संघ शताब्दी वर्ष, राष्ट्रीय भावना की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है - कौटिल्य का भारत

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शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

संघ शताब्दी वर्ष, राष्ट्रीय भावना की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: एक गंभीर संपादकीय 

विश्लेषणराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) 1925 में स्थापित एक ऐसा संगठन है, जिसने भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य में शताब्दियों से चल रहे विविध प्रभावों के बीच विपरीत परिस्थितियों  में अपनी जगह बनाई है। 2025 में संघ अपनी शताब्दी वर्ष मना  रहा है, जो कि भारतीय इतिहास में एक बड़ी उपलब्धि है। यह संगठन न केवल स्वयंसेवकों के विशाल नेटवर्क के रूप में उभरा है, बल्कि भारतीय राष्ट्रवाद की एक शक्तिशाली ध्वजवाहक भी बना है। 


इस संपादकीय में संघ के गठन, विकास, उसकी सामाजिक और राजनीतिक भूमिका, आलोचनाएं व चुनौतियां तथा भविष्य की संभावनाओं पर गंभीरता से विचार किया जाएगा।संघ की स्थापना का सन्दर्भ और उद्देश्यों का मूल्यांक

देश के सामाजिक-राजनीतिक विभाजनों के दौर में, जब भारतीय समाज अनेक जातीय, धार्मिक और भाषाई मतभेदों से विखंडित हो रहा था, तब केशव बलराम हेडगेवार ने नागपुर में संघ की नींव रखी। उनका लक्ष्य एक संगठित, सजग और संस्कृतिक रूप से जागरूक हिंदू समाज का निर्माण था। संघ के प्रारंभिक दिनों में उसमें केवल 17 स्वयंसेवक शामिल थे, जो बाद में सम्पूर्ण भारत में फैले। आरएसएस ने अपने आदर्शों में राष्ट्र की एकता, मातृभूमि की सेवा, तथा स्वयंसेवकों में शारीरिक-मानसिक अनुशासन को प्राथमिकता दी। ध्यान देने योग्य है कि संघ की शुरुआत राजनीति से दूर सांस्कृतिक पुनरुत्थान के उद्देश्य से हुई थी।वैसे तो संघ का नाम 1926 में चुना गया, लेकिन इसका प्रभाव धीरे-धीरे व्यापक होता गया। व्यायामशालाओं और अखाड़ों के माध्यम से संघ ने युवाओं को प्रशिक्षित किया, जो न केवल शारीरिक रूप से स्वस्थ बने बल्कि उनके मन में राष्ट्रभक्ति की भावना भी गहरी हुई। इसकी प्रार्थना ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ से भी मातृभूमि के प्रति गहरा समर्पण झलकता है। हेडगेवार की यह धारणा थी कि अगर हिंदू समाज संगठित नहीं हुआ तो स्वतंत्रता का सपना अधूरा रह जाएगा।
आरएसएस का सुगठित विस्तार और सामाजिक अनुमोदन
आज संघ का दावा है कि इसके लाखों प्रशिक्षित स्वयंसेवक हैं और भारत के लगभग हर गांव और तहसील तक उसकी शाखा फैली हुई है। संघ परिवार की कई सहायक संस्थाएं शैक्षिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यों में नियोजित हैं, जैसे कि विद्या भारती, सेवा भारती, भारतीय मजदूर संघ आदि। ये संस्थाएं भारतीय संस्कृतियों, परंपराओं, और सामाजिक उत्थान के सहारे राष्ट्र की नींव मजबूत करती हैं। इसके माध्यम से संघ न केवल स्वयंसेवकों को संगठित करता है बल्कि राष्ट्र निर्माण में व्यापक जनभागीदारी भी सुनिश्चित करता है।1947 के विभाजन के दौरान हजारों शरणार्थियों की सहायता, कश्मीर सीमा की निगरानी, भारत-चीन युद्ध (1962) तथा भारत-पाकिस्तान युद्ध (1965) के समय सीमा सुरक्षा, प्रशासन सहायता और रक्तदान जैसे कार्य संघ की राष्ट्रीय सेवा भावना के जीवंत उदाहरण हैं। नेहरू ने 1963 में गणतंत्र दिवस परेड में संघ के शामिल होने का आमंत्रण दिया, जो उसके सम्मान का प्रतीक था। उक्त कालखंड में संघ ने अपने द्वारा स्थापित अनुशासन, समर्पण और सामाजिक सेवा के माध्यम से विश्वसनीयता हासिल की।
राजनीतिक संदर्भ और सामाजिक विवाद

