वन्देमातरम त्रयस्त्रिंशत् श्रृंखला
वंदे मातरम् और पूर्वोत्तर भारत: सीमा, संस्कृति और राष्ट्रचेतना का अनिवार्य सेतु
वन्देमातरम गायत्री मंत्र से भी महान हैं भारत की स्वतंत्रता-चेतना में यदि कोई एक सूत्र ऐसा है जिसने बंगाली नवजागरण से लेकर असमिया स्वदेशी, मणिपुरी अस्मिता, त्रिपुराई सांस्कृतिक उत्कर्ष, अरुणाचल की राष्ट्र-सीमा और नागा-मिजो जनजातीय जगत तक को एक ही प्रतीक में बाँध दिया—तो वह है वंदे मातरम्।
लेकिन इस उद्घोष का पूर्वोत्तर भारत से संबंध केवल सांस्कृतिक नहीं, बल्कि भूराजनीतिक, ऐतिहासिक और सभ्यतागत है। यह गीत जहाँ बंगाल में जन्मा, वहीं उसका वास्तविक अर्थ—ज़मीन, जल, वन, सीमाओं और मातृभूमि की रक्षा—सबसे तीव्र रूप में पूर्वोत्तर में ही अनुभव किया गया।
पूर्वोत्तर भारत केवल भारत का भौगोलिक छोर नहीं; यह राष्ट्र की अस्मिता की पहली रक्षा-रेखा है। और इसी कारण “वंदे मातरम्” यहाँ भावना नहीं, बल्कि कर्तव्य और चेतना का घोष है
जब ‘वंदे मातरम्’ का निर्माण हुआ और पूर्वोत्तर उसका स्वाभाविक विस्तार बन गया,1870–80 के दशक में जब बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने आनंदमठ में “वंदे मातरम्” रचा, तब भारत अंग्रेजी शासन के कठोर दमन से गुजर रहा था। गीत मूलतः मातृभूमि की मुक्ति और स्वराज्य की घोषणा था।
परंतु यह ध्यान देने योग्य है कि बंगाल प्रांत उस समय उत्तर-पूर्व का प्रवेश-द्वार भी था। आज का असम, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा—सब ब्रिटिश शासन के लिए “ईस्टर्न बंगाल” प्रशासनिक ढाँचे से जुड़े थे।
इसलिए वंदे मातरम् का संदेश बंगाल में उठा, पर उसकी तरंग सीधे ब्रह्मपुत्र, बराक, इम्फाल और लोइत नदी घाटियों तक पहुँची। यह पूर्वोत्तर का पहला ऐतिहासिक संगम था—जहाँ गीत बंगाल का था, पर राष्ट्रचेतना पूर्वोत्तर ने जीती।
असमिया स्वदेशी आंदोलन: ‘वंदे मातरम्’ का सबसे प्रखर दर्पण,
1905 के बंग-भंग विरोध में जब समूचा भारत जल रहा था,असम पहला क्षेत्र था जिसने इस आंदोलन को सांस्कृतिक और राजनीतिक शक्ति प्रदान की। असम छात्र सम्मेलन, xजोरहाट थिएटर गतिविधियाँ, स्वदेशी शिक्षा समितियाँ,अख़बार: असम बन्धु, असम समाचार इन सबने “वंदे मातरम्” को सार्वजनिक उद्घोष बनाया। 1905–1912 के दौर की असम-सभा के अधिवेशन खुले रूप में इसे राष्ट्रीय गीत की तरह गाते थे। असम में यह गीत केवल राष्ट्रभाव नहीं थ,यह ब्रिटिश-प्रायोजित चाय बागान शोषण, बंगाल डिवीजन और जातीय विभाजन के प्रतिरोध का मुख्य प्रतीक बन गया।
मणिपुर: स्वतंत्रता का सैन्य-सांस्कृतिक प्रदेश और ‘वंदे मातरम्’ की नई व्याख्या,मणिपुर भारत का वह राज्य है जिसने—1891 का एंग्लो-मणिपुर युद्ध अकेले लड़ा,महाराजा कुलचन्द्र सिंह और टिकेंद्रजीत सिंह ने अंग्रेज़ों को चुनौती दी,और स्वतंत्रता का सैन्य प्रतिरोध सबसे पहले खड़ा किया।
यह वही भूमि थी जहाँ स्वतंत्रता,भूमि, संस्कृति और राष्ट्रीय अधिकार—तीनों का संगम थी। इसलिए जब “वंदे मातरम्” पूर्वोत्तर में पहुँचा,मणिपुर में इसका अर्थ केवल राष्ट्र-गीत नहीं रहा,बल्कि मातृभूमि की रक्षा का चौबीस घंटे का धर्म बन गया। यही कारण है कि 1940–47 के बीच मणिपुरी युवाओं ने INA में सबसे ऊँची भागीदारी दिखाई।
त्रिपुरा: साम्राज्यकालीन सांस्कृतिक राज्य और राष्ट्रवादी चेतना
त्रिपुरा 14वीं–20वीं सदी तक पूर्वोत्तर का सबसे प्राचीन राजतंत्रीय-सांस्कृतिक केंद्र रहा। माणिक्य राजवंश ने बंगाल नवजागरण और असमिया पुनरुत्थान दोनों से गहरे संबंध बनाए। त्रिपुरा के महाराजा वीर विक्रम किशोर माणिक्य बहादुर स्वतंत्र भारत का “राष्ट्रधर्मी” शासक माना जाता है। राजमहल में वंदे मातरम् 1920–40 के बीच रजवाड़े और जनता—दोनों की साझा पहचान बन गया।यही कारण है कि त्रिपुरा स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में भारत के साथ स्वैच्छिक और उत्साहपूर्ण विलय का निर्णय लेने वाला पहला पूर्वोत्तर राज्य बना।
नागालैंड-मिजोरम: जनजातीय आत्मगौरव और ‘वंदे मातरम्’ की जटिलता
पूर्वोत्तर के इस हिस्से में पहचान सबसे गहरी है—धर्म, भाषा और जनजातीय परंपरा तीनों पर आधारित। यहाँ स्वतंत्रता के बाद अलगाववादी गतिविधियों ने केंद्रीय भारतीय प्रतीकों को चुनौती दी।लेकिन ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि—1960–80 के दशक में जिस शांति प्रक्रियाओं की शुरुआत हुई, उनका मूलाधार संवाद और ‘भारतीय मातृभूमि’ की स्वीकृति ही था। जब पहाड़ी जनजातियाँ यह समझने लगीं कि
भारत उनके धर्म और संस्कृति को नहीं मिटा रहा,बल्कि सम्मान दे रहा है,
तब “वंदे मातरम्” इनके लिए राजनीतिक प्रतीक की जगह ऐतिहासिक मातृभूमि का सम्मान बन गया। आज नागालैंड-मिजोरम के विद्यालयों, NCC कार्यक्रमों, आधिकारिक उपक्रमों में
“वंदे मातरम्” सम्मानपूर्वक प्रयोग होता है। यह परिवर्तन इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है.
अरुणाचल प्रदेश: जहाँ ‘मातृभूमि’ का अर्थ सीमा-सुरक्षा से परिभाषित होता है,अरुणाचल प्रदेश, विशेषकर तवांग, बोमडिला और अनजॉ,
भारत की वह भूमि है जहाँ मातृभूमि का अर्थ सीमा सुरक्षा है।1962 के युद्ध में जब सैनिकों के लिए संचार टूट गया,तब स्थानीय जनजातियों ने भारत माता की रक्षा को अपना धर्म मानकर सैनिकों को भोजन, आश्रय और सामरिक सूचना दी। तब यह क्षेत्र वंदे मातरम् का अर्थ शब्दों में नहीं,
कर्म और बलिदान में निभा रहा था। यह पूर्वोत्तर भारत की वह स्मृति है जिसे राष्ट्र को कभी नहीं भूलना चाहिए
भूपेन हजारिका: पूर्वोत्तर का सांस्कृतिक ‘वंदे मातरम्’
भूपेन हजारिका को केवल गायक कहना पूर्वोत्तर के साथ अन्याय है।
वे साहित्यकार, पत्रकार, चिंतक, सांस्कृतिक योद्धा थे।उनकी पंक्तियाँ“मानुष मानुषोर लगे, दिया दोस्ती”—पूर्वोत्तर की आत्मा का अनुवाद हैं।उन्होंने पूर्वोत्तर को यह बताया कि—भारत माँ केवल संविधान की माँ नहीं,नदी, पहाड़, जंगल और मनुष्य—सभी की सामूहिक करुणा की माँ है।
उनकी रचनाओं ने “वंदे मातरम्” को पूर्वोत्तर के स्वर-प्रवाह में स्थायी स्थान दिया।
आधुनिक संकट और वंदे मातरम्: क्यों आज इसका महत्व और बढ़ गया है
आज पूर्वोत्तर भारत तीन बड़े संकटों से गुजर रहा है—
चीन का विस्तारवाद (अरुणाचल पर दावे) बांग्लादेशी घुसपैठ (असम, त्रिपुरा, मेघालय),अलगाववादी राजनीति और बाहरी धर्मान्तरण तंत्र
इन तीनों स्थितियों में वंदे मातरम् पूर्वोत्तर के लिए केवल गीत नहीं,
भूमि, पहचान और अस्तित्व का अंतिम सूत्र है। जब कोई क्षेत्र चार विदेशी सीमाओं से घिरा हो,तब “मातृभूमि वंदनीय है”—यह उद्घोष राष्ट्र-नींव का काम करता है।
पूर्वोत्तर का बदलता समाज और राष्ट्रवाद का नया अध्याय
जिस क्षेत्र को कभी ‘दूरस्थ’ कहा जाता था,आज वही क्षेत्र—खेल,शिक्षा,रक्षा
संस्कृति,पर्यटन,अधोसंरचना,सभी में भारत का उभरता हुआ अग्र-दूत है।
युवा पीढ़ी के लिए“वंदे मातरम्” अब सांस्कृतिक गीत नहीं,आत्मविश्वास की पहचान है।
इस पहचान का निर्माण—पूर्वोत्तर की सहमति और भारत की सहानुभूति—
इन दोनों की संयुक्त प्रक्रिया है,. वन्देमातरम मातरम् पूर्वोत्तर का राष्ट्रीय सेतु क्यों है? सीधी और अंतिम बात—पूर्वोत्तर भारत और वंदे मातरम् के बीच का संबंध,इतिहास, संस्कृति और सीमा—तीनों स्तरों पर स्पष्ट है:
क्योंकि यह गीत बिना विभाजन के सबको जोड़ता है।क्योंकि यह राष्ट्र को भूगोल नहीं, माँ की तरह देखता है।क्योंकि यह मातृभूमि की रक्षा का भाव जगाता है।क्योंकि यह विविध भाषाओं को एक ही हृदय से जोड़ देता है।
और क्योंकि पूर्वोत्तर भारत भारत की पहली सीमा और अंतिम विश्वास है।
इसलिए पूर्वोत्तर में वंदे मातरम् केवल गीत नहीं—राष्ट्रीय अडिगता, सीमाओं की स्थिरता और सांस्कृतिक निरंतरता का महामंत्र है।यही इस विषय का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी निष्कर्ष है।

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