वन्दे मातरम् – राष्ट्रगीत नहीं, राष्ट्र-आत्मा का स्वर - कौटिल्य का भारत

Breaking News

Home Top Ad

विज्ञापन के लिए संपर्क करें - 9415671117

Post Top Ad

शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

वन्दे मातरम् – राष्ट्रगीत नहीं, राष्ट्र-आत्मा का स्वर


वन्दे मातरम् – राष्ट्रगीत नहीं, राष्ट्र-आत्मा का स्वर





जब देश की धरती पर पहली बार ऐसा गीत गूँजा कि सिर्फ स्वर नहीं बल्कि आत्मा में खनखनाहट पैदा कर गया, तब यह स्पष्ट हो गया कि यह महज़ एक गीत नहीं था, बल्कि राष्ट्र-भावना की प्रतिमूर्ति था। वन्दे मातरम्— उस गीत का नाम है।इस गीत का जन्म हुआ था बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय की कलम से, जब उन्होंने 1882 में अपना उपन्यास आनंदमठ प्रकाशित किया।शब्द थे सरल: “वन्दे मातरम्, सुजलाम् सुफलाम्…” — और अर्थ था– “शत् शत् हाथों और ऊँचे स्वरों-में गूँजे तेरा नाम, हे मातरम्…”लेकिन इस गीत की कहानी सिर्फ साहित्य की नहीं थी; यह उसी वक्त की थी जब हमारा देश स्वतंत्रता की चोटी पर चढ़ रहा थाशस्त्र नहीं, यह गीत था जिसने जनता के अंदर एकता, त्याग और देशभक्ति की ज्वाला प्रज्वलित की।

स्वतंत्रता संग्राम का गीत, सत्ता-विरोध का चिन्ह,,इस गीत को जन-आंदोलन में तब बुलंद स्वर मिला जब 1896 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार प्रस्तुत किया।1905 के बंग विभाजन के समय यह क्रांति-झंडे की तरह लहरा उठी — ब्रिटिश शासन ने इसे सार्वजनिक गायन से प्रतिबंधित कर दिया।यह प्रतिबंध इस गीत की ताक को और बढ़ा गया — एक प्रकार से इसे स्वतंत्रता-कवच बना दिया गया।जब जनता ने “वन्दे मातरम्” को नारे की तरह, मार्च की तरह, विद्रोह की भाषा की तरह अपनाया — तभी यह गीत आंदोलन का प्रतीक बन गया।

राष्ट्रगान न बन पाने का कारण,,यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य है — वन्दे मातरम् को राष्ट्रगान नहीं बनाया गया। इसके पीछे कई संवेदनशील कारण थे:गीत की भाषा संयोजन थी — संस्कृतांश और बंगला मिश्रित। इस वजह से सार्वभौमिक स्वीकृति में कठिनाई थी।बाद के छंदों में देवी-रूप और अधिक स्पष्ट थे — जिससे बहु-धर्मी, बहु-समुदाय वाले भारत में कुछ विरोध उत्पन्न हुए।जब भारत एक नए गणराज्य के रूप में उभर रहा था, तो आवश्यकता थी एक ऐसा राष्ट्रगीत जो एकता-सर्वसम्मति का प्रतीक बने। और इस भूमिका में सही बैठा था जन गण मन।इस प्रकार 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा ने जन गण मन को राष्ट्रगान घोषित किया और वन्दे मातरम् को राष्ट्रगीत-का दर्जा दिया।

राष्ट्रगीत – लेकिन फिर भी “रोके नहीं” गए थे,,यह न कहना कि वन्दे मातरम् रोक दिया गया— ऐसा नहीं था। बल्कि इसे उसी सम्मान के साथ स्वीकार किया गया, पर राष्ट्रगान के रूप में नहीं चुना गया।राष्ट्रगीत घोषित होने का मतलब है— उसे वह जगह मिल गई जहाँ वह राष्ट्रीय भावना, गौरव और श्रद्धा का प्रतीक बन गया।एक राय में, यही स्थिति इस गीत को और अधिक लोकप्रिय, आत्मीय और भावविह्वल बना गई। कारण?क्योंकि वह अब युद्धगान नहीं, माँ-भूमि-भजन बन गया—जिसे हर नागरिक अपनी तरह से गा सकता है, अपनी तरह से अपन सकता है।

आज भी उतना ही प्रासंगिक,,आज जब हम देश के विभिन्न आयोजनों में वन्दे मातरम् को सुनते हैं, तो यह सिर्फ आदत नहीं— यह स्मरण है।स्मरण है उन लाखों जीवनों का जो “माँ तेरी जय” की पुकार के साथ खुद को समर्पित कर गए।स्मरण है उस विचार-धारा का जो कहती थी कि भारत सिर्फ भौगोलिक सीमा नहीं, ‘मातृभूमि’ है।स्मरण है यह कि स्वतंत्रता कभी मिलती नहीं थी केवल संघर्ष से, बल्कि संघर्ष के भीतर एकता, संकल्प और शब्दों की शक्ति से।“वन्दे मातरम्” आज भी हमें याद दिलाती है — :

हमारी मातृभूमि, हमारी भाषा, हमारी संस्कृति, हमारे प्रयास— ये सब हमें एकजुट करते हैं.

जब देश ने राष्ट्रगान चुना, तो उसने स्पष्ट कर दिया —“जन गण मन” राष्ट्रगान बनेगा, पर “वन्दे मातरम्” उसकी आत्मा बनी रहेगी।वन्दे मातरम् को रोका नहीं गया— उसे सम्मानित स्वर से राष्ट्रीय गीत का दर्जा मिला। संक्षिप्त में कहें तो:राष्ट्रगान न हुआ, पर राष्ट्र-गीत बन गया; राष्ट्रगान नहीं पक्का किया गया, पर राष्ट्र-भाव में पहले पहचाना गया।इसलिए जब अगली बार आप वन्दे मातरम् गाएँ, तो केवल सुर मत भरिए — उस विचार, उस भावना, उस त्याग को महसूस कीजिए जिसने भारत को आज़ाद किया।हमारी मातृभूमि को हम नमन करें, और कहें—वन्दे मातरम्!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Bottom Ad