“मैं हिंदू हूँ, हिंदुत्ववादी नहीं” — और “मैं आतंकी हूँ, आतंकवादी नहीं”:भारत के वैचारिक युद्ध की गूंजअजय सिंह गौतम
जब राजनीति अपने ही धर्म पर व्यंग्य बन जाए,तो समाज का विवेक ही उसका प्रतिकार बन जाता है
सोशल मीडिया पर एक तस्वीर तेजी से फैली।ऊपर राहुल गांधी, खड़गे और तेजस्वी यादव के हाथों में एडिट किए हुए पोस्टर।नीचे राहुल गांधी का बयान — “मैं हिंदू हूँ, हिंदुत्ववादी नहीं।”और उसके नीचे व्यंग्य में लिखा — “मैं आतंकी हूँ, आतंकवादी नहीं।”
पहली नजर में ये हंसी का विषय लगता है।पर
दरअसल यह राजनीतिक व्यंग्य नहीं, बल्कि वैचारिक सर्जिकल स्ट्राइक है।यह भारत की आत्मा और उसके विरोध में खड़ी मानसिकता के बीच चल रहे संघर्ष का प्रतीक है।
फोटो नहीं, विचारधारा का दर्पण,
इन तस्वीरों में दिखती भाषा किसी मीम की उपज नहीं —यह उस राजनीति का रूपक है जो वर्षों सेआतंकवाद, अलगाववाद और तुष्टिकरण के बीच “मानवता” खोजने में लगी है।कभी “गरीब की झोपड़ी” के नाम पर,अब “आतंकवादियों कीसहानुभूति” के नाम पर वोट माँगे जा रहे हैं।यह तस्वीर इसलिए तीखी है क्योंकि यहभारत की उस राजनीतिक नस को छूती है,जहाँ राष्ट्रभक्ति अपराध और राष्ट्रविरोध अधिकार बन गया है।
“मैं हिंदू हूँ, हिंदुत्ववादी नहीं” — आत्मविरोध की पराकाष्ठा
राहुल गांधी का यह वाक्य, यदि आध्यात्मिक संदर्भ में कहा जाता,तो यह संतों की परंपरा में बैठता। पर राजनीति के मंच पर जब यह कहा गया,तो यह आस्था और वोट बैंक के बीच की रेखा को धुंधला कर गया। हिंदुत्व कोई व्यक्ति-पूजा नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक चेतना का नाम है।जब कोई “हिंदुत्ववादी नहीं” कहकरउस चेतना से दूरी बनाता है, तो वह वस्तुतः भारत की सभ्यता से दूरी बना रहा होता है।
“जो अपने धर्म से शर्माता है,वह राष्ट्र से विमुख होने की पहली सीढ़ी पर खड़ा है।
व्यंग्य जो सच बन गया: “मैं आतंकी हूँ, आतंकवादी नहीं”
मीम के दूसरे हिस्से में यह वाक्य —“मैं आतंकी हूँ, आतंकवादी नहीं” —
सिर्फ हंसी नहीं, बल्कि एक गूढ़ दर्पण है।यदि “मैं हिंदू हूँ, हिंदुत्ववादी नहीं” कहना
नैतिक श्रेष्ठता का दावा बन सकता है,तो उसी तर्क में “मैं आतंकी हूँ, आतंकवादी नहीं”भी अपने अपराध को नैतिकता का आवरण दे सकता है।
यही दोहरे मापदंडों का चरम है —जहाँ बहुसंख्यक की धार्मिक चेतना पर सवाल उठाना “उदारवाद” है,पर अल्पसंख्यक के अंधकार पर प्रश्न करना “घृणा” कहलाता है।
“बांग्लादेश से पाकिस्तान तक सड़क” — तुष्टिकरण का राजनीतिक नक्शा
पहली फोटो के एडिटेड स्लोगन व्यंग्य हैं, पर संकेत वास्तविक हैं।भारत की राजनीति में एक ऐसा वर्ग सक्रिय है,जो आतंक के पीड़ित भारत से अधिक आतंक के अपराधियों के लिए सहानुभूति रखता है। “वोट बैंक की सड़क, राष्ट्र की कब्रगाह से होकर गुजरती है।”
आज वही सड़क बांग्लादेश से पाकिस्तान तक,राजनीतिक भाषा में खिंच चुकी है —
जहाँ हर राष्ट्रीय मुद्दे का धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सौदा होता है।
मीम नहीं, मानसिक युद्ध का अस्त्र
आज का सोशल मीडिया केवल मनोरंजन नहीं —यह विचारों की खाई में लड़ी जा रही मानसिक युद्धभूमि है। यह तस्वीर उसी युद्ध की गोली है —जो हंसी में छिपकर मस्तिष्क को झकझोरती है।यह याद दिलाती है कि राजनीति का असली रण अब टीवी डिबेट में नहीं, बल्कि जनमत की स्क्रीन पर लड़ा जा रहा है और वहाँ जो विचार सबसे तीखे और स्पष्ट होते हैं, वे ही जनता के विवेक को दिशा देते हैं।
यह मीम हमें हँसाने के लिए नहीं बना —यह हमें जगाने के लिए बना है।
यह याद दिलाने के लिए कि — “भारत की आत्मा केवल मंदिरों में नहीं,