हालांकि संघ स्वयं को एक सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन कहता है, लेकिन इसके राजनीतिक प्रभाव और भाजपा के साथ निकटता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। संघ से निकले कई स्वयंसेवक भाजपा की स्थापना के साथ जुड़े और वर्तमान में भाजपा के शासन में संघ की विचारधारा का प्रभाव केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर स्पष्ट दिखाई देता है। अटल विहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, वर्तमान प्रधान  मंत्री नरेंद्र मोदी जैसे लोग संघ की शाखा की ही देन हैं 
यह राजनीतिक जुड़ाव संघ के आलोचकों के लिए विशेष कारण रहा है।संघ ने कई बार तिरंगे राष्ट्रीय ध्वज के विरोध का चरित्र ग्रहण किया, जिसे बाद में बदलना पड़ा। गांधीजी और नेहरू जैसे राष्ट्रपुरुषों के संघ के प्रति मिश्रित दृष्टिकोण रहे। गांधीजी 1934 के वर्धा शिविर में संघ के अनुशासन की प्रशंसा करते थे लेकिन संघ की कट्टरता से भी नाखुश थे।
 नेहरू स्वयं संघ की गतिविधियों के प्रति सतर्क थे, पर 1962 के युद्ध में संघ की सेवा ने उनके दृष्टिकोण को कुछ हद तक सकारात्मक बनाया।1948 में गांधीजी की हत्या के बाद संघ पर लगा प्रतिबंध, आपातकाल में 1975-77 का राजनीतिक दमन, और बाबरी मस्जिद विवाद के बाद 1992 का प्रतिबंध संघ की संस्थागत जड़ों को हिला देने वाले थे। किन्तु संघ ने इन प्रतिबंधों के बाद भी स्वयं को पुनर्गठित कर सामाजिक सेवा और संगठन के क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत रखी।
आलोचनाएं और संगठन की आलोचना के संदर्भ

आरएसएस पर आरोप रहे हैं कि वह सांप्रदायिकता को बढ़ावा देता है और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध कट्टरता फैलाता है। इसके साथ ही संघ को इतिहास में उन विविध आंदोलनों से दूरी के कारण आलोचना मिली, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाया, जैसे कि ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में संघ की अनुपस्थिति। संघ संस्थापक डॉ हेगेवार प्रत्यक्षततत्कालीन कांग्रेस पदाधिकारी और जेल यात्रा भी की, पर संघ विरोधयों की दृष्टि में संघ सदा आलोचना का केंद्र ही रहा:संघ के तिरंगे विरोध जैसी घटनाएं भी इसकी आलोचना को बल देती हैं।परंतु संघ ने यह भी साबित किया कि वह  एक राजनीतिक संगठन नहीं, बल्कि सामाजिक सेवा और सांस्कृतिक पुनरुत्थान का माध्यम ही है। संघ के स्वयंसेवकों के सैकड़ों सेवा कार्य, प्राकृतिक आपदाओं में राहत कार्य और शिक्षा क्षेत्र में व्यापक योगदान को नजरअंदाज करना उचित नहीं होगा। संघ की विचारधारा बहुसंस्कृत भारतीय समाज में एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में विकसित हो रही है,जिसपर आरोप लगता हे कि संघ राजनीति करता है, जो शत प्रतिशत से भी ज्यादे असत्य है. संघ पर गुप्त रूप से राजनीतिक उद्यम को संगठित करने का भी आरोप लगता है.।
आगे की चुनौतियां और संभावनाएं
आज के भारत में, जहां सामाजिक ध्रुवीकरण फैला है, विविधता में एकता बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। संघ के लिए भी यह चुनौती है कि वह अपनी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना को सम्पूर्ण समाज के लिए प्रेरणा बने। संघ को चाहिए कि वह अपने सिद्धांतों को अधिक उदार, समावेशी और आधुनिक बनाकर सामाजिक समरसता को बढ़ाए। साथ ही देश की युवा पीढ़ी को देशभक्ति, अनुशासन और सेवा का सही संस्कार दे।संघ की शताब्दी वर्ष पर यह भी आवश्यक है कि संगठन अपने इतिहास को गंभीरता से विश्लेषित करे, अपनी कमियों को स्वीकारे और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पुनः स्थापित करे। आज का समय सूचना, प्रौद्योगिकी और वैश्वीकरण से परिचालित है, जिसमें संघ को भी अपनी छवि में खुलापन और पारदर्शिता लानी चाहिए, ताकि वह सभी वर्गों के लिए सम्मानजनक और विश्वासपात्र बन सके।
निष्कर्ष
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक एकता के निर्माण में एक बड़ी ताकत है। उसकी स्थापना की पृष्ठभूमि, अनुशासन, सेवा कार्य और व्यापक संगठनात्मक विस्तार इसे विशिष्ट बनाता है। वहीं राजनीतिक जुड़ाव, आलोचनाएं और विवाद इसके समग्र दृष्टिकोण को प्रभावित करते हैं। संघ का 100वां वर्ष ऐसे मौक़े पर है जब उसे अपने इतिहास के साथ साथ वर्तमान सामाजिक-सांस्कृतिक चुनौतियों के लिए भी जवाबदेह होना होगा। वह तभी राष्ट्र के लिए सच्चा पूरक साबित होगा जब विविधता में एकता की उसकी पहल सभी भारतीयों के जिसका भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि वह कैसे परिवर्तन के महत्व को समझकर समरस और जवाबदेह बनता है।यह संपादकीय चुकी संध्या का कार्य ईश्वरीय है इसलिए संघ को राजनीतक  शुचिता की गारंटी लेनी होंगी. उसके लोग जो राजनीति में हैं क्या एकाध को छोड़ शुचिता के मानक पर खरे उतर रहे हैं?
आवश्यकता आपडी है संघ स्वत :स्फूर्ति से विभिन्न क्षेत्रों के स्वयं सेवकों के ऊपर नियंत्रक की भूमिका का निर्वहन सघ को ही देना होगा, शताब्दी वर्ष पर संघ वेश्विक परिदृश्य पर अपनी चमक, दमक कायम रखे है यही ईश्वरीय अभप्रेत है.

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