दीपोत्सव या ‘विभोत्सव’? — योगी सरकार में सत्ता के भीतर जलते दीप और बुझती एकता
दीपोत्सव या ‘विभोत्सव’? — योगी सरकार में सत्ता के भीतर जलते दीप और बुझती एकता
अयोध्या का दीपोत्सव जहाँ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उत्सव होना था, वहीं यह आयोजन योगी सरकार की गुटबाज़ी, प्रभुत्ववादी प्रवृत्ति और संगठनात्मक दरार का प्रतीक बन गया।
लेखक: मनोज श्रीवास्तव /
लखनऊउत्तर प्रदेश की सत्ता की राजनीति में इस बार दीपों का उजाला भी अंधकार की छाया से बच नहीं पाया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा आयोजित अयोध्या का नौवां दीपोत्सव, जो रामराज्य के प्रतीक के रूप में गढ़ा गया था, अब भाजपा सरकार की गहराती गुटबाज़ी का मंच बन गया है।
मुख्यमंत्री के विज्ञापन में दोनों उपमुख्यमंत्रियों—केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक—के नाम न होना केवल एक ‘चूक’ नहीं, बल्कि सत्तारूढ़ दल के भीतर पनप रही प्रभुत्व की राजनीति का संकेत है।
योगी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बनाम संगठन का अनुशासन
योगी आदित्यनाथ ने सत्ता में आने के बाद से ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को शासन की धुरी बना दिया है। अयोध्या दीपोत्सव इसका सबसे बड़ा प्रतीक है।
यह आयोजन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि एक वैचारिक अभियान है—“रामराज्य की भूमि से योगीराज का संदेश।”
परंतु इसी अभियान के प्रचार में जब डिप्टी सीएम के नाम ही गायब कर दिए गए, तो यह स्पष्ट हो गया कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का यह दीप अब व्यक्तिगत ब्रांडिंग का माध्यम बन चुका है।
विज्ञापन में प्रभारी मंत्री सूर्य प्रताप शाही और पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह के नाम दिखे, पर दोनों डिप्टी सीएम के नहीं—यह एक राजनीतिक संदेश था: सत्ता के भीतर अब ‘योगी टीम’ और ‘बाकी सरकार’ दो अलग ध्रुव बन चुके हैं।
डिप्टी सीएम की नाराज़गी: पद की नहीं, अस्मिता की
केशव मौर्य और ब्रजेश पाठक दोनों भाजपा के लिए सामाजिक समीकरणों के प्रतीक हैं—एक पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधि, दूसरा सवर्ण नेतृत्व का चेहरा।
लेकिन जब इन दोनों को बार-बार प्रमुख आयोजनों से बाहर रखा जाता है, तो यह संकेत देता है कि भाजपा के भीतर ‘संतुलन’ की जगह अब ‘एकल प्रभुत्व’ की सोच ने स्थान ले लिया है।
इस घटना के बाद दोनों उपमुख्यमंत्रियों ने अपने अयोध्या जाने के कार्यक्रम रद्द कर दिए—यह प्रतीकात्मक ‘साइलेंट रिवोल्ट’ था, जिसे सत्ता गलियारों में हर कोई समझ गया।
सूत्र बताते हैं कि सरकार के प्रमुख कार्यक्रमों में अक्सर यही दो नेता अनुपस्थित पाए जाते हैं, जबकि सुरेश खन्ना या स्वतंत्र देव सिंह मंच साझा करते हैं।
इससे यह धारणा गहराती जा रही है कि सरकार के भीतर राजनीतिक असमानता पनप रही है।
दीपोत्सव का प्रतीकवाद टूटा
दीपोत्सव का उद्देश्य था—आस्था, सांस्कृतिक गौरव और एकता का संदेश।
परंतु विज्ञापन विवाद ने यह सिद्ध कर दिया कि यह आयोजन अब आध्यात्मिक आयोजन नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रदर्शन बन चुका है।
राम के नाम पर दीये जलाने वाली सरकार के भीतर ही जब विश्वास की लौ बुझने लगे, तो यह दीपोत्सव नहीं, ‘विभोत्सव’ प्रतीत होता है।
विपक्ष का व्यंग्य और बढ़ती चुनौती
अखिलेश यादव ने तंज कसते हुए पूछा, “क्या यूपी सरकार में उपमुख्यमंत्री पद समाप्त कर दिए गए हैं?”
उनकी यह टिप्पणी केवल व्यंग्य नहीं, बल्कि संगठन की दरारों को उभारने की राजनीतिक रणनीति है।
बिहार चुनाव में भी यह प्रसंग उठना तय है—जहाँ भाजपा दोनों डिप्टी सीएम को स्टार प्रचारक बना रही है, वहीं यूपी में उनके नाम तक नहीं छापे जा रहे।
यह विरोधाभास भाजपा की ‘समानता की राजनीति’ को गहरे सवालों में डाल देगा।
भाजपा की सबसे बड़ी चिंता : एकता का क्षरण
भाजपा ने हमेशा संगठन की एकता और अनुशासन को अपनी पहचान बताया।
परंतु योगी की बढ़ती लोकप्रियता, केशव मौर्य की सामाजिक जड़ें और ब्रजेश पाठक की प्रशासनिक उपस्थिति—तीनों अब समानांतर रेखाओं में चल रहे हैं।
यदि यह असंतुलन गहराता गया, तो 2027 में भाजपा के लिए वही संकट खड़ा हो सकता है जो 2024 में दिखा—जनसमर्थन तो है, लेकिन दल के भीतर एकता नहीं।
दीप जले, पर साया भी बढ़ा
अयोध्या के दीपोत्सव में दीपों का समुद्र था, पर सत्ता के गलियारों में ‘अहम’ की अंधेरी लहरें भी थीं।
योगी सरकार को यह समझना होगा कि रामराज्य का आदर्श केवल दीयों से नहीं, मनों के संतुलन से बनता है।
अन्यथा आने वाले चुनावों में यही दीपोत्सव भाजपा के लिए “आंतरिक विभाजन का उजाला” बन जाएगा।
“राम की नगरी में दीपों की जगमगाहट है,
पर सत्ता की नगरी में छाया का अंधकार भी बढ़ा है।

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