वर्तमान भारत में वक्फ संशोधन कानून को लेकर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर तीव्र मतभेद हैं। खासतौर पर बिहार की राजनीति में विपक्ष के मुखिया तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी राजद के कुछ कट्टरवादी नेताओं ने खुलेआम इस कानून का विरोध करते हुए कहा है कि यदि वे सत्ता में आए तो इस कानून को 'कूड़ेदान में फेंक दिया जाएगा'। यह बयान न केवल संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन करता है बल्कि लोकतांत्रिक नियमों के प्रति एक चुनौती भी प्रस्तुत करता है।पहले यह समझना आवश्यक है कि वक्फ कानून का संशोधन क्यों लाया गया। वक्फ बोर्ड और वक्फ संपत्तियों की हिफाजत के लिए यह जरूरी हो गया था कि उनके संचालन में पारदर्शिता, जवाबदेही और नियमन हो। पुरानी व्यवस्थाएं निरंकुश और भ्रष्टाचार से ग्रस्त थीं।
इसलिए संसद ने इस कानून को पारित कर केंद्र सरकार ने इसे लागू किया। संविधान के अनुसार संसद का बनाया कानून सभी राज्यों पर लागू होता है और किसी भी राज्य सरकार का इसे उलटने का अधिकार नहीं होता।परंतु विपक्षी दलों ने इस कानून को सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास किया। उनका आरोप था कि यह कानून मुस्लिम समुदाय के खिलाफ है और इसका मकसद 'मुस्लिम तुष्टिकरण' खत्म करना है। यह धारणा पूरी तरह झूठी और राजनीतिक लालच से प्रेरित है। वास्तव में इस कानून का उद्देश्य वक्फ की संपत्तियों को दुरुपयोग से बचाना और उनके विकास को सुनिश्चित करना है।तेजस्वी यादव ने एक सार्वजनिक मंच से कहा कि बिहार में उनकी सरकार बनने पर वे इस कानून को फाड़ देंगे। यह बयान असंवैधानिक होने के साथ-साथ लोकतंत्र और कानून के प्रति अवमानना है। संसद के दोनों सदनों में पारित और राष्ट्रपति की मंजूरी प्राप्त कानून को एक राज्य सरकार कुछ भी करने का निर्णय नहीं ले सकती। कानून तो अपनी जगह स्थिर रहेगा। यदि वे कागज के दस्तावेज फाड़ देंगे, तो क्या पड़ेगा? यह केवल तमाशा होगा, लेकिन कानून का प्रभाव यथावत रहेगा।इस संदर्भ में यह भी देखना महत्वपूर्ण है कि न्यायपालिका ने इस कानून के कुछ प्रावधानों पर अंतरिम आदेश दिया है, मगर पूरी तरह इस पर रोक नहीं लगाई है। इसका मतलब है कि कानूनी प्रक्रिया जारी है और न्यायपालिका इसे जांच रही है। इससे भी स्पष्ट होता है कि किसी राजनीतिक नेता को कानून को तोड़ने-फोड़ने की धमकी देना उचित नहीं है।राजद-कांग्रेस के कुछ नेता चुनावी रैलियों में मुस्लिम वोट बैंक को उकसाने के लिए ऐसी भाषा प्रयोग कर रहे हैं, जिसमें 'इलाज' और 'सबक सिखाने' जैसी धमकियां शामिल हैं। यह 'जंगलराज' की भावना को जिंदा रखने की कोशिश है, जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बिहार की जनता को आगाह किया है कि विपक्ष हिंसा और आतंक फैलाने की कोशिश कर रहा है।इस पूरी स्थिति से एक बात स्पष्ट होती है कि वक्फ कानून विरोधी राजनीति केवल वोट बैंक की राजनीति है। तेजस्वी यादव ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान 'पढ़ाई, कमाई और दवाई' का जो नारा दिया था, वह कहीं खो गया है। इसके बजाय 'वक्फ कानून फाड़ने' का नारा दिया जाना इस बात का संकेत है कि विपक्ष मुख्य विकास मुद्दों को छोड़कर सांप्रदायिक और अल्पसंख्यक भय के जरिये चुनावी फसाद मचा रहा है।
छत्तीसगढ़ के रायपुर में हाल ही में वक्फ बोर्ड ने पुरानी कॉलोनियों में बसने वाले परिवारों को नोटिस भेजा है, जो 60 से 65 वर्षों से वहां रह रहे हैं। यह बताता है कि वक्फ संपत्तियों की व्यवस्था में सुधार की सख्त जरूरत है और इसीलिए यह संशोधन कानून आया है।वास्तव में, लोकतंत्र में मतभेद और विरोध की जगह है, लेकिन संविधान और कानून का सम्मान सबसे ऊपर है। किसी भी राजनीतिक दल या नेता का यह अधिकार नहीं कि वे खुलेआम कानून तोड़ने की बात करें। इससे न केवल शासन व्यवस्था कमजोर होती है, बल्कि सामाजिक शांति और एकता पर भी बुरा असर पड़ता है।इसलिए, देश के मुस्लिम समाज को इस सियासी फसाद से बचना चाहिए, और समझना चाहिए कि वक्फ कानून का मकसद उनका हित है और उनकी संपत्ति की सुरक्षा।
राजनीतिक दलों के झूठे वादों और दहशत फैलाने वाली रणनीतियों से सावधान रहना जरूरी है। वे वोट बैंक के लिए धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग कर रहे हैं।निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि वक्फ कानून को फाड़ने जैसी कोई कानूनी या संवैधानिक छूट किसी राज्य सरकार को नहीं है। संविधान हमें कानून के पालन का निर्देश देता है और न्यायपालिका इसके संरक्षण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विपक्ष को चाहिए कि वे लोकतांत्रिक संवाद के माध्यम से अपनी बात रखें न कि धमकियों और कानून विरोधी बयानों से।विभाजनकारी राजनीति से ऊपर उठकर विकास और लोकतंत्र के सशक्तिकरण पर ध्यान देना भारत के सभी नागरिकों का दायित्व है।
वक्फ कानून सुधार इस दिशा में एक कदम है जो सही नियमन के माध्यम से सभी के हित में कार्य करेगा।य

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