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मंगलवार, 9 दिसंबर 2025

वन्देमातरम किसी राजनैतिक पार्टी का नारा नहीं, भारत की आत्मा है,संसद में वंदेमातरम् पर चर्चा: राष्ट्रवाद, संस्कृति और भारतीय अस्मिता का गौरवगान

संसद में वंदेमातरम् पर चर्चा: राष्ट्रवाद, संस्कृति और भारतीय अस्मिता का गौरवगान

एक राष्ट्रवादी, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक समीक्षा

राजेंद्रनाथ तिवारी

भारतीय संसद का इतिहास कई महान क्षणों का साक्षी रहा है—स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों से लेकर संविधान के निर्माण तक और लोकतांत्रिक वाद–विवादों की अनंत परंपरा तक। किंतु जिस क्षण संसद में ‘वंदे मातरम्’ पर राष्ट्रव्यापी विमर्श आरंभ हुआ, उस दिन संसद मात्र एक संवैधानिक संस्था नहीं रही; वह भारतीय सभ्यता की आत्मा का अनुष्ठान स्थल बन गई। सदन में गूँजती ‘वंदे मातरम्’ की ध्वनि मानो उन तमाम क्रांतिकारियों की प्रतिध्वनि थी जिन्होंने मातृभूमि को देवी-स्वरूप मानकर अपने प्राण न्योछावर कर दिए।‘वंदे मातरम्’ केवल गीत नहीं—यह भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज है, राष्ट्र–आत्मा का घोष है, और स्वाभिमान का शाश्वत उद्घोष है। जब इसे संसद में सम्मानपूर्वक और गंभीर विश्लेषण के साथ उठाया गया, तो यह स्पष्ट संदेश था कि भारत अपनी जड़ों से कटकर नहीं, बल्कि उन्हीं जड़ों से सामर्थ्य लेकर भविष्य का निर्माण करेगा।
क्यों महत्वपूर्ण थी संसद में यह चर्चा?संसद में उठने वाला प्रत्येक प्रश्न, प्रत्येक प्रस्ताव और प्रत्येक ऐतिहासिक विमर्श राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बन जाता है। जब यह केंद्र बिंदु वंदे मातरम् जैसा राष्ट्रगीत हो, तब उसका महत्व कई गुना बढ़ जाता है। क्योंकि—वंदे मातरम् भारतीय राष्ट्रवाद का प्रथम सांस्कृतिक घोष है। स्वतंत्रता संग्राम के हर मोर्चे पर क्रांतिकारियों की प्रेरणा यही गीत रहा।
 यह गीत भारत की भू-देवी को पूज्य मानने वाली भारतीय सभ्यता का अस्तित्व–सूत्र है।यह भारतीयता की उस अवधारणा को स्थापित करता है जिसमें देश सर्वोपरि है, और नागरिक उसकी संतानें। यह चर्चा आज इसलिए भी आवश्यक थी क्योंकि वर्षों तक इस गीत को “विवाद” बताकर उससे दूरी बनाई गई।



