेंद्र फालिस के शिकार हैं, जबकि पत्नी की मृत्यु तीन साल पहले हो चुकी है। घटना की सूचना सुबह थानाध्यक्ष विक्रम लक्ष्मण सिंह को मिली तो दर्जनभर से अधिक की संख्या में पहुंचे पुलिसकर्मियों ने घटना की जानकारी ली।थानाध्यक्ष ने बताया कि जिला अस्पताल पहुंच झुलसे युवक से पूछताछ की तो युवक ने बताया कि मेरे पास मेरा छोटा बेटा भी सोया था। दो बजे रात उसे घर में सुलाकर मैं पुनः अपने बिस्तर पर आकर सो गया, तभी आग की लपट से नींद खुल गई। थानाध्यक्ष विक्रम लक्ष्मण सिंह ने बताया कि आग पेट्रोल की है या बीड़ी सिगरेट की है, जांच की जा रही है।  

या देवी सर्वभूतेषु मां छठ रुपेण संस्था नमसत्संये नमसत्संये, नमस्तेस्ये नमो नमः, विवेक सिंह

 


छठ महोत्सव: सूर्य उपासना की अनुपम परंपरा
विवेक सिंह, बस्ती, उत्तर प्रदेश

भारतीय संस्कृति में त्योहारों का विशेष स्थान है, जो न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक हैं, बल्कि सामाजिक एकता, सांस्कृतिक धरोहर और पर्यावरणीय संतुलन के संदेश भी देते हैं। इनमें से एक ऐसा पर्व है छठ, जो सूर्य देव की आराधना पर आधारित है। छठ महोत्सव, जिसे छठ पूजा के नाम से भी जाना जाता है, मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ भागों में मनाया जाता है। यह कार्तिक शुक्ल पक्ष की छठी तिथि से शुरू होकर सप्तमी तक चलने वाला चार दिवसीय उत्सव है। २०२५ में, जब हम २७ अक्टूबर को इसकी चर्चा कर रहे हैं, छठ का आगमन नवंबर के प्रारंभ में होने वाला है, जो लोगों के जीवन में एक नई ऊर्जा का संचार करता है।
छठ का अर्थ है 'छठा', लेकिन इसका गहरा दार्शनिक महत्व है। यह सूर्य की सात किरणों में से छठी किरण 'उष्णा' की उपासना का प्रतीक माना जाता है, जो जीवन को गति देती है। यह पर्व व्रत, पूजा, भक्ति और प्रकृति के साथ सामंजस्य का अनोखा संगम है। महिलाओं द्वारा निर्वहन किया जाने वाला यह व्रत परिवार की सुख-समृद्धि, संतान प्राप्ति और रोग निवारण के लिए किया जाता है। लेकिन छठ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सामाजिक उत्सव है, जहाँ गंगा-यमुना-कोसी जैसी नदियों के तट पर लाखों लोग एकत्र होते हैं, गीत गाते हैं और एक-दूसरे के प्रति प्रेम बाँटते हैं। इस लेख में हम छठ के इतिहास, महत्व, विधि, सांस्कृतिक आयाम और आधुनिक प्रासंगिकता पर विस्तार से चर्चा करेंगे, ताकि इसकी महिमा को समझा जा सके।
छठ का इतिहास और उत्पत्ति
छठ महोत्सव की जड़ें प्राचीन वैदिक काल में खोजी जा सकती हैं। ऋग्वेद और महाभारत जैसे ग्रंथों में सूर्य उपासना का उल्लेख मिलता है। मान्यता है कि छठ की शुरुआत भगवान राम ने की थी। अयोध्या से वनवास लौटते समय, जब सीता माता गर्भवती थीं, तो उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिए कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य देव का व्रत रखा। यह घटना रामायण में वर्णित है, जहाँ राम ने भी इस व्रत में भाग लिया। एक अन्य कथा के अनुसार, माता सावित्री ने अपने प

