कांग्रेस : लोकतंत्र की पार्टी या परिवार की प्रॉपर्टी?
भावेश
भारत का लोकतंत्र आज विश्व का सबसे बड़ा और सबसे जटिल लोकतंत्र कहा जाता है, परन्तु इसी लोकतंत्र की जड़ों में जो राजनीतिक दल हैं — वही कई बार अपने भीतर लोकतांत्रिक आचरण से सबसे अधिक दूर दिखाई देते हैं। कांग्रेस पार्टी इसका सबसे बड़ा उदाहरण बन चुकी है। एक समय जो संगठन स्वतंत्रता संग्राम का पर्याय था, आज वह लोकतंत्र का नहीं बल्कि “वंशतंत्र” का प्रतीक बन गया है।
1. कांग्रेस का मूल स्वरूप और वैधानिक स्थिति
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) को 1885 में एक “सार्वजनिक संगठन” के रूप में स्थापित किया गया था, जिसका उद्देश्य था — ब्रिटिश शासन से भारत की राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित कराना। बाद में यही संगठन स्वतंत्रता संग्राम की रीढ़ बना और स्वतंत्र भारत के पहले शासन की जननी भी।क़ानूनी रूप से कांग्रेस आज भी “सोसाइटीज़ रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860” के अंतर्गत पंजीकृत संस्था है, जिसे लोक प्रदर्शित अधिनियम (Public Representation Act, 1951) के अंतर्गत एक राजनीतिक दल के रूप में मान्यता प्राप्त है। परंतु व्यवहारिक स्तर पर कांग्रेस पार्टी का संचालन जिस प्रकार होता है, वह किसी लोकतांत्रिक संस्था की नहीं, बल्कि एक प्रोपराइटरशिप फर्म की भाँति प्रतीत होता है — जहाँ सब निर्णय एक व्यक्ति या परिवार के आदेश पर निर्भर होते हैं।
2. लोकतंत्र से वंशतंत्र तक का संक्रमण
स्वतंत्रता के पश्चात् पंडित नेहरू से लेकर सोनिया गांधी तक कांग्रेस की कमान एक ही परिवार के इर्द-गिर्द घूमती रही है। यह सिलसिला इतना गहरा हो गया कि पार्टी में नेतृत्व का अर्थ “गांधी परिवार की स्वीकृति” बन गया।
नेहरू के बाद इंदिरा गांधी,इंदिरा के बाद राजीव गांधी,
राजीव के बाद सोनिया गांधी,और आज राहुल गांधी —
यह परंपरा किसी लोकतांत्रिक चुनाव या वैचारिक प्रतिस्पर्धा का परिणाम नहीं, बल्कि वंशानुक्रम की राजनीति का द्योतक है।
पार्टी संविधान में आंतरिक चुनाव की व्यवस्था अवश्य है, परंतु व्यवहार में न तो ईमानदार मतगणना होती है, न स्वतंत्र प्रत्याशी खड़े होते हैं। अधिकांश पदाधिकारी मनोनीत किए जाते हैं — परिवार की इच्छा से। इसीलिए कहा जा सकता है कि कांग्रेस एक “registered democracy” नहीं, बल्कि एक “hereditary corporation” बन चुकी है।
3. कांग्रेस और जनता के बीच दूरी
आज कांग्रेस का संकट केवल चुनावी नहीं, वैचारिक भी है।वह भारत के बदलते सामाजिक–सांस्कृतिक मानस को समझ नहीं पाई।1947 के बाद भी उसने औपनिवेशिक मानसिकता को नहीं छोड़ा। उसकी नीतियाँ ‘राज्य सर्वोपरि’ दृष्टिकोण पर टिकी रहीं, जबकि जनता अब ‘जन सर्वोपरि’ की आकांक्षा रखती है।
कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं में भी जमीनी जुड़ाव का अभाव है। पार्टी का ढांचा दिल्ली-केंद्रित हो गया है, जबकि भारत की राजनीति अब प्रादेशिक अस्मिताओं और स्थानीय नेतृत्व के इर्द-गिर्द घूम रही है.
