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शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

अबुआजमी का दुस्साहस,वंदे मातरम: १५० वर्षों का अमर गान, धार्मिक विवादों की आग और राजनीतिक चूल्हे की रोटियाँ

 




वंदे मातरम: १५० वर्षों की विजय, अबू आज़मी का विवाद, मुस्लिम मानसिकता और राजनीतिक रोटिया

भारत का राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम' न केवल स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरणास्रोत रहा है, बल्कि यह देशभक्ति की एक अमर अभिव्यक्ति भी है। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यह गीत १८८२ में उपन्यास 'आनंदमठ' के माध्यम से पहली बार प्रकाशित हुआ, हालांकि इसके प्रारंभिक संस्करण की चर्चा १८७५ से जुड़ी है। २०२५ में इसके १५० वर्ष पूरे होने पर देशभर में उत्सव मनाए जा रहे हैं, लेकिन यह अवसर एक बार फिर धार्मिक और राजनीतिक विवादों का केंद्र बन गया है। हाल ही में समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आसिम आज़मी के 'वंदे मातरम' गाने से इनकार ने महाराष्ट्र में हंगामा मचा दिया है। आज़मी ने कहा कि मुसलमान धार्मिक कारणों से इसे गा नहीं सकते, क्योंकि इसमें मातृभूमि को देवी के रूप में चित्रित किया गया है, जो इस्लाम में शिर्क (बहुदेववाद) माना जाता है यह विवाद न केवल मुस्लिम मानसिकता की गहराई को उजागर करता है, बल्कि राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की 'रोटी' सेंकने की प्रवृत्ति को भी। इस निबंध में हम इन पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

वंदे मातरम का ऐतिहासिक महत्व: १५० वर्षों की यात्रा

'वंदे मातरम' की रचना १९वीं शताब्दी के अंत में हुई, जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ बंगाल में विद्रोह की लहर चल रही थी। बंकिम चंद्र ने इसे 'आनंदमठ' उपन्यास में सन्न्यासियों के विद्रोह का प्रतीक बनाया। गीत की पहली पंक्तियाँ – "वंदे मातरम, सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम..." – भारत माता को एक सुंदर, पोषणकारी और शक्तिशाली देवी के रूप में वर्णित करती हैं। १८९६ में रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा इसके गायन ने इसे स्वतंत्रता आंदोलन का हथियार बना दिया। १९०५ के बंगाल विभाजन के विरोध में लाखों लोगों ने इसे गाया, जिससे यह राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया।

स्वतंत्रता संग्राम में इसका योगदान अविस्मरणीय है। महात्मा गांधी ने इसे प्रेरणा स्रोत माना, जबकि सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज ने इसे अपना राष्ट्रीय गीत घोषित किया। १९५० में संविधान सभा ने इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया, लेकिन राष्ट्रगान 'जन गण मन' को प्राथमिकता दी। फिर भी, इसका पूरा संस्करण कभी आधिकारिक रूप से अपनाया नहीं गया। २००९ में यूपीए सरकार ने स्कूलों में इसे अनिवार्य किया, लेकिन विवादों के कारण केवल पहले दो छंदों तक सीमित रखा गया। आज १५० वर्षों में यह गीत न केवल सांस्कृतिक धरोहर है, बल्कि राजनीतिक संघर्ष का मैदान भी।

मुस्लिम विरोध: धार्मिक मानसिकता की जड़ें

'वंदे मातरम' का मुसलमानों के बीच विरोध कोई नई बात नहीं है। इसकी जड़ें धार्मिक व्याख्या में हैं। गीत में भारत को 'देवी दुर्गा' के रूप में चित्रित किया गया है – "तव शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्, फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्" – जो इस्लाम के एकेश्वरवाद (तौहीद) के विरुद्ध लगता है। मुस्लिम विद्वानों का तर्क है कि मातृभूमि का सम्मान तो किया जा सकता है, लेकिन इसे पूज्य देवी मानना शिर्क है, जो कुरान में निषिद्ध है।

यह विवाद १९३० के दशक में चरम पर पहुंचा। मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना ने १९३७ में इसे अस्वीकार कर दिया, कहा कि यह हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देता है।9ca3c8 कांग्रेस ने मुसलमानों को मनाने के लिए नेहरू के नेतृत्व में केवल पहले दो छंदों को अपनाया, जो देवी-पूजा से परे हैं। १९४० के लाहौर प्रस्ताव में जिन्ना ने इसे पाकिस्तान आंदोलन का हथियार बनाया। स्वतंत्र भारत में भी विवाद जारी रहा। २००६ में यूपीए के अनिवार्य करने पर देवबंद के जामियत उलेमा-ए-हिंद ने फतवा जारी किया कि मुसलमान इसे न गाएं।

मुस्लिम मानसिकता को समझने के लिए हमें ऐतिहासिक संदर्भ देखना होगा। भारत के मुसलमान खुद को भारतीय मानते हैं, लेकिन धार्मिक पहचान को प्राथमिकता देते हैं। कई मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी जैसे मौलाना अबुल कलाम आजाद ने राष्ट्रवाद को अपनाया, लेकिन 'वंदे मातरम' जैसे प्रतीकों से दूरी बनाई। यह विरोध देशभक्ति की कमी नहीं, बल्कि धार्मिक संवेदनशीलता है। आज भी, कई मुस्लिम संगठन कहते हैं कि वे राष्ट्रगान गाते हैं, लेकिन 'वंदे मातरम' को वैकल्पिक रखें। यह मानसिकता विभाजनकारी नहीं, बल्कि समावेशी राष्ट्रवाद की मांग करती है।

अबू आज़मी का विवाद: हालिया तूफान

२०२५ के १५०वें वर्ष में 'वंदे मातरम' का उत्सव मुंबई में अबू आज़मी के इनकार से कलंकित हो गया। समाजवादी पार्टी के विधायक आज़मी को बीजेपी विधायक अमित सातम ने बांद्रा में सामूहिक गायन के लिए आमंत्रित किया। आज़मी ने साफ कहा, "मुसलमान इसे गा नहीं सकते, क्योंकि यह इस्लाम के विरुद्ध है।" उन्होंने बीजेपी पर आरोप लगाया कि यह मुंबई महानगरपालिका चुनाव से पहले मुसलमानों को निशाना बनाने की साजिश है। इसके जवाब में बीजेपी कार्यकर्ताओं ने आज़मी के घर के बाहर प्रदर्शन किया, उन्हें 'देशद्रोही' तक कहा। महाराष्ट्र के मंत्री मंगल प्रभात लोढ़ा ने इसे 'राष्ट्रवाद का अपमान' बताया।

आज़मी का रुख उनकी पूर्ववर्ती टिप्पणियों से मेल खाता है। २०१६ में भी उन्होंने कहा था कि 'वंदे मातरम' गाना मुसलमानों के लिए अनिवार्य नहीं। यह विवाद मुस्लिम नेताओं की उस मानसिकता को दर्शाता है जो धार्मिक आजादी को राजनीतिक दबाव से ऊपर रखती है। लेकिन आलोचक इसे 'वोट बैंक पॉलिटिक्स' का हथियार मानते हैं। समाजवादी पार्टी, जो मुस्लिम समर्थन पर निर्भर है, आज़मी के बयान से फायदा उठा रही है।

राजनीतिक रोटियाँ: वोटों का खेल

'वंदे मातरम' विवाद राजनीतिक दलों के लिए 'रोटी' सेंकने का माध्यम बन गया है। बीजेपी इसे हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करती है, जबकि विपक्षी दल मुस्लिम वोटों को संभालने के लिए 'सेक्युलरिज्म' का ढोंग रचते हैं। १५०वें वर्ष में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि नेहरू युग में गीत को ट्रंकेट किया गया, जो राष्ट्रवाद का अपमान था। दूसरी ओर, कांग्रेस ने बचाव किया कि यह समावेशिता के लिए था।

मुंबई चुनाव के संदर्भ में आज़मी का बयान समयबद्ध लगता है। बीजेपी मुसलमानों को 'एंटी-नेशनल' ठहराकर हिंदू वोट एकत्रित कर रही है, जबकि एसपी-कांग्रेस गठबंधन मुस्लिम असंतोष को भुनाने पर तुला है। यह 'राजनीतिक रोटी' का चक्र है, जहां राष्ट्रवाद का उपयोग विभाजन के लिए होता है। इतिहास गवाह है: १९३७ में जिन्ना ने इसे राजनीतिक लाभ के लिए उछाला था। आज भी, सोशल मीडिया पर #VandeMataram150 ट्रेंड कर रहा है, लेकिन बहस धार्मिक ध्रुवीकरण पर केंद्रित है।

मुस्लिम मानसिकता को राजनीतिक चश्मे से देखना गलत है। अधिकांश मुसलमान भारत के प्रति वफादार हैं – वे सेना में भर्ती होते हैं, कर देते हैं, लेकिन प्रतीकात्मक मुद्दों पर संवेदनशील हैं। समस्या राजनीतिज्ञों की है, जो इन संवेदनाओं को वोटों की होली में झोंक देते हैं।

: एकता की पुकार

'वंदे मातरम' के १५० वर्ष भारत की सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक हैं। अबू आज़मी का विवाद हमें सोचने पर मजबूर करता है – क्या राष्ट्रवाद जबरदस्ती थोपने से मजबूत होता है? मुस्लिम मानसिकता धार्मिक है, न कि राजनैतिक। राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले दलों को समझना चाहिए कि सच्ची एकता संवाद से आती है, न कि प्रदर्शनों से। यदि हम पहले दो छंदों को ही राष्ट्रीय गीत मानें, तो विवाद कम हो सकता है। लेकिन इससे बड़ा सवाल है: क्या हमारा संविधान, जो समानता की गारंटी देता है, प्रतीकों के नाम पर विभाजित होगा?

'वंदे मातरम' भारत माता का आह्वान है – एक माँ जो सभी बच्चों को समान प्यार दे। आइए, इस १५०वें वर्ष में हम इसे विभेद न बनने दें, बल्कि एकजुट करने का माध्यम बनाएं। राष्ट्रवाद की कोई एक परिभाषा नहीं; यह सभी की भागीदारी से बनता है। जय हिंद!


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