ति सत्यवान को यमराज के चंगुल से मुक्त करने के लिए इसी व्रत का पालन किया।

पुरातात्विक दृष्टि से, छठ की परंपरा सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़ी हो सकती है। वहाँ सूर्य पूजा के प्रमाण मिलते हैं। मध्यकाल में, यह पर्व बौद्ध और जैन प्रभाव से भी समृद्ध हुआ। भगवान बुद्ध की माँ महामाया ने भी सूर्य उपासना की थी। ब्रिटिश काल में, जब बिहार के लोग पूर्वी भारत के विभिन्न भागों में मजदूरी के लिए गए, तो उन्होंने छठ को वहाँ फैला दिया। आज यह उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों जैसे गोरखपुर, देवरिया से लेकर दिल्ली, मुंबई तक पहुँच चुका है।
ऐतिहासिक रूप से, छठ एक लोक-आधारित पर्व है, जो राजसी वैभव से दूर, साधारण जन की भावनाओं को प्रतिबिंबित करता है। २०वीं शताब्दी में, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, छठ ने सामाजिक एकता का प्रतीक बनाया। महात्मा गांधी ने भी प्रकृति पूजा को प्रोत्साहित किया, जो छठ के मूल में है। आज, जब जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक चुनौती है, छठ का पर्यावरणीय संदेश – नदी तट पर स्नान, वृक्षारोपण और शाकाहारी भोजन – और भी प्रासंगिक हो गया है। इसकी उत्पत्ति से ही छठ ने सूर्य को जीवन का स्रोत मानकर, अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा का संदेश दिया है।  
छठ का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व

