आरएसएस और देश का भविष्य
एक शताब्दी की विरासत और आने वाले युग का आह्वान
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भारत की सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी चेतना का प्रतीक है। 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के पावन अवसर पर डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नागपुर में स्थापित यह संगठन आज अपनी शताब्दी पूर्ण कर चुका है। 2 अक्टूबर 2025 को नागपुर के रेशमबाग मैदान में आयोजित भव्य समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरएसएस को "भारत की अमर संस्कृति और आधुनिकीकरण का बरगद का वृक्ष" करार दिया। यह न केवल एक संगठन की जयंती है, बल्कि राष्ट्र निर्माण की एक सदी की यात्रा का उत्सव है। आज, जब भारत वैश्विक पटल पर उभरती महाशक्ति के रूप में स्थापित हो रहा है, आरएसएस का योगदान—व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण तक—देश के भविष्य को आकार देने में निर्णायक सिद्ध हो रहा है।
इस लेख c में हम आरएसएस की स्थापना, विकास, विचारधारा, सामाजिक-सांस्कृतिक योगदान और राजनीतिक प्रभाव का विश्लेषण करेंगे। साथ ही, शताब्दी वर्ष के संदर्भ में यह चर्चा करेंगे कि कैसे आरएसएस भारत को एक समृद्ध, एकीकृत और सांस्कृतिक रूप से जागृत राष्ट्र के रूप में ले जा सकता है। यह लेख राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से प्रेरित है, जहां आरएसएस को विभाजनकारी नहीं, बल्कि एकता के सूत्रधार के रूप में देखा जाता है।
आरएसएस की स्थापना: हिंदू जागरण का प्रारंभिक बीज
आरएसएस की स्थापना का संदर्भ ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की पृष्ठभूमि में है, जब हिंदू समाज विखंडित और आत्मविश्वासहीन हो चुका था। डॉ. हेडगेवार, एक चिकित्सक और स्वतंत्रता सेनानी, ने महसूस किया कि राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए पहले सांस्कृतिक और चरित्र निर्माण आवश्यक है। उन्होंने हिंदू महासभा के नेताओं—बी.एस. मूनजे, गणेश सावरकर आदि—के साथ विचार-विमर्श कर संगठन का नाम "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" रखा, जो हिंदू एकता को राष्ट्रीय ढांचे में समाहित करता था। प्रारंभिक शाखाओं में शारीरिक व्यायाम, बौद्धिक चर्चा और प्रार्थना के माध्यम से स्वयंसेवकों को अनुशासित किया जाता था।
1927 में शुरू हुए " प्रशिक्षण शिविरों" ने संगठन को मजबूत आधार दिया। हेडगेवार का मानना था कि "व्यक्ति का निर्माण ही राष्ट्र का निर्माण है।" यह दर्शन आज भी प्रासंगिक है। शताब्दी वर्ष में अयोध्या में आयोजित प्रथम पथ संचलन ने इस विरासत को जीवंत किया, जहां लाखों स्वयंसेवकों ने राम मंदिर को केंद्र में रखकर सांस्कृतिक पुनरुत्थान का संदेश दिया।
आरएसएस के आद्य सर संघ चालक ने ब्रिटिश राज के खिलाफ प्रत्यक्ष आंदोलन भी किया, उसने जंगल सत्याग्रह (1930) जैसे घटनाओं में भागीदारी से राष्ट्रवादी भावना जगाई। आज, जब भारत आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है, यह बीज एक विशाल वटवृक्ष का रूप ले चुका है।
विकास और विस्तार: एक सदी की यात्रा में संघर्ष और सेवा
