इस्लामी राजनीति की केंद्रीय समस्या : धर्म, सत्ता और
आधुनिकता का द्वंद्व
राजेंद्र नाथ
भारत जैसे बहुलतावादी और लोकतांत्रिक राष्ट्र में धर्म को निजी आस्था का विषय होना चाहिए, किंन्तु कुछ राजनीतिक प्रवृत्तियाँ उसे सत्ता की सीढ़ी बना देती हैं। इसी प्रवृत्ति का सबसे प्रखर उदाहरण इस समय इस्लामी राजनीति है, जिसकी जड़ें अब भी मध्यकालीन धार्मिक अनुशासन और पहचान-आधारित राजनीति में फँसी हुई हैं।
भारत जैसे बहुलतावादी और लोकतांत्रिक राष्ट्र में धर्म को निजी आस्था का विषय होना चाहिए, किंन्तु कुछ राजनीतिक प्रवृत्तियाँ उसे सत्ता की सीढ़ी बना देती हैं। इसी प्रवृत्ति का सबसे प्रखर उदाहरण इस समय इस्लामी राजनीति है, जिसकी जड़ें अब भी मध्यकालीन धार्मिक अनुशासन और पहचान-आधारित राजनीति में फँसी हुई हैं।
हाल ही में एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी का वक्तव्य — “आई लव मोहम्मद, आई डोंट लव मोदी” — केवल एक व्यक्ति पर प्रहार नहीं था, बल्कि उस राष्ट्रीय चेतना के प्रति अस्वीकृति का संकेत था जो भारत को एक समरस और संवैधानिक राज्य के रूप में देखती है। यह वाक्य बताता है कि मुसलमानों का नेतृत्व आज भी अपने अनुयायियों को धार्मिक भावनाओं के घेरे में बाँधकर रखना चाहता है, जबकि समय उन्हें आधुनिकता, आत्मचिंतन और साझे भविष्य की ओर बुला रहा है।
इस्लामी राजनीति की केंद्रीय समस्या यही है कि वह “धर्म और राजनीति” को अलग नहीं कर पाती। इस्लाम में धार्मिक अनुशासन ही सामाजिक और राजनीतिक विधान बन जाता है। फलतः जब कोई मुस्लिम नेता आधुनिक लोकतंत्र की बात करता भी है, तो उसके भीतर यह द्वंद्व बना रहता है कि क्या इस्लामी शरीअत और आधुनिक संविधान साथ-साथ चल सकते हैं? यही द्वंद्व उसे लोकतांत्रिक चेतना से दूर करता है।
हिंदू समाज ने समय-समय पर आत्मसुधार और पुनर्व्याख्या के माध्यम से आधुनिकता को अपनाया— वेदांत से विवेकानंद तक, और परंपरा से प्रगति तक। किंतु मुस्लिम नेतृत्व ने आत्मालोचना के बजाय “शिकायत की राजनीति” को साधन बना लिया। इससे एक पूरे समुदाय की सामाजिक उन्नति बाधित हुई। शिक्षा, विज्ञान और आधुनिक ज्ञान से दूरी ने मुस्लिम समाज को आर्थिक और राजनीतिक दोनों स्तरों पर पिछड़ा रखा।
अब समय है कि इस्लामी नेतृत्व आत्ममंथन करे—क्या वह अपने समाज को भी उसी दुनिया में रखना चाहता है जहाँ धर्म ही राजनीति का विकल्प है? या वह उन्हें उस आधुनिक भारत का सहभागी बनाना चाहता है जहाँ नागरिकता की पहचान धर्म से नहीं, संविधान से तय होती है।
ओवैसी जैसे नेताओं को समझना होगा कि इस्लामी राजनीति की परंपरा अब भारतीय मुसलमानों के हित में नहीं रही। धर्म के नाम पर वैचारिक कैद से बाहर निकलना ही वास्तविक “इमानी आज़ादी” है। जो नेतृत्व इस्लाम को आत्मोन्नति का मार्ग बनाए, वही भविष्य का पथप्रदर्शक कहलाएगा — न कि वह जो मंच से नारे लगाकर समाज को अतीत में लौटा दे।
भारत का मुसलमान किसी “अलग राष्ट्र” का नागरिक नहीं, बल्कि इस महान गणराज्य का समान अधिकार संपन्न नागरिक है। उसे चाहिए कि वह अपनी राजनीति को “धर्म” से नहीं, “धर्मनिष्ठा” से जोड़े —क्योंकि राष्ट्र की सेवा ही इस युग का सबसे बड़ा इबादतखाना है.

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