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गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

न्यायिक सक्रियता बनाम राजनीतिक उन्माद: जस्टिस स्वामीनाथन और 107 विपक्षी सांसदों की मनोविकृति

 वैचारिक विद्रूपता में लिप्त अधिकाश जनप्रतिनिधि/संसद

जस्टिस स्वामीनाथन और 107 विपक्षी सांसदों की मनोविकृति: 






तमिलनाडु में एक विशेषपकार कारती धार्मिक संकट खड़ा हो गया है यह संकट मंदिर बनाम मस्जिद काहलो यह संकट हजार वर्ष पुराना मंदिर और 300 वर्ष पुरानी दरगाह को लेकर के हैं तत्कालीन सरकारों ने मंदिर पर दीपक जलाना मना कर दिया था जस्टिस आर विजय कुमार ने कहा है कि मंदिर पर दीपक ने जलाने से नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और मजार पर दीपक अनिवार्यता नहीं है परंतु राजनीति हो रही है

लोकतंत्र तंत्र में न्यायपालिका और संसद—दोनों ही सत्ता-संरचना के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। किंतु जब इन दोनों में से कोई एक संवैधानिक मर्यादाओं से विचलित होकर ‘भावनात्मक सक्रियता’ को बुद्धि और विधि के ऊपर रख देता है, तब परिणाम न केवल राजनीतिक अस्थिरता होते हैं बल्कि लोकतांत्रिक चेतना पर भी गहरी चोट लगती है। जस्टिस स्वामीनाथन की टिप्पणियाँ और 107 विपक्षी सांसदों का संगठित प्रतिक्रिया-चक्र इसी विचलन का नवीन उदाहरण है—एक ऐसी मनोविकृति जिसे राजनीतिक विवेकहीनता, नैरेटिव-निर्माण का दबाव और वैचारिक नशा—तीनों मिलकर जन्म देते हैं।

वस्तुतः यह विवाद किसी एक निर्णय का नहीं, बल्कि मानसिक प्रवृत्ति का है। भारतीय न्यायशास्त्र में न्यायाधीश को निष्पक्षता का योगी कहा गया है—वह जो स्वयं की मान्यता, निजी अनुभूति अथवा राजनीतिक संस्कारों को निर्णय के मार्ग में न आने दे। परंतु जब कोई न्यायिक व्यक्तित्व सोशल-एक्टिविस्ट की भूमिका में उतरने लगे, जनमत के आधार पर नैतिकता का निर्धारण करे, और पब्लिक ओपिनियन को कानून से ऊपर रख दे, तब यह न्याय की मूल आत्मा को नुकसान पहुँचाता है। जस्टिस स्वामीनाथन की स्थिति में यही दिखाई देता है—एक प्रकार की न्यायिक आत्म-उत्सुकता, जिसमें विचारधारात्मक आग्रह, सुर्खियों की चाह और संवैधानिक संतुलन के प्रति उपेक्षा का अदृश्य मिश्रण मौजूद है। यह मनोविकृति तब और तीव्र होती है जब न्याय की कुर्सी को सामाजिक विमर्श की कुर्सी समझ लिया जाता है।

दूसरी ओर, 107 विपक्षी सांसदों का सामूहिक उग्र-विरोध भी वस्तुतः इसी मानसिक विकृति का विस्तार है। विपक्ष का दायित्व संविधान की रक्षा का है, न कि संवैधानिक संस्थाओं पर दबाव बनाकर अपने राजनीतिक कथानक को स्थापित करना। किंतु वर्तमान विपक्ष उस वास्तविक विपक्ष की जगह एक भावनात्मक भीड़ में परिवर्तित हो चुका है — जहाँ तर्क, तथ्य और राष्ट्रीय हित की जगह  आत्म विचलन ने ले ली है। संसद के भीतर उनका आचरण कई बार स्वच्छंदता की सीमा तक पहुँच जाता है: आरोप, आक्रोश, नारे और निराधार संदेह—यह सब राजनीति नहीं, राजनीतिक हिस्टीरिया है।

उनकी यह मनोविकृति तीन कारणों से निर्मित होती है—
पहला, लंबे समय से सत्ता-विमुखता से उपजी हताशा, जिसने उन्हें विमर्श की जगह भ्रम पैदा करने में अधिक दक्ष बना दिया है।
दूसरा, टुकड़ों में बँटी वैचारिकता, जहाँ हर दल अपनी अलग चोट झेल रहा है, इसलिए किसी भी संवैधानिक संस्था पर प्रहार करना उन्हें ‘तत्कालिक राजनीतिक ऑक्सीजन’ देता है।
तीसरा, विदेशी प्रायोजित मानवाधिकार और सेकुलरवाद के उन विकृत प्रतिमानों की नकल, जो भारतीय समाज और संविधान की वास्तविक संरचना से मेल नहीं खाते।

जस्टिस स्वामीनाथन और विपक्षी सांसद—दोनों का यह मानसिक विचलन एक समान बिंदु पर जाकर मिलता है: लोकतंत्र के भीतर लोकतंत्र को कमजोर करना। न्यायपालिका का राजनीतिकरण और राजनीति का न्यायिकरण—दोनों देश के लिए घातक हैं। भारत की सभ्यता-चेतना ‘धर्म’ अर्थात संतुलन पर चलती है; यह संतुलन जब टूटता है, तब निर्णय भी पक्षपाती होते हैं और राजनीति भी रोगग्रस्त।

यही कारण है कि राष्ट्रवादी दृष्टि से यह आवश्यक है कि न्यायपालिका अपनी मर्यादा में रहे और विपक्ष अपने दायित्व में। लोकतंत्र का स्वास्थ्य न तो भावनात्मक न्याय से सुधरता है और न ही उन्मादी राजनीति से—यह तभी सुरक्षित रहता है जब मनोविकृति की जगह विवेक की जीत हो।

अति सर्वत्र वर्जयेत का मंतव्य सब पर लागू होता है 

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