व्यवस्था बनाम अव्यवस्था: बढ़ते राजस्व अपराधों की अनकही कहानी
(कौटिल्य वार्ता समाचार एजेंसी, )
उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद की हालिया ख़बर — भूमि बिक्री के नाम पर 45 लाख की ठगी — कोई सामान्य घटना नहीं है। यह उस प्रशासनिक दरार की झलक है जहाँ “राजस्व” अब “राजनीति” का नया पूँजीकेंद्र बन चुका है। राजस्व विभाग, तहसील, लेखपाल और पुलिस के गठजोड़ ने जिस ‘व्यवस्था’ को जन्म दिया था, वही अब ‘अव्यवस्था’ में बदल चुकी है। भूमि और संपत्ति से जुड़े अपराध आज न केवल बढ़ रहे हैं बल्कि प्रशासनिक शिथिलता के कारण वैधता की चादर ओढ़ चुके है. राजस्व का नया चेहरा – जमीन से जुड़ी ठगी का उद्योग,आज हर छोटे कस्बे और नगर में “रजिस्ट्री, बैनामा, नामांतरण, खतौनी” जैसे शब्द अपराधियों के औज़ार बन चुके हैं।
बस्ती के कोटवां निवासी एक महिला ने 45 लाख की संपत्ति का सौदा किया— दस्तावेज़ पूरे, रजिस्ट्री वैध, और खाता भी अपडेट। परंतु जब वह ज़मीन पर पहुँची, तब पता चला कि “एक ही ज़मीन” कई लोगों के नाम बेची जा चुकी है।
यह केवल ठगी नहीं — राजस्व-प्रशासन और दलाल नेटवर्क का गठजोड़ है।
खातों में हेराफेरी, गलत खतौनी दाखिल, बैनामा बदलना और कंप्यूटर रिकॉर्ड में छेड़छाड़ – ये सब उसी ‘डिजिटल इंडिया’ के राजस्व तंत्र में हो रहा है जिसे पारदर्शिता का प्रतीक कहा गया था.
राजस्व अपराधों का बढ़ता ग्राफ,उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में भूमि विवाद और राजस्व ठगी के मामले अब धारा 420 और 467/468 IPC के अंतर्गत नहीं, बल्कि संगठित अपराध की श्रेणी में रखे जाने लायक हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार,पिछले पाँच वर्षों में भूमि ठगी से जुड़े मामलों में 300% वृद्धि हुई है।70% मामलों में आरोपितों में कोई न कोई राजस्व कर्मचारी, लेखपाल या वकील का सहायक शामिल रहा है।50% मामलों में पीड़ित वर्ग वे हैं जो प्रवासी भारतीय या बाहर कार्यरत मजदूर रहे हैं — जिनकी अनुपस्थिति में उनकी ज़मीनें बेची या कब्जाई गईं। अव्यवस्था की जड़ – भ्रष्टाचार का विकेंद्रित रूप,पहले भ्रष्टाचार केंद्रित था — बड़े अफसर, मंत्री या दलाल।अब यह विकेंद्रित हो चुका है।गाँव स्तर पर लेखपाल, कंप्यूटर ऑपरेटर, राजस्व निरीक्षक और वकीलों के गिरोह इस तंत्र का हिस्सा बन चुके हैं।खतौनी सुधार और नामांतरण के लिए अब “दरें तय” हैं,5000 रुपये से लेकर लाखों तक का खेल। जो पैसे नहीं देता, उसकी फ़ाइल ‘त्रुटिपूर्ण’ बताकर वर्षों लटकाई जाती है। जो देता है, उसकी भूमि ‘मिनटों में’ स्वीकृत हो जाती है।यही वह अव्यवस्था का तंत्र है जिसने राज्य की राजस्व प्रणाली को एक संगठित रिश्वत बाजार में बदल दिया है।
शासन की असफलता या नीयत की परीक्षा?,सरकार ने “भूलेख ऑनलाइन”, “खसरा खतौनी पोर्टल” जैसी पहलें कीं, पर इन प्रणालियों का नियंत्रण उन्हीं हाथों में है जिन पर पुराने आरोप हैं। कई स्थानों पर डेटा एंट्री में जानबूझकर गलती कराई जाती है ताकि भविष्य में “सुधार शुल्क” लिया जा सके। यह दिखाता है कि डिजिटलीकरण केवल तकनीक नहीं, मानसिकता का भी प्रश्न है।
यदि शासन वास्तव में गंभीर होता तो—हर नामांतरण में थर्ड पार्टी जाँच,हर खतौनी परिवर्तन में आडिट ट्रेल,और हर तहसील स्तर पर पब्लिक डिस्प्ले मॉनिटर अनिवार्य कर दिया जाता। लेकिन जब राजनीति ही राजस्व से चलती हो, तब कौन व्यवस्था चाहेगा?
