सरकारी अस्पताल : इलाज नहीं, लाचारी का प्रतीक बनते संस्थान
भारतीय लोकतंत्र में “स्वास्थ्य” को नागरिक का मौलिक अधिकार कहा गया है, पर वास्तविकता यह है कि आज सरकारी अस्पताल इलाज नहीं, लाचारी का प्रतीक बनते जा रहे हैं।जिलों के अस्पतालों से लेकर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक— हर जगह अव्यवस्था, लूट और मिलीभगत की संस्कृति गहराती जा रही है।भ्रष्टाचार की जड़ में तंत्र की संवेदनहीनता,अस्पतालों के नाम पर करोड़ों रुपये के बजट हर साल स्वीकृत होते हैं, लेकिन वह धन मरीजों तक पहुँचने से पहले ही “प्रशासनिक दीवारों” में समा जाता है। भवनों के उच्चीकरण, उपकरणों की खरीद, भोजन और दवा आपूर्ति— हर योजना में कमीशन का खेल खुला राज़ है।जो दवाइयाँ मरीजों को मुफ्त मिलनी चाहिए, वे बाहरी दुकानों से खरीदने पर मजबूर कर दी जाती हैं।डॉक्टर निजी अस्पतालों के ‘साइलेंट पार्टनर’कई सरकारी चिकित्सक सरकारी वेतन पाकर भी निजी अस्पतालों में सक्रिय हैं।मरीजों को सरकारी अस्पताल से निजी क्लिनिक की ओर मोड़ना अब गुप्त नहीं रहा। यह सब स्वास्थ्य विभाग की जानकारी में होते हुए भी ‘मौन स्वीकृति’ की तरह चलता है।
ग्रामीण क्षेत्र में मौत बन गया इलाज,ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र महज नाम के रह गए हैं।कई केंद्रों पर डॉक्टर महीनों अनुपस्थित रहते हैं,और झोलाछाप चिकित्सक खुलेआम जान से खिलवाड़ कर रहे हैं।कानून और प्रशासन दोनों ही आंखें मूँदे हुए हैं।
सिस्टम की मिलीभगत का चेहरा : टेंडर और ठेके की लूट,खाद्य आपूर्ति, सफाई, एम्बुलेंस सेवा— सभी का ठेका चुनिंदा फर्मों को सालों से मिलता जा रहा है।न तो प्रतिस्पर्धा बची है, न पारदर्शिता।परिणामस्वरूप अस्पतालों में गंदगी, मरीजों के लिए घटिया भोजन, और साधनों की किल्लत सामान्य हो चुकी है।
सरकारें बदलती हैं, पर बीमारी वही रहती है,यह समस्या किसी एक दल या काल की नहीं — यह पूरे प्रशासनिक संस्कार की बीमारी है।जब तक ईमानदार निगरानी, लोक–भागीदारी और डिजिटल पारदर्शिता नहीं बढ़ेगी,सरकारी अस्पताल सिर्फ “भवन” रह जाएंगे, “भरोसा” नहीं बन पाएंगे।
अब जवाबदेही तय होनी चाहिए,अब जरूरत है कि—हर सरकारी चिकित्सक की डिजिटल उपस्थिति और कार्य-रिकॉर्ड सार्वजनिक हो,अस्पताल प्रबंधन समितियों में स्थानीय जनप्रतिनिधि और समाजसेवी शामिल हों,और सबसे ज़रूरी — स्वास्थ्य विभाग में भ्रष्टाचार पर शून्य सहिष्णुता नीति लागू की जाए।
“बीमार समाज का इलाज केवल दवा से नहीं,व्यवस्था की ईमानदारी से होता है।”
क्या आप चाहेंगे कि मैं इस लेख को शीर्षक व उपशीर्षक सहित 1500 शब्द के सम्पादकीय रूप में विस्तार कर दूँ (जैसे अखबार के पेज-एडिटोरियल के स्वर में)?

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें