अपने पतन की पटकथा कांग्रेस खुद लिखती दिख रही
Rx इस लिए लिखना पढ़रहा की अपने हकीम, वेद्य की भी नहीं मानती कांग्रेस, उसका उत्तरायण कन्फर्म है, चाहे सरशेया हो या संसदीय अव्यवस्था संसदीय राजनीति में कांग्रेस का “उत्तर कांड” उस ऐतिहासिक दौर का नाम है जब राष्ट्रीय राजनीति में कभी केन्द्रीय/प्रधान दल रहे कांग्रेस की भूमिका घटकर सीमित, प्रतिक्रियात्मक और गठबंधन-निर्भर विपक्ष तक सिमट गई, जबकि सत्ता में भाजपा एक स्थायी “डॉमिनेंट पार्टी” के रूप में स्थापित हो गई।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमिआज़ादी के बाद से लगभग तीन दशकों तक कांग्रेस भारतीय संसदीय लोकतंत्र की धुरी रही, जिसने एक-दलीय प्रभुत्व वाला पार्टी सिस्टम बनाया। 1989 के बाद क्षेत्रीय दलों के उभार और गठबंधन युग ने इस प्रभुत्व को कमजोर किया, लेकिन निर्णायक मोड़ 2014 में आया जब कांग्रेस 44 सीटों तक सिमट गई और भाजपा ने पूर्ण बहुमत के साथ नया “डॉमिनेंट पार्टी सिस्टम” कायम किया।गिरावट के चुनावी संकेतलोकसभा में कांग्रेस की घटती शक्ति इसका सबसे स्पष्ट संकेत है: 2009 में 206 सीटों से गिरकर 2014 में 44, 2019 में 52 और 2024 में करीब 100 के आसपास तक सीमित रहना इसके “उत्तर कांड” की चुनावी रूपरेखा बनाता है।
भाजपा इसके समानांतर 2014, 2019 और 2024 में लगातार सबसे बड़ा दल बनकर बहुमत वाला या बहुमत के निकट गठबंधन-सत्ता मॉडल स्थापित करती रही, जिससे कांग्रेस की भूमिका राष्ट्रीय सत्ता-निर्णय का केंद्र न होकर विपक्षी ध्रुव तक सीमित हो गई।
वैचारिक और संगठनात्मक संकटविभिन्न अध्ययन बताते हैं कि कांग्रेस के पतन का बड़ा कारण उसका वैचारिक संकुचन है, जिसमें वह न तो स्पष्ट रूप से समाजवाद-कल्याणकारी राष्ट्रवाद को ही विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत कर पाई, न ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उभार के बीच अपना वैकल्पिक नैरेटिव गढ़ पाई।
उच्च नेतृत्व-केंद्रित “हाई कमान” संस्कृति, राज्यों के स्तर पर कमज़ोर संगठन, गुटबाज़ी और बड़े पैमाने पर दलबदल (2014–2021 के बीच सैकड़ों सांसद-विधायकों का जाना) ने इस वैचारिक संकट को जमीन पर संगठनात्मक संकट में बदल दिया।नेतृत्व और परिवार-निर्भरता2014 के बाद का समय प्रायः “राहुल गांधी युग” के रूप में देखा जाता है, जिसमें पार्टी का राजनीतिक चेहरा लगातार गांधी परिवार के इर्द-गिर्द घूमता रहा, जबकि वैकल्पिक नेतृत्व और आंतरिक लोकतंत्र विकसित नहीं हो सके। आज की संसदीय बहसों में भी कांग्रेस की आंतरिक खींचतान—राहुल बनाम अन्य संभावित चेहरे जैसे प्रियंका गांधी या क्षेत्रीय क्षत्रप—अक्सर दिखती है, जिससे सत्ता-विरोधी ऊर्जा को राष्ट्रीय स्तर पर एक समेकित नेतृत्व में रूपांतरित करना कठिन हो जाता है।
वर्तमान स्थिति और संभावित भविष्य2024 के बाद 100 के आसपास सीटें पाकर कांग्रेस ने भले ही 2014–2019 की तुलना में आंशिक सुधार दिखाया हो, पर वह अब भी एक ऐसा दल है जो अकेले नहीं, बल्कि इंडिया जैसे गठबंधन ढांचे के भीतर ही सत्ता-समीकरण में प्रासंगिक हो सकता है।
संसदीय राजनीति में कांग्रेस का “उत्तर कांड” इसलिए एक ऐसी अवस्था है, जहाँ वह शासक दल की परिभाषक शक्ति से हटकर विरोधी ध्रुव की एक महत्त्वपूर्ण, परन्तु निर्णायक न होने वाली, घटक शक्ति में बदल गई है—और इसका समाधान वैचारिक पुनर्निर्माण, मजबूत संगठन और विश्वसनीय नेतृत्व के बिना संभव नहीं दिखता।
किसी श्रीकृष्ण की संभावना समाप्त है जो उत्तरायण वाली कांग्रेस को अन्यष्टि से रोके.

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