भारतीय समाज में यदि कोई ऐसा संगठन है जिसने एक सदी के भीतर सत्ता के गलियारों से लेकर गाँव-गाँव की चौपाल तक अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, तो वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) है। यह केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक वैचारिक प्रवाह है जिसने स्वतंत्रता संग्राम के बाद से आज तक राष्ट्र के मन और मिज़ाज को प्रभावित किया है।
कांग्रेस, जिसने दशकों तक सत्ता पर कब्ज़ा जमाए रखा, आज भी संघ का नाम सुनते ही बेचैन हो उठती है। प्रतिबंधों, उत्पीड़नों और असंख्य राजनीतिक प्रहारों के बावजूद संघ आज पहले से कहीं अधिक मज़बूत है। प्रश्न यह है कि इतना सताने के बाद भी कांग्रेस को संघ का स्वप्न क्यों आता है? इसका उत्तर भारत की राजनीति से आगे बढ़कर विश्व की बदलती सभ्यता और वैश्विक वैचारिक प्रवाह में छिपा है।
भारत का वैचारिक टकराव: संघ बनाम कांग्रेस
कांग्रेस और संघ का संघर्ष केवल चुनावी राजनीति का संघर्ष नहीं है, बल्कि यह दो दृष्टियों का टकराव है, कांग्रेस की दृष्टि सत्ता-केंद्रित, पश्चिमी उदारवाद से प्रभावित और औपनिवेशिक मानसिकता की छाया में पली-बढ़ी रही।
संघ की दृष्टि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित है, जो सत्ता से अधिक राष्ट्र और संस्कृति की निरंतरता को प्राथमिकता देती है।
1948 में गांधीजी की हत्या के बाद संघ पर लगाया गया प्रतिबंध हो या 1975 का आपातकाल—हर बार कांग्रेस ने संघ को कुचलने का प्रयास किया। लेकिन संघ हर संकट से और मज़बूत होकर निकला। यही कारण है कि कांग्रेस के लिए संघ केवल एक संगठन नहीं, बल्कि उसकी ऐतिहासिक पराजय का दर्पण है।
वैश्वीकरण की विफलता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उदय
21वीं सदी ने साबित कर दिया कि अंधा वैश्वीकरण स्थानीय संस्कृतियों के लिए घातक है। यूरोप में बहुसांस्कृतिकता की नीति ने समाज को तोड़ दिया। आज यूरोप अपनी ईसाई पहचान के संकट से जूझ रहा है। अमेरिका में बहुसांस्कृतिक प्रयोग विफल हुआ और “American Identity” एक बहस बनकर रह गई।
अरब देशों में परंपराओं और धर्म के बिना राजनीतिक ढाँचे टिक नहीं पाए।
इन सबके बीच भारत ने एक नया विकल्प प्रस्तुत किया: “वैश्विक बने बिना अपनी जड़ों से कटे नहीं।” संघ का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इसी विकल्प का प्रतिनिधि है। यही कारण है कि भारत में कांग्रेस के “धर्मनिरपेक्ष” आख्यान को लोग छोड़कर संघ के राष्ट्रवादी आख्यान को अपना रहे हैं।
एशियाई परंपराओं का पुनर्जागरण,भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जिसने सांस्कृतिक पुनर्जागरण को राजनीतिक शक्ति में बदला हो। जापान ने शिंतो और सम्राट की परंपरा को राष्ट्रीय गौरव का आधार बनाया। चीन ने साम्यवादी आवरण में भी कन्फ्यूशियस और सांस्कृतिक जड़ों का पुनरुत्थान किया इज़रायल ने यहूदी राष्ट्रवाद को राजनीतिक और सैन्य शक्ति का केंद्र बनाया।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि 21वीं सदी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की सदी है। भारत में संघ इस प्रवाह का नेतृत्व कर रहा है। लेकिन कांग्रेस, जो अभी भी पश्चिमी उदारवाद की पुरानी चादर ओढ़े बैठी है, इस लहर के सामने अप्रासंगिक हो चुकी है।
