गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

भारत में न्यायिक भ्रष्टाचार और उच्च न्यायपालिका

संपादकीय विश्लेषण

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और उसकी न्यायपालिका इस लोकतंत्र की रीढ़ कही जाती है। संविधान ने न्यायपालिका को स्वतंत्र रखा है ताकि वह कार्यपालिका और विधायिका पर नियंत्रण रख सके और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा कर सके। परंतु विडंबना यह है कि जिस संस्था से सबसे अधिक नैतिकता, पारदर्शिता और निष्पक्षता की अपेक्षा की जाती है, उसी पर भ्रष्टाचार और पक्षपात के आरोप लगने लगे हैं।न्या

यपालिका की भूमिका और अपेक्षाएँ

न्यायपालिका को लोकतंत्र का “संविधान रक्षक” कहा जाता है। न्यायाधीशों के निर्णय ही नागरिकों के जीवन, स्वतंत्रता और अधिकारों को दिशा देते हैं। परंतु जब न्याय ही संदिग्ध हो जाए, तो लोकतंत्र की जड़ें हिल जाती हैं। न्याय में विलंब, पक्षपात या पैसे के प्रभाव से न्यायपालिका की गरिमा कम होती है।

न्यायिक भ्रष्टाचार के स्वरूप

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार केवल रिश्वत तक सीमित नहीं है। यह कई रूपों में दिखाई देता है —

  • फैसलों पर बाहरी प्रभाव या लॉबी का दबाव,
  • मामलों की सुनवाई में अनावश्यक देरी,
  • नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद,
  • राजनीतिक संरक्षण के कारण न्यायिक स्वतंत्रता पर असर।

कई बार यह भी देखा गया है कि न्यायाधीशों के परिजन या अधिवक्ता, उनके पद का लाभ उठाकर अनुचित लाभ प्राप्त करते हैं। यही कारण है कि न्यायिक जवाबदेही आज की सबसे बड़ी मांग बन चुकी है।

उच्च न्यायपालिका की जवाबदेही का संकट

भारत में उच्च न्यायपालिका — अर्थात उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय — की नियुक्ति “कोलेजियम प्रणाली” से होती है। यह प्रणाली स्वयं न्यायाधीशों द्वारा नियंत्रित होती है, जिससे पारदर्शिता का अभाव बना रहता है। न तो जनता, न संसद और न ही कार्यपालिका को इन नियुक्तियों में कोई वास्तविक भूमिका दी गई है।

महाभियोग की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आज तक किसी न्यायाधीश को इस माध्यम से पद से हटाया नहीं जा सका। जस्टिस वी. रामास्वामी का मामला इसका उदाहरण है, जहाँ सबूतों के बावजूद वे महाभियोग से बच गए। इससे जनता में यह संदेश गया कि “न्यायाधीश न्याय से ऊपर हैं।”

भ्रष्टाचार के परिणाम

न्यायिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा शिकार आम नागरिक होता है। जब न्यायालयों से न्याय के बजाय तारीख़ें मिलती हैं, तो पीड़ित का विश्वास तंत्र पर से उठ जाता है। अपराधियों को सुरक्षा, और निर्दोषों को सज़ा मिलने लगती है। यह न केवल न्यायिक प्रणाली, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर आघात है।

सुधार और संभावनाएँ

न्यायपालिका में सुधार हेतु कई प्रयास हुए हैं —

  • राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) का गठन कर सरकार ने पारदर्शिता लाने की कोशिश की थी, परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक ठहरा दिया।
  • जजों की आचार संहिता (Code of Conduct) लागू की गई, पर यह वैकल्पिक है।
  • अब कुछ अदालतों में लाइव स्ट्रीमिंग और डिजिटल केस ट्रैकिंग जैसे कदम पारदर्शिता बढ़ा रहे हैं।

आवश्यक यह है कि न्यायपालिका में स्वतंत्रता के साथ उत्तरदायित्व भी सुनिश्चित किया जाए।

निष्कर्ष

न्यायपालिका केवल एक संस्था नहीं, बल्कि जनता की आस्था का प्रतीक है। यदि उसी में भ्रष्टाचार का साया फैल जाए, तो लोकतंत्र की नींव कमजोर पड़ जाती है। उच्च न्यायपालिका को आत्मसुधार के लिए आगे आना होगा। न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति और आचरण के लिए एक स्वतंत्र और पारदर्शी तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए।

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