धर्माचार्यों के नाम एक निर्णायक आह्वान!
प्रधानमंत्री, गृह मंत्री को पत्र
मस्जिद से परहेज़ नहीं, बाबर से परहेज़—
यह पत्र किसी एक समुदाय, किसी एक धर्म या किसी एक इबादत-स्थल के विरुद्ध नहीं है। यह पत्र है—धर्म के नाम पर इतिहास के आक्रांताओं को ढोते रहने की बीमारी के विरुद्ध। यह संबोधन है—धर्माचार्यों, मौलवियों, गिरिजाघरों के पादरियों, गुरुद्वारों के ग्रंथियों और समस्त सजग नागरिकों के नाम, जो आज भी समाज की नैतिक दिशा तय करने की क्षमता रखते हैं। आज भारत के सामने प्रश्न मस्जिद का नहीं है। प्रश्न बाबर का है। आज विवाद इबादत का नहीं, आक्रांता की स्मृति को राजनीतिक मुद्रा बनाए रखने का है।
और आज आवश्यकता संवाद की नहीं, निर्णय की है। धर्म बनाम आक्रांता: यह अंतर समझना अनिवार्य है
भारत की आत्मा सहिष्णु है। यहाँ मस्जिद भी रही है, मंदिर भी, गुरुद्वारा भी और गिरिजाघर भी। पर भारत ने कभी भी—इतिहास में—आक्रांता को पूज्य नहीं माना। बाबर कोई पैगंबर नहीं था, कोई सूफ़ी नहीं था, कोई धर्मगुरु नहीं था। वह एक विदेशी आक्रांता था—जिसका लक्ष्य सत्ता था, आस्था नहीं।
तो फिर प्रश्न उठता है—आख़िर क्यों “बाबर” नाम को ढोया जा रहा है?क्यों हर पीढ़ी को एक पराजित आक्रांता की स्मृति के साथ जीने को बाध्य किया जा रहा है?यह सवाल सिर्फ़ सरकार से नहीं, धर्माचार्यों से भी है।मौलवियों से सीधा प्रश्न,मौलवी साहब,क्या इस्लाम की पहचान बाबर है?क्या आपकी नमाज़ बाबर के नाम से मुकम्मल होती है? क्या क़ुरआन बाबर को आदर्श बताता है?यदि नहीं—तो फिर बाबर के नाम पर ज़िद क्यों? क्यों हर बार जब समाज शांति की ओर बढ़ता है, बाबर को फिर से जगा दिया जाता है?
यह इस्लाम की सेवा नहीं है—यह राजनीतिक इस्लाम की विकृति है।गिरिजाघरों और गुरुद्वारों से भी अपील,पादरी महोदय, ग्रंथी सिंह साहब,आपकी परंपराएँ त्याग, करुणा और मानव-मर्यादा सिखाती हैं। फिर आप चुप क्यों हैं जब इतिहास के आक्रांता को धार्मिक प्रतीक बनाया जा रहा है?
क्या आज धर्माचार्य केवल अपने-अपने घेरे तक सीमित रह गए हैं? क्या सामाजिक शांति अब “दूसरे का विषय” बन चुकी है? याद रखिए—आग पड़ोस में लगे तो धुआँ अपने घर भी आता है।समाज के नाम सीधी चेतावनी,समाज को यह भ्रम पालना छोड़ना होगा कि बाबर का नाम कोई मासूम सांस्कृतिक प्रश्न है। यह वोट-बैंक की खाद है, जिसे हर चुनाव में पानी दिया जाता है।जब बाबर का नाम जिंदा रहता है—
राजनीति को मुद्दा मिलता है,समाज को ज़हर मिलता है,और राष्ट्र को दरार,यह कोई संयोग नहीं कि हर विवाद के केंद्र में “बाबर” ही होता है। सरकार से अपेक्षा, विपक्ष से चेतावनी,सरकार से अपेक्षा है कि वह आधे-सच और आधे-डर से बाहर निकले।अब समय आ गया है कि आक्रांता-स्मृति पर स्पष्ट कानून बने।
जिस तरह हिटलर के नाम पर जर्मनी में स्मारक नहीं, उसी तरह बाबर के नाम पर भारत में ज़िद क्यों?
