गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

"विचारों की असहमति का मतलब घृणा, हिंसा और सामूहिक दंड नहीं

 

 "विचारों की असहमति का मतलब घृणा, हिंसा और सामूहिक दंड नहीं"

राजेंद्र नाथ तिवारी










आज जब किसी मतभेद, विचार या आलोचना को लेकर लोग हिंसा के रास्ते पर उतरते हैं — हत्या की धमकियाँ, सामूहिक बलात्कार जैसी जघन्य घटनाओं की धमकी, किसी के परिवार के सामने हुलिया-निर्वासन और बलात्कार करार देने की बातें — तो यह सिर्फ़ एक अपराध नहीं बल्कि समाज की नींव पर हमला है। लोकतंत्र तभी जीवित रह सकता है जब वैचारिक असहमति को हाथापाई, बलात्कार, हत्या या समुदाय-आधारित नृशंसता में बदलने की अनुमति न दी जाए। हम दो बातें स्पष्ट कर दें: (1) जघन्य अपराधों की सख़्त से सख़्त निंदा जरूरी है; (2) दोषियों को बिना भेदभाव, कानून के तहत कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए — न कि साम्प्रदायिक बदले या धार्मिक-आधार पर अलग कानून लागू कर देना।

कानून स्पष्ट है — जब किसी के साथ बलात्कार, हत्या, धमकी या सार्वजनिक अपमान जैसा घृणास्पद अपराध होता है तो उसे स्वतः अपराध मानकर कठोर दंड का प्रावधान है। भारतीय दंड संहिता में बलात्कार, उससे जुड़े अपराध और सज़ा के प्रावधान स्पष्ट हैं (उदाहरण के लिए अनुभाग 375/376)। मृत्युदंड या कड़ी सज़ा देने की परिकल्पना भी मामलों की गंभीरता और कानून के अनुरूप तय होती है।

पर सवाल केवल सज़ा तक सीमित नहीं है — समस्या तब और घातक हो जाती है जब समुदाय, धर्मगुरु या स्थानीय शक्तिशाली लोग ऐसे अपराधों को प्रोत्साहित करें, उसे ढकने की कोशिश करें, या अपराधियों को संरक्षण दें। ऐसी स्थितियों में, अगर किसी धार्मिक गुरु, नेता या संगठन के कर्तव्य या कथित गतिविधियों से अपराध को बढ़ावा मिला या उसे छिपाने का प्रयास हुआ, तो उन व्यक्तियों/संस्थाओं पर भी कानून के तहत जवाबदेही लगनी चाहिए। आईपीसी में ऐसे कार्यों के लिए आपराधिक सहयोग, साज़िश और फेक/प्रचार से हिंसा को भड़काने वाले प्रावधान मौजूद हैं — जैसे कि 153A (धार्मिक/समुदाय के आधार पर शत्रुता बढ़ाना), 505 (जन हित में अशांति फैलाने वाले बयानों पर दंड) और साज़िश के प्रावधान। इन धाराओं के तहत किसी भी व्यक्ति को — चाहे वह खालिस धर्मगुरु हो या नेता — तब भी कड़ी कार्रवाई का सामना करना पड़ना चाहिए जब सबूत यह दिखाएँ कि उसने अपराध को प्रोत्साहित किया या संरक्षण दिया।

यहाँ हम एक महत्वपूर्ण नैतिक-कानूनी सिद्धांत पर बल देते हैं: और समुदाय-आधारित सज़ा (जैसे “जिस धर्म का अपराधी है उसे उसके धर्म के अनुसार सज़ा दी जाए”) न केवल क़ानून के सिद्धांतों के खिलाफ है बल्कि मानवाधिकारों और न्याय के बुनियादी सिद्धांतों के भी विरुद्ध है। अपराधियों को उनके व्यक्तिगत कृत्यों के आधार पर दंडित किया जाना चाहिए — किसी समुदाय, मज़हब या जाति के आधार पर सामूहिक सज़ा देना न्याय का अंधाधुंध विघटन है और यह धार्मिक स्वतंत्रता व समानता के सिद्धांतों का गला घोंटता है। इसलिए किसी विशेष धर्म के अपराधियों के लिए अलग कानून लागू करने का सुझाव, चाहे वह किसी भी धर्म के प्रति भड़काऊ भाव से ही कहा गया हो, संवैधानिक और मानवाधिकार के दृष्टिकोण से अस्वीकार्य और खतरनाक है।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम मौन रहें जब किसी समुदाय के धार्मिक नेता सीधे-सीधे हिंसा का समर्थन करें या अपराधियों को आश्रय दें। कानून के दायरे में, यदि यह साबित होता है कि किसी धार्मिक नेता ने अपराध की साज़िश की, उकसाया, या अपराधियों को शरण दी, तो उस नेता को भी सजा मिलनी चाहिए — जैसा कि किसी अन्य नागरिक के साथ होता। इसका अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए निम्न कदम आवश्यक हैं:

