वन्दे मातरम् का समाज-शास्त्र (34) - कौटिल्य का भारत

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शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

वन्दे मातरम् का समाज-शास्त्र (34)

वन्दे मातरम् : समाज का स्वर्णगान

चतुस्त्रिंशत् श्रृंखला( 34)


जब पड़ा अंधेरा, जब टूटा विश्वास,तो तूने ही दिया समाज को नव प्रकाश।
स्वदेशी के रण में, फहराया था जो मान—एक स्वर में उठता, जन-जन का अभिमान।
वन्दे मातरम्!
हे मातृभूमि! तू ही समाज का ब्रह्म-वेद,तेरे ही चरणों में बुद्ध, कबीर, नानक के भेद।तेरे सौंदर्य में गुँथा हमारा स्वप्न-विहान—तू ही संस्कृति, तू ही चेतना, तू ही अभिमान।

वन्दे मातरम्!


 वन्दे मातरम् का समाज-शास्त्र 

यह केवल गीत या गान नहीं यह भारत और भारती क़े अमर सपूतो की मोक्षदायिनी भी है.“वन्दे मातरम्” भारतीय समाज का वह सांस्कृतिक प्रकाशस्तंभ है, जो किसी राजनीतिक आंदोलन का नारा मात्र नहीं, बल्कि लाखों वर्षों की सभ्यता का भावनात्मक सार है। समाज-शास्त्र हमें बताता है कि कोई भी समाज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रतीकों का निर्माण करता है। ये प्रतीक समाज को दिशा, ऊर्जा और नैतिक शक्ति देते हैं।

वन्दे मातरम् का सामाजिक स्वरूप भी इसी श्रेणी में आता है। मातृभूमि को “मातरम्” कहकर पुकारना केवल काव्यात्मक भाव नहीं, बल्कि भारतीय समाज की सामूहिक मानस-रचना का सबसे गहरा सत्य है। भारत में माँ को शक्ति, करुणा, पोषण और आशीर्वाद का रूप माना जाता है। जब भूमि को माँ कहा गया, तब समाज को एक ऐसी पहचान मिली जिसमें सभी मतभेद पिघलकर एक हो गए।

दुर्खीम के अनुसार, समाज अपने “पवित्र प्रतीकों” को सामूहिक चेतना का केंद्र बनाता है। इस दृष्टि से देखें तो वन्दे मातरम् भारतीय समाज की Collective Consciousness का हृदय है। स्वदेशी आंदोलन, आज़ादी का संघर्ष, नारी जागरण—हर चरण में यह गीत सामाजिक ऊर्जा का स्रोत रहा।

यह गीत केवल आध्यात्मिक भाव नहीं जगाता, बल्कि समाज को एक साझा सांस्कृतिक छत भी प्रदान करता है। “सुजलां सुफलां” में भारत की आर्थिक जीवंतता है, “श्यामला” में इसकी पर्यावरणीय सुंदरता, “मातरम्” में भारतीय परिवार व्यवस्था का भाव।आज का भारत तकनीक, विचार, राजनीति, संस्कृतियों—सबमें विविधताओं से भरा हुआ है। लेकिन यह विविधता तभी सौंदर्य बनती है जब उसके पास कोई साझा भावनात्मक सूत्र हो। वन्दे मातरम् वही सूत्र है—एक ऐसा सांस्कृतिक “Shared Identity”, जो हर भारतीय के मन में समान भाव पैदा करता है, चाहे वह कहीं भी रहता हो, किसी भी भाषा या धर्म का हो।

 इस गीत ने समाज को यह एहसास कराया कि भूमि केवल मिट्टी का टुकड़ा नहीं, बल्कि जीवन की जननी है।राष्ट्रीय आंदोलन में वन्दे मातरम् ने वह भूमिका निभाई जिसे समाज-शास्त्र के सिद्धांत में “Collective Effervescence” कहा जाता है—ऐसी शक्ति, जो हजारों लोगों को एक ही भाव, एक ही लक्ष्य से जोड़ देती है। सभा, जुलूस, सत्याग्रह, गीत—हर मंच पर वन्दे मातरम् ने समाज को अपने उच्चतर आदर्शों से जोड़ा।विभिन्न धार्मिक वर्गों में कभी-कभी विवादों की स्थिति भी आई, पर समाज ने अपनी बहुलतावादी परंपरा के अनुरूप इसका समाधान निकाला—गीत की पहली दो पंक्तियों को राष्ट्रीय गीत के रूप में मानकर समावेश की राह अपनाई। यह भारतीय समाज की परिपक्वता और संवादशीलता का प्रमाण है।समाज-शास्त्रीय दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि वन्दे मातरम् भारतीय समाज की National Emotional Grammar है—यानी वह भावात्मक-सांस्कृतिक भाषा जिसे हर भारतीय बिना सीखे समझता है।यह गीत भारतीय समाज के लिए प्रेरणा, एकता, त्याग, अस्मिता और गर्व का अमिट प्रतीक है।और इसीलिए—वन्दे मातरम् केवल गाया नहीं जाता,वह समाज की धमनियों में बहता है.

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