वंदेमातरम एकत्रिंशत् श्रृंखला ( 31)
वन्देमातरम की पंक्तियों पर विवाद: साम्प्रदायिकता, मुस्लिम लीग और कांग्रेस
(एक संतुलित, सतर्क और इतिहास सम्मत विश्लेषण)
एक गीत, भावनाएँ अनेक
वन्देमातरम—एक शब्द नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक आह्वान है। यह स्वतंत्रता आंदोलन का वह घोष था जिसने हजारों युवाओं को ब्रिटिश दमन का सामना करने की शक्ति दी। परंतु स्वतंत्रता-संग्राम का यह सर्वाधिक शक्तिशाली गीत ही, समय के साथ, धार्मिक पहचान, साम्प्रदायिक संघर्ष और राजनीतिक बहस के केंद्र में भी आ गया। इसकी कुछ पंक्तियों को लेकर विरोध, मुस्लिम लीग की आपत्तियाँ, कांग्रेस की नीतियाँ और आधुनिक राजनीति—इन सबने इसे सिर्फ कविता या राष्ट्रगीत नहीं रहने दिया; यह भारत की सामूहिक चेतना, सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक-धार्मिक विविधता का दर्पण बन गया।वन्देमातरम का विवाद किसी धर्म का विरोध, किसी समुदाय का अपमान, या किसी दल का अपराध नहीं; यह भारत की वैचारिक विविधता, धार्मिक संवेदनशीलता और राष्ट्रवाद की भिन्न परिभाषाओं का परिणाम है। यही दृष्टिकोण हमें इतिहास को सतर्कता से समझने में मदद करता है।
वन्देमातरम: जन्म, संदर्भ और उसके प्रारम्भिक रूप::
1870 के दशक में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने यह रचना की। तब देश राजनीतिक गुलामी में था और सामाजिक-धार्मिक चेतना संघर्षरत थी। उनकी दृष्टि में मातृभूमि केवल भूमि नहीं थी; वह शक्ति, धार्मिक-सांस्कृतिक चेतना, और स्वाभिमान थी। इसलिए उन्होंने देश को “माता” के रूप में अनुभव किया और उसी भाव में उसकी आराधना की।1882 का आनंदमठ उपन्यास इसी पृष्ठभूमि में लिखा गया। यहाँ मातृभूमि की देवी-कल्पना शक्ति (दुर्गा) के रूप में प्रस्तुत हुई। इस उपन्यास का कथानक भी ब्रिटिश शासन-विरोध और हिंदू पुनरुत्थान के उत्साह को दर्शाता है। पर यही तत्व बाद में विवाद की जड़ बने, क्योंकि इसमें मातृभूमि को देवी-रूप में पूजनीय माना गया—जो किसी खास धार्मिक परंपरा का प्रतीक हो जाता है।
वन्देमातरम की मूल संरचना:कविता लगभग छह स्तवन/खंडों में है।शुरुआती दो स्तवन सामान्य प्रकृति, सौंदर्य, मातृभूमि के प्रति श्रद्धा पर आधारित हैं।शेष स्तवनों में देवी-स्वरूप, पूजा, आराधना और दुर्गा-शक्ति का स्पष्ट वर्णन है।यही भिन्नता आगे चलकर राजनीतिक निर्णयों को प्रभावित करने लगी।
गीत का राजनीतिक उभार: राष्ट्रवादी स्वर::1905 से 1920 तक वन्देमातरम लगभग राष्ट्रध्वनि बन चुका था। बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन, छात्र विरोध रैलियाँ, अनुशीलन समिति, बागा जत्था, और क्रांतिकारी संगठनों में यह गीत लौ बनकर जल रहा था।जेलों में बंद क्रांतिकारी इसे आवाज देते थे।ब्रिटिश अफसरों को लगता था कि “वन्देमातरम” सुनते ही विद्रोह होगा।बंकिमचंद्र नहीं, आम जनता इसे अग्नि-घोष की तरह स्वीकार कर चुकी थी।यानी इस गीत में एक धार्मिक अनुभूति नहीं, बल्कि राष्ट्रीय मुक्ति की ऊर्जा थी। परंतु ऊर्जा के साथ शब्दों में धार्मिक तीव्रता भी थी—जो समाज में अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करती थी।
साम्प्रदायिक विवाद की जड़: देवी-स्वरूप और धार्मिक असहजता::
उसी समय धार्मिक उभार, हिंदू-मुस्लिम चिंतन, और साम्प्रदायिक राजनीति बढ़ रही थी। इससे एक धार्मिक प्रतीक सीधे साम्प्रदायिक पहचान का हिस्सा बन जाता था।राजनीतिक उपयोग,कुछ स्थानों पर इसे ऐसे प्रयुक्त किया गया जिससे यह धार्मिक पहचान का नारा दिखे। यह उपयोग कई मुस्लिम नेताओं में चिंता जगाता था कि क्या राष्ट्रवाद “धार्मिक प्रतीकवाद” की राह पर बदल रहा है।सावधानी की दृष्टि से यह मानना चाहिए कि आपत्ति किसी “गीत पर” नहीं थी, बल्कि “पूजा-नुमा” प्रतीकों को राष्ट्र के आधिकारिक प्रतीक बनने पर थी।1937: कांग्रेस का व्यावहारिक फैसला—समावेशिता और विवाद-नियंत्रणकांग्रेस, जो स्वयं बहुधार्मिक नेतृत्व का प्रतिनिधित्व कर रही थी, ने स्पष्ट रूप से महसूस किया कि यदि भारत स्वतंत्र होगा, तो उसका राष्ट्रवाद सांस्कृतिक बहुलता पर आधारित होना चाहिए, न कि एक धर्मात्मक प्रतीक पर। इसलिए जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, राजेंद्र प्रसाद, पट्टाभि सितारमैया, सुब्रत बोस आदि नेताओं ने चर्चा कर निर्णय दिया:केवल शुरुआती दो स्तवन को सार्वजनिक/राष्ट्रीय रूप से स्वीकार किया जाएगा।बाकी भाग किसी को गाने पर रोक नहीं है, पर सरकारी-सार्वजनिक कार्यक्रमों में नहीं गाए जाएंगे।यह निर्णय समझौता नहीं, बल्कि संवैधानिक राष्ट्रवाद की नींव था, जहाँ राष्ट्र एक देवी नहीं,न कोई मूर्ति,न कोई धार्मिक प्रतीक, बल्कि जनता है।कांग्रेस की मंशाक ग्रेस यह नहीं मानती थी कि देवी-स्वरूप गलत है; वह केवल इतना मानती थी कि राष्ट्र-प्रतीक धर्म-तटस्थ होने चाहिए, ताकि सभी समुदाय उनका सम्मान कर सकें।यही सार आज भी समझने योग्य है:
कोई गीत महान है, पर “राष्ट्रीय प्रतीक” बनने के लिए उसे “साम्प्रदायिक-संतुलन” भी पार करना होता है।मुस्लिम लीग का दृष्टिकोण: आपत्ति क्यों आवश्यक समझी गई?
