मारक समीक्षा: “इंजन थ्योरी” और बाबा की कोलंबियाई यात्रा
कोलंबिया में चल रहे दौरे के दौरान जब “आउल बाबा” ने इंजीनियरिंग स्टूडेंट्स के बीच यह दर्शन झोंका कि—“डेढ़ सौ किलो की मोटरसाइकिल दो लोगों को ले जाती है, और तीन हज़ार किलो की कार एक पैसेंजर को”—तो वहाँ के छात्रों के चेहरे वैसे ही हो गए जैसे किसी लैब में अचानक गणित का पेपर मिल जाए। सवाल वैज्ञानिक था, जवाब दार्शनिक निकला। पर बाबा का दावा सुनकर कोलंबिया ही नहीं, यांत्रिकी की आत्मा भी अस्थिर हो गई।
एक बहादुर छात्र ने बीच में टोकते हुए कहा—“सर, इलेक्ट्रिक कार पेट्रोल कार से हल्की होती है।”
इस पर बाबा ने अपना “महासूत्र” सुनाया—“दोनों का फर्क इंजन है। इंपैक्ट में मोटरसाइकिल का इंजन अलग हो जाता है, लेकिन कार का इंजन अंदर घुस जाता है। इसलिए कार का इंजन ऐसा बनाया जाता है कि वो आपको मार न दे।”
अब इसे आप इंजीनियरिंग कहिए या इंजीनियरिंग का अंत्येष्टि संस्कार, लेकिन यह “इंजन थ्योरी” ऐसी थी कि सुनने वाला हँसी और करुणा के बीच झूल गया।
जनता अब यह सोच रही है कि कार का इंजन मारे या ना मारे, बाबा की थ्योरी सुनकर लोग ज़रूर हँस-हँस के मर जाएँगे। और फिर उनके फॉलोवर, यूट्यूब के “तुरुपाई उस्ताद”, इसे “आध्यात्मिक इंजीनियरिंग” बताकर समझाएँगे जैसे NASA ने उनसे परामर्श लिया हो।
कार की बात निकली तो याद आया—जब आपके दिवंगत चाचा साहब ने अर्जुन दास से मारुति का इंजन बनवाया था, तब लोग उसे “टिन का डब्बा” कहते थे। लेकिन वो “टिन का डब्बा” आज भी सड़कों पर दौड़ रहा है, जबकि बाबा की तर्कशक्ति का इंजन बहुत पहले ओवरहीट होकर पंचर हो चुका है।
अब बात कोलंबिया की करें—वहाँ का सुल्फ़ा (पदार्थ नहीं, संस्कृति समझिए) इतना मशहूर है कि दो कश मारो तो आसमान में दर्शन होने लगते हैं। शायद वही “प्रेरणा” बाबा को भी मिली होगी। वरना एक सामान्य व्यक्ति के दिमाग़ में ऐसी थ्योरी नहीं आती जो भौतिकी, तर्कशास्त्र और ट्रैफिक नियम—तीनों की धज्जियाँ एक साथ उड़ा दे।
जहाँ तक कोलंबियन कन्याओं की बात है—उनकी मुस्कान और नज़रों की चर्चा बाबा के “ध्यान” से ज़्यादा सुर्खियाँ बटोर रही है। लगता है बाबा का ध्यान अब योगासन से ज़्यादा “रोमांसन” पर केंद्रित है।
आख़िर में एक बात साफ़ है—जब तक बाबा ऐसे बयान देते रहेंगे, तब तक सत्ता के इंजनों में कोई जंग नहीं लगने वाली। उनकी “गप्पशास्त्र” की टंकी में इतना ईंधन है कि सरकार के प्रचारक चैनलों को लंबे वक्त तक गर्म रखे।
और उधर, विपक्ष के कुछ नेता इस “इंजन प्रवचन” को लेकर सिर पीट रहे हैं—कह रहे हैं, “अगर बाबा कोलंबिया में हैं, तो भारत में शर्म खुद निर्वासन पर चली गई है।”
तो निष्कर्ष यही है—बाबा का इंजन चाहे विज्ञान से मेल न खाए, पर मनोरंजन का ईंधन ज़रूर देता है। और जब तक जनता हँसती रहेगी, तब तक लोकतंत्र की बैटरी थोड़ी-बहुत चार्ज रहेगी।
– कौटिल्य का भारत, विशेष संपादकीय टिप्पणी

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