वंदे मातरम् : एक गीत नहीं, एक संकल्प
(श्रृंखला: वंदे मातरम् के १५० वर्ष — लेख 1)
भारत के इतिहास में ऐसे कुछ ही शब्द हैं, जो सुनते ही भीतर एक अनकही आग, एक अदृश्य गर्व और एक अटूट अपनापन जगा देते हैं। “वंदे मातरम्” उन्हीं शब्दों में से एक है — पर यह केवल एक गीत नहीं, बल्कि भारत के आत्मबोध का संकल्प-सूत्र है।
गीत नहीं, चेतना का घोष
जब बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1875 के आस-पास यह गीत लिखा, तब वे किसी “काव्य-रचना” में नहीं थे; वे उस आत्मा की भाषा खोज रहे थे जो गुलामी की छाया में भी स्वतंत्रता का स्वप्न देख रही थी। अंग्रेज़ शासन ने भारत के आत्मविश्वास को तोड़ने के लिए जो भी उपाय किए — भाषा, शिक्षा, प्रशासन और संस्कृति — सबके बीच यह गीत एक प्रतिरोध बनकर उभरा।
“वंदे मातरम्” में केवल शब्द नहीं, बल्कि भूमि के प्रति भक्ति, समाज के प्रति दायित्व और राष्ट्र के प्रति समर्पण का भाव था। यही कारण है कि इस गीत को सुनकर कोई केवल भावुक नहीं होता, वह जाग्रत हो उठता है।
‘माँ’ की मूर्ति और भारतीय मानस
भारतीय परंपरा में ‘माँ’ केवल जननी नहीं, पालक और प्रेरक शक्ति भी है। यहाँ धरती को माता कहा गया — “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।” बंकिम ने इसी शाश्वत भाव को आधुनिक राष्ट्र की आत्मा बना दिया।
उनकी “माँ” केवल बंगाल नहीं थी, बल्कि वेदों की, उपनिषदों की, और वन-गंगा-हिमालय की माँ थी — वह जो सबको जोड़ती है, किसी को अलग नहीं करती।
जब बंकिम ने कहा —
“सुखदं वरदं मातरं,”
तो उसमें केवल करुणा नहीं, शक्ति भी थी।
यह ‘माँ’ आँचल नहीं फैलाती, वह सिंहासन पर प्रतिष्ठित करती है।
राष्ट्रीय पुनर्जागरण का स्वर
वंदे मातरम् उस समय आया जब भारत राजनीतिक रूप से अधीन और सांस्कृतिक रूप से विभाजित था। यह गीत उस विभाजन के बीच एक ऐसा सूत्र बना, जिसने भारत को एक बार फिर अपने होने का अहसास कराया।
गाँव के किसान से लेकर कोलकाता के विद्यार्थी तक, सबने इस गीत को अपने स्वर में अपनाया। यह पहला गीत था जो “अंग्रेज़ विरोध” नहीं बल्कि “भारत प्रेम” के नाम पर गाया गया। यही कारण है कि यह गीत एक भावनात्मक आन्दोलन बन गया, जिसने आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम को दिशा दी।
वंदे मातरम् : मनुष्य से राष्ट्र तक की यात्रा
यह गीत व्यक्ति को नागरिक नहीं, संतान बनाता है।
यह नागरिकता नहीं, समर्पण सिखाता है।
“वंदे मातरम्” कहने वाला केवल भारत में रहने वाला नहीं, बल्कि भारत को जीवन के रूप में मानने वाला होता है।
आज जब भारत डिजिटल युग में प्रवेश कर चुका है, तब यह स्मरण आवश्यक है कि राष्ट्र केवल सीमाओं से नहीं, भावना से बनता है।
वंदे मातरम् उस भावना की अभिव्यक्ति है, जो स्वार्थ से परे और समय से ऊपर है।
१५० वर्षों की परंपरा और आज का आह्वान
१५० वर्ष पहले यह गीत जागरण का बीज था,
आज यह राष्ट्रनिर्माण का वृक्ष है।
हर भारतीय जब “वंदे मातरम्” कहता है, तो वह केवल एक गीत नहीं गाता — वह अपने अस्तित्व की घोषणा करता है।
इसलिए बंकिम के शब्दों में,
“माँ, तू ही धर्म, तू ही कर्म, तू ही जीवन, तू ही मरण।”
यह राष्ट्रवाद नहीं, राष्ट्रभक्ति का योग है।
“वंदे मातरम्” का उच्चारण राजनीति का नारा नहीं, आत्मा की पुकार है।
यह उस भारत का प्रतीक है, जहाँ कण-कण में माँ का आशीष है —
जहाँ गीत से ज्यादा बड़ा है उसका अर्थ,
और अर्थ से बड़ा है उसका संकल्प।
वंदे मातरम् — एक गीत नहीं, एक जीवित संकल्प ::
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