छठ महोत्सव: सूर्य उपासना की अनुपम परंपरा
परिचय
भारतीय संस्कृति में त्योहारों का विशेष स्थान है, जो न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक हैं, बल्कि सामाजिक एकता, सांस्कृतिक धरोहर और पर्यावरणीय संतुलन के संदेश भी देते हैं। इनमें से एक ऐसा पर्व है छठ, जो सूर्य देव की आराधना पर आधारित है। छठ महोत्सव, जिसे छठ पूजा के नाम से भी जाना जाता है, मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ भागों में मनाया जाता है। यह कार्तिक शुक्ल पक्ष की छठी तिथि से शुरू होकर सप्तमी तक चलने वाला चार दिवसीय उत्सव है। २०२५ में, जब हम २७ अक्टूबर को इसकी चर्चा कर रहे हैं, छठ का आगमन नवंबर के प्रारंभ में होने वाला है, जो लोगों के जीवन में एक नई ऊर्जा का संचार करता है।
छठ का अर्थ है 'छठा', लेकिन इसका गहरा दार्शनिक महत्व है। यह सूर्य की सात किरणों में से छठी किरण 'उष्णा' की उपासना का प्रतीक माना जाता है, जो जीवन को गति देती है। यह पर्व व्रत, पूजा, भक्ति और प्रकृति के साथ सामंजस्य का अनोखा संगम है। महिलाओं द्वारा निर्वहन किया जाने वाला यह व्रत परिवार की सुख-समृद्धि, संतान प्राप्ति और रोग निवारण के लिए किया जाता है। लेकिन छठ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सामाजिक उत्सव है, जहाँ गंगा-यमुना-कोसी जैसी नदियों के तट पर लाखों लोग एकत्र होते हैं, गीत गाते हैं और एक-दूसरे के प्रति प्रेम बाँटते हैं। इस लेख में हम छठ के इतिहास, महत्व, विधि, सांस्कृतिक आयाम और आधुनिक प्रासंगिकता पर विस्तार से चर्चा करेंगे, ताकि इसकी महिमा को समझा जा सके। (शब्द गिनती: २८०)
छठ का इतिहास और उत्पत्ति
छठ महोत्सव की जड़ें प्राचीन वैदिक काल में खोजी जा सकती हैं। ऋग्वेद और महाभारत जैसे ग्रंथों में सूर्य उपासना का उल्लेख मिलता है। मान्यता है कि छठ की शुरुआत भगवान राम ने की थी। अयोध्या से वनवास लौटते समय, जब सीता माता गर्भवती थीं, तो उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिए कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य देव का व्रत रखा। यह घटना रामायण में वर्णित है, जहाँ राम ने भी इस व्रत में भाग लिया। एक अन्य कथा के अनुसार, माता सावित्री ने अपने पति सत्यवान को यमराज के चंगुल से मुक्त करने के लिए इसी व्रत का पालन किया।
पुरातात्विक दृष्टि से, छठ की परंपरा सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़ी हो सकती है। वहाँ सूर्य पूजा के प्रमाण मिलते हैं। मध्यकाल में, यह पर्व बौद्ध और जैन प्रभाव से भी समृद्ध हुआ। भगवान बुद्ध की माँ महामाया ने भी सूर्य उपासना की थी। ब्रिटिश काल में, जब बिहार के लोग पूर्वी भारत के विभिन्न भागों में मजदूरी के लिए गए, तो उन्होंने छठ को वहाँ फैला दिया। आज यह उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों जैसे गोरखपुर, देवरिया से लेकर दिल्ली, मुंबई तक पहुँच चुका है।
ऐतिहासिक रूप से, छठ एक लोक-आधारित पर्व है, जो राजसी वैभव से दूर, साधारण जन की भावनाओं को प्रतिबिंबित करता है। २०वीं शताब्दी में, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, छठ ने सामाजिक एकता का प्रतीक बनाया। महात्मा गांधी ने भी प्रकृति पूजा को प्रोत्साहित किया, जो छठ के मूल में है। आज, जब जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक चुनौती है, छठ का पर्यावरणीय संदेश – नदी तट पर स्नान, वृक्षारोपण और शाकाहारी भोजन – और भी प्रासंगिक हो गया है। इसकी उत्पत्ति से ही छठ ने सूर्य को जीवन का स्रोत मानकर, अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा का संदेश दिया है। (शब्द गिनती: ५२०, कुल: ८००)
छठ का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व
छठ सूर्य देव और छठी देवी (षष्ठी माता) की उपासना का पर्व है। हिंदू धर्म में सूर्य को आदि देव माना जाता है, जो प्राणों का पोषण करता है। आयुर्वेद के अनुसार, सूर्य की किरणें विटामिन डी प्रदान करती हैं, जो हड्डियों और रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत बनाती हैं। धार्मिक रूप से, यह व्रत पापों का नाश करता है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। पुराणों में कहा गया है कि छठ व्रत करने से सात जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
महिलाओं के लिए यह व्रत विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। नि:संतान दंपतियों के लिए संतान प्राप्ति, विवाहितों के लिए सुखी दांपत्य और बुजुर्गों के लिए दीर्घायु का वरदान माना जाता है। पुरुष भी इसमें भाग लेते हैं, लेकिन मुख्य व्रती महिलाएँ होती हैं। यह व्रत तामसिक प्रवृत्तियों को सात्विक बनाता है। योग शास्त्र में, सूर्य नमस्कार छठ से प्रेरित है, जो सूर्य की ऊर्जा को आत्मा में समाहित करता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से, छठ ध्यान और एकाग्रता सिखाता है। चार दिनों का कठोर व्रत – जल ही जल – शरीर को शुद्ध करता है। सूर्योदय और सूर्यास्त पर अर्घ्य देकर, व्रती प्रकृति के चक्र को सम्मान देते हैं। यह पर्व वेदांत के 'तत्वमसि' (तू वही है) के सिद्धांत को जीवंत करता है, जहाँ व्यक्ति और ब्रह्मांड एक हो जाते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान में, यह माइंडफुलनेस का रूप है, जो तनाव मुक्ति प्रदान करता है। छठ का महत्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि जीवन दर्शन है – प्रकाश की खोज में अंधकार को पार करना। (शब्द गिनती: ४२०, कुल: १२२०)
छठ पूजा की विधि और अनुष्ठान
छठ पूजा चार दिनों का कठोर अनुष्ठान है, जो कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से सप्तमी तक चलता है। प्रत्येक दिन की अपनी विशिष्ट विधि है, जो शुद्धता और भक्ति पर आधारित है।
पहला दिन: नहाय-खाय
यह व्रत का प्रारंभ है। व्रती स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करती हैं। घर की सफाई की जाती है। भोजन में केवल गुड़, चावल, दाल और सब्जियाँ होती हैं। 'खाय' का अर्थ है भोजन, लेकिन यह सात्विक और सीमित होता है। परिवार के साथ स्नानघाट पर जाकर पवित्र जल छूते हैं। यह दिन शारीरिक शुद्धि का प्रतीक है।
दूसरा दिन: खरना
खरना या कद्दू भात का दिन। व्रती एक बार भोजन करती हैं – चावल, गुड़ की खीर और कद्दू की सब्जी। यह भोजन प्रसाद रूप में वितरित किया जाता है। व्रती रात्रि से उपवास प्रारंभ करती हैं। घर में ठेकुआ (गुड़-गेहूँ की रोटी) बनाया जाता है, जो छठ का प्रमुख प्रसाद है। यह दिन मानसिक शुद्धि का है, जहाँ व्रती परिवार की भलाई के लिए प्रार्थना करती हैं।
तीसरा दिन: संध्या अर्घ्य
सबसे कठिन दिन। व्रती ३६ घंटे का निर्जल उपवास रखती हैं। सूर्यास्त के समय नदी तट पर बांस की चौकी सजाई जाती है। उस पर फल, ठेकुआ, सकोर (तरबूज) आदि रखे जाते हैं। दाहिने हाथ में सूप (टोकरी) लिए व्रती सूर्य को अर्घ्य देती हैं। 'देवी सूर्यवंशं...' जैसे छठ गीत गाए जाते हैं। यह अर्घ्य प्रकृति को धन्यवाद ज्ञापित करने का माध्यम है।
चौथा दिन: उषा अर्घ्य
सूर्योदय पर अर्घ्य देकर व्रत समाप्त होता है। प्रसाद ग्रहण किया जाता है। परिवार के साथ भोजन साझा होता है। यह दिन विजय का प्रतीक है, जहाँ अंधकार पर प्रकाश की जीत होती है।
पूजा सामग्री में कोई रंगीन या कृत्रिम वस्तु नहीं होती। सब कुछ प्राकृतिक – बाँस, मिट्टी का दीया, मौसमी फल। व्रत के दौरान नमक, मसाले निषिद्ध हैं। यह विधि न केवल धार्मिक, बल्कि स्वास्थ्यवर्धक भी है, क्योंकि उपवास detox करता है। (शब्द गिनती: 

सांस्कृतिक और सामाजिक आयाम
छठ एक सांस्कृतिक उत्सव है, जो लोकगीतों, नृत्य और कला से भरपूर है। छठ गीत – 'हो सजन हो...', 'काहे तोहार गर्व होय' – बिहारी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। ये गीत प्रेम, विरह और भक्ति से ओतप्रोत हैं। महिलाओं के समूह में गाए जाने वाले ये गीत सामूहिकता सिखाते हैं।
सामाजिक रूप से, छठ जाति-धर्म की सीमाओं को तोड़ता है। नदी तट पर सभी एक साथ खड़े होते हैं – अमीर-गरीब, ऊँच-नीच का भेद मिट जाता है। यह महिला सशक्तिकरण का प्रतीक है, क्योंकि व्रत महिलाएँ ही रखती हैं, जो परिवार की धुरी हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में, ठेकुआ और फलों का बाजार फलता-फूलता है।
क्षेत्रीय विविधताएँ रोचक हैं। बिहार के भागलपुर में कोसी नदी पर विशाल मेले लगते हैं, जबकि झारखंड के रांची में आदिवासी तत्व जुड़ते हैं। उत्तर प्रदेश में यह 'सूर्य षष्ठी' कहलाता है। प्रवासी बिहारियों ने मुंबई के जुहू बीच पर छठ मनाना शुरू किया, जो अब राष्ट्रीय पहचान बन गया। 
पर्यावरणीय और स्वास्थ्य लाभ
छठ पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है। नदी तट पर स्नान जल संरक्षण सिखाता है। शाकाहारी भोजन और मौसमी फल जलवायु अनुकूल हैं। व्रत से डिटॉक्स होता है, इम्यूनिटी बढ़ती है। सूर्य स्नान से विटामिन डी मिलता है।
आधुनिक संदर्भ और चुनौतियाँ
आज छठ वैश्विक हो गया है। सोशल मीडिया पर लाइव प्रसारण होते हैं। लेकिन प्रदूषण, नदियों का अतिक्रमण चुनौतियाँ हैं। सरकारें छठ घाट विकसित कर रही हैं। युवा पीढ़ी इसे पर्यावरण दिवस के रूप में देख रही है।

छठ सूर्य की किरणों सा उज्ज्वल पर्व है, जो जीवन को नई दिशा देता है। यह परंपरा, भक्ति और एकता का संगम है। आइए, हम सब इसे अपनाएँ, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इस धरोहर को संजोएँ। जय छठ माता! जय सूर्य देव!

छठ सूर्य देव और छठी देवी (षष्ठी माता) की उपासना का पर्व है। हिंदू धर्म में सूर्य को आदि देव माना जाता है, जो प्राणों का पोषण करता है। आयुर्वेद के अनुसार, सूर्य की किरणें विटामिन डी प्रदान करती हैं, जो हड्डियों और रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत बनाती हैं। धार्मिक रूप से, यह व्रत पापों का नाश करता है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। पुराणों में कहा गया है कि छठ व्रत करने से सात जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
महिलाओं के लिए यह व्रत विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। नि:संतान दंपतियों के लिए संतान प्राप्ति, विवाहितों के लिए सुखी दांपत्य और बुजुर्गों के लिए दीर्घायु का वरदान माना जाता है। पुरुष भी इसमें भाग लेते हैं, लेकिन मुख्य व्रती महिलाएँ होती हैं। यह व्रत तामसिक प्रवृत्तियों को सात्विक बनाता है। योग शास्त्र में, सूर्य नमस्कार छठ से प्रेरित है, जो सूर्य की ऊर्जा को आत्मा में समाहित करता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से, छठ ध्यान और एकाग्रता सिखाता है। चार दिनों का कठोर व्रत – जल ही जल – शरीर को शुद्ध करता है। सूर्योदय और सूर्यास्त पर अर्घ्य देकर, व्रती प्रकृति के चक्र को सम्मान देते हैं। यह पर्व वेदांत के 'तत्वमसि' (तू वही है) के सिद्धांत को जीवंत करता है, जहाँ व्यक्ति और ब्रह्मांड एक हो जाते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान में, यह माइंडफुलनेस का रूप है, जो तनाव मुक्ति प्रदान करता है। छठ का महत्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि जीवन दर्शन है – प्रकाश की खोज में अंधकार को पार करना। 

छठ पूजा की विधि और अनुष्ठान
छठ पूजा चार दिनों का कठोर अनुष्ठान है, जो कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से सप्तमी तक चलता है। प्रत्येक दिन की अपनी विशिष्ट विधि है, जो शुद्धता और भक्ति पर आधारित है।
पहला दिन: नहाय-खाय

यह व्रत का प्रारंभ है। व्रती स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करती हैं। घर की सफाई की जाती है। भोजन में केवल गुड़, चावल, दाल और सब्जियाँ होती हैं। 'खाय' का अर्थ है भोजन, लेकिन यह सात्विक और सीमित होता है। परिवार के साथ स्नानघाट पर जाकर पवित्र जल छूते हैं। यह दिन शारीरिक शुद्धि का प्रतीक है।
दूसरा दिन: खरना
खरना या कद्दू भात का दिन। व्रती एक बार भोजन करती हैं – चावल, गुड़ की खीर और कद्दू की सब्जी। यह भोजन प्रसाद रूप में वितरित किया जाता है। व्रती रात्रि से उपवास प्रारंभ करती हैं। घर में ठेकुआ (गुड़-गेहूँ की रोटी) बनाया जाता है, जो छठ का प्रमुख प्रसाद है। यह दिन मानसिक शुद्धि का है, जहाँ व्रती परिवार की भलाई के लिए प्रार्थना करती हैं।
तीसरा दिन: संध्या अर्घ्य
सबसे कठिन दिन। व्रती ३६ घंटे का निर्जल उपवास रखती हैं। सूर्यास्त के समय नदी तट पर बांस की चौकी सजाई जाती है। उस पर फल, ठेकुआ, सकोर (तरबूज) आदि रखे जाते हैं। दाहिने हाथ में सूप (टोकरी) लिए व्रती सूर्य को अर्घ्य देती हैं। 'देवी सूर्यवंशं...' जैसे छठ गीत गाए जाते हैं। यह अर्घ्य प्रकृति को धन्यवाद ज्ञापित करने का माध्यम है।
चौथा दिन: उषा अर्घ्य
सूर्योदय पर अर्घ्य देकर व्रत समाप्त होता है। प्रसाद ग्रहण किया जाता है। परिवार के साथ भोजन साझा होता है। यह दिन विजय का प्रतीक है, जहाँ अंधकार पर प्रकाश की जीत होती है।
पूजा सामग्री में कोई रंगीन या कृत्रिम वस्तु नहीं होती। सब कुछ प्राकृतिक – बाँस, मिट्टी का दीया, मौसमी फल। व्रत के दौरान नमक, मसाले निषिद्ध हैं। यह विधि न केवल धार्मिक, बल्कि स्वास्थ्यवर्धक भी है, क्योंकि उपवास detox करता है। (शब्द गिनती: 
सांस्कृतिक और सामाजिक आयाम
छठ एक सांस्कृतिक उत्सव है, जो लोकगीतों, नृत्य और कला से भरपूर है। छठ गीत – 'हो सजन हो...', 'काहे तोहार गर्व होय' – बिहारी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। ये गीत प्रेम, विरह और भक्ति से ओतप्रोत हैं। महिलाओं के समूह में गाए जाने वाले ये गीत सामूहिकता सिखाते हैं।
सामाजिक रूप से, छठ जाति-धर्म की सीमाओं को तोड़ता है। नदी तट पर सभी एक साथ खड़े होते हैं – अमीर-गरीब, ऊँच-नीच का भेद मिट जाता है। यह महिला सशक्तिकरण का प्रतीक है, क्योंकि व्रत महिलाएँ ही रखती हैं, जो परिवार की धुरी हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में, ठेकुआ और फलों का बाजार फलता-फूलता है।
क्षेत्रीय विविधताएँ रोचक हैं। बिहार के भागलपुर में कोसी नदी पर विशाल मेले लगते हैं, जबकि झारखंड के रांची में आदिवासी तत्व जुड़ते हैं। उत्तर प्रदेश में यह 'सूर्य षष्ठी' कहलाता है। प्रवासी बिहारियों ने मुंबई के जुहू बीच पर छठ मनाना शुरू किया, जो अब राष्ट्रीय पहचान बन गया। 
पर्यावरणीय और स्वास्थ्य लाभ
छठ पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है। नदी तट पर स्नान जल संरक्षण सिखाता है। शाकाहारी भोजन और मौसमी फल जलवायु अनुकूल हैं। व्रत से डिटॉक्स होता है, इम्यूनिटी बढ़ती है। सूर्य स्नान से विटामिन डी मिलता है।
आधुनिक संदर्भ और चुनौतियाँ
आज छठ वैश्विक हो गया है। सोशल मीडिया पर लाइव प्रसारण होते हैं। लेकिन प्रदूषण, नदियों का अतिक्रमण चुनौतियाँ हैं। सरकारें छठ घाट विकसित कर रही हैं। युवा पीढ़ी इसे पर्यावरण दिवस के रूप में देख रही है।

छठ सूर्य की किरणों सा उज्ज्वल पर्व है, जो जीवन को नई दिशा देता है। यह परंपरा, भक्ति और एकता का संगम है। आइए, हम सब इसे अपनाएँ, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इस धरोहर को संजोएँ। जय छठ माता! जय सूर्य देव!