4. लोक प्रदर्शित अधिनियम बनाम वास्तविक आचरण
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (Representation of the People Act, 1951) राजनीतिक दलों को पारदर्शिता, वित्तीय जवाबदेही और आंतरिक लोकतंत्र की अपेक्षा करता है। निर्वाचन आयोग ने बार-बार सभी दलों से आंतरिक चुनावों की रिपोर्ट मांगी है।परंतु कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी बार-बार “अंतरिम अध्यक्ष” या “कार्यवाहक अध्यक्ष” के नाम पर इस नियम से बच निकलती है। रिपोर्टें या तो अधूरी दी जाती हैं या दाखिल ही नहीं की जातीं। इस प्रकार कांग्रेस क़ानूनी रूप से लोक प्रदर्शित अधिनियम के अधीन होने के बावजूद व्यवहारिक रूप से “परिवार स्वामित्व वाली राजनीतिक इकाई” के रूप में काम करती है।
5. लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना
भारत में लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो दल संसद में “जनप्रतिनिधित्व” की बात करते हैं, वही अपने दलों में “आंतरिक प्रतिनिधित्व” से डरते हैं। कांग्रेस इसका चरम उदाहरण है।राहुल गांधी के भाषणों में लोकतंत्र, पारदर्शिता, संवैधानिकता के शब्द भले गूंजते हों, पर उनकी नियुक्तियाँ, फैसले और नेतृत्व की शैली “एकल स्वामित्व” की तरह हैं — जहाँ कोई असहमति न सुनी जाती है, न सहन की जाती है।
6. कांग्रेस के भविष्य की दिशा
कांग्रेस के भविष्य को तीन दिशाओं में देखा जा सकता है:
(1) आत्ममंथन और पुनर्निर्माण का रास्ता:यदि कांग्रेस ईमानदारी से संगठनात्मक चुनाव कराए, नए नेतृत्व को अवसर दे, विचारधारा को भारतीय समाज की आकांक्षाओं के अनुरूप ढाले — तो वह पुनः एक सशक्त विपक्ष के रूप में उभर सकती है।
(2) वंशतंत्र की निरंतरता:यदि परिवारवाद जारी रहा, तो कांग्रेस धीरे-धीरे केवल “नाममात्र की पार्टी” बनकर रह जाएगी। राज्यों में उसकी शाखाएँ पहले ही क्षेत्रीय दलों में विलीन होती जा रही हैं।
(3) गठबंधन–निर्भर अस्तित्व:कांग्रेस का तीसरा रास्ता यही है कि वह स्वयं सशक्त न रहते हुए भी गठबंधनों के सहारे बनी रहे — जैसा कि “INDIA” गठबंधन के रूप में दिखाई देता है।
परंतु इस स्थिति में भी नेतृत्व की विश्वसनीयता प्रश्न के घेरे में रहेगी, क्योंकि जनता अब “सत्ता में हिस्सेदारी” नहीं, “सत्ता में जवाबदेही” चाहती है।
कांग्रेस आज जिस मोड़ पर है, वहाँ उसके सामने दो ही विकल्प हैं —
या तो वह अपने भीतर लोकतंत्र को पुनः जीवित करे, या इतिहास का हिस्सा बन जाए।
कांग्रेस का संकट बाहरी नहीं, आंतरिक है। जनता अब नेताओं के वंश पर नहीं, उनके विचार और कार्यक्षमता पर भरोसा करती है।
कांग्रेस यदि सचमुच लोकतंत्र की जननी कहलाना चाहती है, तो उसे पहले स्वयं लोकतांत्रिक बनना होगा।
अन्यथा वह एक “पारिवारिक उद्यम” की तरह ही इतिहास में दर्ज हो जाएगी —
जहाँ पद चुनाव से नहीं, वंश से तय होते हैं; और विचार, नेतृत्व की जगह केवल “नाम” बनकर रह जाता है।
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संक्षेप में:
> “कांग्रेस का पुनर्जन्म तभी संभव है जब वह खुद को नेहरू–गांधी परिवार के बंधन से मुक्त कर, भारत के जनमानस से पुनः जुड़ने का साहस करे —
अन्यथा वह लोकतंत्र की पाठशाला से निकलकर, इतिहास के संग्रहालय में रखी एक ‘राजनीतिक वस्तु’ बन जाएगी।”

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