संसद में इस गीत पर चर्चा होना इस बात का प्रतीक है कि भारत नए आत्मविश्वास से भरे युग में प्रवेश कर चुका है—जहाँ अपनी सांस्कृतिक जड़ों पर गर्व किया जाता है, न कि संकोच।
 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: वंदे मातरम् का जन्म और संघर्ष,बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने जब ‘आनंदमठ’ का सृजन किया, तब उनके शब्दों में केवल साहित्य नहीं था—वह एक सांस्कृतिक क्रांति का बीज था।‘वंदे मातरम्’ की पंक्तियाँ—“सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्…”भारत की माटी, उसकी नदियों, उसकी हवाओं और उसकी प्रकृति को देवी-स्वरूप श्रद्धांजलि थी।यह गीत क्यों क्रांतिकारी था?क्योंकि यह भारत को राष्ट्रमाता के रूप में स्थापित करता था। इससे ब्रिटिश राज चिंतित था—क्योंकि यह गीत लाखों युवाओं को एक सूत्र में बाँध रहा था। इस गीत को प्रतिबंधित करने की कोशिशें आज़ादी के वर्षों पहले से शुरू हो गई थीं।
 1905 में बंग-भंग विरोध के समय यह नारा देशव्यापी आंदोलन बन गया।
 भगत सिंह, अरविंद घोष, नेताजी सुभाष चंद्र बोस—हर क्रांतिकारी के हृदय में यह गीत धधकता रहता था।
वंदे मातरम् और संविधान सभा,संविधान सभा में भी इस गीत पर चर्चा हुई।
राष्ट्रगान के चयन के समय ‘वंदे मातरम्’ के महत्व पर कोई मतभेद नहीं था।
सर्वसम्मति से माना गया कि—“जन-गण-मन राष्ट्रगान होगा, परंतु वंदे मातरम् का स्थान राष्ट्रगीत की तरह सर्वोच्च रहेगा।”यह सम्मान किसी भी देश में बहुत दुर्लभ है कि उसके पास राष्ट्रगान के साथ-साथ एक राष्ट्रगीत भी हो।
संसद की ताज़ा बहस: एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण,जब संसद में वंदे मातरम् को लेकर चर्चा आरंभ हुई तो यह केवल गीत की पंक्तियों की चर्चा नहीं थी। यह भारत की सांस्कृतिक आत्मा के पुनरुत्थान की घोषणा थी।इस चर्चा में कई पक्ष उठे—
वंदे मातरम् का राष्ट्रधर्म से संबंध,वंदे मातरम् की अवधारणा बताती है कि भारत एक भौगोलिक इकाई नहीं; यह एक सांस्कृतिक माता है—मातृभाषा, मातृभूमि, मातृसंस्कृति—तीनों का संगम।इसे ‘विवाद’ बताकर अलगाव की राजनीति कौन चलाता रहा?यह चर्चा उन राजनीतिक दलों की मानसिकता को भी उजागर करती है जो वर्षों तक इस गीत को सांप्रदायिक बताकर उससे बचते रहे।
यह एक दुखद सत्य है कि स्वतंत्रता के बाद भी इस गीत को राजनीतिक नजरिये से देखा गया जबकि यह गीत तो स्वतन्त्रता के तमाम संघर्षों का ईश्वर-समान प्रेरक रहा। सदन में वंदे मातरम् के सम्मान की सार्वभौमिकता,इस बार सदन का वातावरण उस पुराने भ्रम से मुक्त था।सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ने यह स्वीकार किया कि—वंदे मातरम् राष्ट्र के स्वाभिमान का प्रतीक है।इस सामूहिक सहमति ने इस चर्चा को ऐतिहासिक बना दिया।

 वंदे मातरम् का सांस्कृतिक-दार्शनिक अर्थ,भारत की संस्कृति में मातृभूमि केवल भूमि का टुकड़ा नहीं—वह चेतना है।जब कोई संतान अपनी माता को प्रणाम करता है, तो वह प्रणाम भूमि और आकाश दोनों से संवाद करता है। यही भाव वंदे मातरम् में है। प्रकृति–पूजा और भारत का राष्ट्रवाद,गीत की पहली दो पंक्तियाँ भारत को प्रकृति की शक्ति के रूप में देखती हैं।यह भारत का ‘इको–नैशनलिज़्म’ है—जिसमें वसुधैव कुटुंबकम् और प्रकृति-पूजन दोनों सम्मिलित हैं।
राष्ट्रवाद का आध्यात्मिक आयाम,वंदे मातरम् का राष्ट्रवाद शुष्क राजनीतिक विचार नहीं है—यह आध्यात्मिक राष्ट्रवाद है।आध्यात्मिकता में सबका स्थान है; इसलिए यह गीत किसी जाति, पंथ या धर्म के विरुद्ध नहीं, बल्कि सभी को राष्ट्रमाता के चरणों में जोड़ने वाला सूत्र है।
 हिंदी–बंगला–संस्कृत की त्रयी,इस गीत की भाषा भारतीय भाषाई एकता का अद्भुत नमूना है—संस्कृत के मंगलकारी शब्द, बंगला का सौंदर्य और हिंदी की भाव–प्रकृति मिलकर इसे राष्ट्रीय सांस्कृतिक ग्रंथ बना देते हैं।
 राजनीतिक विमर्श की नई दिशा,संसद में वंदे मातरम् पर बहस के राजनीतिक अर्थ कई स्तरों पर महत्वपूर्ण हैं। विपक्ष का पुराना असहजता भाव टूटना
कई राजनीतिक दल वर्षों तक इस गीत का नाम लेते समय भी असहज दिखते थे।
किन्तु इस चर्चा में विपक्ष ने भी इसे राष्ट्रीय भावना बताकर सम्मान दिया।
यह परिवर्तन बताता है कि—राष्ट्रवाद अब किसी दल या विचारधारा की बपौती नहीं; यह पूरे भारत का साझा मूल्य है। राष्ट्रीय पहचान की राजनीति मजबूत हो रही है,वंदे मातरम् को सम्मान देने का अर्थ यह है कि भारत अपनी मूल सांस्कृतिक पहचान को राष्ट्रीय नीति का आधार बना रहा है।
संसद में यह चर्चा आने वाले वर्षों में,शिक्षा नीति,सांस्कृतिक नीति,और राष्ट्रीय एकता के प्रश्नों को भी प्रभावित करेगी। ‘छद्म-धर्मनिरपेक्षता’ का अंत
वर्षों तक वंदे मातरम् का विरोध “धर्मनिरपेक्षता” नाम पर किया गया।
परंतु संसद में हुए विमर्श ने स्पष्ट कर दिया—वंदे मातरम् किसी धर्म का गीत नहीं, बल्कि भारत–माता का गीत है।
जो भारत–माता का आराधना तक स्वीकार नहीं करता, वह भारतीयता की मूल धारा से कैसे जुड़ेगा?वंदे मातरम् और आधुनिक भारत,आधुनिक भारत तकनीक, विज्ञान, वैश्विक कूटनीति में तेजी से आगे बढ़ रहा है।
ऐसे में वंदे मातरम् की चर्चा यह भी बताती है कि— भारत अपने आर्थिक उत्थान के साथ सांस्कृतिक उत्थान को भी समान महत्व देता है। भारत की वैश्विक छवि केवल GDP की वृद्धि से नहीं बनेगी; वह संस्कृति के उत्थान से और प्रबल होगी।
 विश्व के सभी महान राष्ट्र सांस्कृतिक प्रतीकों को अत्यंत गौरव से अपनाते हैं—
जापान (किमिगायो),फ्रांस (ला मार्सैयस),अमेरिका (स्टार-स्पैंगल्ड बैनर)।
भारत भी अब अपनी सांस्कृतिक धारा को निर्भीकता से प्रस्तुत कर रहा है।
 वंदे मातरम् का विरोध: कारण और भ्रांतियाँ,संसद में इस चर्चा का एक भाग उन भ्रांतियों को भी दूर करने पर केंद्रित रहा जो दशकों से जानबूझकर फैलाई गईं।
यह गीत किसी धर्म के विरुद्ध नहीं,विरोधियों ने बार-बार कहा कि गीत का तीसरा और चौथा पैराग्राफ में देवी-पूजन है, इसलिए मुस्लिम समाज को आपत्ति है।
परन्तु— राष्ट्रगीत का मूल पाठ पहले दो पद ही हैं। संविधान सभा ने भी इन्हीं दो पदों को औपचारिक रूप से मान्यता दी। भारत की सांस्कृतिक परंपरा में “देवी” शक्ति-प्रतीक है, किसी विशिष्ट धर्म का प्रतीक नहीं। जो ‘भारत माता की जय’ कहने से कतराए, उनका असहज होना स्वाभाविक था.यह विरोध भारतीयता के विशुद्ध सांस्कृतिक भाव से कटे हुए एक राजनीतिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता था। संसद में इस चर्चा ने इस वर्ग को हाशिये पर ढकेल दिया है।
क्या वंदे मातरम् को राष्ट्रीय अनुष्ठान बनना चाहिए? बहस के दौरान कई सांसदों ने यह मांग भी उठाई क शैक्षणिक संस्थानों, सरकारी कार्यालयों और राष्ट्रीय समारोहों में ‘वंदे मातरम्’ को अनिवार्यत: गाया जाए।इसके पीछे तर्क था—
 यह राष्ट्रीय एकता को मजबूत करेगा।युवाओं में सांस्कृतिक चेतना जागृत होगी।
 राष्ट्र के प्रति भावात्मक संबंध बनेगा। ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ और ‘राष्ट्रीय अनुशासन’ की नई संस्कृति बनेगी।यह मांग भविष्य में बड़े रूप में उभरेग