मुस्लिम लीग, जो उस समय मुसलमानों की राजनीतिक आवाज का दावा करती थी, ने कहा:राष्ट्र एक भौगोलिक-राजनीतिक अवधारणा है; उसकी पूजा नहीं हो सकती।मातृभूमि को देवी-रूप में दिखाना, इस्लामी एकेश्वरवाद का विरोध करता है।जल्द ही यह राष्ट्रवाद “धार्मिक प्रतीक” का रूप ले सकता है, जिससे धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति असुरक्षित हो सकती है।यदि हम इसे “मुस्लिम विरोध” कहें, तो ऐतिहासिक सतर्कता खो देंगे। यह दृष्टिकोण वास्तव में धार्मिक-आस्था की स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद की नई परिभाषा के बीच संघर्ष था।मुस्लिम लीग का विरोध एक व्यापक प्रश्न था:राष्ट्रवादी प्रतीक धार्मिक प्रतीक होंगे या सार्वभौमिक?दुर्भाग्य यह है कि बाद में वही प्रश्न राजनीतिक रंग लेता गया।1947 के बाद: राष्ट्रगान, राष्ट्रीय गीत और संवैधानिक संतुलन,स्वतंत्रता के बाद संसद में फिर निर्णय हुआ:“वन्देमातरम” राष्ट्रीय गीत रहेगा।“जन गण मन” राष्ट्रगान होगा।दोनों समान स्तर पर सम्मानित माने गए। यहाँ “राष्ट्रगान” का अर्थ श्रेष्ठता नहीं, बल्कि “आधिकारिक उपयोग” की परिभाषा है।वन्देमातरम को त्यागा नहीं गया, रोका नहीं गया—बस समावेशी रूप में सुरक्षित रखा गया।आधुनिक राजनीति और विवाद का पुनर्जन्मआज विवाद का केंद्र गीत नहीं, बल्कि वही प्रश्न है:क्या 1937 का निर्णय “समावेशिता” था या “अपमान”?क्या राष्ट्रवाद धार्मिक प्रतीकों पर आधारित होना चाहिए?क्या राजनीतिक दल राष्ट्रीय प्रतीकों को वोट-ध्रुवीकरण का माध्यम बना रहे हैं?सतर्क दृष्टिकोण यह कहता है:न 1937 का निर्णय गलत था,न आज वन्देमातरम की सांस्कृतिक विरासत गलत है।गलती तब होती है जब राष्ट्रीय प्रतीकों का प्रयोग राजनीति में, न कि राष्ट्रनिर्माण में किया जाए.वन्देन्मातरम स्वतंत्रता की आत्मा है।इसे किसी विवाद से कम करना अन्याय है।धर्म-निरपेक्ष राष्ट्रवाद उसका सार्वजनिक स्वरूप तय करता है।इसमें किसी समुदाय का विरोध नहीं, बल्कि सभी समुदायों की रक्षा शामिल है।मुस्लिम लीग की आपत्तियाँ धार्मिक विवेक के आधार पर थीं, न कि राष्ट्रविरोध के।कांग्रेस का निर्णय त्याग नहीं, संवैधानिक समावेशिता थी।आज के विवाद, तब की समस्याएँ नहीं; आज की राजनीति के उपकरण हैं।गीत महान हो सकता है, मगर राष्ट्रीय प्रतीक बनाने के लिए उसे सबका होना चाहिए।यह आदर्श राष्ट्रवाद का मूल सिद्धांत है।
अंतिम शब्द: वन्देमातरम—विवाद से परेव,न्देमातरम किसी धर्म का गीत नहीं; यह मातृभूमि का गौरव है। पर इसे राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाना तभी सार्थक है, जब इसे हर भारतवासी—हिंदू, मुसलमान, सिख, साई, जैन, बौद्ध, पारसी—समान सम्मान से स्वीकार सके।यह गीत हमें विभाजित न करे; यह हमें बंकिमचंद्र की तरह, स्वतंत्रता वीरों की तरह, सार्वभौमिक राष्ट्रभक्ति से जोड़ सके। यही सच्चा सतर्क दृष्टिकोण है।
वन्देमातरम—न पूजा का आदेश, न किसी धर्म का प्रतीक,
यह भारत की मिट्टी को प्रणाम है।

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जवाब देंहटाएंसत्य वचन
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