सामाजिक प्रभाव – भूमि ही पहचान बन गई है,भारतीय समाज में भूमि केवल संपत्ति नहीं, सम्मान और सुरक्षा का प्रतीक है। जब किसी की ज़मीन ठगी जाती है, तो वह केवल आर्थिक नहीं, सामाजिक हत्या का शिकार होता है।
गाँवों में “बैनामा विवाद” अब खूनी झगड़ोंऔरआत्महत्याओं तक पहुँच चुके हैं। प्रशासनिक मौन और न्यायिक विलंब ने इस अपराध को और साहसी बना दिया है। जो शिकायत करता है, उसके ख़िलाफ़ काउंटर केस कर दिया जाता है।
बस्ती की घटना – प्रतीक है राष्ट्रीय बीमारी का बस्ती की यह खबर बताती है कि ठगी करने वाले स्थानीय और बाहरी लोग मिलकर संपत्ति का दोहरा विक्रय करते हैं। फर्जी खतौनी बनवाने में राजस्व कार्यालय के अंदरूनी सहयोग लिया गया। पुलिस में प्राथमिकी दर्ज हुई, पर गिरफ्तारी शून्य।यह उस पूरे देश का चित्र है जहाँ अवैध कब्ज़ा और वैध रजिस्ट्री साथ-साथ चलते हैं।
सुधार के मार्ग — व्यवस्था पुनर्स्थापन के उपाय, राजस्व अपराध प्रकोष्ठ की स्थापना:प्रत्येक ज़िले में विशेष पुलिस इकाई जो केवल भूमि ठगी, फर्जी खतौनी और नामांतरण घोटालों की जाँच करे। डिजिटल लॉक सिस्टम:किसी भी भूमि रिकॉर्ड में परिवर्तन से पहले दोहरी OTP-आधारित अनुमति — पीड़ित और राजस्व अधिकारी दोनों से।
जनसुनवाई मंच:तहसील स्तर पर साप्ताहिक लोक-न्याय मंच जहाँ तत्काल विवादों का निपटारा हो। भ्रष्ट लेखपालों की काली सूची: जैसे भ्रष्ट शिक्षकों या डॉक्टरों की सूची बनती है, वैसे ही राजस्वकर्मियों की सार्वजनिक लिस्ट होनी चाहिए।राजनीतिक संरक्षण समाप्त:भूमि मामलों में राजनीतिक अनुशंसा या हस्तक्षेप को दंडनीय अपराध घोषित किया जाए।
राजस्व व्यवस्था का उद्देश्य जनता से राज प्राप्त करना नहीं, जनकल्याण के लिए भूमि का न्यायपूर्ण वितरण है।
जब यह व्यवस्था स्वार्थ का साधन बन जाए, तो वह राष्ट्र की आत्मा को खा जाती है।
बस्ती की यह घटना हमें चेताती है कि“राजस्व केवल आय नहीं, न्याय का प्रतीक है।”और जब न्याय बिकता है —
तब व्यवस्था नहीं, अव्यवस्था जन्म रही है.