और विपक्ष से सीधी चेतावनी—इतिहास के घाव कुरेदकर राजनीति करना बंद करें।
यह शॉर्टकट है, राष्ट्रनीति नहीं।अब निर्णायक प्रस्ताव,इस संपादकीय के माध्यम से सभी धर्माचार्यों और समाज के प्रबुद्ध वर्ग से एक साझा संकल्प का आह् “हम मस्जिद से परहेज़ नहीं करते,पर बाबर से कोई कार्य नहीं रखते।बाबर को सदा के लिए,भारत की सार्वजनिक स्मृति से विदा करते हैं।”
यह विदाई हिंसा से नहीं होगी।यह विदाई नफ़रत से नहीं होगी।यह विदाई होगी—सामूहिक नैतिक निर्णय से।
अंतिम शब्द: इतिहास से आगे बढ़िए
भारत को मस्जिद से खतरा नहीं। भारत को मंदिर से खतरा नहीं।भारत को खतरा है—आक्रांता को धर्म का चेहरा बना देने से।यदि आज धर्माचार्य आगे आएँ,यदि मौलवी स्पष्ट कहें—“बाबर हमारा नहीं”,यदि समाज कहे—“हमें इबादत चाहिए, आक्रांता नहीं”,तो यकीन मानिए—भारत एक बार फिर विवाद से नहीं, विवेक से पहचाना जाएगा।अब निर्णय टालना कायरता होगी।
अब चुप रहना अपराध होगा।अब समय है—बाबर को इतिहास की कब्र में दफन करने का,
और भारत को भविष्य की ओर बढ़ाने कदम है
यह पत्र किसी एक समुदाय, किसी एक धर्म या किसी एक इबादत-स्थल के विरुद्ध नहीं है। यह पत्र है—धर्म के नाम पर इतिहास के आक्रांताओं को ढोते रहने की बीमारी के विरुद्ध। यह संबोधन है—धर्माचार्यों, मौलवियों, गिरिजाघरों के पादरियों, गुरुद्वारों के ग्रंथियों और समस्त सजग नागरिकों के नाम, जो आज भी समाज की नैतिक दिशा तय करने की क्षमता रखते हैं। आज भारत के सामने प्रश्न मस्जिद का नहीं है। प्रश्न बाबर का है। आज विवाद इबादत का नहीं, आक्रांता की स्मृति को राजनीतिक मुद्रा बनाए रखने का है।
और आज आवश्यकता संवाद की नहीं, निर्णय की है। धर्म बनाम आक्रांता: यह अंतर समझना अनिवार्य है
भारत की आत्मा सहिष्णु है। यहाँ मस्जिद भी रही है, मंदिर भी, गुरुद्वारा भी और गिरिजाघर भी। पर भारत ने कभी भी—इतिहास में—आक्रांता को पूज्य नहीं माना। बाबर कोई पैगंबर नहीं था, कोई सूफ़ी नहीं था, कोई धर्मगुरु नहीं था। वह एक विदेशी आक्रांता था—जिसका लक्ष्य सत्ता था, आस्था नहीं।
तो फिर प्रश्न उठता है—आख़िर क्यों “बाबर” नाम को ढोया जा रहा है?क्यों हर पीढ़ी को एक पराजित आक्रांता की स्मृति के साथ जीने को बाध्य किया जा रहा है?यह सवाल सिर्फ़ सरकार से नहीं, धर्माचार्यों से भी है।मौलवियों से सीधा प्रश्न,मौलवी साहब,क्या इस्लाम की पहचान बाबर है?क्या आपकी नमाज़ बाबर के नाम से मुकम्मल होती है? क्या क़ुरआन बाबर को आदर्श बताता है?यदि नहीं—तो फिर बाबर के नाम पर ज़िद क्यों? क्यों हर बार जब समाज शांति की ओर बढ़ता है, बाबर को फिर से जगा दिया जाता है?
यह इस्लाम की सेवा नहीं है—यह राजनीतिक इस्लाम की विकृति है।गिरिजाघरों और गुरुद्वारों से भी अपील,पादरी महोदय, ग्रंथी सिंह साहब,आपकी परंपराएँ त्याग, करुणा और मानव-मर्यादा सिखाती हैं। फिर आप चुप क्यों हैं जब इतिहास के आक्रांता को धार्मिक प्रतीक बनाया जा रहा है?
क्या आज धर्माचार्य केवल अपने-अपने घेरे तक सीमित रह गए हैं? क्या सामाजिक शांति अब “दूसरे का विषय” बन चुकी है? याद रखिए—आग पड़ोस में लगे तो धुआँ अपने घर भी आता है।समाज के नाम सीधी चेतावनी,समाज को यह भ्रम पालना छोड़ना होगा कि बाबर का नाम कोई मासूम सांस्कृतिक प्रश्न है। यह वोट-बैंक की खाद है, जिसे हर चुनाव में पानी दिया जाता है।जब बाबर का नाम जिंदा रहता है—
राजनीति को मुद्दा मिलता है,समाज को ज़हर मिलता है,और राष्ट्र को दरार,यह कोई संयोग नहीं कि हर विवाद के केंद्र में “बाबर” ही होता है। सरकार से अपेक्षा, विपक्ष से चेतावनी,सरकार से अपेक्षा है कि वह आधे-सच और आधे-डर से बाहर निकले।अब समय आ गया है कि आक्रांता-स्मृति पर स्पष्ट कानून बने।
जिस तरह हिटलर के नाम पर जर्मनी में स्मारक नहीं, उसी तरह बाबर के नाम पर भारत में ज़िद क्यों?
और विपक्ष से सीधी चेतावनी—इतिहास के घाव कुरेदकर राजनीति करना बंद करें।
यह शॉर्टकट है, राष्ट्रनीति नहीं।अब निर्णायक प्रस्ताव,इस संपादकीय के माध्यम से सभी धर्माचार्यों और समाज के प्रबुद्ध वर्ग से एक साझा संकल्प का आह् “हम मस्जिद से परहेज़ नहीं करते,पर बाबर से कोई कार्य नहीं रखते।बाबर को सदा के लिए,भारत की सार्वजनिक स्मृति से विदा करते हैं।”
यह विदाई हिंसा से नहीं होगी।यह विदाई नफ़रत से नहीं होगी।यह विदाई होगी—सामूहिक नैतिक निर्णय से।
अंतिम शब्द: इतिहास से आगे बढ़िए
भारत को मस्जिद से खतरा नहीं। भारत को मंदिर से खतरा नहीं।भारत को खतरा है—आक्रांता को धर्म का चेहरा बना देने से।यदि आज धर्माचार्य आगे आएँ,यदि मौलवी स्पष्ट कहें—“बाबर हमारा नहीं”,यदि समाज कहे—“हमें इबादत चाहिए, आक्रांता नहीं”,तो यकीन मानिए—भारत एक बार फिर विवाद से नहीं, विवेक से पहचाना जाएगा।अब निर्णय टालना कायरता होगी।
अब चुप रहना अपराध होगा।अब समय है—बाबर को इतिहास की कब्र में दफन करने का,
और भारत को भविष्य की ओर बढ़ाने कदम है
वेद शांडिल्यतत्वमसि
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