बल्कि उस विचार में बसती है जो सत्य, साहस और संस्कृति का रक्षक हो।”
जो अपने ही धर्म पर व्यंग्य करता है, वह राजनीति का खिलौना बन जाता है।पर जो अपने धर्म को आत्मगौरव बनाता है —वह राष्ट्र की आवाज़ बन जाता है।
कौटिल्य का भारत
“जहाँ व्यंग्य केवल मज़ाक नहीं,
बल्कि राष्ट्रचेतना की तलवार है।”
फोटो नहीं, विचारधारा का दर्पण,
इन तस्वीरों में दिखती भाषा किसी मीम की उपज नहीं —यह उस राजनीति का रूपक है जो वर्षों सेआतंकवाद, अलगाववाद और तुष्टिकरण के बीच “मानवता” खोजने में लगी है।कभी “गरीब की झोपड़ी” के नाम पर,अब “आतंकवादियों कीसहानुभूति” के नाम पर वोट माँगे जा रहे हैं।यह तस्वीर इसलिए तीखी है क्योंकि यहभारत की उस राजनीतिक नस को छूती है,जहाँ राष्ट्रभक्ति अपराध और राष्ट्रविरोध अधिकार बन गया है।
“मैं हिंदू हूँ, हिंदुत्ववादी नहीं” — आत्मविरोध की पराकाष्ठा
राहुल गांधी का यह वाक्य, यदि आध्यात्मिक संदर्भ में कहा जाता,तो यह संतों की परंपरा में बैठता। पर राजनीति के मंच पर जब यह कहा गया,तो यह आस्था और वोट बैंक के बीच की रेखा को धुंधला कर गया। हिंदुत्व कोई व्यक्ति-पूजा नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक चेतना का नाम है।जब कोई “हिंदुत्ववादी नहीं” कहकरउस चेतना से दूरी बनाता है, तो वह वस्तुतः भारत की सभ्यता से दूरी बना रहा होता है।
“जो अपने धर्म से शर्माता है,वह राष्ट्र से विमुख होने की पहली सीढ़ी पर खड़ा है।
व्यंग्य जो सच बन गया: “मैं आतंकी हूँ, आतंकवादी नहीं”
मीम के दूसरे हिस्से में यह वाक्य —“मैं आतंकी हूँ, आतंकवादी नहीं” —
सिर्फ हंसी नहीं, बल्कि एक गूढ़ दर्पण है।यदि “मैं हिंदू हूँ, हिंदुत्ववादी नहीं” कहना
नैतिक श्रेष्ठता का दावा बन सकता है,तो उसी तर्क में “मैं आतंकी हूँ, आतंकवादी नहीं”भी अपने अपराध को नैतिकता का आवरण दे सकता है।
यही दोहरे मापदंडों का चरम है —जहाँ बहुसंख्यक की धार्मिक चेतना पर सवाल उठाना “उदारवाद” है,पर अल्पसंख्यक के अंधकार पर प्रश्न करना “घृणा” कहलाता है।
“बांग्लादेश से पाकिस्तान तक सड़क” — तुष्टिकरण का राजनीतिक नक्शा
पहली फोटो के एडिटेड स्लोगन व्यंग्य हैं, पर संकेत वास्तविक हैं।भारत की राजनीति में एक ऐसा वर्ग सक्रिय है,जो आतंक के पीड़ित भारत से अधिक आतंक के अपराधियों के लिए सहानुभूति रखता है। “वोट बैंक की सड़क, राष्ट्र की कब्रगाह से होकर गुजरती है।”
आज वही सड़क बांग्लादेश से पाकिस्तान तक,राजनीतिक भाषा में खिंच चुकी है —
जहाँ हर राष्ट्रीय मुद्दे का धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सौदा होता है।
मीम नहीं, मानसिक युद्ध का अस्त्र
आज का सोशल मीडिया केवल मनोरंजन नहीं —यह विचारों की खाई में लड़ी जा रही मानसिक युद्धभूमि है। यह तस्वीर उसी युद्ध की गोली है —जो हंसी में छिपकर मस्तिष्क को झकझोरती है।यह याद दिलाती है कि राजनीति का असली रण अब टीवी डिबेट में नहीं, बल्कि जनमत की स्क्रीन पर लड़ा जा रहा है और वहाँ जो विचार सबसे तीखे और स्पष्ट होते हैं, वे ही जनता के विवेक को दिशा देते हैं।
यह मीम हमें हँसाने के लिए नहीं बना —यह हमें जगाने के लिए बना है।
यह याद दिलाने के लिए कि — “भारत की आत्मा केवल मंदिरों में नहीं,
बल्कि उस विचार में बसती है जो सत्य, साहस और संस्कृति का रक्षक हो।”
जो अपने ही धर्म पर व्यंग्य करता है, वह राजनीति का खिलौना बन जाता है।पर जो अपने धर्म को आत्मगौरव बनाता है —वह राष्ट्र की आवाज़ बन जाता है।
कौटिल्य का भारत
“जहाँ व्यंग्य केवल मज़ाक नहीं,
बल्कि राष्ट्रचेतना की तलवार है।”
#छवि सोशल मिडिया से 🙏साभार


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