वन्देमातरम, रविंद्र नाथ टैगोर , जन गण मन समर्पण की त्रिवेणी

 

वंदेमातरम् श्रृंखला – 30वीं कड़ी
“रवीन्द्रनाथ टैगोर, जन-गण-मन और वंदेमातरम् : राष्ट्रीय चेतना के सगीत!भूमिका : गीतों से निर्मित राष्ट्र की आत्मा

जब कोई राष्ट्र जन्म लेता है, तो वह केवल सीमाओं के नक्शे पर नहीं उगता; वह पहले उगता है स्मृतियों, शब्दों, भावनाओं और गीतों में। भारत का स्वाधीनता संघर्ष किसी शस्त्रागार में नहीं, बल्कि कवि हृदयों के कक्ष में गढ़ा गया था। जिस देश की क्रांति का शंखनाद बंकिम चंद्र की डेस्क पर लिखे “वंदे मातरम्” से हुआ, उसी देश की आत्मा को महामानव, कवि, दार्शनिक, महर्षि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने “जन-गण-मन” के माधुर्य से स्वर दिया।

भारत का इतिहास केवल युद्धों की कहानी नहीं; यह गीतों, कविताओं और संस्कारों की वह प्रकाशगाथा है, जिसने परतंत्र भारत को मानस में आज़ाद कर दिया। इसीलिए भारत के स्वतंत्रता-संग्राम की दो सबसे ऊँची शिखरध्वजियाँ—वंदे मातरम् और जन-गण-मन—साहित्य और संगीत के माध्यम से राष्ट्र-निर्माण की अमर यात्रा का प्रतिनिधित्व करती हैं।

रवीन्द्रनाथ टैगोर कौन थे? शब्दों के तपस्वी

टैगोर केवल कवि नहीं थे, वे राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना के ऋषि थे। उन्होंने लिखा था—

“राष्ट्र शरीर से नहीं, आत्मा से बनता है।”

उनकी रचनाएँ स्वतंत्रता की हिंसात्मक नहीं, बल्कि मानवीय और आध्यात्मिक जड़ें पोषित करती हैं। उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद की भावनाओं को इस तरह संवारा कि वह संकीर्ण न रहकर वैश्विक बना; विरासत में मिली कुटिल प्रतिस्पर्धा की जगह मानवता के समन्वित संगम को स्थापित किया।

टैगोर के विचारों में राष्ट्र प्रेम = मानव प्रेम था। यही कारण है कि वे हिंसात्मक राष्ट्रवाद के आलोचक भी थे, परंतु राष्ट्र-चेतना के शाश्वत प्रहरी भी। यदि बंकिमचंद्र भारतीयों की नसों में ज्वालामुखी भरते हैं, तो टैगोर उसमें हिमालय की शीतलता जोड़ते हैं—दोनों की आवश्यकता, दोनों की महिमा।


वंदे मातरम् : राष्ट्र की ओजस्वी आत्मा

19वीं शताब्दी के अन्त में जब भारत गुलामी की निराशा में धँस रहा था, तब बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के कलम से अवतरित हुआ ‘वंदे मातरम्’। आनंदमठ उपन्यास में जन्मा यह गीत क्रांति की वैदिक ध्वनि बन गया। इस गीत की महत्ता केवल शब्दों में नहीं थी, बल्कि उसके मर्म में निहित ‘मां-भाव’ में थी।

यह गीत भारतभूमि को सिर्फ भू-खंड नहीं, ब्रह्म-शक्ति के रूप में स्थापित करता है—

“त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी…”
“त्वं हि कमला…”

अर्थात भारतभूमि शक्ति, समृद्धि और मातृ-करुणा का अर्चन। यही भाव स्वतंत्रता सेनानियों को मरने का नहीं, बलिदान का साहस देता है। इसलिए आज भी ‘वंदे मातरम्’ सुनते ही रक्त में राष्ट्र-गौरव की ज्वाला धधकती है।

जन-गण-मन : राष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना

वंदे मातरम् जहाँ शक्ति और वीरत्व का आदर्श है, वहीं जन-गण-मन राष्ट्र की आत्मा को भाव-शांति और एकत्व के सौंदर्य में रचता है। टैगोर ने इस गीत में किसी भूगोल, किसी जाति, किसी भाषा या किसी शासन का गुणगान नहीं किया। उन्होंने सीधे उस ‘अधिपति’ का स्मरण किया, जो भारत की आत्मा का नियंता है—लोकनायक नहीं, लोकविधाता।

गीत में लिखा है—

“जन-गण-मन-अधिनायक जय हे…”
इस ‘अधिनायक’ को ब्रिटिश बादशाह समझने की भूल कुछ लोगों ने की, पर टैगोर ने स्पष्ट किया—
“यह ईश्वर से प्रेरित उस शक्ति का स्मरण है, जो जनता के मन में निवास करती है और उनका मार्गदर्शन करती है।”

अतः यह गीत किसी राजा का नहीं, जन-चेतना के ईश्वरत्व का गीत है।

दो गीत, एक राष्ट्र: पूरक, प्रतिस्पर्धी नहीं

अज्ञानवश कुछ लोग दोनों गीतों को प्रतिस्पर्धी मानते हैं, जबकि यह राष्ट्र-भावना के दो अलग स्वर हैं—

गीत स्वर भावना
वंदे मातरम् उग्र ओज क्रांतिपथ, बलिदान, वीरता
जन-गण-मन शान्त गेयता एकता, करुणा, मानवता

इन्हें एक ही राष्ट्रदेवी के दो भिन्न रूप समझिए—दुर्गा और सरस्वती। एक रक्षा, दूसरा ज्ञान। यदि राष्ट्र की रक्षा नहीं होगी तो संस्कृति मिट जाएगी, और यदि संस्कृति मिट गई तो राष्ट्र का अस्तित्व अर्थहीन हो जाएगा।

टैगोर स्वयं ‘वंदे मातरम्’ के सम्मानकर्ता थे। 1906 के कांग्रेस अधिवेशन में जब वंदे मातरम् के साथ जन-गण-मन गाया गया, तो उन्होंने प्रतिवाद नहीं, बल्कि संगीतात्मक सहअस्तित्व का समर्थन किया।

टैगोर और वंदे मातरम् : साहित्यिक पारिवारिकता

बंगाल ने दो अमर गीत दिए—वंदे मातरम् (बंकिम) और जन-गण-मन (टैगोर)। दोनों की जड़ें बंगाली नवजागरण में थीं। दोनों गीत संस्कृतनिष्ठ बोध और वैदिक भावों से संपन्न। टैगोर का संगीत भी राग पर आधारित था, इसलिए ‘जन-गण-मन’ को विश्व के श्रेष्ठ राष्ट्रगानों में विशिष्ट स्थान मिलता है।

राष्ट्रवाद की ऊँचाई साहित्य में भी तभी टिकती है जब उसका भाव किसी एक वर्ग या समय में सीमित न रहकर युग-धर्म बन जाए। ये दोनों गीत आज भी देश के हर वर्ग, हर उम्र और हर भाषा के मन की ध्वनि हैं—यह इनकी अमरता का प्रमाण है।

ब्लैक वाटर से नोबेल तक—एक समन्वयकारी दृष्टा

रवीन्द्रनाथ टैगोर को साहित्य के लिए 1913 में नोबेल पुरस्कार मिला। यह भारत की सांस्कृतिक वैश्विकता का उद्घोष था। इसी समय वे पश्चिम की राष्ट्रवादी कट्टरता देखते हैं, जहाँ राष्ट्र एक हिंसक अहं बन चुका था। उन्होंने चेताया—

“राष्ट्र की आत्मा को लोहे की दीवारों में मत बाँधो; वह सरल, आत्मीय और मानवता का पथ प्रदर्शक होना चाहिए।”

इस चेतावनी का मतलब भारत को निर्बल बनाना नहीं था, बल्कि उसका राष्ट्रवाद अहंकारी नहीं, आध्यात्मिक बने। उनकी दृष्टि में भारत की वास्तविक शक्ति यही थी।

दो गीतों का राजनैतिक सफर : संविधान से संसद तक

1947 में जब राष्ट्रगान की चर्चा उठी, तो टैगोर का गीत उसकी सार्वभौमिकता के कारण चुना गया।
लेकिन वंदे मातरम् को नकारा नहीं गया। संविधान सभा ने इसे “राष्ट्रीय गीत” का दर्जा दिया और स्पष्ट रूप से कहा—

“राष्ट्रीय सम्मान में यह राष्ट्रगान के समान है।”

बहुत लोगों को नहीं पता कि संविधान सभा में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा—

“वंदे मातरम् ने स्वतंत्रता संघर्ष में जो योगदान दिया, उसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता।”

इसलिए आज जब हम दोनों गीतों का गायन करते हैं, तब यह केवल परम्परा नहीं, इतिहास का ऋण है।

वंदे मातरम्, जन-गण-मन और आज के भारत की चुनौती

21वीं सदी का भारत स्वतंत्र है, प्रगतिशील है, पर उसकी सांस्कृतिक चेतना पर विमर्श, विवाद और विकृति का कुहासा भी मंडराता रहता है।
कुछ समूह आज भी इन गीतों में विभाजन खोजते हैं—
किसका राष्ट्रवाद, किसकी पहचान, किसका ईश्वर?
परंतु इन गीतों का सार यही है—
राष्ट्र शरीर नहीं, ‘हम सब’ हैं।
राष्ट्र किसी व्यक्ति का शासन नहीं, सामूहिक चेतना का प्रकाश है।

आज भारत डिजिटल, वैश्विक और बौद्धिक शक्ति बन रहा है; हमें तकनीक में प्रगति के साथ संस्कृति में भी ऊँचाई चाहिए। यदि विज्ञान हमारी भुजाएँ है, तो संस्कृति हमारी दृष्टि—यह दृष्टि इन गीतों से ही मिलती है।समापन : भारत एक गीत है

भारतीय सभ्यता की सम्पूर्ण यात्रा गीतात्मक रही है—
· ऋग्वेद मंत्र-छंदों में
· भक्ति आंदोलनों के कीर्तन में
· स्वतंत्रता आंदोलन की कविताओं में
· आधुनिक लोकतंत्र के राष्ट्रगान में

भारत को तलवार ने नहीं, गीता, उपनिषद, सूफी भजनों और क्रांतिकारी गीतों ने जोड़ा है।

इसलिए “वंदे मातरम्” हमारा शौर्य है, “जन-गण-मन” हमारी करुणा।
एक हमें युद्ध की प्रेरणा देता है, दूसरा शांति की दिशा।
एक राष्ट्र-शक्ति की अग्नि है, दूसरा राष्ट्र-प्राण की शीतलता।

भारत दोनों है—शक्ति और शांति

इसीलिए, जब हम कहते हैं—

“वंदे मातरम्!”

तो उससे पहले और बाद में हम अनुभव करते हैं—

“जन-गण-मन…”

दोनों मिलकर कहते हैं—भारत माता की जय!

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