आरएसएस का विकास चुनौतियों से भरा रहा। द्वितीय सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर (गुरुजी) ने संगठन को वैचारिक मजबूती दी। 1947 के विभाजन के दौरान आरएसएस ने पंजाब, दिल्ली और बंगाल में शरणार्थी शिविर चलाए, लाखों हिंदुओं को सहारा दिया। महात्मा गांधी ने 1947 में आरएसएस की अनुशासन और सेवा भावना की प्रशंसा की, हालांकि उन्होंने हिंदू-केवल राष्ट्रवाद पर चिंता जताई। गांधी हत्या (1948) के बाद संगठन पर प्रतिबंध लगा, लेकिन यह उसके संकल्प को मजबूत बनाया
1975-77 के आपातकाल में आरएसएस ने भूमिगत आंदोलन चलाया, जो बाद में जनता पार्टी की सरकार बनाने में सहायक सिद्ध हुआ। आज, आरएसएस की 1,27,000 से अधिक शाखाएं 51,000 स्थानों पर सक्रिय हैं, जो दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बनाता है। शताब्दी वर्ष में लक्ष्य एक लाख शाखाओं का विस्तार है।
सेवा कार्यों में आरएसएस का योगदान अतुलनीय है। 1962 के भारत-चीन युद्ध, 1965 के भारत-पाक युद्ध, 1984 के सिख दंगों में सहायता, भुज भूकंप (2001), कश्मीर बाढ़ (2014) और कोविड-19 महामारी में मास्क वितरण से लेकर भोजन वितरण तक—हर संकट में स्वयंसेवक अग्रिम रहे। 2025 में मणिपुर हिंसा के दौरान भी आरएसएस ने शांति स्थापना में भूमिका निभाई। यह विकास न केवल संख्या में, बल्कि सामाजिक एकीकरण में दिखता है। वनवासी कल्याण आश्रम जैसे सहयोगी संगठनों ने आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा और स्वास्थ्य पहुंचाया, जिससे हिंदू एकता मजबूत हुई।
विचारधारा: हिंदुत्व का समावेशी स्वरूप।
हिंदुत्व यहां सांस्कृतिक पहचान है, न कि धार्मिक संकीर्णता। गुरुजी ने "बंच ऑफ थॉट्स" में कहा कि हिंदू राष्ट्र में सभी निवासी—जाति, धर्म से परे—राष्ट्रीय एकता के अंग हैं। यह विचारधारा "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" (सत्य एक है, विद्वान उसे विभिन्न रूपों में कहते हैं) पर टिकी है।
राष्ट्रवाद के संदर्भ में आरएसएस आर्थिक स्वावलंबन, सांस्कृतिक संरक्षण और राष्ट्रीय सुरक्षा पर जोर देता है। आत्मनिर्भर भारत अभियान में स्वयंसेवकों की भूमिका—मेक इन इंडिया से लेकर डिजिटल इंडिया तक—स्पष्ट है। 2025 में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि "संघ का कार्य समाजोत्थान और राष्ट्र निर्माण है।" हालिया घटनाओं में, जैसे नीरज चोपड़ा को सेना में मानद पद, आरएसएस खेलों को राष्ट्रवाद से जोड़ता दिखता है।
हालांकि आलोचक इसे "हिंदू राष्ट्रवाद" कहकर विभाजनकारी बताते हैं, राष्ट्रवादी दृष्टि से यह समावेशी है। अल्पसंख्यकों को हिंदू संस्कृति का हिस्सा मानते हुए, आरएसएस ने मुस्लिम स्वयंसेवकों को भी शामिल किया है। शताब्दी वर्ष में आयोजित गोष्ठियों में विविधता में एकता का संदेश दिया गया। यह विचारधारा भारत को "विश्वगुरु" बनाने का आधार बनेगी, जहां सांस्कृतिक जड़ें वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को मजबूत करेंगी।
राजनीतिक प्रभाव: बीजेपी के माध्यम से राष्ट्र निर्माण
