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शनिवार, 13 दिसंबर 2025

अखंड वन्देमातरम, अखंड राष्ट्र की गारंटी, कांग्रेस प्रायश्चित करे, पूरी गीत को ह्रदय से आत्मसात करे (35)

 वन्देमातरम पञ्चत्रिंशत् श्रृंखला






वंदे मातरम: सनातन धर्म की परंपरा, ऐतिहासिक विभाजन और राष्ट्रवादी प्रायश्चित की आवश्यकता!

भारत की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान में "वंदे मातरम" एक ऐसा मंत्र है जो स्वतंत्रता संग्राम की धड़कन बना रहा। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यह गीत न केवल मातृभूमि की स्तुति है, बल्कि सनातन धर्म की उस परंपरा का प्रतीक है जहां मंत्रों का शुद्ध उच्चारण और पूर्णता अनिवार्य मानी जाती है।  सनातन धर्म में मंत्र का गलत उच्चारण, काट-छांट या संशोधन पाप है, और यही कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने वंदे मातरम के साथ किया। इस दृष्टि से, वंदे मातरम का विभाजन देश के विभाजन का प्रतीक बन गया, और पूरे गीत को राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार कर प्रायश्चित करना आवश्यक है। 
कांग्रेस को विशेष रूप से जिम्मेदार ठहराते हुए, यह लेख वैधानिक, ऐतिहासिक और सतर्क राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से इस विषय की व्याख्या करता है। 
 वंदे मातरम का जन्म और स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका
वंदे मातरम की रचना 1870 के दशक में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी, जो उनके उपन्यास "आनंदमठ" में शामिल है। यह उपन्यास 1770 के संन्यासी विद्रोह पर आधारित है, जहां मातृभूमि को देवी दुर्गा के रूप में चित्रित किया गया है। गीत के शब्द "वंदे मातरम" संस्कृत में हैं, जिसका अर्थ है "मैं मातृभूमि को प्रणाम करता हूं"। यह गीत 1880 में प्रकाशित हुआ और जल्द ही बंगाल विभाजन (1905) के स्वदेशी आंदोलन का प्रतीक बन गया। स्वतंत्रता सेनानियों जैसे बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे अपनाया, और यह ब्रिटिश राज के खिलाफ एकजुटता का मंत्र बन गया। 1905 के बंगाल विभाजन विरोध में, "वंदे मातरम" का नारा सड़कों पर गूंजा, और ब्रिटिश अधिकारियों ने इसे प्रतिबंधित कर दिया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1937 में वंदे मातरम के हिस्सों को राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया, जब वह स्वतंत्रता की दिशा में बढ़ रही थी। लेकिन यहां से विवाद शुरू हुआ। पूर्ण गीत में छह छंद हैं, जिसमें मातृभूमि को देवी के रूप में वर्णित किया गया है, जो सनातन धर्म की भक्ति परंपरा से जुड़ा है। कांग्रेस ने केवल पहले दो छंदों को अपनाया, जो सामान्य रूप से मातृभूमि की स्तुति करते हैं, जबकि बाद के छंदों में हिंदू देवी-देवताओं का उल्लेख है। यह निर्णय मुस्लिम लीग के विरोध के कारण लिया गया, जो गीत को मूर्तिपूजा से जोड़कर देखती थी।
ऐतिहासिक रूप से, मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्नाह ने वंदे मातरम को "इस्लाम-विरोधी" बताया, क्योंकि इसमें मातृभूमि को देवी के रूप में पूजने का संकेत है, जो इस्लाम की एकेश्वरवाद से टकराता है। 1937 में, कांग्रेस कार्यसमिति ने रवींद्रनाथ टैगोर की सलाह पर केवल पहले दो छंदों को अपनाने का फैसला किया, ताकि मुस्लिम समुदाय की भावनाओं का सम्मान हो। टैगोर ने कहा कि बाद के छंद "आनंदमठ" के संदर्भ में हैं, जो मुस्लिम-विरोधी लग सकते हैं। लेकिन राष्ट्रवादी दृष्टि से, यह काट-छांट सनातन धर्म की मंत्र परंपरा का उल्लंघन था, जहां मंत्र की पूर्णता अनिवार्य है।
सनातन धर्म का दृष्टिकोण: मंत्र की शुद्धता और वंदे मातरम का संदर्भ
सनातन धर्म में मंत्रों का उच्चारण शुद्ध और पूर्ण होना चाहिए। वेदों और पुराणों में कहा गया है कि मंत्र का गलत उच्चारण या संशोधन न केवल प्रभावहीन होता है, बल्कि पाप का कारण बनता है। उदाहरणस्वरूप, गायत्री मंत्र का कोई हिस्सा काटकर पढ़ना निषिद्ध है, क्योंकि यह ब्रह्मांड की ऊर्जा से जुड़ा है। वंदे मातरम को राष्ट्रवादी मंत्र के रूप में देखते हुए, इसका संशोधन इसी पाप का प्रतीक है। उपयोगकर्ता का तर्क है कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने इसे "काट-छांट" कर राष्ट्र की एकता को तोड़ा, जो देश के विभाजन से जुड़ा।
राष्ट्रवादी व्याख्या में, वंदे मातरम सनातन धर्म की "मातृभक्ति" का प्रतीक है, जहां भारत को देवी के रूप में देखा जाता है।
 लेकिन सतर्क दृष्टि से, यह धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। लाखों मुसलमानों ने स्वतंत्रता संग्राम में वंदे मातरम गाया, जैसे मौलाना अबुल कलाम आजाद। फिर भी, मुस्लिम लीग का विरोध विभाजनवादी था, जो दो-राष्ट्र सिद्धांत की नींव रखता था। कांग्रेस का निर्णय तुष्टिकरण का उदाहरण था, जो राष्ट्रवादी एकता को कमजोर करता है।
वैधानिक स्थिति: संविधान और अदालतों का रुख
भारतीय संविधान में राष्ट्रीय गान "जन गण मन" है, जबकि वंदे मातरम को राष्ट्रीय गीत का दर्जा 1950 में मिला। लेकिन संविधान में स्पष्ट रूप से "राष्ट्रीय गीत" का उल्लेख नहीं है; यह परंपरा से है। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार स्पष्ट किया कि वंदे मातरम गाना अनिवार्य नहीं है। 1985 के बिजो एमैनुएल मामले में, अदालत ने कहा कि धार्मिक विश्वास के कारण इसे न गाना अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता) और 19(1)(a) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) का उल्लंघन नहीं है।
2004 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वंदे मातरम गाना नागरिकों पर थोपा नहीं जा सकता। हाल ही में, एक पीआईएल को खारिज करते हुए अदालत ने कहा कि राष्ट्रीय नीति बनाने का अधिकार कार्यपालिका का है। वैधानिक रूप से, पूर्ण वंदे मातरम को अपनाना संसद के माध्यम से संभव है, लेकिन यह धार्मिक स्वतंत्रता से टकरा सकता है। राष्ट्रवादी दृष्टि से, इसे राष्ट्रीय गान के समान दर्जा देना चाहिए, जैसा कि बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सुझाया।
राष्ट्रवादी व्याख्या: विभाजन, कांग्रेस की जिम्मेदारी और प्रायश्चित
राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से, वंदे मातरम का विभाजन देश के विभाजन का पूर्वाभास था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने जिन्नाह के दबाव में गीत को "विभाजित" किया, जो तुष्टिकरण की राजनीति थी। 1947 के विभाजन में, मुस्लिम लीग की मांगें इसी से जुड़ी थीं। पूर्ण गीत में भारत को "सप्त कोटि कंठ" (सात करोड़ आवाजें) के रूप में वर्णित किया गया है, जो एकता का प्रतीक है। काट-छांट ने इसे कमजोर किया।
कांग्रेस की जिम्मेदारी स्पष्ट है: 1940 में, कांग्रेस ने सामाजिक सभाओं में वंदे मातरम न गाने का फैसला किया।
नेहरू ने इसे अपनाया, लेकिन राष्ट्रवादी जैसे सुभाष चंद्र बोस ने पूर्ण गीत का समर्थन किया। आज, कांग्रेस को प्रायश्चित के रूप में संसद में पूर्ण गीत को अपनाने का प्रस्ताव लाना चाहिए। लेकिन उनका आचरण वैसा नहीं लगता, जैसा कि हालिया संसद बहस में दिखा।
सतर्क दृष्टि से, पूर्ण अपनाना विवाद पैदा कर सकता है, लेकिन राष्ट्रवाद में धार्मिक समावेशिता होनी चाहिए। लाखों मुसलमानों ने इसे गाया, और जमीअत उलेमा-ए-हिंद ने कहा कि इसमें पॉलीथीइज्म है, लेकिन देशभक्ति अलग है। राष्ट्रवादी व्याख्या में, भेदभाव छोड़कर पूर्ण वंदे मातरम एकता की गारंटी है।
 प्रायश्चित का मार्ग और भविष्य
वंदे मातरम के 150 वर्ष पूरे होने पर, राष्ट्र को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। सनातन धर्म की परंपरा, ऐतिहासिक तथ्य और वैधानिक ढांचा बताते हैं कि पूर्ण गीत को अपनाना राष्ट्रवादी कर्तव्य है। कांग्रेस को आगे आकर संसद में प्रस्ताव लाना चाहिए, माफी मांगनी चाहिए, और राष्ट्र की एकता बहाल करनी चाहिए। यह न केवल प्रायश्चित होगा, बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की मजबूती। लेकिन सतर्क रहें: यह धार्मिक मजबूरी न बने, बल्कि स्वैच्छिक सम्मान हो। भारत की विविधता में ही उसकी शक्ति है, और वंदे मातरम उसका प्रतीक।
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