सोमवार, 1 दिसंबर 2025

वन्देमातरम्, श्री अरविन्द और लाल‑बाल‑पाल, जिन्होंने इसे मंत्र माना

         चतुर्विंशति   ( 24) श्रृंखला

“वन्दे मातरम् श्रृंखला की 24वीं कड़ी आज आपके समक्ष है—कृपया इसे राष्ट्रभाव से पढ़ें, क्योंकि हर शब्द हमारी मातृभूमि की पुकार है।”

“मेरी विनम्र अपील है—इस कड़ी को केवल पढ़ें नहीं, महसूस करें; इसमें छुपा राष्ट्रस्वाभिमान आपके मन में नई ऊर्जा अवश्य जगाएगा।”    राजेंद्र नाथ तिवारी 🙏






वन्देमातरम्, श्री अरविन्द और लाल‑बाल‑पाल – ये तीनों नाम मिलकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के वैचारिक और भावनात्मक त्रिकोण की रचना करते हैं। वन्देमातरम् ने राष्ट्र को सांस्कृतिक–आध्यात्मिक स्वर दिया, श्री अरविन्द ने उसे दर्शन और क्रांतिकारी राजनीति से जोड़ा, जबकि लाल‑बाल‑पाल ने उसी ऊर्जा को जनांदोलन का रूप देकर सड़क पर उतार दिया। इस प्रकार बीसवीं शदी के प्रारम्भिक दशकों में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने गीत, विचार और नेतृत्व – तीनों स्तरों पर एक अनूठी समन्वित शक्ति प्राप्त की।वन्देमातरम् : राष्ट्र चेतना का सौंदर्यवन्देमातरम् का उदय बंगाल नवजागरण के बीच हुआ, जब बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने ‘आनन्दमठ’ उपन्यास में इसे भारतीय राष्ट्र की प्रतीक–मूर्ति के रूप में रचा। यह गीत माँ भारती को हरे‑भरे खेतों, शस्य‑श्यामला धरती, शीतल पवन, पर्वत और समुद्र–तट की सुंदरता में साकार करता है, जिससे स्वतंत्रता की माँग किसी राजनीतिक दावे से पहले सांस्कृतिक स्वाभिमान की अभिव्यक्ति बन जाती है। यही कारण था कि 1905 के बंग‑भंग विरोधी स्वदेशी आंदोलन में वन्देमातरम् केवल गाया ही नहीं गया, बल्कि ब्रिटिश सत्ता के लिए प्रतिरोध का नारा बन गया; सभा हो या जुलूस, पुलिस की लाठी हो या जेल की कालकोठरी – हर जगह यह गीत आत्मबल का संबल बना रहा।वन्देमातरम् की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसने ‘राष्ट्र’ को केवल भौगोलिक सीमा नहीं, बल्कि जीवंत ‘माता’ के रूप में रूपायित किया। इस कल्पना ने सामान्य भारतीय को यह बोध कराया कि विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष केवल करों की कमी‑बेशी या नौकरियों के अधिकार का प्रश्न नहीं, बल्कि अपनी माता की गुलामी का प्रश्न है।इस भावनात्मक रूपक ने स्वतंत्रता संग्राम को नैतिक और आध्यात्मिक ऊँचाई प्रदान की, जिसके सामने व्यक्तिगत भय और स्वार्थ गौण पड़ जाते थे।श्री अरविन्द : गीत से मंत्र तकश्री अरविन्द घोर्ष ने वन्देमातरम् को केवल एक राष्ट्रीय गीत नहीं, बल्कि ‘मंत्र’ कहा – ऐसा मंत्र जो भारत की आत्मा को जगाता है और मनुष्य को साधारण राजनैतिक प्राणी से ऊपर उठाकर साधक बना देता है। कलकत्ता के क्रांतिकारी दौर में उन्होंने ‘बन्दे मातरम्’ नाम से अंग्रेज़ी समाचारपत्र निकाला, जिसके लेखों में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि उनके लिए राष्ट्रवाद आध्यात्मिक साधना का ही विस्तार था; भारत माता की मुक्ति उन्हें ईश्वरीय योजना का हिस्सा लगती थी। उन्होंने वन्देमातरम् का अंग्रेज़ी काव्य–अनुवाद भी किया, ताकि पश्चिमी पाठक भी इसकी भावभूमि को समझ सकें, यद्यपि उन्होंने मूल रचना की गरिमा और कॉपीराइट का सम्मान करते हुए केवल भावानुवाद पर बल दिया।श्री अरविन्द की दृष्टि में वन्देमातरम् का उच्चारण साधक को राष्ट्रीय–चेतना से जोड़ता है और यह चेतना केवल राजनीतिक न होकर आध्यात्मिक होती है।उनके लेखों में यह विचार बार‑बार आता है कि गुलाम राष्ट्र की आध्यात्मिक क्षमता भी बाँध दी जाती है, और जब लोग एक स्वर से ‘माता’ को पुकारते हैं तो वे अपनी सुप्त शक्तियों को जगाते हैं इस तरह अरविन्द ने भक्ति और क्रांति के बीच एक सेतु तैयार किया – वन्देमातरम् गाने वाला स्वयं को भक्त भी महसूस करता था और सैनिक भी; यही भाव आगे चलकर क्रांतिकारी युवाओं की प्रेरणा बना।