भारतीय डायस्पोरा और संघ की वैचारिक पहुँच,संघ की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि वह केवल भारत तक सीमित नहीं है। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में हिंदू संगठनों के माध्यम से भारतीय सभ्यता का विस्तार हुआ है। खाड़ी देशों में काम करने वाले प्रवासी हिंदुओं में सांस्कृतिक चेतना जगाने में संघ-प्रेरित मंचों की भूमिका स्पष्ट है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का अनुमोदन इस बात का प्रमाण है कि संघ की विचारधारा अब वैश्विक विमर्श का हिस्सा बन चुकी है।
कांग्रेस के लिए यह सबसे बड़ा आघात है। उसने पश्चिमी मंचों पर संघ को “कट्टरवादी” बताने की कोशिश की, लेकिन पश्चिम के विद्वानों और मीडिया को अब समझ आने लगा है कि यह आंदोलन वास्तव में सांस्कृतिक पुनर्जागरण है, जो कट्टरवाद का नहीं, बल्कि सभ्यता-संवाद का प्रतीक है।
कांग्रेस की रणनीतिक विफलता
कांग्रेस का सबसे बड़ा संकट यह है कि उसकी राजनीति अब Anti-RSS तक सीमित रह गई है। हर चुनावी भाषण में संघ को कटघरे में खड़ा करना उसकी मजबूरी है।आरएसएस का नाम लें मुसलमानो को डराती है. संसद से लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस तक, वह संघ को “सांप्रदायिक” बताती रही है।
लेकिन समस्या यह है कि जितना अधिक कांग्रेस संघ का नाम लेती है, उतना ही संघ की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। संघ का विरोध कांग्रेस के लिए ऑक्सीजन है, पर यह ऑक्सीजन भी अब उसे धीरे-धीरे घुटन में ले जा रही है।
भारत का वैचारिक टकराव: संघ बनाम कांग्रेस
कांग्रेस और संघ का संघर्ष केवल चुनावी राजनीति का संघर्ष नहीं है, बल्कि यह दो दृष्टियों का टकराव है, कांग्रेस की दृष्टि सत्ता-केंद्रित, पश्चिमी उदारवाद से प्रभावित और औपनिवेशिक मानसिकता की छाया में पली-बढ़ी रही।
संघ की दृष्टि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित है, जो सत्ता से अधिक राष्ट्र और संस्कृति की निरंतरता को प्राथमिकता देती है।
1948 में गांधीजी की हत्या के बाद संघ पर लगाया गया प्रतिबंध हो या 1975 का आपातकाल—हर बार कांग्रेस ने संघ को कुचलने का प्रयास किया। लेकिन संघ हर संकट से और मज़बूत होकर निकला। यही कारण है कि कांग्रेस के लिए संघ केवल एक संगठन नहीं, बल्कि उसकी ऐतिहासिक पराजय का दर्पण है।
वैश्वीकरण की विफलता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उदय
21वीं सदी ने साबित कर दिया कि अंधा वैश्वीकरण स्थानीय संस्कृतियों के लिए घातक है। यूरोप में बहुसांस्कृतिकता की नीति ने समाज को तोड़ दिया। आज यूरोप अपनी ईसाई पहचान के संकट से जूझ रहा है। अमेरिका में बहुसांस्कृतिक प्रयोग विफल हुआ और “American Identity” एक बहस बनकर रह गई।
अरब देशों में परंपराओं और धर्म के बिना राजनीतिक ढाँचे टिक नहीं पाए।
इन सबके बीच भारत ने एक नया विकल्प प्रस्तुत किया: “वैश्विक बने बिना अपनी जड़ों से कटे नहीं।” संघ का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इसी विकल्प का प्रतिनिधि है। यही कारण है कि भारत में कांग्रेस के “धर्मनिरपेक्ष” आख्यान को लोग छोड़कर संघ के राष्ट्रवादी आख्यान को अपना रहे हैं।
