मंगलवार, 4 नवंबर 2025

“बिना पुलिस की संलिप्तता के कोई यौन कदाचार संभव नहीं — बस्ती, हरैया व टोलप्लाज़ा की घटनाएँ उजागर करतीं हैं तंत्र की नैतिक विफलता”


“बिना पुलिस की संलिप्तता के कोई यौन कदाचार संभव नहीं — बस्ती, हरैया व टोलप्लाज़ा की घटनाएँ उजागर करतीं हैं तंत्र की नैतिक विफलता”





बस्ती/हरैया, संवाददाता:
पूर्वांचल के जिलों में एक के बाद एक हो रही अमर्यादित घटनाओं ने कानून व्यवस्था पर गहरे प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। स्थानीय सूत्रों और नागरिक संगठनों का कहना है कि “बिना पुलिस के सज्ञान के, किसी भी क्षेत्र में इस प्रकार की यौन या अवैध गतिविधियाँ असंभव हैं।”हरैया, बस्ती टोलप्लाज़ा और उससे सटे कस्बाई इलाकों में बीते कुछ महीनों में हुई घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अपराध अब छिपकर नहीं, संरक्षण पाकर पल रहा है।

पुलिस की भूमिका पर उठते सवाल,स्थानीय लोगों का कहना है कि इन घटनाओं में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पुलिस की मिलीभगत से इनकार नहीं किया जा सकता। कई होटल, लॉज और टोलप्लाज़ा के आसपास बने ढाबे ऐसे ठिकाने बन चुके हैं जहाँ संदिग्ध गतिविधियाँ होती हैं — और फिर भी वहाँ गश्त करने वाले पुलिसकर्मियों को “कुछ दिखता नहीं।”सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया है कि थाना-स्तर पर “मौन स्वीकृति” का यह तंत्र अब साझेदारी मॉडल में बदल गया है — जहाँ संरक्षण, सूचना और हिस्सेदारी — तीनों सुनिश्चित हैं।

जनता का भरोसा टूटता हुआ,“थाने में शिकायत करने का मतलब है अपमान झेलना,” यह वाक्य अब आम जन का अनुभव बन चुका है। पीड़ितों को रिपोर्ट दर्ज कराने से लेकर न्याय तक पहुँचने में मानसिक उत्पीड़न से गुजरना पड़ता है। यही कारण है कि कई महिलाएँ अब शिकायत ही नहीं करतीं।स्थानीय महिला संगठन की प्रतिनिधि रेखा मिश्रा का कहना है —
 “हमारे समाज में अब डर पुलिस से ज़्यादा है, अपराधी से नहीं। न्याय पाने से पहले चरित्र प्रमाण देना पड़ता है।

हरैया–बस्ती बेल्ट में अपराधी नेटवर्क,पुलिस सूत्र भले ही घटनाओं को “छिटपुट” बताएं, परंतु जाँच में कई जगह एक जैसी कार्यप्रणाली मिली है —एक ही प्रकार के वाहनों का उपयोग,
समान होटल श्रृंखला में ठहराव,और स्थानीय स्तर पर ‘संरक्षण शुल्क’ की व्यवस्था।यह संकेत देता है कि अपराध व्यक्तिगत नहीं, बल्कि संगठित और व्यवस्थागत रूप ले चुका है।

सिस्टम की थकान या साज़िश?पूर्व डीजीपी-स्तर के एक अधिकारी (नाम न प्रकाशित) का कहना है कि “पुलिस बल अब अत्यधिक राजनीतिक दबाव में काम करता है। थानेदारी पद किसी जिम्मेदारी का नहीं, बल्कि ‘राजनैतिक निवेश’ का केंद्र बन गया है।”ऐसे में अपराध की रोकथाम से अधिक महत्व, अपराध की सूचना को नियंत्रित करने को मिल जाता है। यही वजह है कि कई घटनाएँ मीडिया या जनता तक पहुँचने से पहले ही दबा दी जाती हैं।

जनता की जागरूकता ही विकल्प,स्थानीय शिक्षाविद् डॉ. रजनीश तिवारी का कहना है —“सुरक्षा केवल पुलिस का विषय नहीं, समाज का भी दायित्व है। लेकिन जब समाज ही मौन हो जाए, तब तंत्र मनमानी करने लगता है।”उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि ग्रामसभा और नगर-स्तर पर “जन प्रहरी समिति” जैसी संस्था बनाई जाए, जो होटल, धर्मशाला और सार्वजनिक स्थलों की गतिविधियों पर नागरिक निगरानी रखे।

सरकार की जिम्मेदारी और सुधार की दिशा,विशेषज्ञों का मानना है कि इस समस्या का समाधान केवल सख्त कानून नहीं, बल्कि पारदर्शी पुलिस प्रणाली है। हर थाने की कार्यवाही ऑनलाइन सार्वजनिक हो। होटलों और ढाबों के पंजीकरण का मासिक निरीक्षण अनिवार्य किया जाए। महिला पुलिस की उपस्थिति बढ़ाई जाए. जाँच एजेंसियों को राजनीतिक प्रभाव से मुक्त किया जाए।यदि सरकार वाकई “महिला सुरक्षा” के प्रति गंभीर है, तो उसे केवल प्रचार नहीं, संरक्षण के बाजार को तोड़ना होगा।

नैतिकता की वापसी ही असली सुधार,आज आवश्यकता केवल अपराध नियंत्रण की नहीं, बल्कि चरित्र नियंत्रण की है। जब तक पुलिस बल को केवल वर्दी और वेतन से नहीं, बल्कि सेवा और सम्मान के आदर्श से जोड़ा नहीं जाएगा, तब तक यह गिरावट रुकेगी नहीं। बस्ती से लेकर हरैया तक, समाज अब यह समझने लगा है कि — “जहाँ रक्षक संदिग्ध हों, वहाँ न्याय केवल नारे में मिलता है।

पुलिस का दायित्व केवल कानून लागू करना नहीं, बल्कि विश्वास जगाना भी है। परंतु वर्तमान परिदृश्य में यह विश्वास दरक चुका है।हरैया और बस्ती की घटनाएँ चेतावनी हैं कि यदि तंत्र ने आत्मसुधार नहीं किया तो जनता, लोकतंत्र और कानून — तीनों ही मज़ाक बन जाएंगे।
“बिना पुलिस की सहमति, कोई अपराध नहीं टिकता;और बिना जनता की सहमति, कोई भ्र्ष्टाचार पनपता ही नहीं.
 


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