राजेंद्र नाथ तिवारी
यह विषय एक गहरी सामाजिक और प्रशासनिक समस्या को उजागर करता है — पुलिस विभाग में भ्रष्टाचार और दुर्व्यवस्था की जड़ों तक पहुंचने वाली नीतिगत लापरवा ही।साइकिल भत्ता 188 रुपए और भ्रष्टाचार की दौड़: उत्तर प्रदेश पुलिस की दुर्दशा पर बड़ा सवालजब दुनिया चांद और मंगल की यात्रा कर रही है, जब ड्रोन से युद्ध और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से अपराध जांच की नई राहें खुल रही हैं — ऐसे में उत्तर प्रदेश पुलिस के सिपाही आज भी साइकिल के भरोसे कर्तव्य निभाने को मजबूर हैं।आश्चर्य की बात है कि एक सिपाही को साइकिल भत्ता मात्र ₹188 माहवार, और सब-इंस्पेक्टर को पेट्रोल भत्ता ₹500 प्रतिमाह दिया जाता है।
यह रकम आज के दौर में प्रतीकात्मक से अधिक कुछ नहीं कहलाती। सवाल उठता है — जब एक पुलिसकर्मी अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए जेब से खर्च करेगा तो क्या उसकी आर्थिक विवशता का असर उसके कार्य और व्यवहार पर नहीं पड़ेगा?विशेषज्ञ मानते हैं कि यह नीतिगत उदासीनता सीधे पुलिस व्यवस्था की कार्यक्षमता पर असर डाल रही है। उच्च पदों पर बैठकर नीति बनाने वाले, वातानुकूलित कमरों में बैठने वाले सलाहकार और आयोगों के सदस्य शायद ही यह समझ रहे हों कि नीचे तक क्या हाल है।एक ओर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री दक्षता और पारदर्शिता की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर राज्य की पुलिस आज भी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जूझ रही है।
यदि सिपाही, दरोगा या इंस्पेक्टर अपने निजी वेतन से गश्त और जांच का खर्च उठाएंगे, तो स्वाभाविक है कि इसका साइड इफेक्ट जनता और न्याय व्यवस्था पर पड़ेगा।अब सवाल है — सरकारें, सांसद और विधायक इस स्थिति को बदलने के लिए कदम कब उठाएंगे? क्या कोई कप्तान, कोई डीआईजी या कोई नीति निर्माता इस दुर्व्यवस्था की गूंज सुन पाएगा? जब तक निचले स्तर पर आर्थिक सशक्तीकरण नहीं होगा, तब तक भ्रष्टाचार का दुष्चक्र तोड़ना असंभव है।
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