(कौटिल्य वार्ता समाचार एजेंसी, )
उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद की हालिया ख़बर — भूमि बिक्री के नाम पर 45 लाख की ठगी — कोई सामान्य घटना नहीं है। यह उस प्रशासनिक दरार की झलक है जहाँ “राजस्व” अब “राजनीति” का नया पूँजीकेंद्र बन चुका है। राजस्व विभाग, तहसील, लेखपाल और पुलिस के गठजोड़ ने जिस ‘व्यवस्था’ को जन्म दिया था, वही अब ‘अव्यवस्था’ में बदल चुकी है। भूमि और संपत्ति से जुड़े अपराध आज न केवल बढ़ रहे हैं बल्कि प्रशासनिक शिथिलता के कारण वैधता की चादर ओढ़ चुके है. राजस्व का नया चेहरा – जमीन से जुड़ी ठगी का उद्योग,आज हर छोटे कस्बे और नगर में “रजिस्ट्री, बैनामा, नामांतरण, खतौनी” जैसे शब्द अपराधियों के औज़ार बन चुके हैं।
बस्ती के कोटवां निवासी एक महिला ने 45 लाख की संपत्ति का सौदा किया— दस्तावेज़ पूरे, रजिस्ट्री वैध, और खाता भी अपडेट। परंतु जब वह ज़मीन पर पहुँची, तब पता चला कि “एक ही ज़मीन” कई लोगों के नाम बेची जा चुकी है।
यह केवल ठगी नहीं — राजस्व-प्रशासन और दलाल नेटवर्क का गठजोड़ है।
खातों में हेराफेरी, गलत खतौनी दाखिल, बैनामा बदलना और कंप्यूटर रिकॉर्ड में छेड़छाड़ – ये सब उसी ‘डिजिटल इंडिया’ के राजस्व तंत्र में हो रहा है जिसे पारदर्शिता का प्रतीक कहा गया था.
राजस्व अपराधों का बढ़ता ग्राफ,उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में भूमि विवाद और राजस्व ठगी के मामले अब धारा 420 और 467/468 IPC के अंतर्गत नहीं, बल्कि संगठित अपराध की श्रेणी में रखे जाने लायक हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार,पिछले पाँच वर्षों में भूमि ठगी से जुड़े मामलों में 300% वृद्धि हुई है।70% मामलों में आरोपितों में कोई न कोई राजस्व कर्मचारी, लेखपाल या वकील का सहायक शामिल रहा है।50% मामलों में पीड़ित वर्ग वे हैं जो प्रवासी भारतीय या बाहर कार्यरत मजदूर रहे हैं — जिनकी अनुपस्थिति में उनकी ज़मीनें बेची या कब्जाई गईं। अव्यवस्था की जड़ – भ्रष्टाचार का विकेंद्रित रूप,पहले भ्रष्टाचार केंद्रित था — बड़े अफसर, मंत्री या दलाल।अब यह विकेंद्रित हो चुका है।गाँव स्तर पर लेखपाल, कंप्यूटर ऑपरेटर, राजस्व निरीक्षक और वकीलों के गिरोह इस तंत्र का हिस्सा बन चुके हैं।खतौनी सुधार और नामांतरण के लिए अब “दरें तय” हैं,5000 रुपये से लेकर लाखों तक का खेल। जो पैसे नहीं देता, उसकी फ़ाइल ‘त्रुटिपूर्ण’ बताकर वर्षों लटकाई जाती है। जो देता है, उसकी भूमि ‘मिनटों में’ स्वीकृत हो जाती है।यही वह अव्यवस्था का तंत्र है जिसने राज्य की राजस्व प्रणाली को एक संगठित रिश्वत बाजार में बदल दिया है।
शासन की असफलता या नीयत की परीक्षा?,सरकार ने “भूलेख ऑनलाइन”, “खसरा खतौनी पोर्टल” जैसी पहलें कीं, पर इन प्रणालियों का नियंत्रण उन्हीं हाथों में है जिन पर पुराने आरोप हैं। कई स्थानों पर डेटा एंट्री में जानबूझकर गलती कराई जाती है ताकि भविष्य में “सुधार शुल्क” लिया जा सके। यह दिखाता है कि डिजिटलीकरण केवल तकनीक नहीं, मानसिकता का भी प्रश्न है।
यदि शासन वास्तव में गंभीर होता तो—हर नामांतरण में थर्ड पार्टी जाँच,हर खतौनी परिवर्तन में आडिट ट्रेल,और हर तहसील स्तर पर पब्लिक डिस्प्ले मॉनिटर अनिवार्य कर दिया जाता। लेकिन जब राजनीति ही राजस्व से चलती हो, तब कौन व्यवस्था चाहेगा?
