राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक असुरक्षा और जनआंदोलनों के दबाव में हिलती सुरक्षा व्यवस्था
नेपाल — हिमालय की गोद में बसा वह देश जिसने पिछले दो दशकों में लोकतंत्र, गणराज्य और संविधान के लिए अनेक संघर्ष देखे हैं — आज एक नए संकट से गुजर रहा है। बीते कुछ महीनों में नेपाल पुलिस और सशस्त्र पुलिस बल (APF) के लगभग हज़ार कर्मियों ने सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दिया। यह केवल एक प्रशासनिक घटना नहीं, बल्कि उस गहरी बेचैनी का संकेत है जो नेपाल के सुरक्षा बलों और शासन-व्यवस्था के भीतर पनप रही है।सामूहिक इस्तीफे के कारण : व्यवस्था की जड़ों में असंतोष उठा है.
नेपाल के आंतरिक मंत्रालय के अनुसार, हाल के तीन महीनों में 400 से अधिक पुलिसकर्मी और 500 से अधिक सशस्त्र बल कर्मी नौकरी छोड़ चुके हैं। सतही तौर पर कारण ‘पारिवारिक’ या ‘निजी’ बताए जा रहे हैं, परंतु वास्तविकता इससे कहीं अधिक गहरी है।
आर्थिक असुरक्षा और पेंशन कटौती:
सरकार द्वारा हाल में प्रस्तावित विधायी संशोधनों ने सुरक्षा कर्मियों की पेंशन और सेवा लाभों में कटौती की बात कही है। इससे कर्मियों में व्यापक असंतोष फैला है। लंबे समय से सेवा दे रहे जवानों को लगा कि सरकार उनके योगदान का सम्मान नहीं कर रही।तनाव और मनोवैज्ञानिक थकान:
सितंबर 2025 के “Gen Z आंदोलन” के दौरान पुलिस पर भारी दबाव पड़ा। युवा विरोध प्रदर्शनों के बीच पुलिस को न केवल सड़कों पर हिंसा झेलनी पड़ी, बल्कि उसे जनमत में खलनायक की तरह पेश किया गया। इससे कई कर्मियों में मानसिक थकान और असहायता की भावना बढ़ी।राजनीतिक हस्तक्षेप और करियर असंतोष:
लगातार बदलते सरकारों और दलों के हस्तक्षेप से पुलिस में पेशेवर संस्कृति कमजोर हुई है। पदोन्नति और तबादलों में पारदर्शिता का अभाव कर्मियों के मनोबल को गिरा रहा है।विदेश रोजगार की ललक:
नेपाल के कई युवा अब गल्फ देशों, मलेशिया या दक्षिण कोरिया में रोज़गार के लिए जा रहे हैं। बेहतर आर्थिक अवसर और स्थिर भविष्य की तलाश में प्रशिक्षित पुलिसकर्मी भी पलायन कर रहे हैं।एक चिंताजनक संकेत : लोकतंत्र के प्रहरी का टूटता विश्वास
नेपाल में यह संकट केवल “सेवा से पलायन” का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की संस्थागत थकान का संकेत है। लोकतंत्र की नींव तीन स्तंभों — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — पर टिकी होती है; किंतु इन सबके बीच सुरक्षा बल चौथा और मौन स्तंभ हैं, जो व्यवस्था की निरंतरता सुनिश्चित करते हैं।
जब वही स्तंभ दरकने लगता है, तो लोकतंत्र के ढाँचे में कंपन महसूस होना स्वाभाविक है।
इन इस्तीफों का सबसे बड़ा खतरा यह है कि वे नेपाल के आगामी चुनावों, आंतरिक सुरक्षा और सीमावर्ती इलाकों की निगरानी को प्रभावित कर सकते हैं। प्रशिक्षित मानव संसाधन का नुकसान केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि सामरिक क्षति भी है।राजनीतिक नेतृत्व की जिम्मेदारी
नेपाल में पिछले कुछ वर्षों से सत्ता अस्थिर है — गठबंधन सरकारें बार-बार टूटती और बनती रही हैं। इस अस्थिरता ने न केवल जनता का भरोसा कमजोर किया है, बल्कि सरकारी कर्मचारियों में भी ‘भविष्य अनिश्चितता’ की भावना को गहरा किया है।
यह स्थिति तभी सुधरेगी जब राजनीतिक दल अपनी प्रतिस्पर्धा को लोकतंत्र की स्थिरता में रूपांतरित करेंगे।
सत्ता परिवर्तन के हर दौर में पुलिस तंत्र पर नई नियुक्तियाँ, ट्रांसफर और राजनीतिक दबाव डालना आम हो गया है। इससे पुलिस की तटस्थता और व्यावसायिक गरिमा दोनों पर चोट पड़ती है।सुरक्षा बलों के भीतर सुधार की आवश्यकता
नेपाल के नीति निर्माताओं को अब यह स्वीकार करना होगा कि यह केवल वेतन या पेंशन का प्रश्न नहीं है — यह संस्थानिक पुनर्निर्माण का समय है।पलिस में मनोवैज्ञानिक समर्थन इकाइयाँ बनाई जानी चाहिए।“Service Exit Counseling” जैसी व्यवस्था हो, ताकि इस्तीफा देने वाले कारण बताने से न हिचकें।प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में मानवाधिकार, तनाव प्रबंधन और लोकसंवाद के पाठ शामिल किए जाएँ।पदोन्नति और तैनाती की प्रक्रिया को पूरी तरह मेरिट आधारित और पारदर्शी बनाया जाए।
यदि ये सुधार नहीं किए गए, तो यह प्रवृत्ति नेपाल के भीतर सुरक्षा रिक्ति (security vacuum) पैदा कर सकती है, जिसे चरमपंथी या असंतुष्ट समूह भरने की कोशिश करेंगे।निवारण की दिशा : विश्वास और संवाद
नेपाल की सरकार को यह मानना होगा कि सुरक्षा बल केवल आदेश पालन करने वाली संस्था नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा के प्रहरी हैं।
- उन्हें केवल अनुशासन नहीं, बल्कि सम्मान भी चाहिए।
- केवल वेतन वृद्धि नहीं, बल्कि सार्थक संवाद और सहभागिता चाहिए।
- केवल आदेश नहीं, बल्कि दृष्टि और प्रेरणा चाहिए।
सरकार को जल्द ही पुलिस संगठन के प्रतिनिधियों, सेवानिवृत्त अधिकारियों और युवा कर्मियों के साथ एक राष्ट्रीय स्तर का संवाद मंच बनाना चाहिए, जहाँ नीतिगत सुधारों पर खुले मन से चर्चा हो सके।समापन : लोकतंत्र की स्थिरता, प्रहरी के विश्वास से
नेपाल ने साम्राज्य से गणराज्य तक की यात्रा संघर्षों से तय की है। अब यदि लोकतंत्र को स्थिर करना है, तो उसके प्रहरी — यानी पुलिस और सुरक्षा बल — को थकने नहीं देना होगा।
सामूहिक इस्तीफे केवल प्रशासनिक आँकड़े नहीं, बल्कि चेतावनी हैं कि व्यवस्था का वह पहिया जो राष्ट्र को गतिमान रखता है, अब घर्षण महसूस कर रहा है।
नेपाली लोकतंत्र का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि वह अपने प्रहरी के मनोबल को कितना पुनर्स्थापित कर पाता है।
क्योंकि इतिहास गवाह है — जब प्रहरी टूटता है, तो प्रजा भी खामोश नहीं रहती.
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