एशियाई परंपराओं का पुनर्जागरण,भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जिसने सांस्कृतिक पुनर्जागरण को राजनीतिक शक्ति में बदला हो। जापान ने शिंतो और सम्राट की परंपरा को राष्ट्रीय गौरव का आधार बनाया। चीन ने साम्यवादी आवरण में भी कन्फ्यूशियस और सांस्कृतिक जड़ों का पुनरुत्थान किया इज़रायल ने यहूदी राष्ट्रवाद को राजनीतिक और सैन्य शक्ति का केंद्र बनाया।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि 21वीं सदी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की सदी है। भारत में संघ इस प्रवाह का नेतृत्व कर रहा है। लेकिन कांग्रेस, जो अभी भी पश्चिमी उदारवाद की पुरानी चादर ओढ़े बैठी है, इस लहर के सामने अप्रासंगिक हो चुकी है।
भारतीय डायस्पोरा और संघ की वैचारिक पहुँच,संघ की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि वह केवल भारत तक सीमित नहीं है। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में हिंदू संगठनों के माध्यम से भारतीय सभ्यता का विस्तार हुआ है। खाड़ी देशों में काम करने वाले प्रवासी हिंदुओं में सांस्कृतिक चेतना जगाने में संघ-प्रेरित मंचों की भूमिका स्पष्ट है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का अनुमोदन इस बात का प्रमाण है कि संघ की विचारधारा अब वैश्विक विमर्श का हिस्सा बन चुकी है।
कांग्रेस के लिए यह सबसे बड़ा आघात है। उसने पश्चिमी मंचों पर संघ को “कट्टरवादी” बताने की कोशिश की, लेकिन पश्चिम के विद्वानों और मीडिया को अब समझ आने लगा है कि यह आंदोलन वास्तव में सांस्कृतिक पुनर्जागरण है, जो कट्टरवाद का नहीं, बल्कि सभ्यता-संवाद का प्रतीक है।
कांग्रेस की रणनीतिक विफलता
कांग्रेस का सबसे बड़ा संकट यह है कि उसकी राजनीति अब Anti-RSS तक सीमित रह गई है। हर चुनावी भाषण में संघ को कटघरे में खड़ा करना उसकी मजबूरी है।आरएसएस का नाम लें मुसलमानो को डराती है. संसद से लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस तक, वह संघ को “सांप्रदायिक” बताती रही है।
लेकिन समस्या यह है कि जितना अधिक कांग्रेस संघ का नाम लेती है, उतना ही संघ की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। संघ का विरोध कांग्रेस के लिए ऑक्सीजन है, पर यह ऑक्सीजन भी अब उसे धीरे-धीरे घुटन में ले जा रही है।
सभ्यता बनाम औपनिवेशिक अवशेष,कांग्रेस का संघ-विरोध इस बात का प्रमाण है कि वह भविष्य से भयभीत है।
संघ की शाखाएँ गाँव-गाँव तक पहुँच रही हैं, जबकि कांग्रेस के पास न कार्यकर्ता बचे हैं, न विचार। जहाँ संघ भारत की सभ्यता का पुनर्जागरण है, वहीं कांग्रेस औपनिवेशिक सोच की शेष बची परछाई है।
इसलिए कहा जा सकता है—
“भारत से विश्व तक फैलती संघ की छाया कांग्रेस के लिए केवल राजनीतिक संकट नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व का अनंत दुःस्वप्न है।”
संघ की शाखाएँ गाँव-गाँव तक पहुँच रही हैं, जबकि कांग्रेस के पास न कार्यकर्ता बचे हैं, न विचार। जहाँ संघ भारत की सभ्यता का पुनर्जागरण है, वहीं कांग्रेस औपनिवेशिक सोच की शेष बची परछाई है।
इसलिए कहा जा सकता है—
“भारत से विश्व तक फैलती संघ की छाया कांग्रेस के लिए केवल राजनीतिक संकट नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व का अनंत दुःस्वप्न है।”

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