सामाजिक प्रभाव – भूमि ही पहचान बन गई है,भारतीय समाज में भूमि केवल संपत्ति नहीं, सम्मान और सुरक्षा का प्रतीक है। जब किसी की ज़मीन ठगी जाती है, तो वह केवल आर्थिक नहीं, सामाजिक हत्या का शिकार होता है।
गाँवों में “बैनामा विवाद” अब खूनी झगड़ोंऔरआत्महत्याओं तक पहुँच चुके हैं। प्रशासनिक मौन और न्यायिक विलंब ने इस अपराध को और साहसी बना दिया है। जो शिकायत करता है, उसके ख़िलाफ़ काउंटर केस कर दिया जाता है।
बस्ती की घटना – प्रतीक है राष्ट्रीय बीमारी का बस्ती की यह खबर बताती है कि ठगी करने वाले स्थानीय और बाहरी लोग मिलकर संपत्ति का दोहरा विक्रय करते हैं। फर्जी खतौनी बनवाने में राजस्व कार्यालय के अंदरूनी सहयोग लिया गया। पुलिस में प्राथमिकी दर्ज हुई, पर गिरफ्तारी शून्य।यह उस पूरे देश का चित्र है जहाँ अवैध कब्ज़ा और वैध रजिस्ट्री साथ-साथ चलते हैं।
सुधार के मार्ग — व्यवस्था पुनर्स्थापन के उपाय, राजस्व अपराध प्रकोष्ठ की स्थापना:प्रत्येक ज़िले में विशेष पुलिस इकाई जो केवल भूमि ठगी, फर्जी खतौनी और नामांतरण घोटालों की जाँच करे। डिजिटल लॉक सिस्टम:किसी भी भूमि रिकॉर्ड में परिवर्तन से पहले दोहरी OTP-आधारित अनुमति — पीड़ित और राजस्व अधिकारी दोनों से।
जनसुनवाई मंच:तहसील स्तर पर साप्ताहिक लोक-न्याय मंच जहाँ तत्काल विवादों का निपटारा हो। भ्रष्ट लेखपालों की काली सूची: जैसे भ्रष्ट शिक्षकों या डॉक्टरों की सूची बनती है, वैसे ही राजस्वकर्मियों की सार्वजनिक लिस्ट होनी चाहिए।राजनीतिक संरक्षण समाप्त:भूमि मामलों में राजनीतिक अनुशंसा या हस्तक्षेप को दंडनीय अपराध घोषित किया जाए।
राजस्व व्यवस्था का उद्देश्य जनता से राज प्राप्त करना नहीं, जनकल्याण के लिए भूमि का न्यायपूर्ण वितरण है।
जब यह व्यवस्था स्वार्थ का साधन बन जाए, तो वह राष्ट्र की आत्मा को खा जाती है।
बस्ती की यह घटना हमें चेताती है कि“राजस्व केवल आय नहीं, न्याय का प्रतीक है।”और जब न्याय बिकता है —
तब व्यवस्था नहीं, अव्यवस्था जन्म रही है.
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