 वंदे मातरम् और भारतीय संविधान,वंदे मातरम् की संवैधानिक स्थिति भी महत्वपूर्ण है।संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था—
“वंदे मातरम् को जन-गण-मन के समकक्ष सम्मान प्राप्त रहेगा।”
इसका अर्थ था कि—राष्ट्रगान जन-गण-मन होगा,पर राष्ट्रगीत वंदे मातरम् का सम्मान उतना ही सर्वोच्च होगा। आज संसद की बहस ने इस ऐतिहासिक निर्णय की पुनः पुष्टि कर दी।
 अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण: भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रीय पुनर्जागरण, पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद की तीन धाराएँ उभरती हैं—
 सांस्कृतिक राष्ट्रवाद – (भारत, जापान),राजनीतिक राष्ट्रवाद – (अमेरिका, फ्रांस)
 भौगोलिक/आर्थिक राष्ट्रवाद – (चीन, रूस)
भारत की पहचान सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है, क्योंकि—भारत की आत्मा संस्कृति है।
 भारत की एकता का सूत्र धर्म या नस्ल नहीं, संस्कृति है।
 यहाँ विविधता में एकता गीत-संगीत से लेकर अध्यात्म तक में दिखाई देती है।
जब भारत की संसद में वंदे मातरम् की चर्चा होती है, तब दुनिया समझती है कि—
भारत तकनीकी महाशक्ति के साथ-साथ सांस्कृतिक महाशक्ति भी बन रहा ह

 राष्ट्र के मन में उठी गर्व-लहर,इस चर्चा का सबसे बड़ा प्रभाव यह रहा कि—भारत का आम नागरिक भावुक हुआ। सोशल मीडिया पर #VandeMataramInParliament जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे। युवाओं ने इसे राष्ट्रस्वाभिमान के पुनर्जागरण के रूप में देखा।शिक्षकों, सैनिकों, साहित्यकारों और कलाकारों ने इसे देश की आत्मा का सम्मान बताया।
यह राष्ट्रीय आत्मा की एकता का क्षण था।

वन्देमातरम —एक गीत नहीं, एक युग-ध्वज,संसद में ‘वंदे मातरम्’ पर हुई चर्चा ने ये स्पष्ट कर दिया है कि— भारत अब सांस्कृतिक शर्म का युग छोड़ चुका है; यह सांस्कृतिक गौरव और पुनर्जागरण का युग है। वंदे मातरम् किसी राजनीतिक पार्टी का नारा नहीं—यह भारत की आत्मा है। इसे लेकर खड़ी की गई झूठी दीवारें गिर चुकी हैं। भारत अपनी प्राचीनता और आधुनिकता दोनों को साथ लेकर चल रहा है।आने वाले वर्षों में वंदे मातरम् शिक्षा, समाज, संस्कृति और राष्ट्रीय जीवन के हर स्तर पर फिर से स्थापित होगा।

वंदे मातरम् पर संसद में हुई बहस ने भारतीय लोकतंत्र को उसके मूल स्रोत—भारतीयता, मातृभूमि और सांस्कृतिक एकता—से पुनः जोड़ दिया है।
यह सिर्फ चर्चा नहीं थी; यह वह क्षण था जब संसद ने भारतीय सभ्यता की आत्मा को प्रणाम किया।

आज जब सदन में “वंदे मातरम्” की प्रतिध्वनि गूँजती है, तो वह गीत केवल सांसदों की नहीं;वह भारतमाता के करोड़ों संतानों की सम्मिलित आवाज़ है—
एक स्वर, एक भाव, एक संकल्प:वंदे मातरम्! वंदे मातरम्!! वंदे मातरम्!!!
राजेंद्र नाथ तिवारी



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