त्-काल और निष्पक्ष जांच + तेज ट्रायल: हिंसा, बलात्कार और सामूहिक अपराधों की घटनाओं की निष्पक्ष जांच हो और आरोपियों के खिलाफ तेज़ ट्रायल व कड़े दंड सुनिश्चित किये जाएँ। फास्ट-ट्रैक अदालतों, विशेष जांच दलों और पीड़ित सुरक्षा प्रावधानों का उपयोग बढ़ाया जाना चाहिए — न्यायिक रिपोर्टों और कमेटियों ने भी तत्काल फ़ास्ट-ट्रैक सुनवाईयों की सिफारिश की है।स्ष्ट  कानूनी परिभाषा और कड़ी धाराएँ लागू करना: नफरत पर फैलने वाले दायरों (hate speech) और सार्वजनिक तौर पर हिंसा के लिए उकसाने वाले बयान पर कड़े प्रावधान लगें — पर इनमें भी सावधानी हो कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सांविधानिक संरक्षण बिना कारण प्रभावित न हो। हाल के अध्ययनों और बिल-प्रस्तावों ने समान रूप से नफरत भड़काने वाले कृत्यों को दंडनीय घोषित करने की वकालत की है।

धर्मिक और सामुदायिक नेताओं पर जवाबदेही: कोई भी नेता जो खुलेआम हिंसा या सामूहिक दंड की वकालत करता है या अपराधियों को ढंकता है — उस पर समान नागरिकों की तरह कानूनी कार्रवाइयाँ हों। पर इसका आधार साव्यवहारिक सबूत और निष्पक्ष कानूनी प्रक्रिया होनी चाहिए — साम्प्रदायिक सौदेबाज़ी नहीं। (निष्कर्ष: जवाबदेही हाँ, सामुदायिक दंड नहीं।)पुलिस सुधार, प्रशिक्षण और त्वरित सुसज्जन: अक्सर पीड़ितों की शिकायत सड़क पर मिलती है पर पुलिस/प्रशासनिक उदासीनता के कारण FIR दर्ज नहीं होती, सबूत नष्ट हो जाते हैं, या पुलिस पक्षपाती रवैया अपनाती है। बढ़िया प्रशिक्षण, स्पेशल इन्वेस्टिगेशन यूनिट्स और साक्ष्य-संरक्षण के बेहतर नियम मामलों की सच्चाई सामने लाते हैं। न्यायमहल में देर और निष्पक्षता की कमी पीड़ितों का विश्वास तोड़ देती है।

सामाजिक-सांस्कृतिक उपाय: कानून अकेला काम नहीं करता — स्कूलों, मस्जिदों, मंदिरों, पंचायतों और नागरिक समाज में हिंसा-विरोधी शिक्षा, महिला सुरक्षा अभियान, और संवाद के माध्यम से सामुदायिक स्तर पर मनोवृति बदली जानी चाहिए। धार्मिक नेताओं को समाज में सहिष्णुता और नैतिकता का संदेश देने के लिए सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए; जो ऐसा नहीं करते और अपराध को बढ़ावा देते हैं, उन्हें कानूनी दायरे में लाया जाना चाहिए। पीड़ितों की सुरक्षा और मुआवज़ा: पीड़ित और उनके परिवारों के लिए त्वरित चिकित्सा, मनोवैज्ञानिक सहायता, आर्थिक मदद और पुनर्वास ज़रूरी है। राज्यों के पास अपराधों के पीड़ितों के लिए मुआवज़ा व पुनर्वास के स्कीम होने चाहिए।

अंत में, यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि किसी धर्म के अनुसार सज़ा देना — विभिन्न धर्मों के अलग-अलग दंडों का राज्य द्वारा प्रयोग करना — संविधान और मानवाधिकारों के विरोध में है। न्याय का सिद्धांत यह कहता है: दोषी को उसी क़ानून के अंतर्गत दंडित किया जाना चाहिए जो सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होता है। अगर कोई व्यक्ति किसी भी धर्म का अनुयायी है और उसने अपराध किया है तो उसे देश के दंड-नियमों के तहत आज़माया और दंडित किया जाना चाहिए — न कि उसके धर्म के ‘कानून’ के अनुसार, जो राज्य के कानून से अलग और अक्सर अमान्य माना जाएगा। हम एक वैधानिक, निष्पक्ष और गैर-पक्षपाती न्याय-प्रक्रिया की वकालत करते हैं जो अपराधियों को सज़ा दे पर समुदायों को टार्गेट न करे।

हिंसा का जवाब हिंसा नहीं हो सकता — पर यह भी सच है कि उदासीनता, संरक्षण और सांप्रदायिक आवेग को भी कड़ा दंड मिलना चाहिए। हमारा लक्ष्य एक ऐसा समाज होना चाहिए जहाँ विचारों की असहमति मंचों पर हो, अदालतों में मुक़दमे हों — सड़कों पर नफरत और जघन्य अपराधों को अंजाम देने का अधिकार किसी को भी न हों। हम दर्दनाक घटनाओं के पीड़ितों के साथ हैं, और न्याय की मांग में निर्मम, अडिग और संवैधानिक बने रहना ही समाज की ताकत है।

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