भारत में पत्रकारिता अब पेशा नहीं, बल्कि राष्ट्रधर्म है
राजेन्द्र नाथ तिवारी
भारत में पत्रकारिता कभी शब्दों की नहीं, सत्य की साधना थी।
आज वह साधना धीरे-धीरे मनोरंजन और प्रचार का औजार बनती जा रही है। यह परिवर्तन जितना तीव्र है, उतना ही खतरनाक भी — क्योंकि कलम यदि सत्य से विमुख हो जाए, तो समाज का विवेक अंधकार में चला जाता है। अब यह स्वीकार करने का समय आ गया है कि —भारत में पत्रकारिता अब कोई शौक नहीं, बल्कि राष्ट्रधर्म है। पत्रकारिता का धर्म: सत्य, संयम और साहस पत्रकारिता का पहला धर्म सत्य है, दूसरा संयम, और तीसरा साहस।इन तीनों के अभाव में समाचार केवल शब्दों का व्यापार रह जाता है।
प्राचीन भारत में वाणी को देवी कहा गया — “वाग्देवी” — क्योंकि वाणी का उपयोग तभी पुण्य है जब वह लोकहित में हो। आज पत्रकारिता को भी उसी देवी के मंदिर की तरह पवित्र बनाया जाना चाहिए। कलम केवल लिखने का उपकरण नहीं, वह जनचेतना का दीपक है।
जब सत्य बिकने लगे, तब लोकतंत्र बीमार हो जाता हैभारत के लोकतंत्र की रीढ़ — स्वतंत्र पत्रकारिता — आज सूचना उद्योग में बदल चुकी है।हर कस्बे में प्रेस क्लब, हर गली में रिपोर्टर, पर प्रश्न यह है कि सत्य कहाँ है?जब बिना योग्यता, बिना प्रशिक्षण, बिना नैतिकता के लोग “पत्रकार” बनने लगें,तो समाचार माध्यम जनसंचार नहीं, जनभ्रम का माध्यम बन जाता है।पत्रकार का कार्य सत्ता की आलोचना नहीं, सत्य का उद्घाटन है।परंतु जब सत्य ही “रेट कार्ड” पर बिकने लगे, तो जनता की चेतना गुलाम हो जाती है।इसलिए पत्रकारिता को अब केवल स्वतंत्रता नहीं, उत्तरदायित्व की भी आवश्यकता है।
पत्रकारिता के लिए योग्यता क्यों आवश्यक है_जब डॉक्टर बनने के लिए एमबीबीएस और वकील बनने के लिए एलएलबी आवश्यक है,तो पत्रकार बनने के लिए कोई न्यूनतम योग्यता क्यों नहीं?कौटिल्य का मत है कि पत्रकारिता के लिए प्रमाणित प्रशिक्षण,
नैतिकता परीक्षण, और राष्ट्रीय पंजीकरण आवश्यक होना चाहिए।बिना योग्यता के पत्रकारिता वैसी ही है जैसे बिना कम्पास के नाविक —जो दिशा नहीं जानता, पर समुद्र में नाव चला रहा है।जनता का विवेक ऐसी नौकाओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।
पुरुषार्थ का धर्म: निर्भयता और निष्पक्षता _भारतीय परंपरा में “पुरुषार्थ” केवल परिश्रम नहीं, बल्कि सत्य के लिए संघर्ष है।पत्रकार का पुरुषार्थ भी वही है —जो सत्ता के सामने झुके नहीं, समाज के प्रति पक्षपाती न हो, और जनता से विमुख न रहे।जब पत्रकार निर्भय हो, तब ही लोकतंत्र निडर रहता है।जब पत्रकार निष्पक्ष हो, तब ही राष्ट्र एकजुट रहता है।
पत्रकार का धर्म किसी दल या व्यक्ति के प्रति निष्ठा नहीं —बल्कि भारत की आत्मा के प्रति निष्ठा है। जो कलम इस आत्मा के लिए चलती है, वही राष्ट्र की रक्षा करती है।
पत्रकारिता अब सेवा नहीं, साधना होनी चाहिए -पश्चिम ने मीडिया को “प्रोफेशन” कहा, पर भारत में यह “सेवा” और “साधना” रही है।गणेशशंकर विद्यार्थी, बालगंगाधर तिलक, बाबूराव विष्णु पराड़करजैसेलोगों_ने पत्रकारिता को सत्याग्रह का उपकरण बनाया — शौक का नहीं।आज आवश्यकता है कि वही तपस्वी भाव पुनः लौटे —जहाँ पत्रकार कलम नहीं, कर्म से राष्ट्रनिर्माण करे।
सनातन दृष्टि से पत्रकारिता
भारतीय दृष्टि में वाणी ब्रह्म ही है —“सत्यं वद, धर्मं चर” केवल आचार वाक्य नहीं, पत्रकार का भी धर्मसूत्र है।
जो पत्रकार सत्य बोलने का साहस रखता है, वही राष्ट्र का प्रहरी है।इसलिए पत्रकारिता को सनातन दृष्टि से पुनः संस्कारित किया जाना चाहिए।समाचार का उद्देश्य “संघर्ष” नहीं, “संस्कार” होना चाहिए।पत्रकार का उद्देश्य “टीआरपी” नहीं, “सत्याराधना” होना चाहिए।
कलम की दिशा ही राष्ट्र की दिशा ~जब कलम सच्चे हाथों में होती है, तब राष्ट्र समृद्ध होता है;और जब कलम बिके हुए हाथों में पहुँचती है, तब लोकतंत्र कमजोर पड़ता है।आज भारत को पत्रकारों की नहीं, राष्ट्रऋषियों की आवश्यकता है —जो शब्दों से शासन को नहीं, समाज को दिशा दें।पत्रकारिता अब पेशा नहीं, प्रतिज्ञा होनी चाहिए —
सत्य, स्वाधीनता और संस्कृति की रक्षा की प्रतिज्ञा।
यदि हर पत्रकार इस भावना से कार्य करे, तो भारत पुनः उस युग में लौट सकता है जहाँ “वाणी ही वेद थी, और समाचार ही संस्कार।”
“कलम यदि सत्य के लिए न झुके, तो वही भारत की सर्वश्रेष्ठ तलवार है।”
कौटिल्य उवाच

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