लाल‑बाल‑पाल : स्वदेशी संघर्ष के अग्रदूतइसी दौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर जो आक्रामक राष्ट्रवादी धारा उभरी, उसे इतिहास ने लाल‑बाल‑पाल के नाम से याद किया – लाल लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिनचन्द्र पाल। यह त्रयी ब्रिटिश शासन से ‘प्रार्थना’ के बजाय प्रतिरोध की राजनीति का पक्ष लेती थी; वे स्वराज को केवल दूर का आदर्श नहीं, बल्कि तात्कालिक राजनीतिक लक्ष्य मानती थी। तिलक ने ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ जैसा उद्घोष दिया, लाजपत राय ने पंजाब में और बिपिनचन्द्र पाल ने बंगाल में स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलनों को जन–आंदोलन का रूप दिया।इन आंदोलनों के सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में वन्देमातरम् स्वाभाविक रूप से जुड़ गया। कई जुलूस ऐसे दर्ज हैं जहाँ तिलक या पाल के भाषण से पहले और बाद में हजारों लोग एक साथ वन्देमातरम् गाकर अंग्रेज़ सरकार की नीतियों के विरुद्ध असहयोग का प्रण दोहराते थे। लाल‑बाल‑पाल ने स्वदेशी, स्वराज और राष्ट्रीय शिक्षा जैसे कार्यक्रमों के ज़रिए राष्ट्रवाद को गाँव‑क़स्बों तक पहुँचाया; इस प्रक्रिया में वन्देमातरम् लोकभाषाओं में भी फैल गया और केवल बंगाल की रचना न रहकर पूरे भारत की धड़कन बन गया।सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संगतिवन्देमातरम्, श्री अरविन्द और लाल‑बाल‑पाल – इन तीनों की केन्द्रीयता भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में निहित है। वन्देमातरम् ने भारत को देवी–स्वरूप माता के रूप में प्रतिष्ठित किया, जो किसी एक धर्म विशेष की नहीं, बल्कि नदियों, पर्वतों और खेतों की सामूहिक स्मृति से बनी है; श्री अरविन्द ने इस माता को योगिक–चेतना का रूप दिया, जहाँ व्यक्तिगत मुक्ति राष्ट्र की मुक्ति से जुड़ जाती है; और लाल‑बाल‑पाल ने इस चेतना को राजनीतिक कार्यक्रम – स्वदेशी, शिक्षाशोधन, बहिष्कार और असहयोग – में ढालकर व्यापक समाज तक पहुँचाया।इस समन्वय के कारण स्वतंत्रता आंदोलन केवल सत्ता–परिवर्तन की लड़ाई नहीं रहा; वह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण बन गया, जिसमें भाषा, साहित्य, पत्रकारिता, शिक्षा, श्रम–आंदोलन और धार्मिक सुधार सभी सम्मिलित थे। वन्देमातरम् के मंच पर हिंदू‑मुस्लिम‑सिख‑ईसाई सब एक साथ खड़े दिखते हैं; श्री अरविन्द का दर्शन किसी संकीर्ण सांप्रदायिकता को स्वीकार नहीं करता; और तिलक‑लाजपत‑पाल जैसे नेता भी स्थानीय परंपराओं को राष्ट्रीय प्रतिरोध से जोड़कर बहुलतावादी समाज के पक्षधर रहे। इसीलिए इस धारा की आलोचना करने वाले भी मानते हैं कि इसने भारतीय जनता में आत्मगौरव और राजनीतिक जागरूकता का अभूतपूर्व संचार किया।समकालीन संदर्भ में महत्त्वआज जब वन्देमातरम् की व्याख्या को लेकर समय‑समय पर विवाद खड़े होते हैं, तो श्री अरविन्द और लाल‑बाल‑पाल की विरासत हमें स्मरण कराती है कि इस गीत का मूल उद्देश्य विभाजन नहीं, सांस्कृतिक स्वाभिमान और पराधीनता के विरुद्ध जागरण था। यह भी समझना आवश्यक है कि किसी भी राष्ट्रीय प्रतीक की शक्ति उसके राजनीतिक उपयोग पर निर्भर करती है; यदि उसे समावेशी, न्यायपूर्ण और संवैधानिक मूल्यों से जोड़ा जाए तो वह समाज को जोड़ने वाला सूत्र बनता है, अन्यथा संकीर्णता के हाथों में पड़कर विवाद का कारण बन सकता है।निबंध की दृष्टि से कहें तो वन्देमातरम्, श्री अरविन्द और लाल‑बाल‑पाल भारतीय राष्ट्रवाद के तीन आयाम हैं – भाव, बोध और नेतृत्व। भाव बिना बोध के अंधी उग्रता बन जाता है, बोध बिना नेतृत्व के केवल पुस्तक–ज्ञान रह जाता है, और नेतृत्व बिना भाव‑बोध के अवसरवाद में गिर सकता है; इन तीनों का संगम ही वह शक्ति है जिसने औपनिवेशिक साम्राज्य को चुनौती दी और भारतीय लोकतंत्र की नींव रखी। यही कारण है कि आज भी जब ‘‘वन्देमातरम्’’ का गान होता है तो केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि भविष्य के भारत के प्रति दायित्व का बोध भी जागता है।

कौटिल्य दृष्टि :यदि नेहरू जिन्ना दूरभि सन्धि तो आज वन्देमातरम समग्र रूप से स्वीकार्य  रहता.

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