शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

प्रथम प्रधानमंत्री,गाँधी, पटेल, डॉ अम्बेडकर या जेपी होते तो?

 

प्रथम प्रधानमंत्री,गाँधी, पटेल, डॉ अम्बेडकर या जेपी होते तो?
नमन लौह पुरुष!
















यह विषय भारतीय स्वतंत्रता के बाद की उस ऐतिहासिक घड़ी से जुड़ा है जब नए भारत की बुनियाद रखी जा रही थी। यदि महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण, डॉ. भीमराव अंबेडकर या सरदार वल्लभभाई पटेल में से कोई एक स्वतंत्र भारत का प्रथम प्रधानमंत्री बनता, तो देश की दिशा और दशा अनेक रूपों में भिन्न हो सकती थी। विशेष रूप से यह विचार कि शायद भारत विभाजन का दंश नहीं झेलता और आतंकवाद जैसी स्थितियाँ उत्पन्न नहीं होतीं—ऐतिहासिक विश्लेषण की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक है।
गांधी युग की वैकल्पिक संभावनाएँ यदि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री महात्मा गांधी होते, तो देश की राजनीतिक नीति का केंद्र बिंदु सेवा, सत्य और अहिंसा होता। गांधी सत्ता की चाह नहीं रखते थे, लेकिन यदि राष्ट्र ने उन्हें मार्गदर्शक से आगे बढ़ाकर कार्यकारी नेता बना दिया होता, तो:भारत की शासन प्रणाली अत्यधिक विकेंद्रीकृत होती। गांधी ग्राम स्वराज के प्रबल समर्थक थे।दिल्ली से नियंत्रण के बजाय, ग्राम पंचायतें और स्थानीय शासन इकाइयाँ सशक्त होतीं।धार्मिक सौहार्द की दिशा में बड़े पैमाने पर नैतिक सुधार आंदोलन प्रारंभ होता।विभाजन के समय हिंदू-मुस्लिम एकता बनाए रखने के लिए गांधी का व्यक्तिगत प्रभाव निर्णायक साबित हो सकता था।भारत का औद्योगिक ढाँचा पश्चिमी शैली पर आधारित न होकर आत्मनिर्भर कुटीर उद्योगों पर आधारित होता।