आरएसएस राजनीतिक रूप से अराजनीतिक होने का दावा करता है, लेकिन इसका प्रभाव भारतीय जनसंघ (1951) से भारतीय जनता पार्टी (1980) तक स्पष्ट है। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी—सभी प्रचारक पृष्ठभूमि से हैं। 2014 और 2019 की जीत में आरएसएस की संगठनात्मक शक्ति निर्णायक रही। राम मंदिर आंदोलन (1990) से अयोध्या में मंदिर निर्माण (2024) तक, आरएसएस ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को राजनीतिक सफलता में बदला।
2025 में शताब्दी समारोह में पीएम मोदी ने आरएसएस को "राष्ट्र की रीढ़" कहा। उत्तर प्रदेश सीएम योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर में "राजनीतिक इस्लाम" को सनातन धर्म पर सबसे बड़ा आघात बताते हुए हलाल सर्टिफिकेशन पर प्रतिबंध का जिक्र किया, जिसे आतंकवाद और प्रेम जिहाद के वित्तपोषण से जोड़ा। यह राजनीतिक प्रभाव भारत की सुरक्षा नीति को मजबूत करता है—बालाकोट एयरस्ट्राइक (2019) और ऑपरेशन सिंदूर (2025) जैसे कदमों में आरएसएस की "सामाजिक रक्षा" अवधारणा झलकती है।
भविष्य में, यह प्रभाव लोकसभा चुनावों में बीजेपी को मजबूत रखेगा, लेकिन आरएसएस का फोकस राजनीति से परे—शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण पर—रहेगा।
सामाजिक-सांस्कृतिक योगदान: एकता का आधार
आरएसएस के सहयोगी संगठन—विद्या भारती (शिक्षा), (चिकित्सा), वनवासी कल्याण आश्रम (आदिवासी कल्याण)—समाज को मजबूत करते हैं। शताब्दी वर्ष में 10,000 से अधिक कार्यक्रमों में 27 लाख लोगों ने भाग लिया, जैसे लोकमाता अहिल्याबाई होलकर की त्रि-शताब्दी। युवा राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लिए डिजिटल अभियान चले, जहां सोशल मीडिया पर हिंदुत्व को सांस्कृतिक विचारधारा के रूप में प्रस्तुत किया गया।
महिलाओं के लिए राष्ट्र सेविका समिति (1936) ने सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया। शताब्दी में महिला समन्वय कार्यक्रमों पर जोर दिया गया। जाति व्यवस्था पर आरएसएस ने सामाजिक समरसता का संदेश दिया, वंचितों को प्राथमिकता देकर न्याय सुनिश्चित किया। यह योगदान भारत को बहुलतावादी रखते हुए सांस्कृतिक एकता प्रदान करता है।
चुनौतियां: आलोचना और समाधान
आरएसएस पर विभाजनकारी होने का आरोप लगता रहा—1948 प्रतिबंध, 1992 बाबरी विध्वंस आदि। लेकिन शताब्दी वर्ष में सार्वजनिक पहुंच बढ़ाई गई, मीडिया को आमंत्रित किया गया।वैश्विक स्तर पर, हिंदुत्व को "मिलिटेंट कल्चरल नेशनलिज्म" कहा जाता है, लेकिन आरएसएस इसे "सेवा और अनुशासन" के रूप में प्रस्तुत करता है।
भविष्य की चुनौतियां—जलवायु परिवर्तन, डिजिटल विभाजन, सीमा विवाद—में आरएसएस सामाजिक एकता से समाधान दे सकता है। कर्नाटक में सरकारी प्रतिबंध जैसे मुद्दों का सामना करते हुए भी, संगठन का विस्तार जारी है।
आरएसएस के नेतृत्व में भारत का स्वर्णिम भविष्य
आरएसएस की शताब्दी भारत के पुनर्जागरण का प्रतीक है। आने वाले दशकों में, यह संगठन भारत को आर्थिक (जीडीपी 10 ट्रिलियन डॉलर लक्ष्य), सांस्कृतिक (संस्कृत पुनरुत्थान) और सुरक्षा (सीमा मजबूती) के क्षेत्र में विश्वगुरु बनाएगा। मोहन भागवत का संदेश—"राष्ट्र प्रथम"—हर स्वयंसेवक का मंत्र बनेगा। जैसे शिवाजी से मोदी तक की परंपरा चली, वैसे ही आरएसएस भारत को एक मजबूत, समावेशी राष्ट्र बनाएगा। यह शताब्दी न केवल अतीत का उत्सव है, बल्कि भविष्य का संकल्प। जय हिंद!

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें