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शनिवार, 13 दिसंबर 2025

शीशियों में बंद ज़हर और काँपती राष्ट्र की नवजात आवाज़


 

शीशियों में बंद ज़हर और काँपती राष्ट्र की नवजात आवाज़

(सम्पादकीय)

किसी भी सभ्य राष्ट्र की सबसे पहली पहचान उसकी आने वाली पीढ़ी होती है। बच्चों की हँसी, युवाओं के सपने और समाज की नैतिक चेतना—इन्हीं से राष्ट्र का भविष्य आकार लेता है। लेकिन जब वही भविष्य नशे की शीशियों में बंद ज़हर से धीरे-धीरे दम तोड़ने लगे, तब यह केवल एक आपराधिक घटना नहीं रहती, बल्कि राष्ट्र के अस्तित्व पर सीधा प्रहार बन जाती है। कोडीन युक्त कफ सिरप कांड ने आज पूरे उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश की उस नवजात आवाज़ को काँपने पर मजबूर कर दिया है, जो कल राष्ट्र की रीढ़ बनने वाली थी।

यह कांड कोई आकस्मिक अपराध नहीं है। यह वर्षों से पल रहे उस संगठित तंत्र का परिणाम है, जिसमें लालच, लापरवाही और सत्ता-तंत्र की शिथिलता एक-दूसरे में घुलकर समाज के लिए ज़हर बन गई। जौनपुर, बस्ती, वाराणसी, गोरखपुर, लखनऊ से लेकर सीमावर्ती ज़िलों तक फैला यह नेटवर्क इस बात का प्रमाण है कि नशे का यह कारोबार किसी एक जिले या कुछ अपराधियों तक सीमित नहीं, बल्कि राज्यव्यापी और अंतरराज्यीय सिंडिकेट के रूप में विकसित हो चुका था।

सबसे भयावह तथ्य यह है कि जिस पदार्थ का निर्माण चिकित्सा के उद्देश्य से हुआ था, वही आज युवाओं और किशोरों के लिए नशे का सस्ता हथियार बन गया। कोडीन युक्त कफ सिरप, जिसे डॉक्टर की पर्ची और नियंत्रित मात्रा में ही बेचा जाना चाहिए, खुले बाज़ार में ऐसे घूम रहा था मानो यह साधारण शरबत हो। सवाल यह नहीं है कि तस्कर दोषी हैं—यह तो स्वाभाविक है। असली सवाल यह है कि प्रशासन, स्वास्थ्य विभाग, ड्रग कंट्रोल और पुलिस इतने वर्षों तक क्या कर रहे थे?

जब एक ही जिले में हज़ारों-लाखों बोतलों की आवाजाही हो रही थी, तब स्टॉक रजिस्टर, बिक्री रिकॉर्ड और ट्रांसपोर्टेशन दस्तावेज़ किसने देखे? क्या यह संभव है कि इतनी बड़ी मात्रा में अवैध सप्लाई बिना किसी अंदरूनी संरक्षण के चल रही हो? यहाँ लापरवाही नहीं, बल्कि संदिग्ध मौन दिखाई देता है। और यह मौन ही किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे घातक होता है।

ईडी की छापेमारी और जांच ने इस कड़वे सच को उजागर किया है कि नशे का यह धंधा केवल सड़क-छाप अपराधियों द्वारा नहीं, बल्कि सफेदपोश ढाँचे के सहारे फल-फूल रहा था। फार्मा फर्में, मेडिकल एजेंसियाँ, फर्जी बिलिंग, बैंकिंग लेन-देन और अंतरराष्ट्रीय लिंक—यह सब किसी फिल्म की कहानी नहीं, बल्कि आज की भारतीय सच्चाई का वह हिस्सा है, जिसे हम अक्सर देखने से कतराते हैं।

स्वास्थ्य विभाग यह कहकर अपने दायित्व से नहीं बच सकता कि “अब तक मौत का कोई प्रमाण नहीं है।” क्या किसी राष्ट्र की चेतना केवल मौत के आँकड़ों से मापी जाएगी? नशे में डूबता युवा, अपराध की ओर बढ़ता किशोर, और समाज से कटता श्रमिक—क्या ये मौत से कम त्रासदी हैं? नशा धीरे मारता है, और इसकी सबसे बड़ी मार होती है—राष्ट्र की नैतिक शक्ति पर।

आज ज़रूरत है कि इस कांड को केवल पुलिसिया कार्रवाई तक सीमित न रखा जाए। यह नीतिगत, प्रशासनिक और सामाजिक आत्ममंथन का विषय है। ड्रग कंट्रोल व्यवस्था की पूरी संरचना पर पुनर्विचार होना चाहिए। क्या हमारे पास वास्तविक समय में दवाओं की ट्रैकिंग की कोई प्रभावी प्रणाली है? यदि नहीं, तो क्यों? जब डिजिटल इंडिया की बात होती है, तब दवा सप्लाई चेन अब भी काग़ज़ों के सहारे क्यों चल रही है?

साथ ही, जवाबदेही तय करना अनिवार्य है। जिन अधिकारियों की निगरानी में यह सब हुआ, उनकी भूमिका की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। केवल छोटे कर्मचारियों को निलंबित कर देने से व्यवस्था शुद्ध नहीं होती। जब तक ऊपरी स्तर पर दंड का भय नहीं होगा, तब तक ऐसे कांड बार-बार जन्म लेते रहेंगे।

समाज की भी जिम्मेदारी कम नहीं है। हमने नशे को अक्सर “व्यक्तिगत कमजोरी” कहकर टाल दिया। लेकिन जब नशा संगठित व्यापार बन जाए, तब यह व्यक्तिगत नहीं, राष्ट्रीय समस्या बन जाती है। परिवार, विद्यालय, सामाजिक संगठन और धार्मिक संस्थाएँ—सभी को मिलकर युवाओं को यह समझाना होगा कि नशा केवल शरीर नहीं, चरित्र और भविष्य को भी नष्ट करता है।

यह भी कटु सत्य है कि सीमावर्ती क्षेत्रों और अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क से जुड़ाव ने इस कांड को और भयावह बना दिया। जब नशे का धन सीमा पार जाता है, तब वह केवल अपराध नहीं रहता, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न बन जाता है। ऐसे मामलों में कठोरतम कानूनों का प्रयोग और त्वरित न्याय अनिवार्य है।

आज आवश्यकता है शून्य सहनशीलता (Zero Tolerance) की। न फार्मा कंपनियों के लिए नरमी, न अधिकारियों के लिए संरक्षण और न ही राजनीतिक दबावों के लिए कोई जगह। राष्ट्र तभी सुरक्षित रहेगा, जब उसके कानून निर्भीक होंगे और उनका क्रियान्वयन निष्पक्ष।

“शीशियों में बंद ज़हर” केवल कफ सिरप की बोतलों में नहीं है; वह उस सोच में भी है, जो मुनाफे के लिए पीढ़ियों को कुर्बान कर देती है। और “काँपती राष्ट्र की नवजात आवाज़” केवल बच्चों की नहीं, बल्कि उस लोकतांत्रिक चेतना की है, जो हमसे जवाब मांग रही है।

यदि आज भी हमने इस चेतावनी को नहीं सुना, तो कल इतिहास हमें माफ़ नहीं करेगा। यह समय है—केवल अपराधियों को पकड़ने का नहीं, बल्कि पूरी व्यवस्था को झकझोरने का। राष्ट्र की नवजात आवाज़ को स्थिर और सशक्त बनाने के लिए, इस ज़हर के हर स्रोत को नष्ट करना ही होगा।

लेखक : राजेन्द्र नाथ तिवारी

राष्ट्रवादी लेखक, विचारक एवं सम्पादक

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