गांधी के नेतृत्व में यह संभव था कि पाकिस्तान की मांग को नैतिक और संवादमयी समाधान के माध्यम से टाला जा सके। गांधी ने अंतिम समय तक विभाजन के विरोध में आवाज बुलंद की थी। यदि निर्णय तंत्र उनके हाथ में होता, तो सीमांकन के बजाय संयुक्त भारत की कल्पना साकार हो सकती थी।जयप्रकाश नारायण की समाजवादी सोच जयप्रकाश नारायण (जेपी) स्वतंत्रता संग्राम के समाजवादी धड़े के प्रमुख नेता थे। यदि वे प्रधानमंत्री होते, तो भारत के राजनीतिक दर्शन की नींव समाजवाद और जनशक्ति पर रखी जाती।जेपी सत्ता के केंद्रीकरण के सख्त विरोधी थे। वे जन आंदोलनों के माध्यम से लोकतंत्र को जन-भागीदारी का माध्यम बनाना चाहते थे।उनके नेतृत्व में भूमि सुधार, श्रम हित संरक्षण और आर्थिक समानता को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलती।बड़े औद्योगिक घरानों की जगह सहकारी मॉडल को बढ़ावा दिया जाता।श्रीनगर, कश्मीर या पंजाब में उत्पन्न होने वाले क्षेत्रीय असंतोष का समाधान जयप्रकाश की लोकतांत्रिक संवेदना के माध्यम से संभव था।वे समाज में धार्मिक और आर्थिक असमानताओं को समाप्त करने के लिए व्यापक सामाजिक क्रांति के पक्षधर थे।जेपी का नेतृत्व भावनात्मक रूप से जनता को जोड़ने वाला था। उनके प्रधानमंत्री बनने पर भारत की लोकतांत्रिक संस्कृति और ज़मीनी सक्रियता आज कहीं अधिक परिपक्व और सशक्त होती।
डॉ. भीमराव अंबेडकर का वैचारिक नेतृत्व डॉ. अंबेडकर यदि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री होते, तो संविधानिक शासन व्यवस्था और सामाजिक न्याय के तत्व और अधिक गहराई से लागू होते।अंबेडकर ने दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के अधिकारों की जो परिकल्पना संविधान में की, वह प्रशासनिक और राजनीतिक निर्णयों में प्रत्यक्ष नीति बन जाती।भारत की शिक्षा नीति ज्ञान आधारित, तकनीकी और व्यावसायिक सशक्तिकरण पर केंद्रित होती।पाकिस्तान बनने के पीछे जो धार्मिक मतभेद और असमानता की भावना थी, उसे अंबेडकर तर्कपूर्ण और कानूनी आधार पर नियंत्रित कर सकते थे। वे समान नागरिकता और समान अधिकारों के प्रवक्ता थे।अंबेडकर के नेतृत्व में भारत एक मजबूत सामाजिक लोकतंत्र के रूप में उभरता, जिसमें किसी वर्ग या मज़हब के नाम पर राजनीति नहीं होती।आतंकवाद जैसी समस्या, जो असमानता और अलगाव की भावना से जन्म लेती है, उनका शासन उस मानसिकता को ही समाप्त कर देता।डॉ. अंबेडकर का शासन बोधि वृक्ष की तरह सामाजिक समरसता, शिक्षा और आर्थिक सशक्तिकरण पर टिका होता, न कि राजनीतिक नारेबाज़ी पर।
सरदार वल्लभभाई पटेल का राष्ट्रनिर्माणभारत के ‘लौह पुरुष’ सरदार पटेल यदि प्रथम प्रधानमंत्री होते, तो भारत का राजनीतिक नक्शा और रणनीतिक स्थिति दोनों अत्यंत सुदृढ़ होते।उन्होंने 562 रियासतों के एकीकरण का जो कार्य गृहमंत्री रहते किया, वह राष्ट्र के प्रति उनकी प्रशासनिक और संगठनात्मक क्षमता को प्रमाणित करता है।प्रधानमंत्री के रूप में वे पाकिस्तान के साथ समझौते में भावनाओं के बजाय तर्क और सख्ती दिखाते।कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ जैसे मुद्दों पर उनका रुख मजबूत होता, जिससे इन क्षेत्रों में भविष्य की अस्थिरता कम होती।सरदार पटेल की प्राथमिकता राष्ट्रीय सुरक्षा, प्रशासनिक अनुशासन और राजनीतिक एकता होती।वे धार्मिक या भाषायी भावनाओं के बजाय भारत के एक अखंड राजनीतिक ढांचे को प्राथमिकता देते।यदि वे प्रधानमंत्री बनते, तो यह लगभग सुनिश्चित था कि विभाजन वैसा न होता जैसा हुआ। यदि विभाजन होता भी, तो सीमाएं और समझौते अधिक तटस्थ और दीर्घकालिक दृष्टि से तैयार होते। परिणामस्वरूप, पंजाब और कश्मीर में बाद के दशकों में जो आतंकवाद और अलगाववाद पनपा, उसकी संभावना बहुत सीमित रह जाती।संभावित ऐतिहासिक परिणाम 
यदि इन चारों में से कोई भी नेता स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री होता, तो कई ऐतिहासिक परिणाम अलग होते:विभाजन की आशंका घटती, क्योंकि गांधी और पटेल दोनों ही एकीकृत भारत के पक्षधर थे।धार्मिक राजनीति कमजोर पड़ती, क्योंकि अंबेडकर और जेपी समाज आधारित समानता पर बल देते थे।कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद उभरने के कारण ही उत्पन्न न होते, क्योंकि प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर पहले ही रोकथाम होती।लोकतंत्र का स्वरूप अधिक सहभागी और मूल्य आधारित होता, सिर्फ चुनावी नहीं।गरीबी और जातिगत विषमता तेजी से घट सकती थी, विशेषकर अंबेडकर और जेपी के नेतृत्व में।
विशेषकर  स्वतंत्रता के बाद का नेतृत्व यदि गांधी, जयप्रकाश नारायण, डॉ. अंबेडकर या सरदार पटेल में से किसी के हाथ में होता, तो भारतीय राज्य का चरित्र नैतिक, संगठनात्मक और सामाजिक दृष्टि से कहीं अधिक संतुलित होता। विभाजन की त्रासदी से बचना पूरी तरह संभव न सही, लेकिन उसका स्वरूप और मानसिक प्रभाव अत्यंत सीमित होता। आतंकवाद और धार्मिक विघटन की जड़ें, जो भारत-पाक विभाजन से उपजीं, शायद कभी इतनी मजबूत न होतीं।इन महान नेताओं की दृष्टि एक व्यापक, न्यायसंगत और समरस भारत की थी। स्वतंत्र भारत को यदि उस दृष्टि की दिशा मिलती, तो आज का भारत शायद अधिक शांतिपूर्ण, सामर्थ्यवान और विश्व के नैतिक नेतृत्व में अग्रणी होता।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें