क्या सचमुच कांग्रेस वैचारिक हिस्टीरिया का शिकार हो चुकी है?
मनोजश्रीवास्तव
राजनीति की अंधी गली की अंतिम यात्री बनना कांग्रेस को अभी प्रेत हैं.
कांग्रेस आज भारतीय राजनीति का वह बीमार भवन बन चुकी है जिसकी दीवारें खड़ी दिखाई देती हैं, पर भीतर से दीमक खा चुकी हैं। नेहरूवादी ढांचे की बात करने वाले आज उसी ढांचे को “पुराना और अप्रासंगिक” कह रहे हैं—यह नहीं तो हिस्टीरिया और क्या है?
जब पार्टी का नेता रोज सुबह उठकर नया विचार दे और शाम तक खुद ही उसे नकार दे, तो समझ लीजिए कि समस्या राजनीतिक नहीं, मानसिक है।
कांग्रेस आज भारतीय राजनीति का वह बीमार भवन बन चुकी है जिसकी दीवारें खड़ी दिखाई देती हैं, पर भीतर से दीमक खा चुकी हैं। नेहरूवादी ढांचे की बात करने वाले आज उसी ढांचे को “पुराना और अप्रासंगिक” कह रहे हैं—यह नहीं तो हिस्टीरिया और क्या है?
जब पार्टी का नेता रोज सुबह उठकर नया विचार दे और शाम तक खुद ही उसे नकार दे, तो समझ लीजिए कि समस्या राजनीतिक नहीं, मानसिक है।
राम जन्मभूमि पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया—देश ने स्वागत किया; कांग्रेस ने उस फैसले में भी “ध्रुवीकरण” खोज लिया। 370 हटाया गया—कश्मीर ने राहत की सांस ली; कांग्रेस बोली—“ये लोकतंत्र का अंत है।” CAA आया—शरणार्थियों को कानून मिला; कांग्रेस चीखी—“भारत विभाजित हो गया!” जिस दल की राजनीति तीन लगातार गलत भविष्यवाणियों पर टिकी हो, वह सामान्य नहीं कहा जा सकता। तमिलनाडु के थिरुपरंकुन्द्रम पहाड़ी वाले मामले में अदालत ने पूरी तरह तथ्य-आधारित निर्णय दिया। साफ कहा—पहाड़ी मंदिर की है, दरगाह ऐतिहासिक रूप से मौजूद है, किसी को विस्तारवाद की अनुमति नहीं। पर कांग्रेस ने इसे भी “हिन्दूकरण की साज़िश” बता डाला—मतलब अदालत का फैसला भी अगर कांग्रेस को सांप्रदायिक लगता है, तो समस्या भारत में नहीं, कांग्रेस की मानसिक संरचना में है।
कांग्रेस का वैचारिक हिस्टीरिया सबसे ज्यादा हिंदू विषयों पर फूटता है।कभी वे कहते हैं—“हम भी शिवभक्त हैं”,फिर कहते हैं—“हिंदू आतंकवाद दुनिया के लिए खतरा है”,फिर कहते हैं—“सनातन को समाप्त कर देना चाहिए”,और फिर अचानक—“हमारा कोई धर्म नहीं, हम धर्मनिरपेक्ष हैं।”ऐसे विरोधाभास एक सामान्य राजनीतिक दल नहीं देता—
ऐसे बयान वही दल देता है जिसे पहचान का संकट निगलने लगा हो।
सबसे मज़ेदार — कांग्रेस को हर जगह फासीवाद दिखता है।अगर मौसम बदला—“फासीवाद”;अगर मीडिया ने सवाल पूछा—“फासीवाद”;अगर जनता ने कांग्रेस को वोट न दिया—“फासीवाद”;अगर अदालत ने कांग्रेस की बात न मानी—“फासीवाद”;मनोविज्ञान में इसे कहते हैं.यानी हर समय लगता है—“कोई हमें समाप्त करने की साज़िश कर रहा है।”यह सोच राजनीति नहीं—मानसिक तनाव का परिणाम होती है।
107 विपक्षी सांसदों का संसद में उन्माद इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है।बिना तथ्य, बिना तर्क, बिना अध्ययन—सिर्फ चिल्लाहट।विपक्ष होना और बात है, पर उन्मादी विपक्ष होना अलग बात है।यह विरोध नहीं—यह घबराहट है, वह भी सामूहिक घबराहट।
कांग्रेस अब “पार्टी लाइन” नहीं चलाती—वह “भीड़ की मनोविकृति” के हिसाब से प्रतिक्रिया देती है। राहुल गांधी इस हिस्टीरिया की धुरी हैं।उनके हर बयान के बाद पूरा दल विश्लेषण करता है—“उन्होंने यह क्यों कहा?”“क्या यह आधिकारिक लाइन है?”“क्या इससे हमारा वोट बैंक खुश होगा?”जब पार्टी नेता से ज्यादा उसके बयान की मनोवैज्ञानिक व्याख्या करने में व्यस्त हो जाए, तो समझिए कि संगठन अब विचार से नहीं, चिंता से चल रहा है।
अंत में सच्चाई एक ही है—कांग्रेस आज भारत की वैचारिक लड़ाई में शून्य है।उसके पास न दृष्टि है, न दिशा; न नेतृत्व है, न लड़ाई की क्षमता।और जहाँ विचार मरता है, वहाँ हिस्टीरिया जन्म लेता है। यही कांग्रेस की वास्तविक स्थिति है—एक वैचारिक अस्पताल, जिसमें हर वार्ड में कोई न कोई नया मानसिक संकट जन्म ले रहा है। भारत आगे बढ़ रहा है, कांग्रेस पीछे भाग रही है, और इस भाग-दौड़ में उसका संतुलन ही नहीं, चेतना भी खो चुकी है।
कांग्रेस का वैचारिक हिस्टीरिया सबसे ज्यादा हिंदू विषयों पर फूटता है।कभी वे कहते हैं—“हम भी शिवभक्त हैं”,फिर कहते हैं—“हिंदू आतंकवाद दुनिया के लिए खतरा है”,फिर कहते हैं—“सनातन को समाप्त कर देना चाहिए”,और फिर अचानक—“हमारा कोई धर्म नहीं, हम धर्मनिरपेक्ष हैं।”ऐसे विरोधाभास एक सामान्य राजनीतिक दल नहीं देता—
ऐसे बयान वही दल देता है जिसे पहचान का संकट निगलने लगा हो।
सबसे मज़ेदार — कांग्रेस को हर जगह फासीवाद दिखता है।अगर मौसम बदला—“फासीवाद”;अगर मीडिया ने सवाल पूछा—“फासीवाद”;अगर जनता ने कांग्रेस को वोट न दिया—“फासीवाद”;अगर अदालत ने कांग्रेस की बात न मानी—“फासीवाद”;मनोविज्ञान में इसे कहते हैं.यानी हर समय लगता है—“कोई हमें समाप्त करने की साज़िश कर रहा है।”यह सोच राजनीति नहीं—मानसिक तनाव का परिणाम होती है।
107 विपक्षी सांसदों का संसद में उन्माद इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है।बिना तथ्य, बिना तर्क, बिना अध्ययन—सिर्फ चिल्लाहट।विपक्ष होना और बात है, पर उन्मादी विपक्ष होना अलग बात है।यह विरोध नहीं—यह घबराहट है, वह भी सामूहिक घबराहट।
कांग्रेस अब “पार्टी लाइन” नहीं चलाती—वह “भीड़ की मनोविकृति” के हिसाब से प्रतिक्रिया देती है। राहुल गांधी इस हिस्टीरिया की धुरी हैं।उनके हर बयान के बाद पूरा दल विश्लेषण करता है—“उन्होंने यह क्यों कहा?”“क्या यह आधिकारिक लाइन है?”“क्या इससे हमारा वोट बैंक खुश होगा?”जब पार्टी नेता से ज्यादा उसके बयान की मनोवैज्ञानिक व्याख्या करने में व्यस्त हो जाए, तो समझिए कि संगठन अब विचार से नहीं, चिंता से चल रहा है।
अंत में सच्चाई एक ही है—कांग्रेस आज भारत की वैचारिक लड़ाई में शून्य है।उसके पास न दृष्टि है, न दिशा; न नेतृत्व है, न लड़ाई की क्षमता।और जहाँ विचार मरता है, वहाँ हिस्टीरिया जन्म लेता है। यही कांग्रेस की वास्तविक स्थिति है—एक वैचारिक अस्पताल, जिसमें हर वार्ड में कोई न कोई नया मानसिक संकट जन्म ले रहा है। भारत आगे बढ़ रहा है, कांग्रेस पीछे भाग रही है, और इस भाग-दौड़ में उसका संतुलन ही नहीं, चेतना भी खो चुकी है।
बताते हैं कांग्रेस नेकिसी को बक्शा ही नहीं, आज फिर भी अपने पर पश्चाताप नहीं वह निरंतर मनोविविकृति का शिकार होती जा रही.
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