टीईटी का जाल या न्याय का सवाल?
— जब शिक्षक भी बन गए परीक्षा की प्रयोगशाला के प्राणी
बस्ती से उठी यह आवाज़ आज देश के लाखों शिक्षकों की पीड़ा का प्रतीक है।शिक्षक — जो समाज का निर्माता है,अब “प्रमाणपत्र” का याचक बन चुका है।
गुरुवार को उत्तर प्रदेशीय प्राथमिक शिक्षक संघ के पदाधिकारियों ने केन्द्रीय मंत्री जयन्त चौधरी को ज्ञापन सौंपकर एक साधारण, पर बेहद गम्भीर मांग रखी —
“शिक्षकों को टीईटी परीक्षा से मुक्त किया जाए।”
कारण — सर्वोच्च न्यायालय का आदेश, जिसने कहा कि शिक्षण सेवा में कार्यरत प्रत्येक शिक्षक को पात्रता परीक्षा पास करनी होगी। विवेचना : कानून और यथार्थ की टकराहट
न्यायालय का आशय स्पष्ट है — शिक्षा की गुणवत्ता बढ़े, अध्यापक योग्य हों।परन्तु जमीनी सच कुछ और कहता है।जो शिक्षक वर्षों से सेवा दे रहे हैं, जिन्होंने अनेक बार विद्यार्थियों को परीक्षा के मापदंड समझाए हैं —उन्हीं को आज पुनः एक परीक्षा का परीक्षार्थी बना दिया गया है!क्या यह गुणवत्ता सुधार है या नौकरशाही का अविश्वास?क्या अनुभवी शिक्षक की योग्यता का पैमाना केवल एक टेस्ट स्कोर होगा?यह वह प्रश्न है जो हर विद्यालय की दीवारों से टकराकर शासन के कानों तक पहुँचना चाहता है।समस्या का मूल : नीति की नकल, परिस्थिति की अनदेखी
भारत की शिक्षा नीतियाँ अक्सर संकल्प में उत्तम पर कार्यान्वयन में असंवेदनशील होती हैं।टीईटी जैसी परीक्षा का उद्देश्य था — नए अभ्यर्थियों की छंटनी और मानकीकरण।पर जब यही परीक्षा कार्यरत शिक्षकों पर लागू कर दी गई, तो यह सुधार नहीं,संवेदनहीनता बन गया।सरकारों की प्रवृत्ति रही है कि हर नई समस्या का हल “नई परीक्षा” या “नया कानून” में खोजा जाए।
परंतु शिक्षा-क्षेत्र की पीड़ा कागज़ पर नहीं, कक्षा में दिखाई देती है।
वह शिक्षक जो 15–20 वर्षों से बच्चों के भविष्य को आकार दे रहा है,उसे एक दिन कहा जाता है — “पहले अपनी पात्रता साबित करो।”यह शिक्षक का नहीं, नीति-निर्माण की दृष्टि का अवमूल्यन है। ज्ञापन और जनभावना : अभय सिंह यादव का नेतृत्व
शिक्षक नेता अभय सिंह यादव ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट कहा —
सरकार स्वयं हस्तक्षेप कर नियमों में संशोधन करे।
उनका यह आग्रह केवल एक वर्गीय मांग नहीं, बल्कि एक संस्थागत चेतावनी है —कि जब नीति व्यावहारिकता से कट जाती है, तो आंदोलन अनिवार्य हो जाता है।उन्होंने बताया कि शिक्षक काली पट्टी बाँधकर शिक्षण कार्य कर रहे हैं।यह विरोध की मर्यादित परंतु गहरी अभिव्यक्ति है —
l“काम भी करेंगे, विरोध भी करेंगे।”
यही लोकतंत्र का शिक्षक धर्म है।
राजनीतिक संकेत : जयन्त चौधरी का आश्वासन
केंद्रीय मंत्री जयन्त चौधरी का यह कथन —प्रकरण सरकार के संज्ञान में है, शीघ्र हल निकाला जाएगा” —भारतीय प्रशासनिक संस्कृति की परिचित पंक्ति है।यह “वादा” और “विलंब” के बीच की मध्यवर्ती स्थिति है।फिर भी यह उल्लेखनीय है कि शिक्षकों की यह आवाज़ दिल्ली तक पहुँची है।
आज का ज्ञापन केवल एक प्रशासनिक दस्तावेज नहीं,
बल्कि उस मानसिक बेचैनी का प्रतीक है जो शिक्षक वर्ग वर्षों से महसूस कर रहा है।
शिक्षक और परीक्षा का विरोधाभास
विडम्बना यह है कि जो समाज के विद्यार्थियों को परीक्षा के लिए तैयार करता है,उसे ही अब अपनी नौकरी बचाने के लिए परीक्षा देनी पड़ रही है।यह विरोधाभास केवल प्रशासनिक नहीं, दार्शनिक भी है।
कभी शिक्षक “गुरु” कहलाता था — अब “कैंडिडेट” है।
कभी वह “संस्कार” देता था — अब “सर्टिफिकेट” ढूँढता है।
यह रूपांतरण शिक्षा की आत्मा पर सबसे बड़ा व्यंग्य है।
कौटिल्य दृष्टि : राज्य जब शिक्षक को संदेह की दृष्टि से देखे…
कौटिल्य ने “अर्थशास्त्र” में लिखा था —
“राज्य का स्थायित्व शिक्षित वर्ग की निष्ठा पर निर्भर है।”
यदि वही वर्ग असंतुष्ट हो, और उसे बार-बार अपनी पात्रता सिद्ध करनी पड़े,
तो यह शासन की नीति-संदेह की स्थिति है।
शासन को चाहिए कि वह सुधार और सम्मान में भेद करे।
सुधार वह है जो योग्यता बढ़ाए;
संदेह वह है जो योग्यता को अपमानित करे।
टीईटी की बाध्यता आज शिक्षा-सुधार नहीं, शिक्षक-संदेह का प्रतीक बन गई है
समाधान : संशोधन नहीं, संवेदनशीलता चाहिए
सरकार चाहे तो नया कानून लाए —
जिसमें कहा जाए कि जिन शिक्षकों की सेवा अवधि निश्चित सीमा से अधिक है,
उन्हें “स्वतः पात्र” माना जाए।
यह न तो न्यायालय की अवमानना होगी,
न ही शिक्षक सम्मान का हनन।
बल्कि यह नीति की मानवीय व्याख्या होगी।
यह याद रखना होगा —
विद्यालय केवल भवन नहीं, शिक्षक के आचरण से बनते हैं।
और जब शिक्षक ही असुरक्षित महसूस करेगा,
तो शिक्षा का वातावरण कैसे सुरक्षित रहेगा?
शिक्षक के सम्मान से ही राष्ट्र का उत्थान
बस्ती से चला यह ज्ञापन केवल एक जिला नहीं, एक दिशा दिखाता है।
यह चेतावनी है कि यदि शिक्षा-व्यवस्था का पहिया अधिक नियमों में फँसा,
तो उसका केन्द्र — शिक्षक — निरुत्साहित हो जाएगा।
शिक्षक को प्रमाणपत्र नहीं, सम्मान का प्रमाण चाहिए।
नीति को परीक्षा नहीं, विश्वास की नीति चाहिए.

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